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28 May, 2020

वो जेठ की तपती दुपहरी, नहर में डुबकी लगाना और गाछी का आम तोड़कर खाना!

जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है..! वर्ष 1990 का दशक, यानी एक ऐसा दौर जिसके आस-पास जन्मे लोग, कई सारे बदलाव का गवाह हैं। चीजों का मैन्युअल से डिजिटल होने का साक्षी भी हैं। तब टीवी पर काका जी कहिन, मालगुड़ी डेज, व्योमकेश बख्शी, तलाश, नीम का पेड़, रामायण, महाभारत, चित्रहार रंगोली, द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान, आलिफ़ लैला, कृष्णा,चंद्रकांता जैसी धारावाहिकों से शुरू हुआ सफ़र शक्तिमान, स्वाभिमान और शांति पर आकर ठहर गया था। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बुजुर्ग सभी इन कार्यक्रमों के दीवाने थे।

गाने आंखों से नहीं कानों के रास्ते सीधे दिल में उतरते थे। यानी म्यूजिक देखने नहीं सुनने की चीज़ थी। मो. अजीज, पूर्णिमा, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, नीतिन मुकेश, शब्बीर कुमार और अमित कुमार जैसे नकियाते सिंगर्स की गायिकी के दिन लद चले थे। और अलका याग्निक, कुमार शानू, उदित नारायण, सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल इंट्री के साथ ही धमाल मचा रहे थे। मड़ई, घर या फुस का दालान हो, चौक-चौराहे की पान दुकान, बस या अन्य सवारियों की यात्रा हो। या फिर किसी के दरवाजे पर मांगलिक आयोजन।

टेप में कैसेट लगाकर फिल्मी गाने साउंड बॉक्स या एम्पलीफायर से बजते। तो सुनने वाले उसी में खो जाते। अधिकांश लड़के गाने गुनगुनाते हुए रोमांटिक हो जाते। और कुछ देर के लिए ख़ुद को सलमान, गोविंदा, शाहरुख, आमिर खान ही समझने लगते। बप्पी लहरी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आरडी वर्मन की चिरपरिचित धुनों के खात्मे के साथ ही नदीम श्रवण और जतिन ललित की सदाबहार जोड़ी ने म्यूजिक इंडस्ट्री को एक नया आयाम दिया था, धाचिक धाना बीट और मेलोडी म्यूजिक के साथ। 15-20 रुपए में मिलते थे टिप्स, टी सीरीज, वीनस, एचएमवी के रील वाले ऑडियो कैसेट्स। उनके कवर पर कलाकारों को निहारना भी अलहदा सुख देता था।

उन दिनों लोगों में पत्र-पत्रिकाओं को सिरहाने छुपाकर, चाट-चाटकर पढ़ने का जुनून था। किसी के लिए नंदन, बालहंस, चंपक, क्रिकेट सम्राट, तो किसी के लिए सरस सलिल, मायापुरी, मनोहर कहानियां, मधुर कथाएं, सरिता, माया, इंडिया टुडे और किसी लिए प्रेमचन्द्र, शरतचन्द्र, कुशवाहाकांत से लेकर वेदप्रकाश शर्मा, केशव पंडित के उपन्यासों को पढ़ना ही, अव्वल दर्जे का साहित्यिक अध्ययन था। इया, दादी या नानी की रातों की कहानियों में भी परियों या भूत-प्रेत का ही बसेरा रहता।

बेरहम वक्त के थपेड़ों से भले ही हम सब कुछ भूल जाएं। लेकिन इस काल में बिहार व उत्तरप्रदेश के गांवों में जन्म लिए, पले-बढ़े लौंडे कुछ चीजों को मरते दम तक नहीं भुला सकते। रह-रहकर याद आ ही जाती है, बचपन से लेकर किशोरपन के शैतानियों की। चारा मशीन से पुआल काटने की, गिल्ली-डंडा, गोली (कंचे), कब्बडी, लट्टू नचाने, लंगड़ी-बिच्छी खेलने की, स्कूल से भागकर लवंडा नाच या वीसीपी से रंगीन टीवी पर चल रही फ़िल्म देखने की, बदन को झुलसाती जेठ की दुपहरी में तपती सड़क पर नंगे पैर घूमने की, पापा के पॉकेट से सिक्के चुराकर अशोक जलजीरा, संगम आंवला पाचक या शिखर, मधु गुटखा खरीदकर चाटने या फांकने की, पेड़ से जामुन और लीची तोड़कर खाने की।

बगीचे में जाकर आम तोड़कर खाने के इतने किस्से हैं कि शायद एक पारी में उसे समेटा ना जा सके। रोहिणी नक्षत्र उतरते ही बीजू और जर्दा आम पकने लगते। इन दिनों गर्मियों की छुटियां भी हो जातीं। कोई सोनू पटना से, कोई विनीत दिल्ली से, कोई चुन्नू मोतिहारी से तो भोलू बेतिया से आता, छुट्टी बिताने। गांव किसी का घर, किसी के लिए ममहर तो किसी के लिए फुफहर होता। जब हमउम्र बच्चों की चंडाल चौकड़ी नहर में डुबकी लगाती। ग़ज़ब की धूम मचती। कोई सांस रोके मिनट तक पानी में छुप जाता। कोई तैरते हुए तेज धार को पछाड़ इस पार से उस पार आता-जाता। तो कोई किनारे ही कमर भर पानी में खड़े होकर तैरने की ट्रेनिंग लेता।

यहां के बाद अगला पड़ाव गाछी में होता। जहां बातों का अंतहीन सिलसिला चल पड़ता। जितने मुंह उतनी बतकही। उनमें हक़ीकत कम फ़साना ज़्यादा रहता। वीडियोगेम, वाकमैन, नागराज, चाचा चौधरी के अगले कॉमिक्स, शक्तिमान के किलवीस, गंगाधर, सुपरमैन की बातें होतीं। वहीं कभी-कभी मनोरंजन के लिए हिंदी, भोजपुरी गाने गाते हुए सभी झूमने लगते। दोल्हा-पाती, लूडो, शतरंज, व्यापार या ताश खेलकर टाइम पास किया जाता।

इसी बीच कोई लड़का सेनुरखा बीजू, जर्दा, सबुजा (चौसा) या डंका (मालदह) आम के पेड़ पर चढ़कर डाढ़ी हिलाता। फिर 'गछपक आम' भहराकर गिरने लगते। जिन्हें चूसकर-चूसकर सबका पेट भर जाता। हाथ धोने के लिए घड़े में पानी भरकर लाया जाता। कच्चे आम का 'भांजा' भी ख़ूब बनता। आम को ब्लेड से छीलकर महीने टुकड़े में काटा जाता। फिर उसे सूती कपड़े के टुकड़े में रख उसमें हरी मिर्च, आचार डालकर मुट्ठी से पकड़कर बांध लेते। और उसे पेड़ के तने पर जोर-जोर से पटकते। इसके बाद सभी बच्चे मिल-बंटकर चटखारे लेकर खाते। जिसके तेज खट्टे स्वाद को याद कर आज भी मुंह पानी से भर जाता है।

खैर, गांव अभी भी हैं। हर साल गर्मी की छुटियां भी आती हैं। लेकिन आज के बच्चों में ना तो वो उमंगें हैं। ना ही उतनी संख्या में बगीचे बचे हैं। पहले की तरह इस पीढ़ी को आज़ादी भी नहीं मिल पाती। नहर, पोखर, नदी आदि नई पीढ़ी के लिए महज़ प्राकृतिक जल स्रोत भर हैं। चारों तरफ़ हाइजीन का ढिंढ़ोरा पीटा जा रहा है। इस लिहाज़ से कान्वेंट में पढनेववाले बच्चों के लिए उसमें नहाना तो दूर की बात है। उसमें पैर भी नहीं रखना चाहेंगे।

फिटनेस के लिए आउटडोर गेम के नाम पर कहीं-कहीं क्रिकेट खेलते बच्चे जरूर दिख जाते हैं। लेकिन अब ज़्यादातर इनडोर गेम का चलन है। मोबाइल में पबजी, टिकटोक, विगो का आंनद ले रही, और फ़ास्ट फ़ूड के सेवन से शरीर को बेडौल करती पीढ़ी क्या जानें। तकनीकी किसी कदर उनसे मासूमियत, रचनात्मकता, मौलिकता, सृजनात्मकता छीनकर, उन्हें एकांकी, हिंसक, जिद्दी और गुस्सैल बना रही है। उनमें तनाव और अवसाद भर रही है। प्रकृति से कटकर कृत्रिम जीवनशैली अपनाने से, उनका शारीरिक व मानसिक स्तर पर जो नुकसान हो रहा है। उसकी भरपाई शायद ही हो पाए।

©️®️श्रीकांत सौरभ


2 comments:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

बहुत खूब।

Anonymous said...

Atul kumar ray ji ke jaisa aap bhi novel likhiye kyonki unke lekhni Or aapke lekhni me bhut samanta hai.

Baki e lekh me apne ekdum se apan bachpn yad dila deni h.