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07 April, 2013

यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!


यादाश्त पर जोर दूं तो 90 का शुरूआती दशक था वह. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था पड़ोस के ही प्राथमिक विद्दालय में, नाम- राजकीय कन्या प्राथमिक विद्दालय, बथानी टोला, कनछेदवा. बोले तो- ईट की दीवार खप्पड़े की छत वाली दो कमरे की ईमारत, बाहर में छोटा सा बरामदा, पर फर्श पर प्लास्टर नहीं था. इन्हीं कमरों में 1-5वीं तक की कक्षाएं चलती थीं. जहां मैं पड़ोस के बच्चों के साथ किसी दिन बोझिल तो कभी उत्साही क़दमों से गपियाते हुए स्कूल जाता.  

चूंकि जमीन पर बैठ कर पढ़ना होता, इसलिए सब अपने साथ प्लास्टिक या चट्टी का बोरा लाते. कक्षा में पहुंचते ही पहले हम-पहले हमकी तर्ज पर बोरा से जगह छेंकने के क्रम में जबर्दस्त हुड़दंग मचती थी. आगे की पंक्ति में बैठने की जगह जिसे मिल गई, वह खुद को नसीब वाला समझता. 

हर कक्षा में मॉनिटरके साथ एक सफाईमंत्री भी होता था. सबसे तेज छात्र को यह जिम्मेवारी सौंपी जाती. मॉनिटर अपनी कक्षा के छात्रों की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रधान शिक्षक को करता. उसका रौब कुछ ऐसा था कि कक्षा के अन्य बच्चे उससे भय खाते. क्या पता? कब किस की शिकायत झूठी ही सही प्रधानाध्यापक से कर दे...और बदले में पिटाई मिले या फिर मुर्गाबना दिए जाए. इसी कारण मॉनिटर से मिलजुल कर रहने में ही सबकी भलाई थी. भले ही वह लाख गलतियां कर ले, उसकी खोज-खबर नहीं ली जाती

यानी पद की आड़ में नजायज भी जायज था. कहा गया है कि बचपन का दौर मासूमियत भरा होता है, जिसमें दुनियावी छल-प्रपंच के लिए कोई जगह नहीं होती. पर मॉनिटर का अन्य हमउम्र बच्चों के साथ व्यवहार की साइकोलोजी पर गौर करें तो इससे कुछ और बात ही उजागर होगी. मुझे तो लगता है कि राजनीति कूटनीति की शुरूआत सबसे पहले प्राइमरी स्कूल से ही होती है.  

रही सफाई मंत्री की बात तो वह बच्चों से स्कूल का मैदान साफ करवाता. उसके बाद सभी छात्र कतार में खड़े हो दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना...या मां शारदे कहां तू वीणा बजा...का गान करते हुए प्रार्थन करते. फिर कक्षा शुरू हो जाती. जो बच्चे प्रार्थना के बाद स्कूल पहूंचते उन्हें दंड स्वरूप मुर्गाबनना पड़ता

यह कहने से गुरेज नहीं कि मैंने भी यह अमानवीय सजा कई बार झेली! अमानवीय इसलिए कि उम्र भले ही कम हो, पर हमउम्र के बीच  इम्प्रेशन खराब होने का डर किसे नहीं होता? खुले मैदान में करीब आधे घंटे तक उकडू बैठ घुटनों के नीचे से हाथ लाकर कान पकड़े रहना, सबके बस का रोग नहीं था. कनपट्टी गरमाने के साथ पूरा बदन पसीने से तर-बतर होता ही, आंखों के आगे भी अंधेरा छाने लगता. कमर पीठ का ना सहने योग्य दर्द अलग से. ...उसपर छुट्टी के बाद संग के बच्चों का चवनियां मुश्की के साथ चिढ़ाना जले पर नमक सरीखा लगता. 

स्कूल में सोम, मंगल, बुध गुरुवार के दिन काफी बोरियत भरे लगते. शुक्रवार को यह सोच सुकून मिलता कि शनिवार को आधे दिन ही पढ़ाई होगी. फिर रविवार को तो साप्ताहिक बंदी से बल्ले-बल्ले यानी फुल टूश मस्ती रहती ही. गर्मी के मौसम की तुलना में सर्दी का दिन प्यारा लगता. क्योंकि इस मौसम में कड़ाके की ठंड पड़ती. दिन भी बेहद छोटे होते, इसलिए भरपूर छुट्टी रहती.  

उन दिनों अभिभावक तीसरी कक्षा के बच्चे को ही लिखने के लिए कॉपी कलम देते थे, क्योंकि हैण्ड राइटिंग बिगड़ने का डर रहता. सो, दूसरी तक के  सारे बच्चे जामा के पॉकेट में खल्ली (खड़िया) रखते, जो कि मोटहिया स्लेटपर लिखने के काम आता. हालांकि खल्ली की तुलना में पेंसिल ज्यादा चलता और...लिखावट भी अच्छी होती. लेकिन महंगा होने के चलते इसका प्रयोग कम बच्चे ही कर पाते. अन्य बच्चे कहीं पेंसिल चुरा ना लें, इसका भी डर अलग से रहता.  

स्लेट का लिखा मिटाने के लिए यूं तो पानी से भिंगोए गए थर्मोकोल या सुत्ती कपड़े के टुकड़े काफी थे, पर इनसे स्लेट पर चिकनाई पैदा हो जाती. और लिखते वक्त खल्ली या पेंसिल फिसलने लगते. सो, स्लेट को गाढ़ा काला करने के लिए काफी जतन करनी पड़ती. इसके लिए भेंगरइया (भृंगराज) की हरी पत्तियां इस्तेमाल में लाते, जो कहीं भी सड़क किनारे मिल जाती. उसे देखते ही खोंटने के लिए बच्चे लपक पड़ते. इन पत्तियों का रस निचोड़कर स्लेट पर उड़ेला जाता. फिर नदिया के पनिया नदिये में जो, हमर स्लेटवा सुखवले जोका छंद पढ़ते हुए स्लेट को हवा में हिला सुखाया जाता.  

जाने क्यों इस मोटहिया स्लेटसे सौतिया डाहसी बनी रहती? एक दिन मैं और मेरे चचेरे भाई सुधांशु स्कूल चले जा रहे थे. ये जिक्र करते हुए कि कैसे इस मुए स्लेट से पीछा छूटे. अभी कुछ तय हो, तभी एक मैसी ट्रैक्टर आता दिख पड़ा. हमने आंखों ही आंखों में इशारा किया बिना पल भर समय गंवाए दोनों ने स्लेट को उसके पहिया के नीचे रख दिया. अब उस मोटहिया स्लेटकी कचूमर देखने लायक थी.  

मन में किसी भारी बोझ के उतरने का एहसास हुआ, लेकिन दिमाग के एक कोने में अंजाना भय भी सांप की तरह कुंडली मारे फुंफकार रहा था. खैर, घर लौटने का पुख्ता बहाना हमारे पास था. घर आए तो वहीं हुआ जिसका अंदेशा था. यहां किसी ने हमारी बातों पर विश्वास ही नहीं किया...हमारी चोरी सरे आम पकड़ी गई. सबका यही कहना था कि जब दुर्घटना हुई रहती तो हम बाल-बाल कैसे बच गए? ना कोई खरोच ना ही जख्म फिर सब कुछ स्लेट पर ही क्यों गुजरा 

और...इतनी बेरहमी से हमारी धुलाई की गई कि पूछिए मत. जाने कितनी छड़ी शरीर पर ही टूट गई! पिता जी तो गुस्से में आकर मेरी किताबें छीन लिए. कहा- आज से पढ़ाई बंद, अब खेती-बाड़ी देखो. कहना चाहूंगा कि काफी मिन्नतों के बाद ही पढ़ाई की अनुमति मिली. 

स्कूल में शारीरिक शिक्षा के तौर पर सप्ताह में कुछ दिन खेल एक दिन कला विषय की घंटी रहती. लंगड़ी-बिच्छी’, ‘सही-टिका’, ‘आईस-पाईस’, लुका-छिपी’, ‘दुलदुल घोड़ाया कबड्डी’...कितने सारे खेल गिनाऊ. मुझे तो आईस-पाईस लुका-छिपी जैसे अहिंसक खेल ही अच्छे लगते. क्योंकि लंगड़ी-बिच्छी में पैर पर टंगड़ी मारनेकी कला से मैं अंजान था. उलटे बचाव करने में ही खुद के पैर चोटिल हो जाते

बाद में कबड्डी खेलने का भी शौक चर्राया. पर एक दिन खेलने के दौरान विपक्ष के गोल में धरा गया. फिर तो हल्दी-कबड्डीबोलवाने के लिए लड़कों ने इतने जोर से कनपट्टी की मालिश की कि महीनों तक वह हिस्सा लाल रहा. उसके बाद तो इस लंपट खेल से तौबा ही कर ली

वहीं कला की घंटी में संगीत का क्लास लगता. जिसमें सारे बच्चे बारी-बारी से खड़े होकर गाना सुनाते. उस वक्त में हिट फ़िल्मी गीत साजन मेरा उस पार है... मैं नागिन तू सपेरा...सबके होठों पर रहतें. मेरी बारी आती तो इसी में कोई एक तुकबंदी अंदाज में सुना देता बिल्कुल कविता की तरह. दूसरी कक्षा में वर्ष भर बस यहीं गाने गाता रहा. आगे की कक्षा में पढ़ने वाली बड़ी उम्र की लड़कियों को गाते हुए सुनना सुखद एहसास था. 

रोजाना स्कूल में अंतिम घंटी गिनती-पहाड़ा की होती थी. इस दौरान सभी बच्चे खड़े हो जोर-जोर से सैया निनानवे अंठानवे संतानवे... एक्का-एक दो दूनी चार...का कोरस आलाप (सामूहिक गान) करतें. क्या मनभावन दृश्य बनता तब, शब्द उच्चारण की जुबानी कसरत से इतर सबकी नजरें घंटी की तरफ जमी रहतीं! कब छुट्टी की घंटी बजे और सबसे पहले अपना बस्ता-बोरा समेट कक्षा से भागें, मानो जेल से छुटे हों.

उस वक्त स्कूल में दो शिक्षक थे. एक रमेश सर दूसरी, गांव की ही देवी जी’, जो प्रधानाध्यापिका भी थीं. रमेश सर यानी श्री रमेश प्रसाद श्रीवास्तव करीब 28 किलोमीटर दूर अरेराज के टिकुलिया से रोजाना साइकिल चला स्कूल आते थे. जबकि देवी जीउर्फ़ श्रीमती राजमति देवी गांव की ही थीं. रमेश सर, कभी-कभी इन्हीं के दरवाजे पर ठहर जाते.  

क्योंकि तब गांव में शिक्षकों को बेहद सम्मान मिलता था. जैसे ही कोई शिक्षक तबादले से यहां आया कि अपने घर ठहराने के लिए लोगों में होड़ मच जाती. दरअसल इसके मूल में उनका स्वार्थ भी निहित रहता. चूंकि गांव में रहने के लिए जगह की कमी होती नहीं, दूसरा यह भी लालच रहता कि माट...साब कम से कम घर के बच्चों को मुफ्त में पढ़ा ही देंगे. बदले में दो वक्त की रोटी खाएंगे और क्या, समाज में इज्जत तो बढ़ जाएगी

रमेश सर बेहद गंभीर शांत तबियत के जीव थे. किसी बच्चे की शैतानी पर खूब गुस्साते तो दो-चार सटकी(छड़ी) लगा देते. दरवाजे पर जाकर घरवालों से भी शिकायत करते, ‘आपका लड़का बदमाशी करने लगा है. ध्यान दीजिए वरना बिगड़ जाएगा.हां, वह बच्चों पर प्यार भी खूब लुटाते थे. जबकि देवी जी ठीक उनके विपरीत स्वभाव वाली महिला थीं, मोटी-तगड़ी, दबंग प्रवृति की थोड़ी गुस्सैल भी. कहने को वह कुल जमे 4 बच्चों की मां थीं पर ममता उनमें कभी दिखी नहीं.  

महिला होकर भी अपने जमाने की मिडिल पास थीं, सो इसपर उनका गुमान स्वाभाविक था. बचपन में हुई किसी बीमारी की वजह से लंगड़ाते हुए चलतीं, हाथ में अक्सर बांस की छड़ी लेकर. क्या मजाल कि कोई छात्र गलती करते हुए पकड़ा जाए और मोहतरमा वगैर सटकिआए (पिटे) उसे छोड़ दें. क्षमा शब्द तो उनके शब्दकोश में था ही नहीं. जब कभी सामने नजर जातीं तो बिना कोई गलती किए ही हमारी घिग्घी बंध जाती. जाने कब किसी बात पर नाराज हो हथेली पर छड़ी बरसाने लगें

इसी आपा-धापी में तीसरी कक्षा में पहुंच गया. भगवान का शुक्र था  मोटहिया स्लेट से पीछा छूटा. पिताजी वैशाली प्रकाशन की सादी कॉपियां खरीद लाए. नसीहत मिली कि पहले नीली स्याही में सरकंडे की कलम डुबोकर रोजाना चार-पांच पन्ने से लिखने का अभ्यास करो, हैंड राइटिंग सुधारने के लिए. फिर निबही या रीफिल वाली कलम मिलेगी

दस पैसे में नीली स्याही का सैशे आता था जिसे फाड़कर दवात में घोला जाता. तब रेडीमेड चेलपार्क स्याहीकी  भी पूरी धूम थी. लेकिन शौक़ीन पैसे वाले घरों में ही यह खरीदी जाती. जिसमें मैं शामिल नहीं था. कुछ महीने बाद लिंक रीफिल वाली कलम मुझे मिल गई, क्योंकि निबही वार्लिटीकलम आउट डेटेड हो चली थी. हालांकि उससे अक्षर में काफी निखार आता, लेकिन जब विकल्प  मौजूद था तो बार-बार स्याही भरने की जहमत कौन उठाता भला. अब लिखते वक्त हाथ थोड़ा सध गया था, पर सरकंडे की कलम में स्याही पोत रोजाना एक पन्ना लिखने का अभ्यास आगे की कक्षाओं में भी जारी रहा. 

उन दिनों मिशनरी स्कूलों का काफी क्रेज था. और आज की तरह कुकुरमुते समान हर गली-मोहल्ले में इनका बोर्ड टंगे नहीं मिलता था. यह खबर जोर-शोर से फैली कि गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर हरसिद्धि बाजार पर के आर मिशन स्कूलखुल रहा है. फिर तो सारे अभिभावकों में अपने बच्चे का नामांकन कराने की होड़ मच गई. चर्चा यह भी थी कि बेतिया के प्रतिष्ठित के आर स्कूल की शाखा है. यहां के सभी शिक्षक क्रिश्चन हैं जो अंग्रेजी माध्यम से नर्सरी-पांचवी तक के छात्रों को पढ़ाएंगे. बच्चों को अभिवादन के तौर पर पांव छूने या प्रणाम की बजाय गुड मोर्निंग’, ‘गुड इवनिंग गुड नाईटकहने का चलन सिखाया जाता है

जाहिर सी बात है, जब अंग्रेजीदां बनना है तो देहात की गंवार परंपरा को तिलांजलि  देनी ही होगी. किताब से लेकर बातचीत भी अंग्रेजी में..., कैंपस में तो हिंदी बोलने पर सख्त पाबंदी है. मानो स्कूल ना होकर कोई औषधालय हो जहां बच्चों को कोई घुट्टी पिला दी जाएगी. और सभी दनादन अंग्रेजी झाड़ने वाले विलायतीबाबू बन जाएंगे

पिता जी भी एडमिशन फॉर्म लाए. पता चला कि नामांकन टेस्ट के आधार पर होगा. सरकारी स्कूल में तीसरी के छात्र को वहां पहली कक्षा में जगह मिलेगी. क्योंकि कोर्स की सारी किताबे नर्सरी से ही अंग्रेजी में है. इसलिए बुनियाद सुधारने के लिए यह जरूरी है. हालांकि पिता जी ने प्राचार्य को दूसरी कक्षा में मेरा नाम लिखाने के लिए राजी कर लिया. पिता जी ने बताया कि स्कूल के लिए अलग ड्रेस कोड लागू है. जिसे बिना पहने वहां इंट्री नहीं मिल सकती

सोम से शुक्रवार तक खाकी हाफ पैंट उजला शर्ट, जबकि शनिवार को लाल रंग वाले पैंट के साथ ग्रे शर्ट पहनना है. गले में नीले रंग की टाई पर स्कूल का बैच कंधे पर बैग लटकाना होगा. मैं तो कई रात तक ये सब सोच-सोचके सो नहीं सका कि नए ड्रेस में टाई लटकाए स्कूल जाते वक्त कैसा दिखुंगा? कहीं अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाया तो स्कूल से नाम ही कट जाए. बालपन की सोच भी काफी हैरत अंगेज होती है. बिल्कुल किसी फिक्सउपन्यास की तरह काल्पनिक हकीकत से परे, जो कभी रोमांचक बन गुदगुदाती है तो डराती भी. 

लेकिन यहां तो होनी को कुछ और ही मंजूर था. पिता जी ने जाने किन कारणों से कांवेंट में भेजने का इरादा बदल दिया. जबकि साथ के कई बच्चों के अभिभावकों ने उनका नाम वहां लिखवा दिया. वे नए ड्रेस में लकदक पीठ पर बैग लटकाए स्कूल जाने लगें. मैं उन्हें देख इसी बात पर इत्मीनान कर लेता कि मिशन स्कूलमें पढ़ना अपने किस्मत में ही नहीं लिखा. और वे बच्चे मुझे वहीं फटे-पुराने कपड़े में देख चिढ़ा कर कहते, ‘वो देखो सैंट बोरिस का छात्र जा रहा है! 

दरअसल प्लास्टिक के  बोरा में बीटीसी की किताबें लपेट बस्ता बनाया जाता और स्कूल में उसी बोरा को बिछा बैठा भी जाता था. इसी कारण गांवों में सरकारी विद्दालय को सैंट बोरिसके उपनाम से संबोधित कर माखौल  उड़ाया जाता. लेकिन जो सपाट नहीं चले शायद उसी का नाम जिंदगी है, जिसमें हमेशा उतार-चढ़ाव आना अनिवार्य शर्त है. महज दो साल बाद ही यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई कि के आर मिशनवाले भाग गए. वजह यह संस्थान फर्जी था, बेतिया वाला नहीं. सुनकर दिल को बेहद तसल्ली मिली. साथ ही पिता जी की दूरदृष्टि भरी सोच पर इतराया भी, जिसकी बदौलत कम-से-कम हम तो ठगाने से बच गए थे!  जारी...

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देवनागरी का ज्ञान ही मेरे जीवन की बड़ी कमाई!
यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!

12 comments:

ROHIT KRISHNA NANDAN said...

ACCHHA LEKHAN SAARTHAK VICHHAR

babul said...

nice sir

shayak alok said...

किसी सुन्दर कहानी सा रोचक लगा .. बहुत बढ़िया

abhishek pandey said...

VERY NICE STORY

रामजी तिवारी said...

बढ़िया

bodhi said...

वे दिन जीवन के आधार दिन हैं, अपने अच्‍छे बुरे तमाम अनुभवों के साथ...भीतर जीवित रहते हैं हमेशा, कितनी भी उम्र गुज़र जाने के बाद...। सजल अभिव्‍यक्ति....

amitabhbhojpurivyang said...

kahani shuru se hi kasi hui hai, jo aakhir tak bandh k rakhati hai. behtar abhivyakti k liye badhai. agale kist ka intjar rahega. amitabh, bettiah

Unknown said...

you are absolute genius when you write something

Unknown said...

बहुत ही रोचक है आपकी ये स्टोरी

Unknown said...

बहुत ही रोचक है आपकी ये स्टोरी

Unknown said...

जबकि देवी जी ठीक उनके विपरीत स्वभाव वाली महिला थीं, मोटी-तगड़ी, दबंग प्रवृति की व थोड़ी गुस्सैल भी. कहने को वह कुल जमे 4 बच्चों की मां थीं पर ममता उनमें कभी दिखी नहीं.

Badkimaai said...

क्या बात है...