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15 September, 2022

दक्षिण भारत वाले क्या हमारी ही तरह मूर्ख हैं जो अपनी लुटिया डुबो लें

हिन्दी दिवस के बहाने इसकी दुर्दशा पर विधवा विलाप करने वाले, उधार की जुबान बोलने व खिचड़ी संस्कृति जीने वाले। भाषाई गुलामी के शिकार हम नकलची पुरबिये। काश अपनी मातृभाषा भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बज्जिका, अंगिका, मगही, बुंदेलखंडी आदि के लिए भी एकजुट होकर आवाज उठाए रहते, तो कबके भाषाई हीनता से उपर उठ गए होते। लेकिन अपनी भाषा, संस्कृति, पहचान, अस्मिता के हक में संघर्ष करें,  हमारे में वो स्वाभिमान है ही कहां।

हमें सीखना चाहिए दक्षिण भारत वालों से जो हमसे कई वर्ष आगे हैं। सिनेमा, साहित्य, कला, संस्कृति और आर्थिक स्तर पर भी। वे तो कभी अपनी मातृभाषा मलयालम, कन्नड़, तमिल, तेलगु, उड़िया का तिरस्कार कर हिन्दी का रोना नहीं रोते। और जब उनकी मातृभाषा पर मजबूत पकड़ है तो इसी आत्मविश्वास के सहारे अंग्रेजी में भी आगे रहेंगे ही। 

लेकिन उनसे सीखना तो उल्टे दक्षिण भारत वालों को ही हम अक्सर हिन्दी सीखने-पढ़ने की नसीहत देते नजर आते हैं। आखिर चाहते क्या हैं हम। जिस तरह हमने मातृभाषा का त्याग कर हिन्दी का भार उठा-उठाकर अपनी लुटिया डुबाई। दक्षिण वाले भी उसी राह पर चलें। 

वाह भाई वाह! कितने बुरबक हैं हम 'गोबर पट्टी' माफ करें हिन्दी पट्टी वाले और पतनशील भी। इतना भी भेजा में नहीं सोच पाते कि कोई पिछड़ा ही किसी विकसित की नकल करता है, विकसित पिछड़े की नहीं। वैसे भी हम जैसे मूढ़ लोगों से आशा ही क्या की जा सकती है, जिन्हें अपनी मातृभाषा को ही बोली कहने में जरा भी शर्म नहीं आती।

@श्रीकांत सौरभ



6 comments:

yashoda Agrawal said...

व्वाहहहहहह

Madabhushi Rangraj Iyengar said...

भोजपुरी को संविधान की हिन्दी में ही समाहित किया गया है। वे हिन्दी भाषी ही माने गए हैं।

वैसे ही भारत भाषाई राज्यों में बँटा हुए और आप हैं कि भाषाई अंचलों में बाँटने को आमादा हैं। कहा से बढेगा देश के गे जब हम ही टाँग खींचतान रहेंगे?

Gajendra Bhatt "हृदयेश" said...

आ. अयंगर साहब की बात से पूरी तरह से सहमत होते हुए कहना चाहूँगा कि आपको किसने यह अधिकार दे दिया जो आप हिन्दी-समर्थकों को बुरबक, आदि हेय शब्दों से अलंकृत करें। आप हिन्दी-विरोधी हैं तो बने राहिए। महाशय जी, हिन्दी ही एक मात्र वह भाषा है जो भारत की अधिसंख्य जनता द्वारा बोली जाती है। आंचलिक/ क्षेत्रीय भाषा सभी को प्यारी होती है, लेकिन वह सभी लोगों के बीच सम्पर्क का माध्यम नहीं बन सकतीं, इस तथ्य से कोई भी समझदार व्यक्ति असहमत नहीं होगा। जब हम अंग्रेजी की गुलामी कर सकते हैं तो अपनी हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा मानने से उज्र क्यों होना चाहिए? पूर्ण रूप से वैज्ञानिक भाषा हिन्दी क्या अंगरजी भाषा सीखने से भी अधिक कठिन है? रूस, जैसे विकसित राष्ट्र भी जब किसी वैश्विक पटल पर भी अपनी बात अपनी राष्ट्र भाषा में ही कहना पसन्द करते हैं, तो हमें अपने ही देश में हिन्दी में बोलने से घृणा क्यों होनी चाहिए? यह तो वैसी ही बात हुई जैसे कोई व्यक्ति अपने ही परिवार के लोगों से घृणा करे। हिन्दी भाषा ही है जो पूरे देश को एक सूत्र में बांध सकती है, कोई भी क्षेत्रीय भाषा ऐसा नहीं कर सकती। आपने अपने आलेख से सभी हिन्दी-भाषी लोगों की भावनाओं को आहात किया है।

Madabhushi Rangraj Iyengar said...

सहयोग के लिए धन्यवाद। अच्छा लगा कि आपने मर्म को समझा

श्रीकांत सौरभ said...

हिन्दी कब से राष्ट्र भाषा हो गईं। ये तो बिहार व यूपी की मातृभाषा को मारने की साजिश है। जानबूझकर थोपी गई है।

श्रीकांत सौरभ said...

यहीं तर्क दक्षिण भारत में जाकर दीजिए। समझ में आ जाएगी मातृभाषा का महत्व। बिहार/यूपी के निवासियों की एक दर्जन मातृभाषा है। लेकिन उन्हें संविधान में दर्जा नहीं देकर जबरन हिन्दी थोपी जा रही है।