जब भी नियोजित शिक्षकों के बारे में लोगों की उल्टी-सीधी प्रतिक्रिया पढ़ता हूं। मन बेचैन हो जाता है। यदि कोई शिक्षक फेसबुक पर वेतनमान की मांग वाला पोस्ट करता है। या अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाता है। तो जवाब मिलता है, "उतने ही तेज थे पढ़ाई में, फिर आईएएस, आईपीएस, बीडीओ, डॉक्टर, इंजीनियर क्यों नहीं बन गए?" "जितना मिल रहा है उतना के भी लायक नहीं हो।" "पांच हजार रुपए में प्राइवेट वाले पढ़ाते हैं। तुमको इतना में पेट नहीं भरता।" आदि-आदि।
अब इन लोगों को कौन समझाए कि कोई शिक्षक उपरोक्त पद भले ही हासिल कर नहीं पाया हो। लेकिन अपनी काबिलियत से दूसरे बच्चों को इन पदों पर जाने के लायक जरूर बना देता है। आप ही बताइए, क्या शिक्षक इंसान नहीं होते? आज की महंगाई में प्राइवेट स्कूलों के 05 से 15 हजार रुपए की मामूली सैलरी में क्या कोई आदमी पांच से सात लोगों का पारवारिक खर्च चला सकता है? क्या शिक्षकों को अच्छे घर, कपड़े, वाहन की जरूरत नहीं है? बिहार में शिक्षकों के प्रति आम जनों की सोच नकारात्मक कब, क्यों और कैसे बन गई? इस मुद्दे पर सकारात्मक मंथन जरूर होना चाहिए।
मैं वर्ष 90 के दशक में गांव के उस सरकारी विद्यालय से पढ़कर निकला हूं, जो दो कमरे का खपड़ेंनुमा मकान था। 150 बच्चों पर महज़ दो शिक्षक थे। प्लास्टिक का बोरा बिछाकर पढ़ाई किया था, यह व्यवस्था आज भी है। तब ना एमडीएम था, ना ही कपड़े, साइकिल या छात्रवृति मिलते थे। लेकिन शिक्षकों के प्रति लोगों में जो सम्मान था। उसका 10 प्रतिशत भी आज नहीं है। उस समय शिक्षक नाम से ही बच्चे भय खाते थे। और वो 'भय', गलती को लेकर पिटाई का था। उनके प्रति सम्मान का था।
लेकिन अब स्थिति भयावह है, और यहां तक पहुंचने में दो दशक लगे हैं। बता दूं कि वर्ष 02 में बीपीएससी से बड़े पैमाने पर स्थायी शिक्षकों की वैकेंसी निकली थी। मैं उन दिनों पटना में स्नातक कर रहा था। लंबी लाइन में लगकर जीपीओ से फॉर्म ख़रीदा था। लेकिन कोर्ट के आदेश पर बहाली रोक दी गई। वर्ष 05 में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने 'सर्टिफिकेट दिखाओ नौकरी पाओ' की तर्ज पर पंचायतों में प्रारंभिक स्कूलों में बहाली शुरू की।
सरकार की नीयत 15 सौ रुपए में वैसे साक्षर युवकों को भर्ती करने की थी। जो जनगणना, सर्वे, चुनाव या अन्य सरकारी कार्य करा सकें, बच्चों को एमडीएम खिला सकें। समय मिले तो अक्षर ज्ञान भी दे सकें। मुखिया व प्रमुख को जिम्मेवारी मिली थी नियुक्त करने की। स्वाभाविक है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई (वो तो आज भी नहीं बरती जा रही है)। इसीलिए बड़े पैमाने पर फर्जी कागज़ात लगाकर बेरोजगार भी शिक्षक बन गए। आए दिन मीडिया में ऐसे फर्जी शिक्षकों का नियोजन रद्द होने की ख़बरें आती ही रहती हैं।
और नियोजन वर्ष 08-10 तक में यहीं 'खेला' चलता रहा। इस दौरान कई योग्य शिक्षक दूसरी नौकरियों में भी चयनित होकर जाते रहे। वर्ष 09 में, देश में आरटीआई (शिक्षा का अधिकार) कानून लागू हो गया। इसके मुताबिक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र वाले अभ्यर्थियों का टीईटी लेकर स्थायी शिक्षक के रूप में नियुक्त करना था। जिन्हें मानदेय नहीं वेतनमान देना था। इसी आधार पर बिहार में वर्ष 11 में बड़े पैमाने पर टीईटी लिया गया। केवल कक्षा 01 से 05 में 26 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। जिसमें 03 प्रतिशत यानी 82 हजार लोग पास हुए थे।
तब प्रशिक्षित अभ्यर्थी नहीं थे। इसीलिए सरकार ने एनसीटीई से अनुमति लेकर नियोजन का काम शुरू किया। और आरटीई कानून को दरकिनार कर पुरानी सेवा शर्त पर ही, 09 हजार रुपए के मानदेय पर नियोजन हुआ। वर्ष 15 में शिक्षकों के हड़ताल और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार ने शिक्षकों की नौकरी स्थायी तो कर दी। लेकिन 'चाइनीज' सेवा शर्त वाले वेतनमान और नियोजित के ठप्पे से मुक्ति नहीं मिली।
वहीं शिक्षकों की माने तो शिक्षा विभाग वेतनमान देने के नाम पर कम बजट का रोना रोती है। जबकि बजट का एक बड़ा हिस्सा गैर जरूरी 'लोक लुभावने' कामों में खर्च कर देती है। यहीं नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब वेतनमान का मामला पहुंचा। इस पर बिहार सरकार ने हलफनामा दायर कर कहा कि नियोजित शिक्षक सरकारी कर्मी नहीं हैं। न्यायालय ने भी फ़ैसला सरकार के पक्ष में ही सुनाया, टीईटी शिक्षकों के लिए 'पैरा 78' की चर्चा करते हुए।
सवाल यह भी उठता है, सरकारी की गलत चयन नीति का ठीकरा दूसरे पर क्यों फोड़ा जाए? पूर्व के नियोजित शिक्षकों से, वर्तमान में बहाल योग्य शिक्षकों की तुलना कर सभी को नीचा दिखाना कहां तक उचित है? सोचिएगा, कहीं आपकी इस कुंठित सोच से हजारों नौनिहालों का भविष्य तो नहीं बर्बाद हो रहा? याद रखिए, कल को आपका लड़का भी अच्छी पढ़ाई कर जॉब के लिए मैदान में उतरेगा। उसे भी इसी ठेका प्रथा वाली दमनकारी सिस्टम का हिस्सा बनकर पीसना पड़ेगा।
क्योंकि या तो सरकारी नौकरी ही नहीं बचेगी, या रहेगी भी तो नियोजन वाली। और ऐसा हो भी रहा है। कल तक जो पड़ोसी या रिश्तेदार इन शिक्षकों से जलते थे। एक ही स्कूल में कार्यरत स्थायी शिक्षक अपने ही नियोजित सहकर्मी को हीन और छूत समझते थे। उनकी बेबसी पर हंसते थे। आज उन्हीं का होनहार लड़का पढ़ाई में ख़ूब नम्बर लाकर, बीएड, सीटेट, नेट निकालकर, प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों में 15 से 25 हजार के रुपए की मामूली तनख्वाह पर गुजारा कर रहा है। आख़िरकार लोग इस भ्रम से कब निकलेंगे कि सरकारी शिक्षकों पर खर्च करना ख़ैरात लुटाना नहीं है।
यक़ीन नहीं तो कम से कम दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन जरूर कर लीजिए। गारंटी है आपकी आंखें खुल जाएंगी। यह जगज़ाहिर है कि मातृभाषा और प्राथमिक शिक्षा को मजबूत किया बिना किसी समाज की तरक्क़ी नामुमकिन है। लेकिन यहां पर उपरोक्त दोनों बुनियादी चीजों का चौपट होना, किस बात की ओर इशारा करता है, यह भी गौर करने लायक है। क्या सूबे की बदहाली का एक बड़ा कारण ये भी नहीं है?
अभी की स्थिति ये है कि विद्यालयों में बच्चों के अनुपात में शिक्षकों की भारी कमी है। जबकि हजारों बेरोजगार युवकों के पास डीएलएड, बीएड, टीईटी, सीटीईटी का प्रमाणपत्र है। एक तरफ़ वे नौकरी के लिए सड़क पर संघर्षरत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नियोजित शिक्षक वेतनमान के लिए। जबकि सूबे के 70 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर ही आश्रित हैं। ऐसे में इन स्कूलों में पारदर्शी तरीके से वेतनमान के आधार पर पर्याप्त संख्या में शिक्षकों को नियुक्त नहीं करना। क्या इन लाखों गरीब, किसान, मजदूर परिवार के बच्चों के साथ हकमारी नहीं है?
©श्रीकांत सौरभ
अब इन लोगों को कौन समझाए कि कोई शिक्षक उपरोक्त पद भले ही हासिल कर नहीं पाया हो। लेकिन अपनी काबिलियत से दूसरे बच्चों को इन पदों पर जाने के लायक जरूर बना देता है। आप ही बताइए, क्या शिक्षक इंसान नहीं होते? आज की महंगाई में प्राइवेट स्कूलों के 05 से 15 हजार रुपए की मामूली सैलरी में क्या कोई आदमी पांच से सात लोगों का पारवारिक खर्च चला सकता है? क्या शिक्षकों को अच्छे घर, कपड़े, वाहन की जरूरत नहीं है? बिहार में शिक्षकों के प्रति आम जनों की सोच नकारात्मक कब, क्यों और कैसे बन गई? इस मुद्दे पर सकारात्मक मंथन जरूर होना चाहिए।
मैं वर्ष 90 के दशक में गांव के उस सरकारी विद्यालय से पढ़कर निकला हूं, जो दो कमरे का खपड़ेंनुमा मकान था। 150 बच्चों पर महज़ दो शिक्षक थे। प्लास्टिक का बोरा बिछाकर पढ़ाई किया था, यह व्यवस्था आज भी है। तब ना एमडीएम था, ना ही कपड़े, साइकिल या छात्रवृति मिलते थे। लेकिन शिक्षकों के प्रति लोगों में जो सम्मान था। उसका 10 प्रतिशत भी आज नहीं है। उस समय शिक्षक नाम से ही बच्चे भय खाते थे। और वो 'भय', गलती को लेकर पिटाई का था। उनके प्रति सम्मान का था।
लेकिन अब स्थिति भयावह है, और यहां तक पहुंचने में दो दशक लगे हैं। बता दूं कि वर्ष 02 में बीपीएससी से बड़े पैमाने पर स्थायी शिक्षकों की वैकेंसी निकली थी। मैं उन दिनों पटना में स्नातक कर रहा था। लंबी लाइन में लगकर जीपीओ से फॉर्म ख़रीदा था। लेकिन कोर्ट के आदेश पर बहाली रोक दी गई। वर्ष 05 में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने 'सर्टिफिकेट दिखाओ नौकरी पाओ' की तर्ज पर पंचायतों में प्रारंभिक स्कूलों में बहाली शुरू की।
सरकार की नीयत 15 सौ रुपए में वैसे साक्षर युवकों को भर्ती करने की थी। जो जनगणना, सर्वे, चुनाव या अन्य सरकारी कार्य करा सकें, बच्चों को एमडीएम खिला सकें। समय मिले तो अक्षर ज्ञान भी दे सकें। मुखिया व प्रमुख को जिम्मेवारी मिली थी नियुक्त करने की। स्वाभाविक है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई (वो तो आज भी नहीं बरती जा रही है)। इसीलिए बड़े पैमाने पर फर्जी कागज़ात लगाकर बेरोजगार भी शिक्षक बन गए। आए दिन मीडिया में ऐसे फर्जी शिक्षकों का नियोजन रद्द होने की ख़बरें आती ही रहती हैं।
और नियोजन वर्ष 08-10 तक में यहीं 'खेला' चलता रहा। इस दौरान कई योग्य शिक्षक दूसरी नौकरियों में भी चयनित होकर जाते रहे। वर्ष 09 में, देश में आरटीआई (शिक्षा का अधिकार) कानून लागू हो गया। इसके मुताबिक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र वाले अभ्यर्थियों का टीईटी लेकर स्थायी शिक्षक के रूप में नियुक्त करना था। जिन्हें मानदेय नहीं वेतनमान देना था। इसी आधार पर बिहार में वर्ष 11 में बड़े पैमाने पर टीईटी लिया गया। केवल कक्षा 01 से 05 में 26 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। जिसमें 03 प्रतिशत यानी 82 हजार लोग पास हुए थे।
तब प्रशिक्षित अभ्यर्थी नहीं थे। इसीलिए सरकार ने एनसीटीई से अनुमति लेकर नियोजन का काम शुरू किया। और आरटीई कानून को दरकिनार कर पुरानी सेवा शर्त पर ही, 09 हजार रुपए के मानदेय पर नियोजन हुआ। वर्ष 15 में शिक्षकों के हड़ताल और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार ने शिक्षकों की नौकरी स्थायी तो कर दी। लेकिन 'चाइनीज' सेवा शर्त वाले वेतनमान और नियोजित के ठप्पे से मुक्ति नहीं मिली।
वहीं शिक्षकों की माने तो शिक्षा विभाग वेतनमान देने के नाम पर कम बजट का रोना रोती है। जबकि बजट का एक बड़ा हिस्सा गैर जरूरी 'लोक लुभावने' कामों में खर्च कर देती है। यहीं नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब वेतनमान का मामला पहुंचा। इस पर बिहार सरकार ने हलफनामा दायर कर कहा कि नियोजित शिक्षक सरकारी कर्मी नहीं हैं। न्यायालय ने भी फ़ैसला सरकार के पक्ष में ही सुनाया, टीईटी शिक्षकों के लिए 'पैरा 78' की चर्चा करते हुए।
सवाल यह भी उठता है, सरकारी की गलत चयन नीति का ठीकरा दूसरे पर क्यों फोड़ा जाए? पूर्व के नियोजित शिक्षकों से, वर्तमान में बहाल योग्य शिक्षकों की तुलना कर सभी को नीचा दिखाना कहां तक उचित है? सोचिएगा, कहीं आपकी इस कुंठित सोच से हजारों नौनिहालों का भविष्य तो नहीं बर्बाद हो रहा? याद रखिए, कल को आपका लड़का भी अच्छी पढ़ाई कर जॉब के लिए मैदान में उतरेगा। उसे भी इसी ठेका प्रथा वाली दमनकारी सिस्टम का हिस्सा बनकर पीसना पड़ेगा।
क्योंकि या तो सरकारी नौकरी ही नहीं बचेगी, या रहेगी भी तो नियोजन वाली। और ऐसा हो भी रहा है। कल तक जो पड़ोसी या रिश्तेदार इन शिक्षकों से जलते थे। एक ही स्कूल में कार्यरत स्थायी शिक्षक अपने ही नियोजित सहकर्मी को हीन और छूत समझते थे। उनकी बेबसी पर हंसते थे। आज उन्हीं का होनहार लड़का पढ़ाई में ख़ूब नम्बर लाकर, बीएड, सीटेट, नेट निकालकर, प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों में 15 से 25 हजार के रुपए की मामूली तनख्वाह पर गुजारा कर रहा है। आख़िरकार लोग इस भ्रम से कब निकलेंगे कि सरकारी शिक्षकों पर खर्च करना ख़ैरात लुटाना नहीं है।
यक़ीन नहीं तो कम से कम दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन जरूर कर लीजिए। गारंटी है आपकी आंखें खुल जाएंगी। यह जगज़ाहिर है कि मातृभाषा और प्राथमिक शिक्षा को मजबूत किया बिना किसी समाज की तरक्क़ी नामुमकिन है। लेकिन यहां पर उपरोक्त दोनों बुनियादी चीजों का चौपट होना, किस बात की ओर इशारा करता है, यह भी गौर करने लायक है। क्या सूबे की बदहाली का एक बड़ा कारण ये भी नहीं है?
अभी की स्थिति ये है कि विद्यालयों में बच्चों के अनुपात में शिक्षकों की भारी कमी है। जबकि हजारों बेरोजगार युवकों के पास डीएलएड, बीएड, टीईटी, सीटीईटी का प्रमाणपत्र है। एक तरफ़ वे नौकरी के लिए सड़क पर संघर्षरत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नियोजित शिक्षक वेतनमान के लिए। जबकि सूबे के 70 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर ही आश्रित हैं। ऐसे में इन स्कूलों में पारदर्शी तरीके से वेतनमान के आधार पर पर्याप्त संख्या में शिक्षकों को नियुक्त नहीं करना। क्या इन लाखों गरीब, किसान, मजदूर परिवार के बच्चों के साथ हकमारी नहीं है?
©श्रीकांत सौरभ
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