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30 July, 2020

नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में त्रि-स्तरीय भाषा का स्वागत है, लेकिन...

मेरी पांच वर्षीय बेटी गांव के एक निजी कान्वेंट में अपर किंडर गार्डन (यूकेजी) की छात्रा है। लॉकडाउन के कारण स्कूल बंद है। इस कारण से घर पर ही पड़ोस की आंटी से ट्यूशन लेती है। एक दिन वह कमरे में पढ़ाई कर रही थी। मैंने आदतन ऐसे ही कहा, कॉपी पर ''क ख ग घ...' और 'ABCD...' पूरा लिखकर दिखाओ।'

मेरे कहे कि मुताबिक़ उसने कुछ ही देर में लिख डाला। कॉपी देखकर मैंने पूछा, बताओ इसमें 'मूर्धन्य 'ष' किधर है?' इस पर वह शुरू से पढ़ते हुए अक्षर को खोजने लगी। वहीं जब अंग्रेजी के अक्षरों को पहचानने को कहा तो उसने ज़रा भी समय नहीं लिया।

चूंकि मैं भी शिक्षक हूं, उससे पहले एक लेखक और भाषा एक्टिविस्ट हूं। मेरी मातृभाषा हिंदी नहीं भोजपुरी है। और मेरे लिए मातृभाषा का मतलब महज़ कुछ शब्द भर नहीं, यह हमारी पहचान, हमारा संस्कार, अभिमान और हमारी एकता का प्रतीक है। मेरा मानना है कि कोई भी आदमी अपनी मातृभाषा को नजरंदाज कर ना तो एक अच्छा लेखक या कलाकार बन सकता है, ना ही एक अच्छा इंसान।

ऐसे में बेटी की पढ़ाई के कांसेप्ट को लेकर मेरी चिंता का होना स्वाभाविक है। वह जिस पब्लिक स्कूल में पढ़ती है। उसमें शुरू से ही अंग्रेजी माध्यम से कोर्स की किताबें पढ़ाई जाती हैं। जहां अक्षर ज्ञान नहीं देकर Alphabatical Knowledge उड़ेला जाता है। 'पहाड़ा' नहीं 'Table', गिनती के बदले 'Count' सिखाए जाते हैं।

इस बावत जब मैंने ट्यूटर से बात की तो उनका जवाब मिला, 'हम स्कूल के सिलेबस के हिसाब से पढ़ाते हैं। वह अंग्रेजी में है। इसलिए हिंदी में पढ़ाने पर बच्ची कक्षा में पिछड़ जाएगी।' जबकि स्कूल के प्राचार्य ने बताया, 'अंग्रेजी माध्यम स्कूल है। यहां सवाल ये नहीं उठता है कि ऐसा क्यों होता है? बल्कि इसका समाधान क्या है, इस मुद्दे पर बहस जरूर होनी चाहिए।

वैसे भी मातृभाषा को मारकर बच्चे को रट्टू तोता या दोयम व्यक्तित्व वाला बनाना मुझे पसंद नहीं। मैं जिस परिवेश से आता हूं। उसमें चूहा को 'मुस', कबूतर को 'परेवा', बिल्ली को 'बिलाई', तोता को 'सुग्गा' कहा जाता है। मेरी बेटी भले ही इन्हें Rat, Pigeon, Cat, Parrot बोलना सीख ले। लेकिन इससे पहले बाकि दोनों भाषाओं में भी शब्दों को जाने।

जरा सोचिए, जब आप बीमार होते हैं तो किसी M.B.B.S या डिग्रीधारी चिकित्सक के पास इलाज के लिए जाते हैं। कानूनी सलाह के लिए एलएलबी वकील और आयकर ऑडिट कराने के लिए सीए का सहारा लेते हैं। क्योंकि उनको अपने क्षेत्र में महारथ हासिल होती है। ठीक वैसे ही एक योग्य शिक्षक बनने के लिए डीएड, बीएड का प्रशिक्षण प्रमाणपत्र निहायत ही जरूरी है।

मैं दावे के साथ कह सकता हूं। दुनिया के किसी भी देश में शिक्षक प्रशिक्षण को लेकर जो किताबें पढ़ाई जाती हैं। उसमें जरूर लिखा रहता है कि बच्चों को प्रारम्भिक स्तर की शिक्षा मातृभाषा में देना चाहिए। इससे उनके व्यक्तिव का समुचित विकास होता है। चीन, जापान, रूस और जर्मनी ने इसे आत्मसात भी किया। इनका विकसित देश बनने में मातृभाषा का अहम योगदान रहा है। हालांकि यहां के रहनिहार उतनी भर अंग्रेजी जरूर सीखते हैं कि बाहरी देशों से संपर्क में परेशानी नहीं आए।

किसी समय महात्मा गांधी और महान शिक्षा व भाषाविद रवींद्रनाथ टैगोड़ ने भी इसकी वकालत की थी। लेकिन अंग्रेजियत के हिमायती जवाहरलाल नेहरू और गुजराती विद्वान केएम मुंशी ने उनकी मांग को ख़ारिज कर दिया था। इतना ही नहीं शुरू से ही हमारे देश में इस तथ्य को चालाकी से नजरअंदाज किया जाता रहा है।

संयोग से 34 वर्षों के बाद मोदी सरकार ने नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति लागू की है। यानी बच्चों में क्लर्क की मानसिकता भरने वाली मैकाले की शिक्षा व्यवस्था के दिन लद गए। नई नीति को लेकर पूर्व इसरो चीफ़ कस्तूरीरंगन की अध्यक्षता वाली विशेषज्ञ कमिटी ने त्रि-स्तरीय भाषा का सुझाव दिया था। जिसे नीति में शामिल कर लिया गया है। ख़ैर, कानून तो बन गया लेकिन जरूरत इसे अमलीजामा पहनाने की भी है। इस शिक्षा नीति को सरकारी ही नहीं कुकुरमुत्ते की तरह पनपे निजी स्कूलों में भी सख्ती से लागू किया जाए।

यदि हम बिहार की बात करें तो यहां मुख्यतः पांच भाषाएं बोली जाती हैं। भोजपुरी, मगही, मैथिली, बज्जिका और अंगिका। क्षेत्रीय आधार पर पांचवीं कक्षा तक मातृभाषा में शिक्षा अनिवार्य कर दिया जाए। हां, हिंदी और अंग्रेजी एक विषय के रूप में शुरू से पढ़ाई जाए। कई शोध से यह साबित भी हो चुका है। मातृभाषा के साथ ही दो-तीन अन्य भाषाओं की जानकारी लेने वाले बच्चे का दिमाग काफ़ी तेज होता है। उसमें रचनात्मक ज्ञान की वृद्धि होती है।

ध्यान दें, आठवीं कक्षा से विज्ञान और गणित जैसे जटिल विषयों की पढ़ाई अंग्रेजी में हो। जबकि हिंदी भाषा में कला विषयों की स्तरीय किताबें उपलब्ध हैं। इससे बच्चे भूगोल, इतिहास, राजनीति शास्त्र, अर्थशास्त्र आदि के बारे में अच्छी तरह से सीख सकते हैं। इतना ही नहीं किसी भी छात्र को एक विषय के रूप में मातृभाषा की पढ़ाई की सुविधा ऊंची कक्षा तक मिले।

©️श्रीकांत सौरभ


12 July, 2020

"भोजपुरी में बतिआए के होखे त बोल$ ना त राम-राम"

सोशल साइट्स पर गुजरात की महिला सिपाही सुनीता यादव का वीडियो तेजी से वायरल हो रहा है। जिसमें वो अपने अधिकारी से एक मंत्री के लड़के की उदंडता की शिकायत निडरता से कर रही है। वह भी मातृभाषा में। इसे ना समझने वाले भी वीडियो को बेहद चाव से शेयर कर रहे हैं। देख, सुन रहे हैं। शायद मातृभाषा की यहीं ताकत होती है।

इसी प्रसंग से याद आया। दो-तीन दिन पहले मेरे पास एक लड़के का फ़ोन आया था। बोला, "सर मोतिहारी से हूं। फ़िलहाल दिल्ली में रहना होता है। बहुत अच्छा लिखते हैं। आपको पढ़ते रहते हूं।"

"हां बोलिए, क्या सेवा करूं?" उसने बताया, "मैंने एक डॉक्टर एप्प बनाया है। इसमें पूर्वी चंपारण के रहनिहारों को स्थानीय डॉक्टर्स का डाटा मिल जाएगा। कोई भी इसे गूगल प्ले स्टोर से अपलोड कर अपनी पसंद के डॉक्टर से अपॉइंटमेंट ले सकेंगे। इस एप्प के बारे में अपनी वाल पर प्रोमोट कर दीजिए।"

मैंने कहा, "मोतिहारी से बानी त भोजपुरी बोले आवेला कि ना?"

"जी नहीं, मुझे भोजपुरी नहीं आती है। कभी बोला ही नहीं।"

"तनिका परयास कके देखीं। उम्मेद बा बोले लागेम।", ये मेरा जवाब था।

"नहीं सर ये मुमकिन नहीं है। आपको मेरा एप्प प्रोमोट करना है या नहीं। ये बताइए..?"

अब उसकी प्रोफेशनल बतकही मुझे चुभने लगी थी। मैंने झट से कहा, "जब तोहरा मोतिहारी घर होते हुए भी मातृभाषा से जुड़ाव नइखे। त हमहु तोहार मदद फ्री में ना करेम। पांच हजार लागी बोल$ देब$?"

यह सुनते ही उसने फ़ोन काट दिया। अब मैंने भी दिनचर्या बना लिया है, ऐसे बनतुअरों से निपटने के लिए। कोई भी भोजपुरी क्षेत्र का आदमी यदि मुझे फ़ोन करता है। या सामने मिलने पर हिंदी में बात करता हूं। मैं उसे टोक देता हूं, "भाई, भोजपुरी में बतिआए के होखे त बोल$ ना त राम-राम। हम चलनी।"

मुझे लगता है, 1.20 करोड़ की आबादी वाले चंपारण समेत तमाम भोजपुरी भाषी जिले के युवाओं को, मातृभाषा प्रेमियों को यहीं हठधर्मी रवैया अपनाने की जरूरत है। वैसे मैंने तो शुरुआत कर दी। आप कब कर रहे हैं?

©श्रीकांत सौरभ

ब्लॉग लिंक - srikantsaurabh.com