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12 April, 2020

कृत्रिम आवरण से बाहर निकल प्रकृति को महसूस कीजिए

यदि आप एक अरसे के बाद शहर से गांव में आए हैं। लॉक डाउन में फंसे हैं। एंड्राइड पर फेसबुक, व्हाट्सएप्प, टिक टॉक, यूट्यूब के गाने, नेटफ्लिक्स या एमएक्स प्लेयर की वेब सीरीज देखकर उब चुके हैं। घर बैठे-बैठे तनाव की हद तक बोर हो रहे हैं। ऐसे में, हम यहीं सलाह देंगे कि थोड़ा आलस छोड़िए। और भरी दुपहरिया में निकल जाइए सरेह की तरफ। यकीन जानिए, बिल्कुल नया अनुभव होगा।

नीले आसमान से छनकर रौशनी बिखेरती सूर्य की किरणें, और चढ़ते वैशाख की जवान होती धूप। जमाने बाद ऐसा हुआ है कि इस महीने की तपिश बदन को झुलसाती नहीं, गुदगुदाती लगती है। कुछ पल ठहरकर प्रकृति के नायाब तोहफे का आनंद लीजिए। इनसे बातें कीजिए। मानो कह रही हों, हम तो हमेशा से आपके साथ हैं। आप ही हमको भूल गए। शर्मीली दुल्हन की तरह घूंघट काढ़े खड़ी, खेतों में पककर तैयार गेहूं की बालियों को निहारिए। यूं लगेगा धरती पर दूर-दूर तक पीली चादरें बिछा दी गई हों।

पछुआ हवा के झोंके से फसलें ऐसे झूम रही हैं, जैसे किसी गोरी का आंचल लहरा रहा हो। जरा ध्यान लगाकर जलतरंग की तरह झनझनाकर बज रहे झुर्राए दानों का कोरस सुनिए। और खेत से सटे ही आम के बगीचे की ओर बढ़ जाइए। पत्ते झड़ने के बाद ठूंठ पेड़ों की टहनियों में निकल रहे कोंपलें हों। या फिर आम के पेड़ पर टिकोले में तब्दील होते मंजर पर मंडराती मधुओं की टीम।

यहां के जर्रे-जर्रे में नयापन का संदेश मिलेगा। इनसे भीनी-भीनी निकल रही सोंधी सुगंध जैसे ही नाक के नथुनों से टकराती हैं। मदहोशी में मिजाज गजबे बउरा जाता है। नशा सा छाने लगता है कपार पर। डाल पर बैठकर चहचहा रही चिरपरिचित के साथ ही अनदेखी, अंजानी चिड़ियों की झुंड। हमें कोलाहल से दूर ले जाकर क्षणिक स्थिर प्रज्ञता का एहसास कराती है। इसी बीच दूर कहीं से आ रही विरहन कोयल की कुहू-कुहू। मन में हुक उठाते हुए अजीब सा टीस भी देती है।

वैसे तो सृष्टि में जन्म, मृत्यु, सृजन, विनाश का चक्र तो अनादि काल से चलता आ रहा है। दार्शनिक भी कहते हैं। जिसे हम मौत कहते हैं, वहीं तो जीवन है। विनाश के बाद ही सृजन होती है। लेकिन हम हैं कि इस सच्चाई से मुंह चुराकर निकल जाना चाहते हैं। भौतिक संसाधन जुटाने के फेरे में दरबदर भटक रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि जिस प्रकृति ने हमें इतने कुछ दिया। बदले में उसको हमने क्या चुकाया?

यहीं न अंधाधुंध हरे-भरे पेड़ों को काटकर कंक्रीटों का जंगल खड़ा किया। रहन-सहन का स्तर बढ़ाने के लिए, कस्बा को बाजार, बाजार को शहर, शहर को महानगर और महानगर को मेट्रो सिटी बना दिया। बदले में तालाबों को भर दिया। नदी, वतावरण सब प्रदूषित किया। ज्यादा से ज्यादा उपज की लालच में खेतों में जमकर रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया। जमीन को बंजर बनाया। कल-कारखाने, वाहनों के धुएं से हवा में जहर घोला। रक्षा के लिए परमाणु बम बनाए, लेकिन बीमारियों को लेकर शोध पर खर्च नहीं हुआ। अस्पताल नहीं बने।

हमने कमाने की होड़ में अनावश्यक पलायन कर मातृभूमि त्यागा। मातृभाषा को भुलाया। मौलिक रहने के बदले जिंदगी बनावटी बना ली। हाइजेनिक भोजन के बदले प्लास्टिक पैक वाले फूड स्टफ को आहार बनाया। शर्बत, सत्तू की जगह कोल्ड ड्रिंक, रसायनिक बेवरेज, बोतलबंद पानी का सेवन स्टेट्स सिंबल है। इसी तरह हमने अपनी अच्छाई को सीने में दफन कर आधुनिकता का झूठा नकाब चेहरे पर लगा लिया। पहचान बदल डाली। इतना ही नहीं, शहर का एकांकी जीवन जीते हुए कब हमारी जीन में स्वार्थीपन और मतलबीपन जैसे तमाम अवगुण घुल गए। पता भी नहीं चला।

चलते-चलते बस यहीं कहूंगा। यदि गलती हमने की है तो नतीजा भी हमें ही भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति से संदेश लेकर अभी भी नहीं चेते। तो आनेवाली पीढ़ी को और भी बुरे हालात से गुजरने होंगे। दुनिया के नजरों में भले ही कोरोना खतरनाक महामारी होगी। लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर, ईमानदारी से पूछिए। क्या यह हमसे ज्यादा जहरीली है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

3 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

सार्थक आलेख।

Anita said...

सही कह रहे हैं आप, मानव को ही बदलना होगा अपना चाल-चलन, प्रकृति का सम्मान करना सीखना होगा

मन की वीणा said...

सार्थक चिंतन देती प्रस्तुति।