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09 June, 2020

कॉलेजिया लईकी ढूंढने वाले बाबूजी के बेरहम दुख!!!

चनेसर काका का बड़का बेटा जब बीटेक कर गया तो अगुआ दुआर कोड़ने लगे। और लड़की थी कि कोई भी उनको जंच ही नहीं रही थी। कोई पढ़ी-लिखी थी तो कद छोटा मिलता, कोई गोरी होती तो उसके पास डिग्री नहीं रहती। इसी माथापच्ची में दो वर्ष बीत गए। उन्हें कोई रिश्ता पसंद ही नहीं आया।

रिश्तेदार, गोतिया कितनी बार समझाए, "तिवारी जी, लड़के की शादी में देरी अच्छी बात नहीं है। एक तो इंजीनियर और दिखने में भी सुंदर है। बम्बे जइसन शहर में नौकरी है। कहीं उधर ही मामला सेट कर लिया तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा। एने छोटका भी लाइने में है।"

जबकि वे नाक पर माछी नहीं बैठने देते थे। उन्हें अपने दोनों संस्कारी बेटों पर फेविकॉल के जोड़ वाला भरोसा था। इसी कारण एकदम से ज़िद पर अड़े थे। कनिया को लेकर मिल्की व्हाइट, रसियन हाइट और पैसा टाइट वाली जबरिया शर्त रखी थी! इतना ही नहीं जब तब कहते फिरते भी, 'लड़की एमबीए, एमसीए, इंजीनियर न सही, कम से कम साइंस ग्रेजुएट तो चाहिए ही!

दरअसल काका के पास खेती की आठ बिगहा पुश्तैनी ज़मीन थी। उपर से चार पीढ़ी से घर का एकलौता समांग थे। दरवाजे पर ट्रैक्टर, हीरो होंडा मोटरसाइकिल खड़ा कर ही लिए थे। दहेज़ में भी कार की डिमांड थी। करनी नहीं तो बातों से ही सही, गांव में धाक जमाकर रखते। रोज़ दालान में 10 लोग बैठे मिल जाते, भले ही इसकी वजह एक कप चाय क्यों न रहती हो!

पंचायती में भी उनकी ख़ूब पूछ होती। ये बात और थी कि 60 वर्ष की उम्र में सैकड़ों पंचायती में गए। लेकिन क्या मजाल कि एक भी झगड़ा सही से सुलझाए हों। अब सही बात बोलने पर किसी न किसी की तो तरफ़दारी करनी ही पड़ती। इसीलिए पंचायती में जब मारपीट की नौबत आ जाती तो रामचरितमानस का श्लोक, "होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा..." पढ़ते हुए निकल जाते।

ख़ैर, उन्हें वर्षों से इस बात का मलाल था कि ग्रेजुएट होते ही अंगूठा छाप लड़की उनके खूंटे में डोर दी गई थी। वो जमाना ही ऐसा था, पान की दुकानों में, बसों में या नाच-बाजा में बिजली रानी के गाने की धूम मची रहती, "कॉलेजिया लईका ढूंढ लइह$ हमरा ला बाबूजी..!" एक तरह से ट्रेंड ही बन गया था, निपढ़ लड़की के लिए भले ही नौकरियाहा दूल्हा नहीं मिले।

पिता लोग बीए, एमए पास वालों को सतुआ बांध कर खोजते। जहां कोई लड़का मिला नहीं कि छेंक लेते। काका के साथ भी यहीं हुआ था। बीए पास कोर्स में सेकेंड डिवीजन रिजल्ट आते ही अगुआ छान कूटने लगे। और खाते-पीते घर के एकलवत पूत का दाम लगाते हुए, उनके बाबूजी को खरीद लिए।

तो बात काका के बेटे की शादी की हो रही थी। समय के साथ दोनों बेटों का घर बसा दिए। पांच वर्ष पहले, बड़े बेटे के लिए बीएससी तो नहीं मिली। समाजशास्त्र में ऑनर्स लड़की पसंद आ गई। बबुआन के ठाठ में से थी। मोटा दहेज लेकर आई, साथ में फ्रिज, एलईडी, वाशिंग मशीन, कूलर और हुंडई की नारंगी रंग वाली सेंट्रो कार भी।

साल भर बाद छोटका बेटा चंडीगढ़ में बैंक पीओ बन गया। उसी साल दारोगा की लड़की से उसका ब्याह भी कर दिए। समधी जी ने चंडीगढ़ में ही बेटी के नाम से थ्री बीएचके का फ्लैट ख़रीद दिया था। पूरे 60 लाख रुपए गिना था उन्होंने। जब तिलक-फलदान की रात काका को फ्लैट की चाभी थमाई गई, तो लोगों में चर्चा का विषय बन गया था। पूरी पंचायत में आज तक उतना दहेज़ किसी को नहीं मिला था। घर का अंतिम लगन था इसलिए दिल खोलकर खरचा किए रहे। मुज्जफरपुर की आधा दर्जन नामी बाई जी का साटा कर बरियात ले गए थे।

लेकिन हाय रे बदला ज़माना! अब काका का दुख सुनिए। गर्मी का महीना चरम पर है। 10 कट्ठे में आम और लीची की फुलवारी है। लीची तो पहले ही तुरहा के हाथों बेंच दिए थे। अब जर्दा आम गाछी पर पक कर चू रहा है। लेकिन खाने वाले कोई नहीं। इसके बाद मालदह, सीपिया, शुकुल की भी बारी है। बेटी का ससुराल नज़दीक में ही है। उसके लिए कुछ आम छांटकर पूरी गाछी पएकार से सलटा दिए।

दो वर्ष पहले की ही तो बात है। जब बूढ़ी के साथ बड़े बेटे-पतोहू के पास गए थे, मुम्बई में। पोता हुआ था। पतोहू ने सेवा तो ख़ूब की लेकिन बार-बार दवाब बनाने लगी यह कहते हुए, "पापा जी, अब गांवे के रहे जाता। उहां के ज़मीन बेंच दी इहवां फ़्लैट ले लियाव। अपने भी दुनु अदमी इहवे रहीं लोगन।" ये सब सुनकर वे भला कहां रुकने वाले थे वहां। बस इतना ही बोले, "हमनी के जिनगी में ई कुल्ही मुमकिन नइखे। अब मुअला प जे मन में आए करिह$ लो! फिर दोनों जने लौट आए।

इसके कुछ दिन बाद छोटका बेटा पतोहू के बारम्बार निहोरा पर, उनके पास भी चंडीगढ़ गए। लेकिन 20 दिन में ही उब गए। वहां की आबोहवा रास नहीं आई। पतोहु सात बजे तक सोए रहती और सास से काम कराने लगी थी। उसका रूखा व्यवहार उन्हें अखर गया। फिर तो ऐसे लौटे कि अब जाने के नाम ही नहीं लेते। बूढ़ी के जोर देने पर वे ही कभी-कभार दोनों जगह फ़ोन कर पोते से बतिया लेते हैं।

दीवाली, छठ, होली सब फ़ीकी बीतती है। और बीते भी क्यों नहीं, जब दोनों में कवनो बेटा पतोहू अइबे नहीं करता। शहर में पाकिट वाला बिना चोकर का आटा और हाफ बॉयल चाउर ख़रीदकर खाते हैं। मने गांव उनको काटने दौड़ता है। अब अकेले काका क्या करें, लगान के चलते ट्रैक्टर भी बेंच दिए।

खेत-बाड़ी तो पहले ही बटाई दे दिए थे, उन्हीं लोगों को जो कभी जना का काम करते थे। वे अब मलिकार बन गए हैं, जो मन में आया उपज दे जाते हैं। कबो दहाड़ के, कबो सुखाड़ के नाम पर, केतना तरह का रोना रोकर इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं। जबकि उनके दरवाजे पर बेरही-बखारी बढ़ते ही जा रहे हैं। काका सब 'खेला' बढ़िया से बुझते हैं। मने बुढ़ौती में करें भी तो क्या!

बूढ़ी को हफनी बेमारी धर लिया है। दु डेग चलती है हांफे लगती है। डॉक्टर दमा की शिकायत बताकर पंप खिंचेला दिए हैं। इधर छह महीने से उनके घुटने में साइटिक का दर्द बेचैन किए है। जब तक दवा का असर रहता है आराम बुझाता है। अब तो बुदबुदाते भी रहते हैं, "का फ़ायदा वइसन गृहस्थी के जब ओकरा के केहु भोगही वाला ना होखे।"

और गुस्से में कभी यह भी कह डालते हैं, "जान$ तारु फलनवां के माई, दुनु बेटवा-पतोहिया हमनी के मुए के राह देख$ तारे स$! ओकरा बाद कुल्ही जमीनिया बेंचेके शहरी में ठेका दिहे स$!"

©️श्रीकांत सौरभ, मोतिहारी


11 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (10-06-2020) को  "वक़्त बदलेगा"  (चर्चा अंक-3728)    पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

विश्वमोहन said...

वाह सौरभ जी! आंचलिकता का ठेठ तेवर झलका दिया आपने। बधाई!

श्रीकांत सौरभ said...

जी सादर प्रणाम

श्रीकांत सौरभ said...

जी रउआ के भी धन्यबाद बा!!!

प्रतिभा सक्सेना said...

आंचलिक जीवन को प्रस्तुत करती अच्छी कहानी.

Meena sharma said...

बहुत अच्छी कहानी। वार्तालाप की भाषा अलग है पर समझ में आ गई।

hindiguru said...

कनिया को लेकर मिल्की व्हाइट, रसियन हाइट और पैसा टाइट वाली जबरिया शर्त रखी थी!
आंचलिकता खड़ी बोली वाह

Alaknanda Singh said...

श्रीकांत जी, संभवत: पहली बार मैं मोत‍िहारी को इतना करीब से महसूस कर पा रही हूं...बहुत खूबसूरत कहानी और इतने अच्छे शब्द व‍िन्यास के साथ ...वाह

मन की वीणा said...

आँचलिक भाषा में यथार्थ दिखाती मर्मस्पर्शी कथा।

सुनीता अग्रवाल "नेह" said...

मर्मस्पर्शी कथा ।आंचलिक भाषा ने इसे और भी प्रभावी बना दिया है ।

ANIL DABRAL said...

सुंदर कहानी