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26 June, 2020

"धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले..!"

अदरा चढ़े दो दिन हो गया था। देर रात से ही तेज बारिश हो रही थी। तीन बजे भोर में बालेसर काका की नींद टूट गई। ऐसे भी वे रोज़ चार बजे उठ ही जाते थे, मवेशियों को सानी-पानी देने के लिए। लेकिन आज थोड़ा जल्दी उठने का कारण झमरकर पानी का बरसना था। कम से कम दमकल से पटवन के हजार रुपए तो बच ही गए। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि भगवान जब खुश होते हैं तो पानी देते हैं!

काका को भोर में ही में जना जोड़ने दखिनवारी टोला जाना है। अब तो खेती में भी सौ तरह के ताम-झाम हैं। लेवाठ के लिए ट्रैक्टर की व्यवस्था करिए। फिर मजदूरों के टोला में दस बार दौर लगाइए। अइसन मौका पर तो उनका भाव गजबे बढ़ जाता है। और भाव बढ़े भी क्यों नहीं, अब सबके पास बटाई खेत है। पहले ख़ुद का धान रोपेंगे कि गिरहत का।

बिछावन पर बैठेकर वे खैनी मलते हुए सोचने लगे। पहले से ही खाद की महंगाई थी ही। अब डीजल की कीमत भी कमर तोड़ रही है। मजदूरों को बनिहारी के बदले नकदी चाहिए। इतना तक भी रहता तो कोई बात नहीं थी। बुआई के बाद फ़सल बाढ़, सुखाड़, घासकटों, ओला, नीलगाय से बच जाए, तभी खलिहान आ पाती है।

सरकार ने पैक्स के माध्यम से सरकारी रेट पर खरीद की व्यवस्था की है। मने औने-पौने दाम में जब बिचौलिया बनिया सौदा उठा लेते हैं तो सरकारी खरीदारी शुरू होती है। अब जिसको महाजन और दुकानदार का करजा सधाना होता है। कौन उतना दिन इंतजार करेगा? कई बार काका के मूड में आया कि खेतों को बटाई लगा दें। लेकिन हर बार इरादा बदल देते हैं।

नफ़ा होखे चाहे घाटा किसान के लिए खेत तो मां के समान ही है! गणेश की माई भी कहती है, "जब तक हाथ-गोड़ चल रहा है। अपने से खेती किया जाए। गाय-गोरु का चारा मिल ही जाता है। अनाज से भरे बेरही-बखारी भी दुआर की शोभा बढ़ाते हैं।"

तभी काका का ध्यान खैनी पर गया, अंगूठे से कुछ ज़्यादा ही रगड़ा गया था। उन्होंने ताल ठोका तो झांस से रधिया काकी छींकने लगी। हा छि:! हा छि:!

"का जी रउरा बुझाला कि ना अदमी के जाने ले लेहम! अधरतिया में अपने नीन नइखे लागत त दोसरो के बेचएन कइले बानी।"

इस पर काका ने दांत चियारते हुए कहा, "अधरतिया कहवां बा, तीन बज गइल हवे। रोपनिहार ला सवकेरही जाए के पड़ी।"

यह सुन काकी का चेहरा भी खिल उठा। आंखें मलते हुए भी बोलीं, "सुनी ना आजु गावा लागी त भोज खिआवे के पड़ी। दखिनवारी टोला से लवटेम त साव किहां से गरम मसाला आ पापड़ लेले आएम।"

आछा ठीक बा। तनी चाह बना द। हम मालन के खूंटा प बान्ह के आव$ तानी।"

गाय की नाद में चारा सानने के बाद उन्होंने चाय पिया। और छाता लगाकर दखिनवारी टोला के लिए निकल पड़े। टोले में घुसते ही सुखाड़ी बहु मिल गई। सांवली सूरत होने के बावजूद 50-52 वर्ष की उम्र में भी उसके चेहरा का पानी देखने के लायक था। चालू-पुर्जा और हरफनमौला इंसान थी। किसी को भी मजदूर चाहिए होता, वह जल्द सेटिंग करा देती।

शायद इसी कारण उसे सब कोई 'ठीकदार' कहकर बुलाते। काका से उसका देवर-भौजाई का रिश्ता था, सो अक़्सर हंसी-ठिठोली होती रहती। उन्हें देखते ही हाथ नचाकर बोली, "का मलिकार, एतना सुनर मवसम में मलकिनी के लगे होखे के चाही ? भोरे-भोरे केने चलल बानी रउआ?"

काका ने उससे रोपनी को लेकर बात की। छह कट्ठा खेत के लिए आठ जने तय हुए। ठीक 11 बजे सभी महिलाएं हाज़िर थीं। उन्होंने बगल के बियाराड़ से बिचड़ों को उखाड़कर गठरी बनाया और माथे पर लादकर ले आईं।

लेवाठ होते ही रोपनी शुरू होई कि पूरब से उमड़कर काली घटा छा गई। रिमझिम फुहारों के बीच बह रही ठंडी बेयार से मौसम सुहावना हो चला था। पानी में जुताई के बाद निकल रही, पांक की सोंधी खुशबू नाक में घुसते ही मदमस्त किए जा रही थी।

काका उनके साथ ही खेत में उपलाए सूखे घास को छानकर किनारे फेंक रहे थे। अचानक से सुखाड़ी बहु ने कादो उठाकर उनके बनियान पर फेंका और जबर्दस्त ठहाका छूट पड़ा।

इसी बीच सभी कोई जोर-जोर से गाने लगीं, "खेतवा में धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले मुंहजोर, नये बाडे़ हरवा, नये रे हरवहवा, नये बाड़े हरवा के कोर..!"

(*गावा- चंपारण में किसान जिस दिन खेत मे धान की रोपनी शुरू करते हैं। चंदन, अक्षत और दही से पूजा-पाठकर कुछ बिचड़े रोपते हैं। जिसे 'गावा लगाना' कहते हैं। इस दिन रोपनिहारों को भोज खिलाया जाता है। हालांकि यह परंपरा अब लुप्त हो रही है।)

©श्रीकांत सौरभ


24 June, 2020

साहित्य में प्रेमचंद्र जैसा हो जाना सबके वश का नहीं

मूसलाधार बरसात में गांव की फुस वाली मड़ई की ओरियानी चु रही हो। उसी मड़ई में आप खटिया पर लेटकर 'गबन' पढ़ रहे हों! तभी पुरवैया हवा के झोंके से उड़कर आई बारिश की चंद बूंदें देह को छूती हैं! उस समय यह महसूस करना कठिन हो जाता है कि प्रेमचंद्र की लेखनी में ज़्यादा रोमांच है या बारिश की बूंदों में। शायद कलम की जादूगरी इसे ही कहा जाता है।

पिछले कुछ दिनों से हंस के वर्तमान संपादक का वो ब्यान काफ़ी चर्चा में है। जिसमें उन्होंने कथाकार प्रेमचंद्र की दो-तीन रचनाओं को छोड़कर अन्य को कूड़ा-करकट बताया है। इन संपादक महोदय का नाम संजय सहाय है। कुछ साहित्यकारों व लेखकों को छोड़कर शायद ही किसी ने इनका नाम पहले सुना हो। लेकिन विवादस्पद ब्यान के बाद वे एकाएक (कु) चर्चित हो गए हैं। सोशल साइट्स पर इन्हें लोगों ने घेरना शुरू कर दिया है।

अफ़सोस ये है कि यहां भी गुटबाज़ी होने लगी है। जिसके कारण कुछ लिक्खाड़ उनके समर्थन भी में खड़े होकर मोर्चा खोल लिए हैं। इस डिजिटल युग में फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, टिकटॉक, वेबसीरीज के मायाजाल में फंसी, तीसरी या चौथी पीढ़ी भले ही लहालोट हों। लेकिन 90 के दशक में होश संभाले मेरे जैसे करोड़ों ग्रामीण व कस्बाई युवकों ने प्रेमचंद्र को ही पढ़कर साहित्य का 'स' जाना। तब वे लेखनी का एक बड़ा ब्रांड हुआ करते थे, वैसे तो हम आज भी मानते हैं।

उनकी लेखनी का सच में कोई जोड़ा लगाने वाला नहीं। मानवीय भावनाओं पर वे जितनी पकड़ रखते थे। वो बिरले ही किसी लेखक को नसीब होती होगी। तभी तो उनके रचित पात्रों के संवाद बिल्कुल जीवंत हो उठते थे। कहना चाहूंगा कि मैंने हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उनकी सभी कहानी संग्रह पढ़ डाली थी। इसमें कफ़न, पूस की रात, ईदगाह, पंच परमेश्वर तो भुलाए नहीं भूलतीं। साथ ही गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवासदन जैसे कालजयी उपन्यास को तो पढ़कर चाट डाला था।

इन उपन्यासों या कहानियों के गोबर, होरी, झुनिया, पंडित मातादीन, निर्मला, मिस मालती, हल्कू, हामिद, घीसू जैसे दर्जनों पात्र अभी भी स्मृति में अमर हैं। अंग्रेजी हुकूमत की सच्चाई को उजागर करते हुए, लेखन का जबर्दस्त करिश्माई जाल रचते थे साहब! वे एक साथ कई बिंबों को उकेर देते थे। चाहें वो गांव के दलितों, मजदूर-किसानों की दुर्दशा हों, जमींदारों का शोषण हों, बनियों की मुनाफाखोरी हों, शहरी जीवन के रंगीनियां या स्याह पक्ष हों।

ज़नाब, स्त्री चरित्र चित्रण के मामले यानी नारी के उदार और कठोर स्वभाव को बखूबी दर्शाने की कला में भी माहिर थे। ये प्रेमचंद्र ही थे, जो अपनी रचना में कभी जमींदार को अत्याचारी तो कभी उदार, महिला को किसी जगह पीड़ित, शोषित लाचार तो कहीं सशक्त, आधुनिक बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। इतनी लेखकीय विविधताएं और कहां पढ़ने को मिलेगी? लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिस 'हंस' पत्रिका की शुरआत वे कर रहे हैं। भविष्य में उसी पत्रिका में कोई मनबढ़ उनकी रचना को इतनी ओछी उपाधि देगा।

इन दिनों भले ही शहरी या महानगरीय चकाचौंध से आकर्षित युवा पीढ़ी में अंग्रेजी या हिंगलिश लेखकों की बाढ़ आ गई है। जो देश की महज़ तीस प्रतिशत खाती-पीती, अघाई आबादी को ध्यान में रखकर लिखते हैं। उनकी अंग्रेजी की कचरा किताबें भी बेस्ट सेलर बन जाती हों। इनमें गिने-चुने लेखक करोड़ों रुपए की रॉयलिटी भी कमा रहे हैं। लेकिन लिखकर रख लीजिए, फ़ास्ट फ़ूड की तरह इनकी भी कृति एक दिन कचरे के डिब्बे में फेंकी जाएंगी।

और किसी को भी दूसरा प्रेमचंद्र, शरतचन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली और फणीश्वरनाथ रेणु आदि बनने के लिए, क्रमशः लमही (बनारस), देवनन्दपुर (प. बंगाल), बेनीपुर (मुज्जफरपुर), सिमरिया (बेगूसराय), रामनगर (बेतिया) और औराही हिंगना (फारबिसगंज) जैसी जगहों की खालिस मिट्टी में जन्म लेना होगा! गंडक, सिकरहना, बागमती, सरयू, गंगा  जैसी तमाम नदियों के पानी में डुबकी लगानी होगी!

गौर फ़रमाइए, यहां की उर्वरा मिट्टी में लोटाकर पले-बढ़े लोग कला और साहित्य संगीत जगत का 'अनमोल नगीना' बनकर निकलते रहे हैं, निकलते रहेंगे।

©श्रीकांत सौरभ




19 June, 2020

क्या सच में बिहार के नियोजित शिक्षक बोझ हैं?

जब भी नियोजित शिक्षकों के बारे में लोगों की उल्टी-सीधी प्रतिक्रिया पढ़ता हूं। मन बेचैन हो जाता है। यदि कोई शिक्षक फेसबुक पर वेतनमान की मांग वाला पोस्ट करता है। या अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाता है। तो जवाब मिलता है, "उतने ही तेज थे पढ़ाई में, फिर आईएएस, आईपीएस, बीडीओ, डॉक्टर, इंजीनियर क्यों नहीं बन गए?" "जितना मिल रहा है उतना के भी लायक नहीं हो।" "पांच हजार रुपए में प्राइवेट वाले पढ़ाते हैं। तुमको इतना में पेट नहीं भरता।" आदि-आदि।

अब इन लोगों को कौन समझाए कि कोई शिक्षक उपरोक्त पद भले ही हासिल कर नहीं पाया हो। लेकिन अपनी काबिलियत से दूसरे बच्चों को इन पदों पर जाने के लायक जरूर बना देता है। आप ही बताइए, क्या शिक्षक इंसान नहीं होते? आज की महंगाई में प्राइवेट स्कूलों के 05 से 15 हजार रुपए की मामूली सैलरी में क्या कोई आदमी पांच से सात लोगों का पारवारिक खर्च चला सकता है? क्या शिक्षकों को अच्छे घर, कपड़े, वाहन की जरूरत नहीं है? बिहार में शिक्षकों के प्रति आम जनों की सोच नकारात्मक कब, क्यों और कैसे बन गई? इस मुद्दे पर सकारात्मक मंथन जरूर होना चाहिए।

मैं वर्ष 90 के दशक में गांव के उस सरकारी विद्यालय से पढ़कर निकला हूं, जो दो कमरे का खपड़ेंनुमा मकान था। 150 बच्चों पर महज़ दो शिक्षक थे। प्लास्टिक का बोरा बिछाकर पढ़ाई किया था, यह व्यवस्था आज भी है। तब ना एमडीएम था, ना ही कपड़े, साइकिल या छात्रवृति मिलते थे। लेकिन शिक्षकों के प्रति लोगों में जो सम्मान था। उसका 10 प्रतिशत भी आज नहीं है। उस समय शिक्षक नाम से ही बच्चे भय खाते थे। और वो 'भय', गलती को लेकर पिटाई का था। उनके प्रति सम्मान का था।

लेकिन अब स्थिति भयावह है, और यहां तक पहुंचने में दो दशक लगे हैं। बता दूं कि वर्ष 02 में बीपीएससी से बड़े पैमाने पर स्थायी शिक्षकों की वैकेंसी निकली थी। मैं उन दिनों पटना में स्नातक कर रहा था। लंबी लाइन में लगकर जीपीओ से फॉर्म ख़रीदा था। लेकिन कोर्ट के आदेश पर बहाली रोक दी गई। वर्ष 05 में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने 'सर्टिफिकेट दिखाओ नौकरी पाओ' की तर्ज पर पंचायतों में प्रारंभिक स्कूलों में बहाली शुरू की।

सरकार की नीयत 15 सौ रुपए में वैसे साक्षर युवकों को भर्ती करने की थी। जो जनगणना, सर्वे, चुनाव या अन्य सरकारी कार्य करा सकें, बच्चों को एमडीएम खिला सकें। समय मिले तो अक्षर ज्ञान भी दे सकें। मुखिया व प्रमुख को जिम्मेवारी मिली थी नियुक्त करने की। स्वाभाविक है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई (वो तो आज भी नहीं बरती जा रही है)। इसीलिए बड़े पैमाने पर फर्जी कागज़ात लगाकर बेरोजगार भी शिक्षक बन गए। आए दिन मीडिया में ऐसे फर्जी शिक्षकों का नियोजन रद्द होने की ख़बरें आती ही रहती हैं।

और नियोजन वर्ष 08-10 तक में यहीं 'खेला' चलता रहा। इस दौरान कई योग्य शिक्षक दूसरी नौकरियों में भी चयनित होकर जाते रहे। वर्ष 09 में, देश में आरटीआई (शिक्षा का अधिकार) कानून लागू हो गया। इसके मुताबिक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र वाले अभ्यर्थियों का टीईटी लेकर स्थायी शिक्षक के रूप में नियुक्त करना था। जिन्हें मानदेय नहीं वेतनमान देना था। इसी आधार पर बिहार में वर्ष 11 में बड़े पैमाने पर टीईटी लिया गया। केवल कक्षा 01 से 05 में 26 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। जिसमें 03 प्रतिशत यानी 82 हजार लोग पास हुए थे।

तब प्रशिक्षित अभ्यर्थी नहीं थे। इसीलिए सरकार ने एनसीटीई से अनुमति लेकर नियोजन का काम शुरू किया। और आरटीई कानून को दरकिनार कर पुरानी सेवा शर्त पर ही, 09 हजार रुपए के मानदेय पर नियोजन हुआ। वर्ष 15 में शिक्षकों के हड़ताल और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार ने शिक्षकों की नौकरी स्थायी तो कर दी। लेकिन 'चाइनीज' सेवा शर्त वाले वेतनमान और नियोजित के ठप्पे से मुक्ति नहीं मिली।

वहीं शिक्षकों की माने तो शिक्षा विभाग वेतनमान देने के नाम पर कम बजट का रोना रोती है। जबकि बजट का एक बड़ा हिस्सा गैर जरूरी 'लोक लुभावने' कामों में खर्च कर देती है। यहीं नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब वेतनमान का मामला पहुंचा। इस पर बिहार सरकार ने हलफनामा दायर कर कहा कि नियोजित शिक्षक सरकारी कर्मी नहीं हैं। न्यायालय ने भी फ़ैसला सरकार के पक्ष में ही सुनाया, टीईटी शिक्षकों के लिए 'पैरा 78' की चर्चा करते हुए।

सवाल यह भी उठता है, सरकारी की गलत चयन नीति का ठीकरा दूसरे पर क्यों फोड़ा जाए? पूर्व के नियोजित शिक्षकों से, वर्तमान में बहाल योग्य शिक्षकों की तुलना कर सभी को नीचा दिखाना कहां तक उचित है? सोचिएगा, कहीं आपकी इस कुंठित सोच से हजारों नौनिहालों का भविष्य तो नहीं बर्बाद हो रहा? याद रखिए, कल को आपका लड़का भी अच्छी पढ़ाई कर जॉब के लिए मैदान में उतरेगा। उसे भी इसी ठेका प्रथा वाली दमनकारी सिस्टम का हिस्सा बनकर पीसना पड़ेगा।

क्योंकि या तो सरकारी नौकरी ही नहीं बचेगी, या रहेगी भी तो नियोजन वाली। और ऐसा हो भी रहा है। कल तक जो पड़ोसी या रिश्तेदार इन शिक्षकों से जलते थे। एक ही स्कूल में कार्यरत स्थायी शिक्षक अपने ही नियोजित सहकर्मी को हीन और छूत समझते थे। उनकी बेबसी पर हंसते थे। आज उन्हीं का होनहार लड़का पढ़ाई में ख़ूब नम्बर लाकर, बीएड, सीटेट, नेट निकालकर, प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों में 15 से 25 हजार के रुपए की मामूली तनख्वाह पर गुजारा कर रहा है। आख़िरकार लोग इस भ्रम से कब निकलेंगे कि सरकारी शिक्षकों पर खर्च करना ख़ैरात लुटाना नहीं है।

यक़ीन नहीं तो कम से कम दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन जरूर कर लीजिए। गारंटी है आपकी आंखें खुल जाएंगी। यह जगज़ाहिर है कि मातृभाषा और प्राथमिक शिक्षा को मजबूत किया बिना किसी समाज की तरक्क़ी नामुमकिन है। लेकिन यहां पर उपरोक्त दोनों बुनियादी चीजों का चौपट होना, किस बात की ओर इशारा करता है, यह भी गौर करने लायक है। क्या सूबे की बदहाली का एक बड़ा कारण ये भी नहीं है?

अभी की स्थिति ये है कि विद्यालयों में बच्चों के अनुपात में शिक्षकों की भारी कमी है। जबकि हजारों बेरोजगार युवकों के पास डीएलएड, बीएड, टीईटी, सीटीईटी का प्रमाणपत्र है। एक तरफ़ वे नौकरी के लिए सड़क पर संघर्षरत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नियोजित शिक्षक वेतनमान के लिए। जबकि सूबे के 70 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर ही आश्रित हैं। ऐसे में इन स्कूलों में पारदर्शी तरीके से वेतनमान के आधार पर पर्याप्त संख्या में शिक्षकों को नियुक्त नहीं करना। क्या इन लाखों गरीब, किसान, मजदूर परिवार के बच्चों के साथ हकमारी नहीं है?

©श्रीकांत सौरभ


17 June, 2020

डियर सुशांत, सहानुभूति तुमसे नहीं, बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है

प्रिय सुशांत,

नमस्ते अलविदा!

मुझे पता है, यह चिट्ठी तुम तक नहीं पहुंच पाएगी। फिर भी लिख रहा हूं, बिना किसी आसरा के। इसमें कोई शक नहीं, एक मंजे हुए अभिनेता के रूप में करोड़ों हिंदी भाषियों के दिलों पर तुम राज कर रहे थे। तभी तो तुम्हारे जाने के बाद लाखों फैन, कला प्रेमियों, बुद्धिजीवियों ने, ना जाने कितने पोस्ट लिखे होंगे।

सबने भावुक शब्दों के तीर से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का कलेजा छलनी-छलनी कर दिया। जिसे देखों सलमान खान, करण जौहर, एकता कपूर, कपूर खानदान को जी भर गालियां और आहें भर बद्दुआ दे रहा है। लेकिन देख लेना, हर बार की तरह यह मुद्दा कुछ दिनों तक ही चलेगा। फिर कोई नया मामला आएगा और लोग तुम्हें भूल जाएंगे।

रही मेरी बात तो सच कहता हूं। मुझे सहानुभूति तुम्हारी मौत से नहीं, वहां संघर्षरत सैकड़ों बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है। मन में आक्रोश है बॉलीवुड के उस घिनौने चलन के खिलाफ़। जिसमें कलाकार को 'रेस का घोड़ा' समझा जाता है। मुम्बई जैसी मायानगरी में फ़िल्मों के क़िरदार निभाते-निभाते आदमी स्वाभाविक रह भी कहां जाता है।

विडंबना ये है कि दूसरे परिवेश से आया कोई भी अभिनेता उधार की जीवन शैली में भले ही ख़ुद को ढाल ले। लेकिन वो संस्कृति उसे नहीं अपना पाती, इतना तो तय है। अपनी जड़ों से कटा आदमी डाल का चूका बंदर के समान होता है। हमारे शास्त्रों में मातृ, पितृ और देव ऋण की चर्चा यूं ही नहीं की गई है।

ख़ैर, मां तो तुम्हारी बहुत पहले चल बसी थीं। शायद ही कभी तुम घर, परिवार में किसी से मातृभाषा मैथिली में बतियाए भी होगे। और मातृभूमि के लिए कुछ करना तो दूर, पिछले वर्ष आए भी थे तो 17 वर्षों के बाद। तुम्हें कितना अपनापन था यहां की मिट्टी से, उसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यदि इससे जुड़े रहते तो, मुझे पूरा यक़ीन है कि आत्महत्या की नौबत नहीं आती।

मरने से पहले एक बार, पटना के राजीव नगर में तन्हां जीवन गुजार रहे बीमार पिता के बारे में तो सोचा होता। लेकिन नहीं, तुम सोचते भी कहां से। तुम तो वर्षों से उस सपनीले शहर का हिस्सा बन गए थे। जिसकी चकाचौंध किसी भी सेलिब्रिटी का दिमाग हैक कर लेती है।

सफ़लता की ख़ुमारी में आदमी इतना मतलबी हो जाता है कि मां, बाप, परिवार जैसी चीजें बहुत पीछे छूट जाती हैं। और दौलत, शोहरत, लिव इन रिलेशन... की चिंता खाए रहती है।

जब कोई अपनी मिट्टी, अपनी भाषा छोड़कर, दूसरी जगह अपनी प्रतिभा दिखाने जाएगा। और उसका सामना वहां के रीति-रिवाज, चलन और मठाधीशों से होगा। ऐसी स्थिति में 'रेस का घोड़ा' या 'कोल्हू का बैल' जो भी कहें, बनना ही पड़ेगा।

जबकि इसी देश में दक्षिणी राज्य भी हैं, जहां तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ फिल्में बनती हैं। उनकी भाषा में, उन्हीं की ज़मीन पर पूरी फ़िल्म तैयार होती है। गुणवत्ता के मामले में ये फिल्में हॉलीवुड को टक्कर देते हैं। यहीं नहीं उड़िया, गुजराती, बंगाली, मराठी फिल्मों का भी अपना क्रेज है।

12 करोड़ की आबादी जापान की है और पूरी दुनिया में उसकी कोई सानी नहीं। लेकिन इतनी ही आबादी वाले बिहार के रहनिहार महज़ मैन पावर और खरीदार भर हैं। हम पैदा ही होते हैं पलायन करने के लिए। दूसरी जगहों पर जाकर मरने-खपने के लिए।

वैसे भी जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय नहीं रहा। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। वहां साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी ही होगी।

चलते-चलते मैं कहना चाहूंगा कि यदि ईश्वर तुम्हें मिलें। तो उनसे जरूर निहोरा करना कि या तो हमारे बदहाल राज्य की सूरत बदल दें। जिससे कोई मजबूरी में पलायन नहीं करे। अन्यथा किसी को यहां की धरती पर भेजे ही नहीं।

तुम्हारा,

©श्रीकांत सौरभ




09 June, 2020

कॉलेजिया लईकी ढूंढने वाले बाबूजी के बेरहम दुख!!!

चनेसर काका का बड़का बेटा जब बीटेक कर गया तो अगुआ दुआर कोड़ने लगे। और लड़की थी कि कोई भी उनको जंच ही नहीं रही थी। कोई पढ़ी-लिखी थी तो कद छोटा मिलता, कोई गोरी होती तो उसके पास डिग्री नहीं रहती। इसी माथापच्ची में दो वर्ष बीत गए। उन्हें कोई रिश्ता पसंद ही नहीं आया।

रिश्तेदार, गोतिया कितनी बार समझाए, "तिवारी जी, लड़के की शादी में देरी अच्छी बात नहीं है। एक तो इंजीनियर और दिखने में भी सुंदर है। बम्बे जइसन शहर में नौकरी है। कहीं उधर ही मामला सेट कर लिया तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा। एने छोटका भी लाइने में है।"

जबकि वे नाक पर माछी नहीं बैठने देते थे। उन्हें अपने दोनों संस्कारी बेटों पर फेविकॉल के जोड़ वाला भरोसा था। इसी कारण एकदम से ज़िद पर अड़े थे। कनिया को लेकर मिल्की व्हाइट, रसियन हाइट और पैसा टाइट वाली जबरिया शर्त रखी थी! इतना ही नहीं जब तब कहते फिरते भी, 'लड़की एमबीए, एमसीए, इंजीनियर न सही, कम से कम साइंस ग्रेजुएट तो चाहिए ही!

दरअसल काका के पास खेती की आठ बिगहा पुश्तैनी ज़मीन थी। उपर से चार पीढ़ी से घर का एकलौता समांग थे। दरवाजे पर ट्रैक्टर, हीरो होंडा मोटरसाइकिल खड़ा कर ही लिए थे। दहेज़ में भी कार की डिमांड थी। करनी नहीं तो बातों से ही सही, गांव में धाक जमाकर रखते। रोज़ दालान में 10 लोग बैठे मिल जाते, भले ही इसकी वजह एक कप चाय क्यों न रहती हो!

पंचायती में भी उनकी ख़ूब पूछ होती। ये बात और थी कि 60 वर्ष की उम्र में सैकड़ों पंचायती में गए। लेकिन क्या मजाल कि एक भी झगड़ा सही से सुलझाए हों। अब सही बात बोलने पर किसी न किसी की तो तरफ़दारी करनी ही पड़ती। इसीलिए पंचायती में जब मारपीट की नौबत आ जाती तो रामचरितमानस का श्लोक, "होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा..." पढ़ते हुए निकल जाते।

ख़ैर, उन्हें वर्षों से इस बात का मलाल था कि ग्रेजुएट होते ही अंगूठा छाप लड़की उनके खूंटे में डोर दी गई थी। वो जमाना ही ऐसा था, पान की दुकानों में, बसों में या नाच-बाजा में बिजली रानी के गाने की धूम मची रहती, "कॉलेजिया लईका ढूंढ लइह$ हमरा ला बाबूजी..!" एक तरह से ट्रेंड ही बन गया था, निपढ़ लड़की के लिए भले ही नौकरियाहा दूल्हा नहीं मिले।

पिता लोग बीए, एमए पास वालों को सतुआ बांध कर खोजते। जहां कोई लड़का मिला नहीं कि छेंक लेते। काका के साथ भी यहीं हुआ था। बीए पास कोर्स में सेकेंड डिवीजन रिजल्ट आते ही अगुआ छान कूटने लगे। और खाते-पीते घर के एकलवत पूत का दाम लगाते हुए, उनके बाबूजी को खरीद लिए।

तो बात काका के बेटे की शादी की हो रही थी। समय के साथ दोनों बेटों का घर बसा दिए। पांच वर्ष पहले, बड़े बेटे के लिए बीएससी तो नहीं मिली। समाजशास्त्र में ऑनर्स लड़की पसंद आ गई। बबुआन के ठाठ में से थी। मोटा दहेज लेकर आई, साथ में फ्रिज, एलईडी, वाशिंग मशीन, कूलर और हुंडई की नारंगी रंग वाली सेंट्रो कार भी।

साल भर बाद छोटका बेटा चंडीगढ़ में बैंक पीओ बन गया। उसी साल दारोगा की लड़की से उसका ब्याह भी कर दिए। समधी जी ने चंडीगढ़ में ही बेटी के नाम से थ्री बीएचके का फ्लैट ख़रीद दिया था। पूरे 60 लाख रुपए गिना था उन्होंने। जब तिलक-फलदान की रात काका को फ्लैट की चाभी थमाई गई, तो लोगों में चर्चा का विषय बन गया था। पूरी पंचायत में आज तक उतना दहेज़ किसी को नहीं मिला था। घर का अंतिम लगन था इसलिए दिल खोलकर खरचा किए रहे। मुज्जफरपुर की आधा दर्जन नामी बाई जी का साटा कर बरियात ले गए थे।

लेकिन हाय रे बदला ज़माना! अब काका का दुख सुनिए। गर्मी का महीना चरम पर है। 10 कट्ठे में आम और लीची की फुलवारी है। लीची तो पहले ही तुरहा के हाथों बेंच दिए थे। अब जर्दा आम गाछी पर पक कर चू रहा है। लेकिन खाने वाले कोई नहीं। इसके बाद मालदह, सीपिया, शुकुल की भी बारी है। बेटी का ससुराल नज़दीक में ही है। उसके लिए कुछ आम छांटकर पूरी गाछी पएकार से सलटा दिए।

दो वर्ष पहले की ही तो बात है। जब बूढ़ी के साथ बड़े बेटे-पतोहू के पास गए थे, मुम्बई में। पोता हुआ था। पतोहू ने सेवा तो ख़ूब की लेकिन बार-बार दवाब बनाने लगी यह कहते हुए, "पापा जी, अब गांवे के रहे जाता। उहां के ज़मीन बेंच दी इहवां फ़्लैट ले लियाव। अपने भी दुनु अदमी इहवे रहीं लोगन।" ये सब सुनकर वे भला कहां रुकने वाले थे वहां। बस इतना ही बोले, "हमनी के जिनगी में ई कुल्ही मुमकिन नइखे। अब मुअला प जे मन में आए करिह$ लो! फिर दोनों जने लौट आए।

इसके कुछ दिन बाद छोटका बेटा पतोहू के बारम्बार निहोरा पर, उनके पास भी चंडीगढ़ गए। लेकिन 20 दिन में ही उब गए। वहां की आबोहवा रास नहीं आई। पतोहु सात बजे तक सोए रहती और सास से काम कराने लगी थी। उसका रूखा व्यवहार उन्हें अखर गया। फिर तो ऐसे लौटे कि अब जाने के नाम ही नहीं लेते। बूढ़ी के जोर देने पर वे ही कभी-कभार दोनों जगह फ़ोन कर पोते से बतिया लेते हैं।

दीवाली, छठ, होली सब फ़ीकी बीतती है। और बीते भी क्यों नहीं, जब दोनों में कवनो बेटा पतोहू अइबे नहीं करता। शहर में पाकिट वाला बिना चोकर का आटा और हाफ बॉयल चाउर ख़रीदकर खाते हैं। मने गांव उनको काटने दौड़ता है। अब अकेले काका क्या करें, लगान के चलते ट्रैक्टर भी बेंच दिए।

खेत-बाड़ी तो पहले ही बटाई दे दिए थे, उन्हीं लोगों को जो कभी जना का काम करते थे। वे अब मलिकार बन गए हैं, जो मन में आया उपज दे जाते हैं। कबो दहाड़ के, कबो सुखाड़ के नाम पर, केतना तरह का रोना रोकर इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं। जबकि उनके दरवाजे पर बेरही-बखारी बढ़ते ही जा रहे हैं। काका सब 'खेला' बढ़िया से बुझते हैं। मने बुढ़ौती में करें भी तो क्या!

बूढ़ी को हफनी बेमारी धर लिया है। दु डेग चलती है हांफे लगती है। डॉक्टर दमा की शिकायत बताकर पंप खिंचेला दिए हैं। इधर छह महीने से उनके घुटने में साइटिक का दर्द बेचैन किए है। जब तक दवा का असर रहता है आराम बुझाता है। अब तो बुदबुदाते भी रहते हैं, "का फ़ायदा वइसन गृहस्थी के जब ओकरा के केहु भोगही वाला ना होखे।"

और गुस्से में कभी यह भी कह डालते हैं, "जान$ तारु फलनवां के माई, दुनु बेटवा-पतोहिया हमनी के मुए के राह देख$ तारे स$! ओकरा बाद कुल्ही जमीनिया बेंचेके शहरी में ठेका दिहे स$!"

©️श्रीकांत सौरभ, मोतिहारी


03 June, 2020

अब माड़ो में दूल्हे साईकिल, घड़ी, रेडियो तो समधी दही लगाने के लिए नहीं रूठते!

'भरी भरी अंजुरी में मोतिया लुटाइब हे दूल्हा दुल्हनिया के...,' 'कथी के चटइया पापा जी बइठल बानी...,' 'दूल्हा के माई बनारस के...,' 'जइसन रेलिया के चाका वइसन पंडि जी...' घर हो या ननिहाल, जब भी कहीं वैवाहिक आयोजन होता। ऐसे तमाम पारंपरिक गाने मां, मौसी, नानी, दादी, फुआ, मामी, भाभी, पट्टीदारी की महिलाओं के साथ समूह में गातीं। सुनकर खुशी की लहरें मन में हिलोर मारने लगतीं! लेकिन गाली गायन को सुनकर कई बार असहज भी हो जाता।

थोड़ा बड़ा हुआ तो समझदारी बढ़ी। जाना कि भोजपुरी जीवन के कई रसों को समेटी ऐसी जीवंत भाषा है। जिसमें हर आयोजन के लिए अलग-अलग गाने हैं। सबसे ज़्यादा वैवाहिक उत्सव के। यहां तक कि बारात की ख़ातिरदारी में, स्वागत में गारी सुनाव.. गाया जाता है। और किसी को बुरा भी नहीं लगता। दूल्हे, उसकी मां, पिता, हज्जाम, पंडित, बाराती, सभी के लिए अलग-अलग गाली गीत हैं। जिन्हें महिलाएं माइक के सहारे लाउडस्पीकर से चिल्ला-चिल्लाकर गाती हैं। इस पर लोग चुस्की लेते नहीं अघाते!

विवाह के नेग भी तो कितने होते हैं। छेंका! वर्ग रक्षा! तिलक-फलदान! सगुन का चूड़ा कुटना! लगन चुमावन! कथा मटकोर! घिवढ़री! हल्दी चढ़ावन! मातृ पूजा! माई बरहम पूजन! आम-महुआ का बियाह! परिछावन! द्वार पूजा! जय माल! ईमली घोटावन! कन्या निरीक्षण! कन्यादान! सिंदूरदान! कोहबर! मुंहझांका! समधी मिलाप! विदाई! पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्रों का शायद ही कोई रहनिहार होगा। जो इन शब्दों से वाकिफ़ नहीं होगा। और दुनिया के किसी भी संस्कृति में इतने 'नेग' नहीं होंगे।

हां, इनमें 'मरजाद' अब जरूर लुप्त हो चला है। महज़ 10-15 वर्ष पहले तक यह जबर्दस्त चलन में था। जब बारात दूसरे दिन शाम को 'भतखही' के बाद विदा होती थी। मरजाद में बोरियत नहीं हो, इसके लिए 'लौंडा' या 'बाई' जी के नाच का साटा होता। तब नाच देखने के नाम पर ही लोग बारात में उमड़ पड़ते। न्यौता का कार्ड महीना दिन पहले से हज्जाम ठाकुर घुमाने लगते। बारात जाने को लेकर एक सप्ताह पहले घर-घर जाकर निमंत्रण दिया जाता, "ये बाबा, काका, भईया, बबुआ कपड़ा धोवा लिह$ लोगन हो, फलाना दिने सम्हरवा बरिआत चले के बा।" अब क्या बताए, कितना रोमांच छुपा था इन चंद शब्दों में! मारे उत्साह के मिज़ाज हरिहरा जाता!

दूल्हे का बियाह से दो-तीन पहले लगन चुमाकर पियरी कपड़ा पहना दिया जाता। इस दौरान उसे नहाने, चापाकल चलाने या कुआं में झांकने की सख्त मनाही रहती। मटकोर की रात सत्यनारायण भगवान का कथा होता। दुआरे से बजनिया तासा बजाते हुए माटी कोडवाने जाते। और उनके पीछे-पीछे दूल्हा, महिलाएं 'कहवां के पियर माटी कहां के कुदार हे...' गाते हुए जातीं। फिर प्रसाद बंटते, उसके बाद आंगन में फूफा हल्दी चढ़ाने की विद्य करते। तभी कोई फ़लाना बो सरहज चुपके से आकर, उनके मुंह में प्यार से हल्दी वाली दही लगा देती। दही चुकर उनकी शर्ट को भिंगो देता। इस मीठे नोक-झोंक को देख हंसी की बौछार छूट पड़तीं।

अगले दिन सुबह में ही साव जी हलुआई आकर ईट को जोड़कर चूल्हे बनाते। पीली मिट्टी से लिपाई करते। और उसमें कोयला डालकर लकड़ी जलाते। उसी आंच पर दाल, भात बनते। आलू-परवल की सुखी सब्जी में अशोक मसाले पड़ते ही, उसकी गंध जब पुरवैया, पछुआ या चौपाई हवा के झोंके से फ़िजां में तैरती। चारों ओर भोजमय वतावरण हो जाता!

बरातियों की तैयारी में भी सौ तरह के नखरे थे। चाहें वो दूल्हे के परिजन हों, रिश्तेदार हों, पट्टीदार हों या ग्रामीण। किसी को चमरौधे चप्पल या जूते के पॉलिश की चिंता रहती। कोई धोबी के यहां कुर्ता-पजामा, शर्ट-पैंट या बिहउती कोट को प्रेस कराने के लिए दौड़ लगाता। कोई सैलून में बाल कटाने या दाढ़ी बनाने जाता। किसी को वीडियो कैमरे वाले को बुला लाने के लिए भेजा जाता। वहीं दूल्हे के मामा या फूफा के दबाव में आकर वर्षों से सिर के बाल व दाढ़ी को उजला रखने वाले पिता, चाचा भी रंगवाने को तैयार हो जाते। गोदरेज हेयर डाई के गाढ़े काले घोल से उनके माथे व मूंछ के बाल रंगे जाते। इसे सुखाते हुए कपार या ओठों पर चुकर आए कालिख़ यूं नजर आते। मानो रामलीला में पाठ की तैयारी चल रही हो।

इधर, घर में खुली कई अटैचियों और ब्रीफ़केस से कपड़े बिखरे रहते। बेतिया वाली फुआ, रामनगर वाली मउसी और गोपालगंज वाली मामी की मुलाकात वर्षों बाद होती। तो सबके पास कई तरह की नई डिज़ाइन की साड़ियां होतीं। जिनकी ख़ूबी सुनाने की हड़बड़ी रहती, "हई मद्रासी साड़ी गोलू के पापा देले रहनी!" "जॉर्जेट वाला छोटका बेटा सूरत से ले आइल रहे।" वे एक-दूसरे को सिल्क या बनारसी साड़ी दिखाते हुए उनके गुणों का बखान करते जाती थीं। जबकि बड़की भाभी कुंवारी बहन से आई ब्रो बनवाते हुए मेकअप और गहनों पर चर्चा कर रही होतीं, "प्रीति देख$ त आम-महुआ बियाहे जाए ला कवन कलर के साड़ी नीक रही! परिछावन में लहंगा साड़ी प हार सेट चली कि कुछ आउर..?"

12 बजते-बजते अंग्रेजी बैंड दरवाजे पर बजने लगता। जब लाउडस्पीकर से हनुमान चालीस या अन्य भक्ति गीत के साथ बैंड बाजे की आवाज़ चारों ओर गूंजती। सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती। चार-पांच गाने के बाद कार्यक्रम का विराम दिया जाता। मातृ पूजा होते ही आम-महुआ ब्याहने या माई बरहम पूजने के लिए महिलाओं की झुंड गीत गाते निकलती। दूल्हे की भौजाई, मां या चाची उसके सिर पर साड़ी का पल्लू रखे रहतीं। साथ में बैड बजाते हुए आधे बजनिया भी जाते। लौटकर पांच कुंवारे लड़कों को बुलाया जाता। उनके साथ दूल्हे को दही-चूड़ा खिलाकर 'कुंअरपत' उतारा जाता था।

इसके बाद दर्जनों की संख्या में वैन, जीप, मार्शल, कमांडर, मिनी या बड़े बस और ट्रैक्टर की कतार लगाकर बारात सजकर निकलती। इनसे आगे व बाजे के पीछे दूल्हे की मारुति कार या बोलेरो गाड़ी खड़ी रहती। कोट-टाई या शेरवानी पहने, आंखों में काजल लगाए, सिर पर मउर रखे दूल्हे की खूबसूरती देखते ही बनती। जिसे घेरे हुए दर्जनों की संख्या में लड़कियां और महिलाएं परिछावन के लिए खड़ी रहती। भले ही उनका बदन पसीने से लथपथ रहता। लेकिन वीडियो कैमरे के आगे नाचते हुए उनका जोश थमने का नाम नहीं लेता था। उनके बालों में गमकौआ तेल, माथे से नाक तक टीके सिंदूर, चेहरे पर पोती फेयर एंड लवली या विको क्रीम, कपड़े पर छिड़की गई चार्ली, डेनिम या मैग्नेट सेंट या पोंड्स पाउडर की भीनी-भीनी खुशबू, कुछ दूर तक खड़े लोगों के नथुने में प्रवेश कर जाती। इसी बीच जब रंगे चावल के अक्षत, फूल के साथ पैसे लुटाए जाते तो उसे लूटने के लिए बच्चे लपक पड़ते।

उधर, बारात जनवासे पहुंचते ही बेटिहा के दरवाजे पर सजधज कर निकलती। और मातृपूजा से विदाई तक उपर लिखे अन्य नेग पूरे किए जाते। वैसे किसी जमाने में ससुरारी से बारात निकलते समय फूफा या शादी के लिए माड़ो में बैठे दूल्हे का, साइकिल, घड़ी या रेडियों के लिए खिसियाने के कई किस्से हैं। जिन्हें बाद में लिखूंगा। अभी माड़ो के दो चुटीले किस्से! एक बार आंगन में भतखही के बाद दुल्हन के पिता ने पूछा, "समधी जी, बताईं कवनो कमी नइखे नु रह गइल सेवा-सत्कार में। इस पर दूल्हे के पिता ने कहा, "सब त ठीके रहल ह। मने माड़ो में मुंहवा प दही लगवावे के शारधा लागले रह गइल। जाईं महाराज, पहिले से जनले रहती।  त भाड़ा प जनाना स के बोलवले आइल रहती, ई कुल्ही ला!" वहीं ससुरारी में एक दूल्हे ने परिछते समय अपनी चचिया ससुर का हाथ ही पकड़ लिया था। यह कहते हुए, "ए जी रउरा एतना ना सुनर लागत बानी! मन करता रउरा से ही बियाह क लीं!" और इसके बाद माड़ो में दूल्हे की क्या फ़जीहत हुई थी, ना ही पूछिए तो अच्छा है!

ख़ैर, विवाह तो आज भी होते हैं। लेकिन सामियाना बदलकर पंडाल हो गया है। पंगत में साथ खाने की जगह बुफे सिस्टम का रिवाज चल पड़ा है, जिसमें मेजबानी की विनम्रता नहीं झलकती। डीजे और आर्केस्ट्रा की धुन पर युवा कमर मटकाते हैं। और घर से आंगन क्या विदा हुए, नानी, मौसी और मां भी विदा हो गईं दूसरी दुनिया को! विवाह को लेकर छत या दुआरे पर सिंथेटिक माड़ो बनते हैं। जयमाल होता है। और एक रात में ही सारी रस्में पूरे कर लेने की जल्दी होती है। ये सब कुछ इतना फटाफट होता है कि उत्सव की मौलिकता तो चली ही गई। पहले वाली फिलिंग भी अब नहीं आ पाती। बचपन की यादें तो अब बस नॉस्टेल्जिया में कैद होकर रह गई हैं।

©️श्रीकांत सौरभ


02 June, 2020

बिहार में रहेगा नहीं 'लाला' तो क्या करेगा जीकर हजार साला!

भले ही भूल जाइए कि आप क्या हैं! लेकिन याद जरूर रखिए कि हम बिहारी हैं! जब गुजरात वालों को गुजराती, पंजाब वालों को पंजाबी, असम वालों को असमिया कहते हैं तो हम भी बिहारी ही न हुए। लेकिन अन्य राज्यों के निवासियों का सम्बोधन जहां बड़े शान से किया जाता है। वहीं 'बिहारी' शब्द हमारे लिए गर्व की अनुभूति कराने वाला नहीं, बल्कि गाली होता है। वो इसलिए कि हमारे यहां बच्चे जन्मते नहीं, बदकिस्मती से टपक जाते हैं। बड़े होकर पलायन करने के लिए। दूसरे राज्यों में जाकर मरने-खपने के लिए।

जिसकी मिट्टी में लोटा कर बचपना बिताते हैं। वहीं धरती बेगानी हो जाती है। यहां टपकने वाला कोई भी बच्चा इंसान नहीं होकर, पहले बाभन, भूमिहार, राजपूत, लाला, बनिया, यादव, कोयरी, कुर्मी, दलित या महादलित होता है। स्कूल जाने की उम्र में किसी बच्चे का सरकारी विद्यालय में नामांकन होता है। तो किसी का एडमिशन कान्वेंट में होता है। किसी को हिंदी की घुट्टी पिलाई जाती है, तो किसी को अंग्रेजी की कोरामिन दी जाती है। दोनों ही माध्यमों से पढ़ाई का स्तर जो भी रहे, सबसे पहले मातृभाषा ही मारी जाती है।

काहे कि बिहारी हैं हम...

गांव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले जाने कितने बच्चे दसवीं तक आते-आते पढ़ाई छोड़ देते हैं। इनके अभिभावकों को असमय पढ़ाई छूट जाने का, जरा भी मलाल नहीं होता। दरअसल शुरू से ही लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गई है। अक्सर मजदूर या किसान पिता कहते मिल जाते हैं, जल्दी से बड़े हो जाओ, फिर बाहर जाना है कमाने। पंजाब के खेतों में फसल बोने-काटने, असम के चाय बगानों को, लुधियाना, सूरत की कपड़ा फैक्ट्रियों को, बंगलुरू, हैदराबाद, केरल के ऑइल मिलों को, आबाद करने। जहां किसी के मामा, फूफा, गांव के चाचा लेबर, मुंशी या ठीकेदार होते हैं।

अब चाहें रोज़गार के लिए हो या उत्तम जीवन शैली के लिए, पलायन तो बिहारियों के भाग्य में लिखा होता है। और जाना भी सभी का ट्रेन से ही होता है। फर्क बस इतना होता है कि इस पर सवार कोई लड़का दिल्ली, जयपुर, शिमला, कोटा, देहरादून कमाने जा रहा होता है। तो कोई बैंकिंग, एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी की पढ़ाई करने। कोई एसी या स्लीपर से जाता है तो कोई जेनरल बॉगी में ठूस-ठूसकर। वहां जाकर कोई फ्लैट में रहता है, तो कोई संकरी गलियों वाले सिंगल कमरे के मकान में। और कोई झुग्गियों में ही जवानी गुजार देता है। कोई वातानुकूलित कमरे में दिन बिताता है। तो कोई सड़क पर काम करते हुए जेठ-बैशाख की दोपहरी में चमड़ी झुलसाकर पसीने बहाता है।

अब जो हो लेकिन एक बार जो किसी के क़दम यहां से उठते हैं। फिर स्थायी रूप से लौटकर आते भी कहां हैं। प्रवासी लोग मौका-बेमौका, वर्ष-दो वर्ष में एकाध बार यहां आते भी हैं। तो छठ, होली, दीवाली, शादी-ब्याह, मरण-हरण जैसे आयोजनों में शरीक होने। गांव उनके लिए डेरा बन जाता है। अपनी जड़ों से कटा आदमी, बनावटी जिंदगी जीता आदमी, पहचान की संकट से गुजरता आदमी। उसका सबसे बड़ा उदाहरण हम ही हैं, जो दोयम जिंदगी जीते हुए अपनी मौलिकता भी भूल चुके हैं। किसी कम्पनी में यदि बंगाली, मराठी, उड़िया, मद्रासी जीएम है, तो अपनी तरफ़ के मजदूर से मातृभाषा में बात करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा। लेकिन एक बिहारी सुपरवाइजर भी अपने मुंशी से टूटी-फूटी हिंदी में रौब झाड़ेगा। बड़े शहरों में वर्षों से रह रहे लोग 'बिहारी' कहलाने में ख़ुद की तौहीनी समझते हैं। इसलिए पहचान ही छुपा लेते हैं। और यहीं लोग 'जिअ हो बिहार के लाला जिअ तु हजार साला...' वाला गाना सुनकर आत्ममुग्ध भी हो जाते हैं।

काहे कि बिहारी हैं हम...

आपने कभी सोचा है, आजादी के 73 वर्षों बाद भी देश के मानचित्र पर हम कहां हैं? पुरानी कंपनियां धीरे-धीरे बंद तो होती ही गई। पिछले 50 वर्षों में ढंग की एक अदद फैक्टरी नहीं लग सकी। ना तो जरूरत के हिसाब से अच्छे कॉलेज खुलें। ना ही अस्पतालों की संख्या बढ़ाई जा सकी। वैसे भी 12 करोड़ की आबादी वाले, जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय रहा ही नहीं। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। उस भाषा में साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी होगी कि नहीं। फ़िल्मों में भी अक्सर हमारे भाषा, वेशभूषा, चलन, रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। नकारात्मक छवि परोसी जाती है। और हम हैं कि इसका विरोध नहीं कर, उल्टे मौन समर्थन देते हैं।

हमारे यहां छात्र हैं, दर्शक हैं, उपभोक्ता हैं, कलाकार हैं, खिलाड़ी हैं, साहित्यिक प्रतिभा हैं, अभिनेता हैं, बीमार हैं, डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, कारोबारी हैं, श्रमिक हैं। लेकिन अफ़सोस, सभी कोई चीजों की पूर्ति के लिए बाहर पर ही आश्रित हैं। बाहर, मतलब वैसे राज्य जिनके लिए हम महज़ बाजार, ख़रीददार और मैन पावर भर हैं। हम उनके यहां बने समान ख़रीदकर, उनके अस्पताल में इलाज कराकर, उनके शैक्षणिक संस्थानों में पढ़कर, उनकी फिल्में देखकर, उनकी दवा खाकर, उनके कपड़े पहनकर, उनकी कम्पनियों में काम कर, उनकी इकॉनमी में बढ़ोतरी करते ही हैं। बदले में, दोतरफ़ा मार भी झेल रहे हैं। मैन पावर के रूप में वर्षों से प्रवासी के रूप में काम करते हुए, ना तो वे ही हमें अपना सके। और ना अपने राज्य में हम आज तक अपनी ज़मीन तैयार कर पाए।

उद्यमिता की भावना तो हममें कभी रहीं ही नहीं। बाहर में सड़कों पर ठेले घुमाकर जूस या सब्जी बेंच लेंगे। लेकिन अपने यहां छोटा काम करने में शर्म आती है। सही है कि बाहर जाकर कुछ हजार लोगों ने मेहनत से ज़िंदगी बदली है। लेकिन लॉकडाउन में वापस लौट रही लाखों की भीड़ चीख-चीखकर किस बात की गवाही देती है? यह भी गौर करने लायक है। चीजों को बदलने की जिम्मेवारी जिस सत्ता पर होती है। उसके लिए भी हम महज़ वोट बैंक हैं। राजनेताओं के लोकलुभावने भाषण, मुफ़्त के राशन, अनुदान, जाति-धर्म के प्रायोजित लफड़ों में उलझी जनता, जब तक वोट बैंक बनी रहेगी। तब तक बाढ़, सुखाड़, गरीबी, बेरोज़गारी व पलायन से जूझते बिहार को 'बीमारू' राज्य के ठप्पे से छुटकारा नहीं मिलने वाला।

काहे कि बिहारी हैं हम...

लेकिन अब हमें जागना होगा। मां, मातृभूमि और मातृभाषा को अपनाकर इसी ज़मीन पर अपनी तक़दीर की इबारत लिखनी होगी। हमारा बिहार, प्यारा बिहार!!!

©️श्रीकांत सौरभ


01 June, 2020

सच्ची घटना : जब हैजा से अयोध्या वाले 'महात्मा जी' मरे

यह किस्सा वर्ष 1940 का है। तब पूरे देश में हैजा महामारी फैली थी। इलाज नहीं होने और छूत रोग के चलते यह जानलेवा बीमारी तेज से पसरी। शायद ही कोई गांव रहा होगा, जहां से रोज लाशें नहीं निकलती होंगीं। ग्रामीणों में दहशत के कारण गजब का भ्रम हो गया था। संक्रमित आदमी के पास जाने से ही नहीं, डरकर कल्पना करने या नाम लेने से भी यह बीमारी किसी को अपने चंगुल में जकड़ लेती। मृतक के घर पड़ोसी का जाना तो दूर की बात थी। घर वाले भी पास नहीं फटकते थे।

बीमार कितनी खतरनाक थी। इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं। जिसको भी यह बीमारी लगती। अचानक से आठ-दस बार पतला दस्त होता। उल्टियां होतीं। डिहाइड्रेशन से ब्लड प्रेशर नीचे चला जाता। और कुछ ही घन्टे में मौत हो जाती। बिना लोगों के सहयोग के मृतकों का दाह संस्कार करना गंभीर समस्या थी। गांव के पश्चिम टोला में मियां जी 'खलीफा' ही एकमात्र साहसी और जीवट करेजा के इंसान थे। उन्हें सूचना दी जाती तो वे गड़ी (लकड़ी का पहिया वाली छोटी बैल गाड़ी) लेकर आते। एक साथ चार-पांच लाशों को लादकर दूर दक्षिण दिशा वाले सरेह में गड्ढा खोदकर दबा देते।

उसी समय के मेरे गांव कनछेदवा (पूर्वी चंपारण) में एक जमींदार आदमी के घर पर कोई सन्यासी ठहरे हुए थे। अयोध्या से आए थे। गुरु महाराज होने के कारण उनका शिष्य के यहां साल में एक बार आना जरूर होता था। अन्य लोग भी उनके सान्निध्य सुख में प्रवचन सुनने या समस्या का समाधान कराने के लिए पहुंचते।

वे बस इतना ही कहते, 'भगवान पर भरोसा रखिए। सब ठीक हो जाएगा।' कुछ ऐसा ही विश्वास गृहस्वामी को भी हो चला था। साधु बाबा बहुत फक्र से कहते, 'मैं सन्यासी आदमी हूं। ध्यान, प्रणायाम, तपस्या में लीन रहने वाला। मंत्रोच्चारण से मुझे तो यह बीमारी छू भी नहीं पाएगी।

इस वाकये के दो घन्टे बाद ही साधु बाबा को दिशा मैदान की तलब लगी। लोटा में पानी भरे थे कि पेट में जोरदार गड़गड़ाहट हुई। तेज आवाज में बोले, 'फलाना बाबू, जोरों की लगी है। क्या घर के पास ही खेत में निपट लूं?'

यह कहते हुए चापाकल से गिनकर 20 कदम की दूरी पर ही चले थे। बर्दास्त करना मुश्किल हो गया तो धोती उठाकर वहीं बैठ गए। हलकान होकर आए कि 10 मिनट बाद दूसरी बार, फिर तीसरी बार, फिर चौथी बार... और पांचवीं बार में महात्मा जी चापाकल के पास ही ढेर हो गए। पानी वाला लोटा बगल में लुढ़क गया। वहीं पर पड़े पड़े उनके मुंह से उल्टियां होने लगीं। पिछवाड़े में धोती से पतला द्रव बहे जा रहा था।

लेकिन भय के मारे कोई देखने भी नहीं गया। सभी संक्रमित की तरह कुछ घन्टे बाद ही उन्होंने भी वहीं पर दम तोड़ दिया। फिर क्या था। शव को तो ठिकाने लगाना ही था। मियां जी (खलीफ़ा) को बुलाया गया। उन्होंने अकेले कंधे पर लादकर शव को गड़ी में रखा। और बियाबान में ले जाकर निपटा दिया।

©️श्रीकांत सौरभ (*जैसा कि संस्मरण के तौर पर गांव के बड़े-बुज़ुर्गों ने सुनाया। उसी पर यह किस्सा आधारित है।)


31 May, 2020

तहे तहेे दिल से लहे लहे दिल से सुक्रिया आदा कर$..!

अथ श्री नाच महातम कथा : चम्पारण में पलल-बढ़ल ऊ अदमी के लड़िकाई भी कवनो लड़िकाई भइल। जवन लवंडा नाच देखिके सग्यान ना भइल। तनिका इयाद करीं बरिस 1985-99 के गुजरल जमाना। गांव के शादी-बियाह के सीजन, जब बरिआत मरजाद रहत रहे। जवना बेरा मनोरंजन के खातिर ना डिश टीवी, ना एंड्राइड मोबाइल के सुविधा रहे। सिनेमा हवल खलिहा शहरे में रहे। ओह घड़ी केतना नाच मंडली जवार में हिट रहे।

पूर्वी चम्पारण के कोटवा के मैनेजर जादो, मंटू सिंह, बकुलहरा के चौधुर जी, गायघाट के वीरा जादो के नाच के सुपर स्टार लवंडा अनिल आ ऐनुल, जादोपुर के रामशंकर यादव के नाच, जिलदार जादो के नाच के गंगा लवंडा, इब्राहिमपुर के खीरा जादो के नाच के लवंडा रमेश का नाम अभियो केतना जने के इयाद होई। पश्चिमी चम्पारण (बेतिया) के रुलही के संत दुबे, मंगलापुर के महातम पांडे से लेके रामनगर, नरकटियागंज आ बगहा तक ले..! अब केतना नाच मालिक का नाम लिखल जाव। बाकिर जेतना भी नाच पार्टी रहे सबमें थरुहट आ नेपाल के बेसी कलाकार भरल रहे।

नगारची, तबालची, ढोलकहिया, हरमुनिया मास्टर, बैजू भा कैसियो मास्टर, कॉमेडियन, अनाउंसर सभके महातम रहे। केतना बखान कइल जाव। एहि से बुझ लीं, एगो नीमन जोकर अकेले प्रोग्राम हिट करा देवे। मज़ाक मज़ाक में गहिराह बात कह देवे। मने केहु के बेजाए ना लागे, उलटे देखनिहार हंस देवे। आ जवन बरिआत में लवंडा नाच ना जाए ओमे कबो-कबो ढेला चल जाए। खिसियाके सामियाना के डोरी काट द स लइका। कहल त इहो जाला कि बीरा जादो आ महातम पांडे के नाच के हजुरा, बाई जी के नाच के जाए।

जहिया गांव में कवनो बरिआत आवे, छावरिक सभे टोह में रहे, केकर नाच आइल बा। ओने बरतिया खाए जाए, एने नाच के टीम-टाम शुरू हो जाए। जब लाउडस्पीकर से हरमुनिया, बेंजु से बजावत लहरा सुनाए लागे। नाचदेखवा सरतिया लो के बेचइनी बढ़ जाए। केतना जल्दी बरतिया के खियाके, सभे नाच देखे जनवासा में पहुंच जाव। 52 चोप के सामियाना के भीतरी बिछावल दरी प लइकन भर जा स, चारु ओरी से गोल-गोल घेरके। आ बीचे में प्रोग्राम होखे। उमिर के लिहाज़ से बड़-बुज़ुर्ग लो चोप के अरिया बइठे लो नुकाके भा राउटी में सुतिके झांके लो।

कुछ रसिकदार लो जइसे दूल्हा के चाचा, मामा, फूफा, मउसा के कपार प जब सुबोधवा के निसा चढ़ जाए। उमिर के लोक-लिहाज ना कके अगाड़ी बइठके रुपया लुटावत रहे लो। बंदूक आ गद्दी के सवखिन कम ना रहलें। बोलीं त अइसन शमां बन्हा जाए सामियाना में, एक बेर आरती से शुरू भइल सफ़र चितरहार, सहला प्रोग्राम से लेके डरामा प जाके खतम होखे। का मजाल जे नाचदेखवा तनिको एने ओने हिल जास ओहिजा से। हाफ इंच छेदा वाला ढोडी देखावत, चउकी के तुड़ देवे वाला बुता से गोड़ कूदावत, डाड़ लचकावत लवंडा। कवनो के लुक एकदमे हीरोइन निहर रहे त कवनो छाका जइसन लाग$ स।

मने चोकटाइल गाल वाला बुढ़वन लवंडा के बनावटी केस। पाउडर के डिब्बा लगाके बनावल छाती आ ओहनी के गोड़ के फाटल मोजा देखिके खूबे हंसी आवत रहे। मनोरंजन के बाचल खुचल कमी ऊ लो के मुंहवा प आइल पसेना पूरा क देवे। जब गलिया प पोतल मुरदासंख दहा जाए त चेहरा देखे लायक रहे। ओह बेरा गनवो कइसन कइसन आवत रहे। 'बथता आई हो दादा बथता..., गरमी से चुअता पसेनवा..., मारुती कार के अजब बहार इयार तनि हांक के देखना..., कॉलेजिया लईका ढूंढ़ लईहा हमरा ला बाबू जी... लवंडा बदनाम हुआ नसीबन तेरे लिए... केतना गिनावल जाव! 'सइया हमार हो नथुनिया पे गोली मारे..' गानवा प त केतना नचनिया सभे प गोली भी चल गइल रहे।

जब प्रोग्राम अपना चरम प रहे। ठीक ओहि बेरा भरल सामियाना में गुलाब जल वाला स्प्रे छिड़िकाए लागे। नाच के जोकर से ओकर ओतन नापल जाए। शुरुआत में आरती होखे। आ ड्रामा से पहिले सहला गावे लो, एमे सभे कलाकार ग्रुप में उतरे। रउआ इयाद बा कि भुला गइल बानी, जब 'चमकता जगमगाता है अनोखा राम का सेहरा... गावत गावत कवनो लवंडा, एकबैक समधी के गोदी में जाके बइठ जाए, नेग ला।

ओहि में दूल्हा के बाबूजी के नाम बोलवावेला केहु पहुना, चुपचुपवा कागज प नाम लिखके आ एगो दस टकिया लगाके लवंडा भीरी पहुंचा देवे। आ लवंडा गावल छोड़िके बिचही में कमरी पीस के मुंह चोन्हिया के कहे लागे, ' तहे तहे दिल से... लहे लहे दिल से सुक्रिया आदा... कर$ तानी रे दादा..!" ओकरा बाद गजबे लइकन के थपड़ी पिटाए लागे। अब जे होखे, जिनगी में जवन कुछो बीत जला ऊ लवटी के ना आवे। नाच त अभियो केनहु केनहु देखे के मिली जाला। मने ऊ माजा अब कहां भेटाए वाला बा।

©️श्रीकांत सौरभ


29 May, 2020

"काका हो माल खरचा कर$, सब एहिजे बेवस्था हो..!"

जब से गेनापुर जैसे पिछड़े गांव में मिनी बैंक यानी सीएसपी खुला था। सुभाष के बल्ले-बल्ले हो गए थे। मैट्रिक तक पढ़ा था। कम्प्यूटर चलाने की जानकारी भी थी। उसने सीएसपी की फ्रेंचाइज़ी ले ली। और पैसे की जमा-निकासी के साथ ही किसानों से जुड़े अन्य फ़ॉर्म भी भरने लगा। कम ही समय में भोले-भाले खेतिहर मजदूर किसानों में उसकी पैठ बन गई थी।

दीनानाथ उर्फ दीनू उसका लंगोटिया यार था। हमेशा गुटखा से मुंह को लभेरे रहता, पल्सर बाइक से चौक-चौराहे पर घूमता और ब्लॉक की नई-नई योजनाओं की टोह में रहता था। फुर्सत में सीएसपी पहुंच जाता। वह बिचौलिया का काम कर पेट्रॉल से लेकर घर का खर्च चला ही लेता। जरूरतमंदों को सूद पर पैसे देकर अच्छी कमाई भी करता था। इसीलिए दोनों में ख़ूब पटती थी, मिल-जुलकर शिकार करते। आज वह सीएसपी आया ही था कि उसे पड़ोसी चुलाई काका दिख गए।

"बोलीं महतो जी, बड़ी देर से खड़िआइल हई। पसेना से पूरा देही भींज गइल बा। एतना घामा में केने चलल बानी?" यह पूछते हुए सीएसपी संचालक सुभाष ने उन्हें एक नज़र देखा और लैपटॉप पर नजरें गड़ा दी।

बुजुर्ग चुलाई महतो ने हाथ में पकड़ी लाठी को कांख के नीचे टिकाया। आंखों का मोतियाबिंद पक जाने के कारण साफ़ नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए नाक पर चुकर आए ढीले चश्मे को उपर की तरफ़ सरकाते हुए बोले, "का दु मोदी जी सभके खातवा में दु हजार भेजत बाड़े। हमरा ना मिली का बबुआ?

"काहे ना मिली। आवेदन भरीं। रउआ खाता में भी आई।" इस पर महतो जी ने फिर सवाल किया, "ओकरा ला कवन-कवन कागज़ करावे के पड़ी?"

"कवनो हाथी-घोड़ा थोड़े लागी। आधार कार्ड, बैंक खाता, खेत के रसीद आ राउर अंगूठा के फिंगर प्रिंट देवे के पड़ी।" सुभाष का जवाब सुन उन्होंने ने कहा, "सब कागज़वा त बटले बा। मने जमींन के रसीदवा कइसे कटी? अब बुढ़ौती में हमरा से दउड़ भाग होई।"

इसके आगे कुछ और बातें होतीं। वहीं पर खड़े दीनू ने सुभाष की ओर देखकर हौले से आंखें मिचकाई। इशारों में ही दोनों की बातें हुई और एक कुटिल मुस्की छूट पड़ी। दीनू ने मुंह से मटमैले पीक को बाहर थूका दिया। जोर से गला खंखारते हुए कहा, "काका हो माल खरचा कर$, सब एहिजे बेवस्था होई जाई।"

"हम ठहरनी निपढ़ अदमी। एहि से नु पूछत बानी, केतना देवे के होई?" अबकी उनके सवाल पर सुभाष ने चिरपरिचित घाघ स्वर में कहा, "रेट फिक्स बा। दु सौ रुपए में कृषि विभाग के रजिस्ट्रेशन होई। आ बाकी काम ला दीनू से बतिया ली।"

उसने तपाक से कहा, "एमे रेट का पूछे के बा। सब केहु दु हजार देता। काका 15 सौ दे दिहे त काम हो जाई।" दीनू की मांग सुनते ही महतो जी ने कहा, "हमनी गरीबन के लगे एतना पइसा कहवां से आई। तनिका कम करीं।"

यह सुन उसने कहा, "एहि से पान सौ कमे मंगनी ह। एमे ऊपर ले नु खरचा लागेला। ना दिहल जाई त लाइने में रह जाएम। देखनी नु ढोड़ा भगत के, कहत रहले एके हजार में हो जाई। छव महीना से उनकर काम पेंडिंग में बा।"

"छोड़$ मरदे ढोड़ा के का बात, ढेर तेजा बनेलें। बेसी होशियारे के नु तीन जघे लागेला।" महतो जी ने कमर में ऐंठकर खोंसी गई धोती के किनारे को बाहर किया। उसमें से दो सौ रुपए के दो, सौ रुपए के दो और 10 रुपए के 10 तुड़े-मुड़े नोट निकाले।

फिर सुभाष को दो सौ रुपए दिए और खींसे निपोरते हुए बोले, "तीन हजार में पाड़ी बेंचले रहनी। मेहरारु के डायरिया भइल रहे। पानी चढ़ाई में उठ गइल। अब एतने बाचल बा, रउआ कम्पूटर में नाम चढ़ा दिही।"

आप पढ़ रहे हैं श्रीकांत सौरभ की कहानी - बिचौलिए

उसने रुपया का काउंटर में रखकर लैपटॉप से नेट कनेक्ट किया। मोज़िला ब्राउज़र में कृषि विभाग के वेबसाइट पर जाकर फ़ॉर्म खोलकर भरने लगा। कुछ देर के लिए वहां चुप्पी छा गई। सर्वर व्यस्त देख सुभाष ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, "बेटवा कमाता त का हो जाता महतो जी? सब रुपया दाबके का करेम?"

मानो उसने ये कहकर उनकी दुखती रगों पर हाथ फेर दिया। वे शुरू हो गए, "अब उ हमार बेटा ना अपना मेहरी के मरद बन गइल बा। बियाह भइला दु साल भइल। आजु ले एको चवनी कमाके देले होई। पतोह ओइसने बिया। एह घड़ी के नवकी जनाना आव$ तारी स। आवते 'पिया सुनरा हम सुनरी अउरी सभे बनरा बनरी' जपे लागत बाड़ी स। आ एगो बात जान लीं बबुआ, एकलवत लइका जनमावल पाप के काम बा एह बेरा।"

इसी बीच फ़ॉर्म का काम पूरा हो गया। उसने प्रिंटर से एक पन्ना निकाला। उसका लेमिनेशन कर उनको देते हुए कहा, "राउर रजिस्ट्रेशन हो गइल। ई परची सम्हार के राखेम। फेरु विहने संझिया के आएम त आवेदन भरा जाई।"

इसके बाद महतो जी दीनू से मुख़ातिब होकर बोले, "हई पान सौ राख ल$ आ एक हज़ार उधारे रही, जल्दिए चुका देम।" तो उसने भाव खाते हुए तैश में कहा, "ना ना एमे उधार-बाकी ना चलीं। किसान सम्मान निधि के पइसा नु ह। एहिंगे साल में छव हजार उठइब$ का!"

"आछा त ठीक बा। करजे बुझिके अपना ओरी से एक हजार लगा द। हम दे देहम।" इस बात पर उसने कहा, "10 रुपया सैकड़ा बेयाज लागी, एक हजार पर 100 रुपया के महीना। आ जबे तोहार पइसा एहिजा खाता में आई। कुल्ही निकाल के भर देवे के होई। मंजूर होखे त बोल$?"

इस बार महतो जी ने बिना किसी हिल-हुज्जत के उसकी शर्त मान ली। बस इतना ही बोले, "आछा जइसन तोहार विचार। मने देखिह$ बाबू, काम गबड़ाए के ना चाहीं।" बाहर में धूप तेज निकल आई थी। उन्होंने लू से बचने के लिए कंधे पर रखे गमछे को पगड़ी बना सिर में लपेटा। और लाठी टेकते हुए वहां से निकल लिए।

©️श्रीकांत सौरभ (नोट - मनोरंजन के लिए लिखी गई यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों या पात्रों के नाम की, किसी भी वास्तविक जगह, जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)


28 May, 2020

गाते, बजाते या संगीत सृजन करते समय, आप दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होते हैं!

चुरा लिया है तुमने जो दिल को..! दम मारो दम मिट जाए गम फिर बोलो सुबह शाम...! नीले नीले अंबर पर चांद जब आए, ऐ मेरे हमसफ़र एक ज़रा इंतज़ार..! ओ ओ जाने जाना ढूंढे तेरा दीवाना...! आंख है भरी भरी और तुम मुस्कुराने..! सन 1980 से लेकर वर्ष 00 तक के इन गानों में एक बात ख़ास है। सभी में म्यूजिक डायरेक्टर ने गिटार का भरपूर प्रयोग किया है। आरडी वर्मन, बप्पी लहरी, मिलिंद आनन्द, नदीम श्रवण से लेकर एआर रहमान आदि तक ने।

दरअसल गिटार की धुन की मधुरता ही ऐसी होती है। इसमें भले ही ठहराव नहीं होता। फिर भी इसकी आवाज़ सीधे किसी के रूह को छूती है। वैसे भी कला और साहित्य में संगीत का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है। पूरा सामवेद ही इसी पर आधारित है। संगीत की जानकारी किसी के भी जीवन में बहार लेकर आती है। कहा भी गया है, "जब आप गा, बजा या संगीत सृजन कर रहे होते हैं। उस समय आप दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होते हैं।"

लेकिन विडंबना है कि ये हुनर किसी को भी विरासत में ही मिलता है। प्रशिक्षण से उसमें महज़ निखार लाया जाता है। हर आदमी के जीवन में एक मोड़ जरूर आता है। जब वह किसी न किसी वाद्य यंत्र की ओर आकर्षित जरूर होता है। बांसुरी, हारमोनियम, सितार, बैंजो, तबला, नाल, वायलिन, मेंडोलिन, पियानो (ऑर्गन), गिटार...! जिसके प्रति भी हो। अब इसे सिनेमा के गीतों का असर कहें या ग्लैमर। कैम्पस के दिनों में किशोरवय लड़कों में एक बड़ा भ्रम रहता है। वे गिटार बजाएंगे तो लड़कियां उनकी तरफ़ खींचीं चली आएंगी।

ऐसा होना स्वाभाविक भी है। दरअसल ये उम्र ही ख़्वाबों और ख्यालों में खोने की होती है। कल्पना में होती है एक ऐसी रूमानी जगह, जहां कोई नहीं हो। बस हरी-भरी पार्क हो, जंगल वाले पहाड़ की ढलान हो, नदी, समंदर की उफ़नाती लहरें हों। हम हो, 'वो' हो और साथ में गिटार। हम गाते जाएं, बजाते जाएं और 'वो' सुनती रहे! शायद इसी कारण से पूरी दुनिया के युवाओं में गिटार जितना क्रेज़ है, उसकी दूसरी कोई सानी नहीं।

लेकिन इतना जान लीजिए, लड़की से दोस्ती कर लेना चुटकी का खेल हो सकता है। जबकि गिटार सीखने के लिए महीनों कम पड़ जाएंगे। इसे सीखने के शुरुआती दिन भी कम कष्ट से भरे नहीं होते। रियाज़ के दरम्यान स्ट्रिंग्स (तारों) को दबाने से, बाएं हाथ की चार अंगलियां (अंगूठा को छोड़कर) उपरी भाग घिस जाता है। किसी किसी की अंगलियों में तो फटकर खून भी निकल जाता है। उनमें गड्ढे पड़ने से काले व बदसूरत दिखने लिखते हैं। और इसका दर्द तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है।

लड़कियों को रिझाने वाली बात में यह भी गौर करने लायक है। दो जोड़ों में परस्पर प्यार तभी उमड़ता है। जब दोनों के ही मन में ऑक्सिटॉक्सिन और डोपामाइन हार्मोन का स्राव हो। इसका सूरत और सीरत से कोई वास्ता नहीं होता। उसी तरह आपके भीतर संगीत नहीं है, तो लाख हाथ-पांव मारते रह जाइएगा। कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा, निराशा ही हाथ लगेगी। अंत में वहीं बात हो जाएगी, न तो ख़ुदा मिला न विसाले सनम! और जितने भी माहिर म्यूजिशियन हैं, उनका यहीं अनुभव है।

आप किसी एक वाद्य यंत्र में पारंगत हों तो अन्य म्यूजिकल इंस्ट्रुमेंट बजाना भी आपके लिए आसान हो जाते हैं। बता दें कि गिटार का अविष्कार 17वीं सदी में स्पेन में हुआ था। और 18वीं सदी में ब्रिटेन के युवाओं पर यह छा गया था। गिटार दो तरह के होते हैं, हवाईयन और स्पेनिश। हवाईयन में ठहराव होता है। इससे क्लासिकल सांग्स बजाए जा सकते हैं। लेकिन परेशानी ये है कि इसे पोर्टेबल रखकर बजाना पड़ता है। जबकि स्पेनिश की धुन में ठहराव नहीं होने के बावजूद मोबिलिटी है। बिना किसी सहारे के कोई भी, कहीं भी खड़े होकर कॉर्ड बजाते हुए गा सकता है।

यह लकड़ी से बना होता है जिसमें मोटे-पतले नायलॉन के छह स्ट्रिंग (तार) लगे होते हैं। इन्हें ट्यून करने के लिए छह घुंडीया भी लगी होती हैं। इसकी कीमत चार हजार से लेकर 50 हजार रुपए तक होती है। शुरुआत में सीखने के लिए चार हजार रुपए वाला एकॉस्टिक गिटार ही मुफ़ीद रहता है। इस पर अच्छे से कॉर्ड बजाया जा सकता है। सीखने के बाद ग्रुप परफॉर्मेंस या म्यूजिक कंपोज के दौरान लीड, बेस और रिदम बजाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक गिटार लिया जा सकेता है। जहां तक सीखने का सवाल है, यदि कोई पहले से किसी एक वाद्य यंत्र को बजाना नहीं जानता। उसे बुनियादी चीजें समझने में थोड़ा समय लगता है।

हां एक बात और, ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ानी या हाथों में लेकर फ़ोटो खिंचानी हो तो अलग बात है। लेकिन सही मायने यदि सीखने की ललक है। तो एक पुरानी कहावत है, "जल पियो छानकर, गुरू करो जानकर!" संगीत का गुरु उसी को बनाइए जिसका ध्यान आपके पॉकेट से ज़्यादा सिखाने पर हो। भले ही मीठा-मीठा नहीं बोलकर डांटने वाले हों। देश की किसी भी छोटे-बड़े शहर में ऐसे गुरुओं की संख्या भले ही कम है। लेकिन ढूंढने से तो भगवान भी..!

©️श्रीकांत सौरभ (पढ़ाई के लिए पटना प्रवास के दौरान शुरुआती दिनों में वाद्य यंत्र सीखने का प्रशिक्षण लिया। योग्य गुरु के सान्निध्य में महीनों तक तमाम प्रयास के बावजूद ख़ुद से धुनें निकालने का हुनर नहीं सीख पाया। इतना जरूर था कि संगीत की बुनियादी समझ आ गई। बचपन से तमन्ना रही इस क्षेत्र में कुछ अच्छा करने की। लेकिन नियति ने लेखक बना दिया।)


वो जेठ की तपती दुपहरी, नहर में डुबकी लगाना और गाछी का आम तोड़कर खाना!

जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है..! वर्ष 1990 का दशक, यानी एक ऐसा दौर जिसके आस-पास जन्मे लोग, कई सारे बदलाव का गवाह हैं। चीजों का मैन्युअल से डिजिटल होने का साक्षी भी हैं। तब टीवी पर काका जी कहिन, मालगुड़ी डेज, व्योमकेश बख्शी, तलाश, नीम का पेड़, रामायण, महाभारत, चित्रहार रंगोली, द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान, आलिफ़ लैला, कृष्णा,चंद्रकांता जैसी धारावाहिकों से शुरू हुआ सफ़र शक्तिमान, स्वाभिमान और शांति पर आकर ठहर गया था। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बुजुर्ग सभी इन कार्यक्रमों के दीवाने थे।

गाने आंखों से नहीं कानों के रास्ते सीधे दिल में उतरते थे। यानी म्यूजिक देखने नहीं सुनने की चीज़ थी। मो. अजीज, पूर्णिमा, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, नीतिन मुकेश, शब्बीर कुमार और अमित कुमार जैसे नकियाते सिंगर्स की गायिकी के दिन लद चले थे। और अलका याग्निक, कुमार शानू, उदित नारायण, सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल इंट्री के साथ ही धमाल मचा रहे थे। मड़ई, घर या फुस का दालान हो, चौक-चौराहे की पान दुकान, बस या अन्य सवारियों की यात्रा हो। या फिर किसी के दरवाजे पर मांगलिक आयोजन।

टेप में कैसेट लगाकर फिल्मी गाने साउंड बॉक्स या एम्पलीफायर से बजते। तो सुनने वाले उसी में खो जाते। अधिकांश लड़के गाने गुनगुनाते हुए रोमांटिक हो जाते। और कुछ देर के लिए ख़ुद को सलमान, गोविंदा, शाहरुख, आमिर खान ही समझने लगते। बप्पी लहरी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आरडी वर्मन की चिरपरिचित धुनों के खात्मे के साथ ही नदीम श्रवण और जतिन ललित की सदाबहार जोड़ी ने म्यूजिक इंडस्ट्री को एक नया आयाम दिया था, धाचिक धाना बीट और मेलोडी म्यूजिक के साथ। 15-20 रुपए में मिलते थे टिप्स, टी सीरीज, वीनस, एचएमवी के रील वाले ऑडियो कैसेट्स। उनके कवर पर कलाकारों को निहारना भी अलहदा सुख देता था।

उन दिनों लोगों में पत्र-पत्रिकाओं को सिरहाने छुपाकर, चाट-चाटकर पढ़ने का जुनून था। किसी के लिए नंदन, बालहंस, चंपक, क्रिकेट सम्राट, तो किसी के लिए सरस सलिल, मायापुरी, मनोहर कहानियां, मधुर कथाएं, सरिता, माया, इंडिया टुडे और किसी लिए प्रेमचन्द्र, शरतचन्द्र, कुशवाहाकांत से लेकर वेदप्रकाश शर्मा, केशव पंडित के उपन्यासों को पढ़ना ही, अव्वल दर्जे का साहित्यिक अध्ययन था। इया, दादी या नानी की रातों की कहानियों में भी परियों या भूत-प्रेत का ही बसेरा रहता।

बेरहम वक्त के थपेड़ों से भले ही हम सब कुछ भूल जाएं। लेकिन इस काल में बिहार व उत्तरप्रदेश के गांवों में जन्म लिए, पले-बढ़े लौंडे कुछ चीजों को मरते दम तक नहीं भुला सकते। रह-रहकर याद आ ही जाती है, बचपन से लेकर किशोरपन के शैतानियों की। चारा मशीन से पुआल काटने की, गिल्ली-डंडा, गोली (कंचे), कब्बडी, लट्टू नचाने, लंगड़ी-बिच्छी खेलने की, स्कूल से भागकर लवंडा नाच या वीसीपी से रंगीन टीवी पर चल रही फ़िल्म देखने की, बदन को झुलसाती जेठ की दुपहरी में तपती सड़क पर नंगे पैर घूमने की, पापा के पॉकेट से सिक्के चुराकर अशोक जलजीरा, संगम आंवला पाचक या शिखर, मधु गुटखा खरीदकर चाटने या फांकने की, पेड़ से जामुन और लीची तोड़कर खाने की।

बगीचे में जाकर आम तोड़कर खाने के इतने किस्से हैं कि शायद एक पारी में उसे समेटा ना जा सके। रोहिणी नक्षत्र उतरते ही बीजू और जर्दा आम पकने लगते। इन दिनों गर्मियों की छुटियां भी हो जातीं। कोई सोनू पटना से, कोई विनीत दिल्ली से, कोई चुन्नू मोतिहारी से तो भोलू बेतिया से आता, छुट्टी बिताने। गांव किसी का घर, किसी के लिए ममहर तो किसी के लिए फुफहर होता। जब हमउम्र बच्चों की चंडाल चौकड़ी नहर में डुबकी लगाती। ग़ज़ब की धूम मचती। कोई सांस रोके मिनट तक पानी में छुप जाता। कोई तैरते हुए तेज धार को पछाड़ इस पार से उस पार आता-जाता। तो कोई किनारे ही कमर भर पानी में खड़े होकर तैरने की ट्रेनिंग लेता।

यहां के बाद अगला पड़ाव गाछी में होता। जहां बातों का अंतहीन सिलसिला चल पड़ता। जितने मुंह उतनी बतकही। उनमें हक़ीकत कम फ़साना ज़्यादा रहता। वीडियोगेम, वाकमैन, नागराज, चाचा चौधरी के अगले कॉमिक्स, शक्तिमान के किलवीस, गंगाधर, सुपरमैन की बातें होतीं। वहीं कभी-कभी मनोरंजन के लिए हिंदी, भोजपुरी गाने गाते हुए सभी झूमने लगते। दोल्हा-पाती, लूडो, शतरंज, व्यापार या ताश खेलकर टाइम पास किया जाता।

इसी बीच कोई लड़का सेनुरखा बीजू, जर्दा, सबुजा (चौसा) या डंका (मालदह) आम के पेड़ पर चढ़कर डाढ़ी हिलाता। फिर 'गछपक आम' भहराकर गिरने लगते। जिन्हें चूसकर-चूसकर सबका पेट भर जाता। हाथ धोने के लिए घड़े में पानी भरकर लाया जाता। कच्चे आम का 'भांजा' भी ख़ूब बनता। आम को ब्लेड से छीलकर महीने टुकड़े में काटा जाता। फिर उसे सूती कपड़े के टुकड़े में रख उसमें हरी मिर्च, आचार डालकर मुट्ठी से पकड़कर बांध लेते। और उसे पेड़ के तने पर जोर-जोर से पटकते। इसके बाद सभी बच्चे मिल-बंटकर चटखारे लेकर खाते। जिसके तेज खट्टे स्वाद को याद कर आज भी मुंह पानी से भर जाता है।

खैर, गांव अभी भी हैं। हर साल गर्मी की छुटियां भी आती हैं। लेकिन आज के बच्चों में ना तो वो उमंगें हैं। ना ही उतनी संख्या में बगीचे बचे हैं। पहले की तरह इस पीढ़ी को आज़ादी भी नहीं मिल पाती। नहर, पोखर, नदी आदि नई पीढ़ी के लिए महज़ प्राकृतिक जल स्रोत भर हैं। चारों तरफ़ हाइजीन का ढिंढ़ोरा पीटा जा रहा है। इस लिहाज़ से कान्वेंट में पढनेववाले बच्चों के लिए उसमें नहाना तो दूर की बात है। उसमें पैर भी नहीं रखना चाहेंगे।

फिटनेस के लिए आउटडोर गेम के नाम पर कहीं-कहीं क्रिकेट खेलते बच्चे जरूर दिख जाते हैं। लेकिन अब ज़्यादातर इनडोर गेम का चलन है। मोबाइल में पबजी, टिकटोक, विगो का आंनद ले रही, और फ़ास्ट फ़ूड के सेवन से शरीर को बेडौल करती पीढ़ी क्या जानें। तकनीकी किसी कदर उनसे मासूमियत, रचनात्मकता, मौलिकता, सृजनात्मकता छीनकर, उन्हें एकांकी, हिंसक, जिद्दी और गुस्सैल बना रही है। उनमें तनाव और अवसाद भर रही है। प्रकृति से कटकर कृत्रिम जीवनशैली अपनाने से, उनका शारीरिक व मानसिक स्तर पर जो नुकसान हो रहा है। उसकी भरपाई शायद ही हो पाए।

©️®️श्रीकांत सौरभ


26 May, 2020

"मम्मी उठ$ना स्टेशन आ गइल अपना घरे चलल जाव"

"ननकी ये ननकी, आंखि काहे नइखी खोलत रे बबुआ!", लालमती देवी ने बच्चे को दो-तीन बार झकझोरा। कोई सुगबुगाहट नहीं देख पति से बोली, "ये जी सुन$ तानी। ननकी के देखीं ना का भइल बा?"

उपर वाले बर्थ पर लेटे पति ने भन्नाते हुए कहा, "ओह! बुझाता तु हमरा के सुते ना देबू। जब नींद लाग$ता बोलके जगा देत बाड़ू।" और फिर से वह झपकी लेने लगा।

लॉकडाउन को लेकर प्रवासियों का पलायन चरम पर था। इसी क्रम में मजदूरों को लेकर लुधियाना से चंपारण जा रही स्पेशल ट्रेन पूरी रफ़्तार में थी। रात के 11 बजने वाले थे। एक तो जेठ का महीना होने के कारण भारी उमस थी। उस पर पंखा भी आग उगल रहा था। दूसरे, पेट में 24 घंटे से अन्न का एक भी निवाला नहीं जाने का कारण यात्रियों की नींद आंखों से कोसों दूर थी। ट्रेन के डिब्बे में किसी तरह लोग करवटें बदल कर अपनी मंजिल का इंतजार कर रहे थे।

पत्नी को दुबारा चिल्लाते देख हरिहर हड़बड़ाहट में बर्थ से नीचे उतरा। अंजाने डर से उसका कलेजा जोरों से धड़कने लगा था। उसने भी बेटे के चेहरे को दाहिने-बाएं हिलाया, सोनुआ ये सोनुआ, उठ ना रे बबुओ!'

मां ने गोद में बैठे बच्चे को ममतामयी नजरों से निहारा। उसका खाली पेट भीतर तक धंस चुका था। अर्ध बेहोशी की हालत में अबकी बच्चे ने पपनी झपकाते हुए आंखें खोली। थोड़ी देर तक शून्य में निहारता रहा, फिर मूंद ली। लालमती ने झोले से पानी की बोतल निकाली जो कि गर्म हो चली थी। बोतल का कॉक खोला और अंजुरी में थोड़ा सा पानी लेकर उसके मुंह पर छींटे मारा।

"मां दूध पिया द। बड़ी भूख लागल बा", उसने अंघियाए हुए रुंधे गले से कहा। मालूम पड़ रहा था, बच्चा सोते से अचानक जागा हो। यह सुनते ही लालमती ने तेजी से ब्लाउज के बटन खोला। और उसे सीने से लगाकर दूध पिलाने लगी। बच्चा धीरे-धीरे मुंह चुभलाने लगा।

"हे छठी माई, का जाने किसमत में का लिखल बा! केहु तरे हमनी के ठीकठाक घरे पहुंचा दिही। असो छठी घाटे चउबिसा कोसी भरेम जा।", बेटे के शरीर में हलचल देख वह मन ही मन मन्नत मांगने लगी। वैसे सुबह से लेकर रात तक वह भंगहा, मदनपुर के देवी माई, गांव के ब्रह्म बाबा, डिह बाबा, जिन बाबा जैसे कितने देवता-पितरों के नाम पर भखौती भाख चुकी थी। उसे खुद ही याद नहीं रही होगी।

जबकि सूखकर ठठरी पड़ चुकी उसकी छाती से दूध तो कब का निकलना बंद हो चुका था। दो महीना हो भी तो गया था ढंग से खाए हुए। पति का रेहड़ी पर घुमाकर सब्जी बेंचने का काम बिल्कुल ठप था। घर में राशन नाम मात्र के बचे थे। भंडारे और लंगर की कभी-कभार मिलने वाले रोटी व राजमा चने की सब्जियों के सहारे जिंदगी काटनी मुश्किल थी। रूम रेंट को लेकर मालिक ने भी अब दबाव बनाना शुरू कर दिया था।

दूसरों के देखा-देखी वे भी दो महीने से गांव लौटने का प्लान बना रहे थे। लेकिन पति, पत्नी का छह साल की बेटी और तीन साल के बेटे को लेकर लुधियाना से बेतिया आना, वह भी पैदल चलकर। परिणाम सोचकर ही हिम्मत जवाब दे देती थी। इसी बीच मालूम हुआ कि मजदूरों के लौटने के लिए स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है। टिकट बुक हुआ, एक सप्ताह बाद का नम्बर मिला। वे सपरिवार चल दिए।

"मां दुधवा आवते नइखे मुंह में..!" यह सुनकर दुविधाओं में घिरी लालमती का ध्यान उसकी ओर गया। उसने देखा, बोलकर बेटा फिर से अचेत हो गया था।

बगल में बैठी बेटी झुनिया ने दूध पिलाई थमाते हुए कहा, "मां गुड्डू के पिला द। हम एहि तरे सह लेम पानी पी पीके!" झुनिया गुड्डू से तीन वर्ष बड़ी थी। अब थोड़ी समझदार हो चली थी। उसे छोटे भाई की तकलीफ़ देखी नहीं जा रही थी। लेकिन कर भी क्या सकती थी बेचारी!

मां को अवचेतन मुद्रा में देख, उसने ख़ुद ही स्नेहवश भाई के मुंह में दूध पिलाई डाल दी। बोली, "ल$ गुड्डू चीनी-पानी ह। एकरे के दूध समझिके पी ल$। घरे चलल जाई नु त दादी भइस के दूध दिहे, छाली वाला।"

दरअसल लालमती दूध की उपलब्धता नहीं होने के चलते चीनी पानी का घोल तैयार करती। और दूध पिलाई में भरकर बेटे को दे देती पीने के लिए। झुनिया भी उसी से अपना काम चला लेती। लेकिन कब तक चलता यह?

आप पढ़ रहे हैं श्रीकांत सौरभ की कहानी - लॉकडाउन

ट्रेन को चले हुए आज दो दिन बीत चुके थे। और सफ़र था कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। रास्ते में कहीं-कहीं समाजसेवी युवक ब्रेड या केला आदि थमा देते थे। लेकिन यह तीन जने के लिए नाकाफ़ी था। झुन्ना तो दूध के अलावा कुछ छूता भी नहीं था।

हरिहर ने मोबाइल में समय देखा, रात के एक बजे का समय दिखा रहा। बटन दबाते ही पिक-पिक की आवाज़ के साथ उसका स्विच ऑफ हो गया। चार्ज नहीं होने से बैटरी जवाब दे गई थी। तभी लगातार हॉर्न बजाती ट्रेन की रफ़्तार धीमी होने लगी। गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर आकर रुकी थी। उसने खिड़की से झांककर जगह का अंदाजा लगाना चाहा।

लाउड स्पीकर से बोला जा रहा था, "यात्रीगण कृप्या ध्यान दें। लुधियाना से चलकर चम्पारण को जाने वाली स्पेशल एक्सप्रेस ट्रेन बदले रूट के कारण भोपाल स्टेशन पर पहुंची है। यहां से ट्रेन अब गंतव्य के लिए प्रस्थान कर रही है। असुविधा के लिए हमें बेहद खेद है।" लेकिन उद्घोषक द्वारा बोला गया अंतिम वाक्य, "आपकी यात्रा मंगलमय हो!" जैसे यात्रियों को चिढ़ाते लग रहा था।

इधर, बेटे में कोई हरकत नहीं देख लालमती बेटी से बोली, "बबी रे, तोरे राखीं बान्हे ला गढ़ी माई से एकरा के मंगले रहनी। अब देही में नइखे ई। आई हो दादा... दूध बिनु मु गइल हमार करेजा के टुक्का..!", यह कहते हुए वह पुक्का फाड़कर रोने लगी और गश खाकर सीट पर निढ़ाल हो गई।

उसके विलाप से पूरी बोगी ग़मगीन हुए जा रही थी। लेकिन बगल से कोई भी यात्री झांकने तक नहीं आया। सामने बैठे दो यात्री भी अपने बर्थ पर दमी साधे लेटे हुए थे। आख़िर कोई ख़ैरियत पूछता भी कैसे। कोरोना का डर था ही, भूखे व गर्मी से भी सबकी स्थिति दयनीय हो चली थी।

वहीं हरा सिग्नल मिलते ही हॉर्न देकर ट्रेन हल्के धक्के के साथ चल पड़ी। रेंगते हुए कुछ ही देर में उसने तेज रफ़्तार पकड़ ली। इतनी कि सबको पीछे छोड़ते हुए बस भागे जा रही थी, छिटपुट स्टेशनों पर रुकते हुए। भले ही वह हर जगह नहीं रुकती थी। लेकिन परेशानी ये थी कि जहां रुकती वहां पांच-पांच घंटे खड़ी रह जाती। बिल्कुल आशाहीन हो गई थी।

इस तरह दो दिन और चलने के बाद पांचवें दिन सुबह में ट्रेन बेतिया पहुंची। स्टेशन पर उतरे लोगों को जांच कराने के बाद क्वारेंटाइन केंद्रों में पहुंचने की जल्दी थी। जबकि प्लेटफॉर्म पर दो-तीन तीन जगहों से लोगों की चीत्कार उठ रही थी। इस हृदयस्पर्शी दृश्य से उपस्थित रेलकर्मियों और पत्रकारों की आंखें नम हो चली थीं।

मुख्य गेट के पास ही हरहिर, लालमती और झुनिया बच्चे के शव के पास बिलख रहे थे। थोड़ी दूर आगे एक जवान मुस्लिम विधवा का शव रखा था। वह ईद मनाने घर आ रही थी, लेकिन पहले से ही बीमार थी। शायद गर्मी और भूख सहन नहीं कर पाई थी।

इससे बेख़बर उसकी दो छोटी-छोटी अबोध बेटियां, शव पर डाली गई चादरों को हवा में उड़ाकर खेल रही थीं। पिता के साये से पहले ही महरूम हो चुकी इन अभागियों का क्या पता था कि मां अब इस दुनिया में नहीं है। वह किसी किसी तरह यहां तक तो लेकर आ गई थी। लेकिन अब उनके शव को घर लेकर कौन लेकर जाएगा?

तभी छोटी बेटी शव पर लोटाते हुए कहने लगी, "मम्मी उठ$ना मम्मी, हमनी के स्टेशन आ गइल। अब घरे चलल जाव।" यह देख रेलवेकर्मी समेत अन्य यात्रियों की आंखों से आंसू की बूंदें लुढ़क पड़ी। मीडियाकर्मी भी विचलित हो गए। अगले दिन सभी अखबारों में यह ख़बर प्रमुखता से छपी थी, "प्रवासी मजदूरों को लेकर आ रही स्पेशल ट्रेन में भूख से दो मरे"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)


24 May, 2020

जबसे चढ़ल बइसखवा ये राजा चुए लागल..!

वर्ष 04 में ताड़ी के बखान पर केंद्रित एक भोजपुरी फ़िल्म का यह गाना काफ़ी हिट हुआ था। लिहाज़ा बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में ताड़ी का आज भी उतना ही क्रेज़ है। बैशाख व जेठ (अप्रैल से जुलाई) के महीने में ताड़ी भरपूर मात्रा में निकलने लगती है। और पश्चिमी यूपी व बिहार के देहात में मजदूरों के लिए जश्न मनाने का समय होता है। सूबे में शराबबंदी के बावजूद इसका महत्व कम नहीं हुआ है। सस्ती तो है ही आसानी से हर जगह मिल भी जाती है। 

गेंहू की फसलें कटने के बाद मजदूर खलिहर हो जाते हैं। इस मौसम में सूरज की सीधी धूप से गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है। ऐसे में मजदूरों को दो तीन बट्टा (ग्लास) मारकर किसी पेड़ की छाह में सुस्ताते देखा जा सकता है।

तभी तो वर्ष के नौ महीने नशा से दूर रहने वाले अधेड़ खदेरन, सुबह-सुबह जब बइसाखा चढ़ाकर घर आते हैं। तो मेहरारू को रोमांटिक मूड में कहते हैं, "झुनुआ के माई सुन$ तारु हो। असो छोटका के बियाह में तोहरा खातिर पियोर सिलिक के साड़ी किन ले आएम!" और वह मुंह बिचकाते कहती हैं, "बुझात सुबेरे सुबेरे नासा चढ़ी गइल बा कपार प। 25 बरिस भइल बिअहला, हमार हिया जुड़ा दिहनीं। अब फ़लाना बाबू बनल बानी।"

इन दिनों आदमी कौन कहे, कौवे तक नशे में झूमते हुए उड़ते हैं। खुमारी में किसी के सिर पर चोंच से ठोकर मारकर ज़ख्मी भी कर देते हैं। ताड़ी ताड़ और खजूर दोनों के पेड़ से निकलती है। ताड़ की ताड़ी ज्यादा मात्रा में निकलती है। लेकिन खजूर जितनी मीठी और गाढ़ी नहीं होती। 

यह भी कहा जाता है कि सूर्यास्त के समय लबनी टांग दी जाए। और अहले भिनसार में उतारा जाए तो पीने पर गुलाबी नशा छाता है। जिसके सेवन से महीने भर में कोई भी बॉडी-बिल्डर बन जाएगा। जबकि धूप लगने से उसमें खट्टापन और नशा दोनों ही बढ़ता है।

ताड़ी पीने वाले के पसीने से अजीब तरह की गंध आती है। इसलिए हर कोई नहीं पीता। लेकिन कुछ शौक़ीन बताते हैं कि ताड़ी के ताज़े रस में कोई गंध नहीं होती। लबनी की सफ़ाई सही तरह नहीं करने से बदबू मारने लगती है। दक्षिण भारत ताड़ी से शक्कर गुड़ भी बनता है। यह औषधीय काम में आता है। और महंगा होता है। 

अमिताभ बच्चन वाली पुरानी फ़िल्म 'सौदागर' तो पूरी तरह से इसी थीम पर आधारित है। किसी समय राजधानी पटना के चुनिंदे रेस्टोरेंटस में फ्रीज में रखकर ताड़ी बिकती थी। जो फ़िल्ट्राइज़ कर बोतल में गुलाब जल डालकर रखी रहती थी। हालांकि इन दिनों पासियों (ताड़ी छेने वाले) की कमी के चलते इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाती।

ज़्यादा मुनाफ़े के लिए विक्रेता उसमें 'देशी, छोवा, चुअउआ' की मिलावट धड़ल्ले से कर रहे हैं। इसमें तेज नशा होता है। लेकिन यह किसी की भी सेहत के लिए जबर्दस्त नुकसानदायक है। बावजूद इसके मजदूरों को इससे क्या फ़र्क पड़ता है। वे तो कहते नहीं अघाते कि दिन भर इतनी मेहनत से पसीने बहाते हैं। रात में पीकर सोने से थकान दूर होती ही है। नींद भी ख़ूब आती है। यानी स्वास्थ्य की परवाह किसे है। उन्हें तो बस मादकता चाहिए होती है।

©️®️श्रीकांत सौरभ


22 May, 2020

सड़कों पर कोरोना संक्रमित खांसते, छींकते, बुखार में तपते और लुढ़कते नज़र आने लगे तो...

पानी वाला दूध! पतली दाल! मोटे चावल का भात! आलू की बेस्वाद झोलदार सब्जी! एक कमरे में जरूरत से ज़्यादा लोगों का ठूस-ठूसकर रहना! 100 से 150 लोगों के लिए महज़ दो-तीन शौचालय का होना! आधे से ज़्यादा लोगों का खुले में शौच के लिए जाना! और बेतरतीब ढंग से मास्क लगाए या गमछा से मुंह ढके मजदूरों का, साथ बैठकर ताश खेलना या गप्पे लड़ाना!

ये नज़ारा आम हो चला है बिहार के अधिकांश क्वारेंटाइन केंद्रों पर। हलांकि कई जगह अच्छी सुविधा भी दी जा रही है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिर भी सरकार लाख दावा कर ले। मीडिया का केंद्रों पर जाकर रिपोर्टिंग करना प्रतिबंधित कर दे। लेकिन इस वक़्त की यहीं कड़वी सच्चाई है। जहां एक तरफ बचाव के लिए तमाम तरह के सुविधाएं बहाल की जा रही हैं। वहीं मांग के अनुरूप आपूर्ति नहीं हो पाना कुव्यवस्था को जन्म देती है। ये सबसे बड़ी 'बाधा' भी है, कोरोना वायरस से निपटने की लड़ाई में।

हालांकि मैंने अभी तक जेल फिल्मों में ही देखा है। लेकिन इतना जरूर यक़ीन है। यहां से संतोषजनक हालत वहां की जरूर रहती होगी। जिन क्वारेंटाइन केंद्रों पर कोरोना पॉजिटिव मरीज मिल रहे हैं। उसके अहाते में कोई भी बड़ा अधिकारी नहीं जाना चाहता। जबकि सुबह-शाम खाना बनाकर खिलाने वाले रसोइया हों। मजदूरों की 24 घंटे तीमारदारी में लगे शिक्षक, अन्य कर्मी हों। या फिर 'जुगाड़' से केंद्रों का संचालन कर रहे 'साहब' के खास 'मौसम वैज्ञानिक' (बिचौलिए) हों। किसी के पास सुरक्षा किट (पीआईपी) नहीं है।

कहीं-कहीं तो एक अदद स्तरीय मास्क भी मुहैया नहीं है। फिर भी अपनी रिस्क पर, किसी को अवसर को फायदा में बदलकर पैसे कमाने की फ़िक्र है। तो किसी को नौकरी बचाने की चिंता खाए जा रही है। क्योंकि कोई भी अनहोनी हो जाए तो कार्रवाई की गाज, निचले स्तर के कर्मियों पर ही गिरती है। बड़ा सवाल यह भी उठता है कि इतनी कुव्यवस्था के बीच क्या कोरोना का चैन टूट पाएगा?

अब तो गांवों की स्थिति ये हो चली है कि क्वारेंटाइन केंद्रों पर जगह ही नहीं बची। मामूली जांच के बाद डॉक्टर उन्हें (बाहर से आए मजदूरों को) घर पर ही 14 दिनों तक क्वारेंटाइन में रहने की सलाह दे रहे हैं। जबकि ग्रामीण बाहर से आए अपने ही परिजन, पड़ोसी को रखने के लिए तैयार नहीं। कुछ परिजन स्नेह के चलते जहां अपने लाडले को रख ले रहे हैं। वहीं कड़े विरोध के कारण बहुत से मजदूरों को गांव के स्कूलों में अपनी व्यवस्था से रहना पड़ रहा है। इस सबके बीच सोशल डिस्टेंस की धज्जियां उड़ रही है।

ज़्यादातर क्वारेंटाइन केंद्र ऐसे हैं। जहां रहने-खाने को लेकर रोज़-रोज़ नए लफड़े हो रहे हैं। खाना का समय पर नहीं मिलना। जब नाश्ते के मेन्यू में ही कटौती हो। और 12 - 01 बजे खाना मिले तो असंतोष बढ़ेगा ही। वैसे भी बिहारियों को नाश्ता मिले या नहीं। दो समय भरपेट भोजन चाहिए ही होता है। आए दिन वायरल वीडियो से इसका खुलासा भी हो रहा है।

ठीक है, आप कहते हैं। मुफ़्त का खाना है। मजदूरों का शांति से धैर्य बनाकर रहना चाहिए। लेकिन 14 दिन कम नहीं होते साहब, किसी जगह पर बिताने के लिए। कहीं-कहीं तो जानवरों के बाड़े से भी बदतर व्यवस्था है। आज सबके हाथ में मोबाइल है। अखबार है। लोगों में जागरूकता बढ़ी है। वे पढ़ रहे हैं कि सरकार की ओर से केंद्रों पर कौन-कौन सी सुविधा दी जा रही है।

लेकिन हक़ीकत में जब उन्हें यह सुविधा नहीं दिखाई देती। तो हक़ की मांग करेंगे ही। ऐसे में बवाल का होना लाज़िमी है। दर्द और भी कई हैं। कुव्यवस्था के कारण बहुत सारे मजदूर रात में घर चले जाते हैं। और सुबह में आकर हाज़िरी बना लेते है। इतनी बड़ी अनियमितता में कब कौन किससे संक्रमित हो जाए कहना मुश्किल है। जरूरत के हिसाब से जांच किट की उपलब्धता कितनी है। यह बात किसी से अब छुपी नहीं रही। पहले से स्थिति सुधरी तो है, लेकिन राम भरोसे वाली बात भी झुठलाई नहीं जा सकती।

12 करोड़ की बड़ी आबादी वाले इस सूबे में 534 प्रखंड और 45 हजार के आस-पास गांव हैं। 15-20 हजार के आसपास या इससे भी ज़्यादा क्वारेंटाइन केंद्र अब तक बन चुके होंगे। या बनने की राह में होंगे। ऐसे में यहां की सघन आबादी पर न्यूनतम चिकित्सकीय सुविधा। और गरीबी के साथ कोढ़ में खाज की तरह अशिक्षा पर महामारी भारी पड़ती दिख रही है। सारी चीजें मीडिया में भी छपकर नहीं आ रही।

दिल्ली, मुम्बई, गुजरात जैसे जबर्दस्त संक्रमण वाले शहरों से ट्रेनों, ट्रकों, बसों में लदकर, पैदल, साइकिल, ऑटों या अन्य माध्यम से रोज़ाना लोगों का आना। और जांच के बाद कोरोना संक्रमितों की दिन पर दिन बढ़ती संख्या। डरावने भविष्य की ओर इशारा कर रही है।

यह कि प्रवासियों की बेतहाशा बढ़ती भीड़ के चलते क्वारेंटाइन केंद्रों के फेल होने, और आइसोलेशन केंद्रों की कमी से कहीं हालात बेकाबू हो गए, जैसा कि अंदेशा है। नतीजा सोच कर ही मन डर जाता है। फ़िल्म 'ट्रेन टू बुसान' के जॉम्बियों की तरह संक्रमित लोगों का दृश्य आंखों के सामने घूमने लगता है। यदि उसी तरह सड़को पर सरे आम खांसते, छींकते, बुखार में तपते और लुढ़कते मरीज़ नज़र आने लगे। तो क्या होगा?

भगवान करें महज़ हमारी कोरी कल्पना भर साबित हो। और यह बला जल्द से जल्द टल जाए। मैं तो बस यहीं कहूंगा, जो होना है होकर रहेगा। अब घर बैठे सरकार को कोसने से कुछ नहीं होने जाने वाला। संसाधन की उपलब्धता के आधार पर जो करना चाहिए सरकार कर रही है। लॉक डाउन का पालन करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग बरतें। सेनेटाइजर, मास्क का सही तरह से प्रयोग करें। बाहर से आने पर, भोजन करने से पहले साबुन से केहुनी तक हाथ जरूर धोएं। घर में रहें, सुरक्षित रहें!

@श्रीकांत सौरभ

13 May, 2020

संस्मरण, भाग- 01) भगवान का शुक्र है कि फुल टाइमर पत्रकार नहीं बना

सभी के जीवन में उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है। जब वह करियर के उस मुहाने पर खड़ा होता है। जहां तय करना होता है, कौन सा स्टैंड लें? हालांकि 20 प्रतिशत युवक मैट्रिक या इंटर के बाद ही अपना लक्ष्य तय कर लेते हैं। इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, सोच और सही दिशा में ली गई शिक्षा आदि चीज़ें काम आती हैं।

लेकिन तकनीकी डिग्री के बजाए कला से स्नातक करने वाले 80 प्रतिशत युवक। 'क्या करें, क्या न करें' के तर्ज पर असमंजस की मनोस्थिति से जरूर गुजरते हैं। शायद एकेडमिक पढ़ाई में औसत रहने के कारण मैं भी इन्हीं असमंजसों की जमात में शामिल था।

मोतिहारी के एमएस कॉलेज से आईएससी करने के बाद दिल्ली गया था। बीसीए करने। लेकिन वहां की आबो-हवा में मन नहीं रमा। इरादा बदल लिया। एक बात साफ कह दूं कि पापा जी के दबाव के चलते इधर-उधर की 'जुगाड़' से विज्ञान में बारहवीं कर लिया। नहीं तो साइंस से अपना छतीस का आंकड़ा रहा है। मेरे लिए गणित का मतलब जोड़, घटाव, गुणा, भाग से ज्यादा कुछ नहीं रहा। अलजबरा के समीकरण, साइन, कौस, टैन के मान और ज्यामिति की सीधी, आड़ी, तिरछी रेखाएं। जागते हुए कौन कहे, सपने में भी आकर डरा देते।

दिल्ली में आठ महीने बिताने के बाद ही पटना लौट गया। आर्ट से स्नातक कर प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए। जैसा कि इस उम्र में मेरी तरह अधिकांश युवक का सपना होता है। राजकीय या संघीय कमीशन का एंट्रेंस निकालना। खैर, वर्ष 05 में आरपीएस कॉलेज, पटना से राजनीति विज्ञान से स्नातक कर रहा था। सेकेंड ईयर की परीक्षा दी थी। पारिवारिक स्थिति चरमराने के चलते जॉब की संभावना भी तलाशने लगा।

मेरा रहना बाजार समिति के पास जय महावीर कॉलोनी कॉलोनी में होता। और राजेन्द्र नगर के एक निजी संस्थान में क्लर्क और पीओ की तैयारी कर रहा था। वर्बल, नन वर्बल रिजनिग, अंग्रेजी के सिनोनिम्स, एनोनिम्स और गणित के लॉजिक में माथा खपाना पड़ता। इतना कि इनको सुलझाते हुए खुद भी उलझते जा रहा था।

यह दौर था, जब बिहार को 'जंगल राज' की उपाधि से छुटकारा मिले महज दो वर्ष ही हुए थे। केंद्रियों नौकरियों में रेलवे और बैंक का जबर्दस्त क्रेज़ था। राज्य में सरकारी नौकरी की जल्दी वैकेंसी ही नहीं निकलती थी। कुछ निकलतीं भी तो लेटलतीफी का शिकार हो जातीं। या फिर न्यायपालिका के चौखट पर न्याय की गुहार लगाने लगतीं। बिल्कुल आज ही की तरह।

हां इतना जरूर था। सचिवालयकर्मियों से लेकर जिला, अनुमंडल व प्रखंड स्तर तक कंप्यूटर ऑपरेटर, शिक्षक नियोजन, मनरेगाकर्मियों की बहाली की प्रक्रिया जारी थी। राज्य में कोरोपोरेट सेक्टर अभी पांव पसार रहे थे, जमे नहीं थे। प्राइवेट जॉब के लिए एमबीए, एमसीए कर बड़े शहरों में जाना होता।

बता दूं कि मुझमें बचपन से ही भावुकता और संवेदनशीलता कूट-कूटकर भरी है। अनुभूति स्तर गहरा होने के चलते साहित्य, अध्यात्म और संगीत में रुचि रही है। पटना प्रवास के दौरान एक संगीतज्ञ के सान्निध्य में कई तरह के वाद्य यंत्र बजाने का प्रयास किया। कड़ी मशक्कत के बाद भी इसमें सफलता नहीं मिली। लेकिन संगीत की प्रारंभिक समझ जरूर आ गई।

उसी तरह किताबें पढ़ने का बेहद शौक़ीन आदमी रहा हूं। इतना कि कोर्स की किताबें छोड़कर सब कुछ पढ़ना मंजूर रहता। मैट्रिक तक आते-आते नंदन, क्रिकेट सम्राट, बालहंस, सरस सलिल, अखंड ज्योति, कॉमिक्स, सत्य कथा, सरिता, गृह शोभा, मनोहर कहानियां, प्रेमचंद से लेकर वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास हों या फिर अखबार। पढ़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा।

तीन घण्टे में पन्ना दर पन्ना उपन्यास चाट डालता था, चाहे कोई भी हो। मेरा पढ़ने का स्पीड उतना ही था। जितने स्पीड में आज एंड्राइड मोबाइल पर दाएं हाथ की रिंग फिंगर चलती है। और गूगल हिंदी इनपुट से रोमन में टाइप कर देवनागरी लिख लेता हूं।

गांव में रहते हुए भी, अपने जाने नंदन का कोई अंक मिस नहीं करने का भरपूर प्रयास किया। हां, उन दिनों पैसे देकर दूसरों से मंगाना पड़ता। और मैट्रिक के बाद जब शहरों में रहना हुआ। पत्रिकाएं ही ज़िंदगी बन गईं। किताबों का चस्का ऐसा लगा कि कुछ नहीं करने की हद तक पढ़ने से दीवानगी हो गई।

उन दिनों बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन के व्हीलर पर कई तरह की किताबों और पत्रिकाओं की भरमार रहती। सजाकर या लटकाकर रखी गई उन पत्रिकाओं को घूर-घूरकर ललचाई नजरों से निहारने का अलग ही क्रेज था (इन जगहों पर पत्रिकाएं आज भी सजती हैं। लेकिन तब वाली फिलिंग नहीं आ पाती)। खरीदने के बहाने पत्रिकाओं को उठाकर सरसरी निगाहों से पलटने में ही मेरी कितनी ट्रेनें छूटी थीं।

मैंने क्या-क्या पढ़ा? यदि आप यह जानना चाहेंगे तो मेरा जवाब होगा। क्या नहीं पढा यह पूछिए? कुल जमे इतना ही समझ लीजिए। वर्ष 00 तक का दशक ही ऐसा रहा। जिन्हें पढ़ने का चस्का रहता था। वे कुछ भी नहीं छोड़ते थे। वो चाहे पुरस्कृत किताबें, लुगदी साहित्य, मस्त राम, दफा 376 जैसे पोर्न या इरोटिक डाइजेस्ट हों या फिर गीता, रामायण, सत्यार्थ प्रकाश, कुरान, बाइबल।

एक दिन मन में यूं ही ख्याल आया। क्यों नहीं पत्रकारिता की जाए? अखबार में एक मासिक क्षेत्रीय पत्रिका का विज्ञापन देखा। फ्रेजर रोड के एक अपार्टमेंट में कार्यालय था। रेंजर साइकिल की सवारी थी अपनी। चलाकर पहुंच गया। अंदर में एक अधेड़ सांवली सूरत वाले शख्स चश्मा लगाए बैठे मिले। उनसे सटे ही एक युवती बैठी थी।

चश्मे के उपर से आंखें जमाते हुए बोले, "कहिए क्या काम है?"

"पत्रकार बनना है।", मेरा जवाब था। यह सुन उन्होंने कहा, "इसके लिए आपको हमारे संस्थान से ट्रेनिंग लेनी होगी। 15 दिनों की। इसमें 1500 रुपए का खर्च आएगा। उसे आप जमा करा दे। ट्रेनिंग के बाद आपको आई कार्ड भी मिलेगा।"

उनकी बातें सुनते हुए ध्यान उनके चेहरे पर गया। बिल्कुल नपे-तुले शब्दों में बोलते हुए वे माहिर प्रोफेशनल लग रहे थे। रुपया का नाम सुनते ही मेरे दिमाग में घण्टी बजने लगी, 'गोलमाल है भाई सब गोलमाल है।' पता नहीं क्यों, उनकी सूरत देखकर ही सीरत का अंदाजा भी लगा लिया।

भले ही इस क्षेत्र में नया था। जहां के चाल, चरित्र और चेहरा से वाकिफ नहीं था। लेकिन मूर्ख तो नहीं ही था। अभी तक सुन रखा था कि काम के बदले पैसे मिलते हैं। यहां तो उल्टी स्थिति थी।

कुछ सोचकर मैंने कहा, "ठीक है। इस बावत जल्द मिलेंगे। अपने साथ रोलदार चार पन्ने पर लिखे एक आलेख को उनकी तरफ बढ़ाया।

और कहा, "देख लीजिए। लेखन सामग्री छपने लायक हो तो जगह दीजिएगा।" और वहां से मैं निकल लिया।

संस्मरण आगे भी जारी...

@श्रीकांत सौरभ (रोजी-रोटी के लिए टीईटी शिक्षक के तौर पर नियोजित हूं। ख़ुद को अपनी शर्तों पर ज़िंदगी गुजारने वाला। निहायत ही देहाती, गंवार, आलसी, वैचारिक आवारा क़िस्म का इंसान मानता हूं। किसी क्षेत्र की सेलिब्रिटी नहीं हूं, जिससे मेरा संस्मरण पढ़कर कोई प्रेरित हो सके।)


10 May, 2020

मदर्स डे प एगो माई के नामे बुरबक बेटा के चिट्ठी

मां,

गोड़ छूके गोड़ लाग$ तानी!!!

पाता बा आजु 'मदर्स डे' ह! सभे केहु इयाद करता अपना माई के। मने हम भुलाइल कब रहनी ह तोहरा के, जे इयाद करती। हमनी के भले बिलाला निहर छोड़िके चली गइलू। बाकिर का बताई कि कब बिसरेलु। सभे ओरी त लउकबे करेलू। आम-मारचा के आचार, सरसो-बथुआ के साग में! मकर सक्रंति के लाई-तिलुआ में! छठी घाट के गवनई-अरघ में! जिउतिया के नहान-कथा में! होली के रंग-अबीर में! दीवाली के दियरी-बाती में! चुमावन, मटकोरा, परिछावन, बियाह के भोजपुरी गीतन, सोहर, लाचारी में! लइकन के कोरा खेलावत कवनो माई के अंचरा में!

ई कुल्ही मोका प कबो-कबो रोआई भी आ जाला। मने आंखि के लोर पोछके छुपा लेवेनी। तुही नु कहत रहलू, मरद के दिल रोयेला, आंखि ना। एहि से सोचनी ह एगो चिठिए लिखी दिहीं। पूरे तीन बरिस हो जाई तोहरा गइला। 16 मई के ए दुनिया से विदा भइल रहलू, 27 बरिस ले बेमारी से लड़त-लड़त। दवाई आ बीमारी में खूबे लड़ाई भइल। एगो मुए ना देत रहे, एगो कहे संगही लेके जाएम। एह दुनु के बलजोरी में तोहार देही जरजर हो गइल रहे। बस एतने कहब मरी-मरिके जियत रहलु।

पहिले हार्ट, फेरु सुगर के बेमारी। ओकरा बाद किडनी फेल हो गइल। तबहु संतान के मोह अनघा कष्ट प भारी रहे। तोहरा अबही जाए के मन रहे कहवां। मरे के दु बरिस पहिले से पूरा देही सूज गइल रहे! यूरिन निकलल बन हो गइल! सांस ना लिहल जाए! आ फेरु कोमा में अनंतकाल ला चली गइलू! अंचरा के छाही मिटल आ ममता के मंदिर टूटी गइल! भगवान दुश्मनो के वइसन मवत ना देस! पापा जी के मरला के बाद, घर के एगो बरियार आधार स्तम्भ ढही गइल।

छोटकी बेटी के बियाह, नाती आ छोटका पोता के मुंह ना देख पवलु। हमरा से तोहरा ढेर सिकुआ-सिकायत रहे। तोहरा जिनगी के अंतिम आठ बरिस ले संगे बितवनी। अपना से जइसे बुझाइल, सेवा में तोहरा कोर कसर ना छोड़नी। बाकी जवन चतुर-चालाक बेटा दूर रहेला ओकरा में ना। जवन बुरबकवा बेटा लगे रहेला। नीमन-बेजाए जइसे होखे, सहजोग करेला। गारजियन के ओकरे में ढेर कमी लउकेला, इहो सांच बा।

आउर सब ठीक बा! मने जब तुही नइखू त खाक ठीक बा! तोहरा दया से बेटा-पतोह, पोती-पोता सभे स्वस्थ बा। गुनगुन पांच बरिस के हो गइली। असो नर्सरी में चली जइहे। पोता कुंज भी चार बरिस के भइले। एलकेजी में नाम लिखाई। गुनगुन के तोहर चेहरा इयाद बा। कहेली कि दादी मु गइली। आ कुंज से पूछल जाला त कहेले कि दादी भगवान किहां गइल बाड़ी। आछा त एतने रहे दे तानी। लॉक डाउन में सभे कोई फंसल बा। कोरोना से बाचेम त अगिला बरिस फेरु एगो चिट्ठी भेजेम।

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तोहार बुरबक बेटा,

सिरिकांत

12 April, 2020

कृत्रिम आवरण से बाहर निकल प्रकृति को महसूस कीजिए

यदि आप एक अरसे के बाद शहर से गांव में आए हैं। लॉक डाउन में फंसे हैं। एंड्राइड पर फेसबुक, व्हाट्सएप्प, टिक टॉक, यूट्यूब के गाने, नेटफ्लिक्स या एमएक्स प्लेयर की वेब सीरीज देखकर उब चुके हैं। घर बैठे-बैठे तनाव की हद तक बोर हो रहे हैं। ऐसे में, हम यहीं सलाह देंगे कि थोड़ा आलस छोड़िए। और भरी दुपहरिया में निकल जाइए सरेह की तरफ। यकीन जानिए, बिल्कुल नया अनुभव होगा।

नीले आसमान से छनकर रौशनी बिखेरती सूर्य की किरणें, और चढ़ते वैशाख की जवान होती धूप। जमाने बाद ऐसा हुआ है कि इस महीने की तपिश बदन को झुलसाती नहीं, गुदगुदाती लगती है। कुछ पल ठहरकर प्रकृति के नायाब तोहफे का आनंद लीजिए। इनसे बातें कीजिए। मानो कह रही हों, हम तो हमेशा से आपके साथ हैं। आप ही हमको भूल गए। शर्मीली दुल्हन की तरह घूंघट काढ़े खड़ी, खेतों में पककर तैयार गेहूं की बालियों को निहारिए। यूं लगेगा धरती पर दूर-दूर तक पीली चादरें बिछा दी गई हों।

पछुआ हवा के झोंके से फसलें ऐसे झूम रही हैं, जैसे किसी गोरी का आंचल लहरा रहा हो। जरा ध्यान लगाकर जलतरंग की तरह झनझनाकर बज रहे झुर्राए दानों का कोरस सुनिए। और खेत से सटे ही आम के बगीचे की ओर बढ़ जाइए। पत्ते झड़ने के बाद ठूंठ पेड़ों की टहनियों में निकल रहे कोंपलें हों। या फिर आम के पेड़ पर टिकोले में तब्दील होते मंजर पर मंडराती मधुओं की टीम।

यहां के जर्रे-जर्रे में नयापन का संदेश मिलेगा। इनसे भीनी-भीनी निकल रही सोंधी सुगंध जैसे ही नाक के नथुनों से टकराती हैं। मदहोशी में मिजाज गजबे बउरा जाता है। नशा सा छाने लगता है कपार पर। डाल पर बैठकर चहचहा रही चिरपरिचित के साथ ही अनदेखी, अंजानी चिड़ियों की झुंड। हमें कोलाहल से दूर ले जाकर क्षणिक स्थिर प्रज्ञता का एहसास कराती है। इसी बीच दूर कहीं से आ रही विरहन कोयल की कुहू-कुहू। मन में हुक उठाते हुए अजीब सा टीस भी देती है।

वैसे तो सृष्टि में जन्म, मृत्यु, सृजन, विनाश का चक्र तो अनादि काल से चलता आ रहा है। दार्शनिक भी कहते हैं। जिसे हम मौत कहते हैं, वहीं तो जीवन है। विनाश के बाद ही सृजन होती है। लेकिन हम हैं कि इस सच्चाई से मुंह चुराकर निकल जाना चाहते हैं। भौतिक संसाधन जुटाने के फेरे में दरबदर भटक रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि जिस प्रकृति ने हमें इतने कुछ दिया। बदले में उसको हमने क्या चुकाया?

यहीं न अंधाधुंध हरे-भरे पेड़ों को काटकर कंक्रीटों का जंगल खड़ा किया। रहन-सहन का स्तर बढ़ाने के लिए, कस्बा को बाजार, बाजार को शहर, शहर को महानगर और महानगर को मेट्रो सिटी बना दिया। बदले में तालाबों को भर दिया। नदी, वतावरण सब प्रदूषित किया। ज्यादा से ज्यादा उपज की लालच में खेतों में जमकर रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया। जमीन को बंजर बनाया। कल-कारखाने, वाहनों के धुएं से हवा में जहर घोला। रक्षा के लिए परमाणु बम बनाए, लेकिन बीमारियों को लेकर शोध पर खर्च नहीं हुआ। अस्पताल नहीं बने।

हमने कमाने की होड़ में अनावश्यक पलायन कर मातृभूमि त्यागा। मातृभाषा को भुलाया। मौलिक रहने के बदले जिंदगी बनावटी बना ली। हाइजेनिक भोजन के बदले प्लास्टिक पैक वाले फूड स्टफ को आहार बनाया। शर्बत, सत्तू की जगह कोल्ड ड्रिंक, रसायनिक बेवरेज, बोतलबंद पानी का सेवन स्टेट्स सिंबल है। इसी तरह हमने अपनी अच्छाई को सीने में दफन कर आधुनिकता का झूठा नकाब चेहरे पर लगा लिया। पहचान बदल डाली। इतना ही नहीं, शहर का एकांकी जीवन जीते हुए कब हमारी जीन में स्वार्थीपन और मतलबीपन जैसे तमाम अवगुण घुल गए। पता भी नहीं चला।

चलते-चलते बस यहीं कहूंगा। यदि गलती हमने की है तो नतीजा भी हमें ही भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति से संदेश लेकर अभी भी नहीं चेते। तो आनेवाली पीढ़ी को और भी बुरे हालात से गुजरने होंगे। दुनिया के नजरों में भले ही कोरोना खतरनाक महामारी होगी। लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर, ईमानदारी से पूछिए। क्या यह हमसे ज्यादा जहरीली है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

10 April, 2020

डियर कोरोना अब वापस चली भी जाओ

डियर कोरोना

Hate you less love more!

मैं इन दिनों तुमसे थोड़ा-थोड़ा डरने लगा है। डर अपने संक्रमित होने का नहीं, अपनों के खोने का है। हमारे पास ना तो तुम्हारा इलाज है। ना ही बिना लॉक डाउन में रहे तुमसे बच सकते हैं। मुझे पता है, तुम भी हम निरीह प्राणियों को डराने की नई-नई तरकीबें सोच रही होगी। किस तरह ज्यादा ज्यादा से लोगों को संक्रमित कर मृत्यु दर बढ़ाई जाए? और जबसे तुमने गुजरात में उस 16 महीने की मासूम बच्चे की जान ली है। तुमसे नफरत सी हो गई है। इतनी कि भौतिक रूप में कहीं मिल जाती न इस बैशाख में। आम के टिकोड़े के साथ सिलबट्टे पर तुम्हारी चटनी पिसते। और उसमें निम्बू निचोड़कर खा जाते।

मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता, तुम्हारा लिंग क्या है? सजीव हो या निर्जीव? लेकिन रिसर्च में बताया जा रहा है। तुम सात रूपों वाली निर्जीव मादा हो। हैरान हूं ये जानकर। क्या निर्जीव का भी लिंग होता है? वैसे, रिसर्च का क्या? शोध करने वाले वैज्ञानिक आज कुछ और कह रहे हैं। कल कुछ और कहेंगे। इतना जरूर है कि तुम वर्ष 1815 में आए प्लेग, वर्ष 1920 के स्पेनिश फ्लू या वर्ष 1940 के हैजे की तरह खतरनाक नहीं हो। जिसकी चपेट में आकर पूरी दुनिया में करोड़ो लोग मारे गए थे। पढा हूं कि खतरे के मामले में टीबी रोग भी तुम पर भारी है। जो भी हो, इतना जान लो। तुम महामारियां मानव प्रजाति से ज्यादा विनाशकारी कभी नहीं हो सकती। हमारे पास परमाणु बम है। जिसके सामने तुम्हारा दो कौड़ी का मोल नहीं। एक बार फटा तो मिनटों में करोड़ों खल्लास। पूर्व में नागासाकी और हिरोशमा पर किया गया एक छोटे से प्रयोग का अंजाम दुनिया देख चुकी है।

खैर, तुमको अंदर की बात बता दें कि डरते-डरते तुमसे मोहब्बत भी होने लगी है। देखो ना, तुम्हारे आने से कितना कुछ बदला है। वर्षों से प्रदूषित होकर नाला बन चुकी युमना नदी काली से नीली हो चुकी है। जालंधर और चंडीगढ़ से हिमाचल के बर्फीले पहाड़ दिखने लगे हैं। पूरी दुनिया का आसमान बिल्कुल साफ लगने लगा है। रातों को टिमटिमाते तारों को देखते ही हर किसी का दिल 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार...!' गाने लगा है। दिनदहाड़े जंगलों से निकलकर जानवर सरेराह शहर की सड़कों पर चहल कदमी कर रहे हैं।

सीएम अरविंद केजरीवाल के इवन, ऑड फॉर्मूले का दिल्ली वाले जिस बेदिली से विरोध जता रहे थे। आज उससे भी बड़ा फॉर्मूला प्रकृति ने दिया है। आम दिनों में तेज रफ्तार गाड़ियों की रेलमपेल, शोरशराबे से जो सड़कें गुलजार रहती थीं। इन्हीं वीरान सड़कों पर विधवा विलाप की हद तक नितांत उदासी पसरी है। मानो ट्रैफिक सिस्टम और रेड लाइट को मुंह चिढ़ा रही हो। कोठी से लेकर बहुमंजिले भवनों के खिड़कियों से जहां पहले हवाई जहाज या गाड़ियों के तेज हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक से अहले सुबह नींद टूट जाती है। जाने कितने वर्षों से लोग घर और ऑफिस के जाल में उलझे, बदहवासी में जी रहे थे। व्यस्तता के चलते ना खाने का, ना सोने का समय तय था। पत्नी, बच्चों या बूढ़े मां-बाप से ढंग से कब बतियाए थे? यह भी याद नहीं। हर समय बस काम, काम और काम। अब जाकर एहसास हुआ है कि कोई लाख बेचैन होकर भागते रहे। ठहराव में बेहद ताकत होती है, इसे ही प्रकृति का ब्रेक लगाना कहते हैं।


कल देश के वरीय पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ला सर अपने फेसबुक वाल पर लिखे थे। गाजियाबाद के बिना लिफ्ट वाले जिस अपार्टमेंट में रहते हैं। वहां कुछ दिन पहले सीढियां चढ़ते-उतरते अक्सर रेलिंग पकड़ लेते थे। दम फूलने लगता था। 65 वर्ष की उम्र ने उन्हें ऐसा होना स्वाभाविक लगता था। लेकिन इस बार अनोखा अनुभव हुआ है। अपार्टमेंट की वहीं 40 सीढियां पांच बार बिना रेलिंग पकड़े चढ़-उतर लेते हैं। ना थकान होती है, ना सांस फूलती है। लॉक डाउन ने उनके जैसे हजारों अधेड़ों व बुजुर्गों को एहसास कराया। किसी की सांसें, महज एलर्जी, अस्थमा, हीमोग्लोबिन की कमी, बुढापा से ही नहीं, प्रदूषण से भी फूलता है।

पड़ोस की बड़की चाची के बेटा-पतोहू केरल से आए थे होली मनाने, तीन साल पर। लेकिन लॉक डाउन में यहीं फंस गए। बेटे का किराना व्यवसाय है वहां। घर भी बनवा लिए हैं। चाचा के मरने के बाद चाची अकेले ही गांव में रहती हैं। एक-दो बार गई थी बेटे के पास रहने। लेकिन पिजड़े की पंक्षी की तरह रहना नहीं भाया। ना ही वहां की भाषा और व्यस्त दिनचर्या रास आई। लौट आई घर, कभी वापस नहीं जाने के लिए। इधर बेटे ने भी मूड बना लिया है। आपदा से उबरने के बाद वहां की संपत्ति बेंचकर गांव में ही कोई रोजगार करेगा। आखिर अपनी भाषा, अपनी मिट्टी से किसे लगाव नहीं होता?

यहां भी गली-गली में पक्की सड़कें (घटिया गुणवत्ता वाली ही सही), बिजली पहुंच ही गई हैं। आरओ के पानी वाली गाड़ी तो पहले से ही आ रही थी। उससे भी स्वच्छ नल जल योजना का पानी फ्री में उपलब्ध है। एंड्रॉइड पर फोर जी नेट दनदना के चल रहा है। बाजार में चाउमीन, मोमो, एग रौल से लेकर फुचका तक बिक रहे। 20 किलोमीटर के दायरे में एक से बढ़कर एक कान्वेंट खुल गए हैं। बच्चे यहां भी स्कूलिंग कर लेंगे। मतलब साफ है जब गांव में ही काम चलने लायक संसाधन उपलब्ध है। फिर अनावश्यक रूप से उन शहरों में जाकर भीड़ क्यों बढ़ानी। जो पहले से ही बेइंतिहा प्रदूषण और आबादी की बोझ से दबे कराह रहे हैं।

सुबह में ही काका कह रहे थे, जानते हो बबुआ। कोरोना से सबसे ज्यादा डर उन राजनेताओं, अधिकारियों, व्यवसायियों, धन्नासेठों को लग रहा है। जिन्होंने काली कमाई कर अकूत संपत्ति अर्जित की है। भोग की अदम्य इच्छा उनके भीतर कुंडली मारे पड़ी है। उन्हें चिंता है कि बीमारी से कहीं मर गए तो पैसों का क्या होगा? डर नहीं है ति खेती का सीना चीरकर अनाज उपजाने वाले किसानों को। या 48 डिग्री तापमान में बदन की चमड़ी झुलसाकर मजदूरी करने वालों को। वे तो अपने साथ ही दूसरों का भोजन जुटाने के लिए रोज मर-मरकर जीते हैं। इधर, इस विपदा में भी कुछ लोगों का धंधा चमक गया है। जिधर देखो फेस वैल्यू बढ़ाने की होड़ लगी है। कोई दान या स्वैच्छनिक सेवा दिए नहीं कि सोशल साइट्स पर फोटो डालकर खुद को प्रचारित करने लगते हैं।

काका यकीन के साथ बोले कि देख लेना इस विषम काल में भी अधिकारी और जनप्रतिनिधि सरकारी फंड को लूट खाएंगे। सरकार कितना भी उपाय कर ले, बनियों की कालाबाजारी की जन्मजात आदत छूटने से रही। केंद्र सरकार सरकारी संस्थानों को चुन-चुनकर बेंच रही थी। जब कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। तो जवाब मिला था कि देश हित में यह जरूरी निर्णय है। आज संकट काल में सरकारी विमान एयर इंडिया, रेलवे, सरकारी चिकित्सक, अस्पताल, आशा, ममता, शिक्षक, सरकारी कार्यालयकर्मी ही काम आ रहे हैं। डीएम, एसपी, बीडीओ, सीओ, पुलिस, सेना के जवान जी जान लगाकर 24 घण्टे सेवारत हैं।

चलते-चलते बस इतना भर कहना चाहूंगा, तुम पर एकतरफा उमड़े प्यार का हवाला देकर। आज का इंसान दौलत, शोहरत, भौतिक संसाधनों को जुटाने की जद्दोजहद में जॉम्बी और रोबोट में तब्दील हो चुका है। महामारी के रूप में आकर तुमने हमेशा की तरह हमारी औकात बता दी। लेकिन बहुत हो गया, हमें सताना, डराना छोड़ो। अब वापस चली जाओ, हाइबरनेट मोड में। और फिर कभी ऑन या रीस्टार्ट मोड में नहीं आना। भले ही हमारे नॉस्टेलजिया में बनी रहना। और गाहे-बेगाहे हमारी ताकत का एहसास कराती रहना। इसलिए कि हम मनुष्य बड़े ही स्वार्थी, बनावटी व भुलक्कड़ किस्म के होते हैं, स्वभाव के मुताबिक।

©️®️श्रीकांत सौरभ