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24 March, 2014

NDTV वाले रविश के गांव से श्रीकांत सौरभ की रिपोर्ट

बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी से 36 किमी दक्षिण-पश्चिम में बसी है एक छोटी सी पंचायत, पिपरा. गंडक (नारायणी) नदी के बांध से सटे कछार में बसा यह गांव, प्राकृतिक दृश्यों के लिहाज से बिहार के मैदानी इलाके में स्थित किसी भी गांव से ख़ूबसूरत और उसी के अनुरुप पिछड़ा भी है. पर खांटी भोजपुरी परिवेश यहां के रग रग में चलायमान है. विश्व प्रसिद्द सोमेश्वर नाथ मंदिर, बाबा भोले की नगरी अरेराज अनुमंडल मुख्यालय से महज आठ किलोमीटर किमी की दूरी पर स्थित यह पंचायत अंतिम छोर पर है. क्योंकि यहां के बाद गंडक (नारायणी) नदी का दियारा शुरू हो जाता है. फिर नदी के उस पार गोपालगंज जिला. करीब 12 हजार की आबादी वाली इस पंचायत में तीन राजस्व गांव पड़ते हैं, पिपरा, गुरहा व जितवारपुर. इनमें बात अगर जितवारपुर की करें तो, यह जग़ह इस मायने में खास है कि यहां NDTV के संपादक व वरीय पत्रकार रविश कुमार का पुश्तैनी घर है.

यह सही है कि जब कोई आदमी अपने कर्मों से लोकप्रिय होकर ग्लोबल पर्सनालिटी बन जाता है. तो उसे किसी विशेष गांव, धर्म, जाति या काल में बांध कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन जैसा कि खुद रविश अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ में अक्सर गांव के ‘बाबू जी’, ‘मां’, ‘बाग-बगीचे’, ‘खलिहान’, ‘बरहम बाबा’, ‘पोखर’, ‘छठी माई’, ‘नारायणी नदी’, ‘गौरैया’ आदि का जिक्र करते रहते हैं. क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए. मातृभूमि में बचपन के बिताए कुछ सुनहरे पल भुलाए भी कहां भूलते हैं. बल्कि स्मृतियों में जीवित रहते है ‘नौस्टेलेजिया’ बनकर. और जब कभी मन में भावनाओं का शैलाब उमड़ता है. फ्लैश बैक में गोता लगाते हुए बीते दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं.

कुछ समय पहले रविश ने अपने ‘ब्लॉग’ में लिखा था कि उनके गांव में बिजली आ गयी है. इसको लेकर ग्रामीणों में किस तरह का उत्साह है? उनकी ज़िंदगी में बिजली आने के बाद किस तरह का बदलाव आया है? स्थानीय मीडिया इस खबर का कवरेज जरूर करें. लेकिन ऐसा नहीं होना था सो नहीं हुआ. कस्बाई पत्रकारिता में इसके कारण तो बहुत सारे हैं, पर उल्लेख करना मैं उचित नहीं समझता. इसलिए कि मैं भी इसी समाज का रहनिहार हूं और पानी में रहकर मगर से..! खैर, मेरे गांव से जितवारपुर की दूरी मात्र 20 किमी है. पिछले दिनों वहीँ पर एक रिश्तेदारी में जाने का प्रोग्राम बना. सोचा, रविश तो पूरे देश की रिपोर्ट बनाते हैं. क्यों नहीं उनके गांव की ही एक छोटी सी रिपोर्ट बनाने की गुस्ताखी कर ली जाए, अपनी नवसिखुआ शैली में. आखिर एक ही गांव-ज्वार के होने के नाते कुछ अपना भी कर्तव्य तो बनता ही है.

प्रकृति के साए में नजर आया विकास


अरेराज से दक्षिण दिशा की तरफ जा रहे स्टेट हाइवे 74 को पकड़ जैसे ही चार किमी आगे बढ़े. भेलानारी पुल के समीप से एक पक्की सड़क पश्चिम की ओर निकलती दिखी. एक राहगीर से पूछा, पता चला यहीं से जितवारपुर पहुंचा जा सकता है. किसी काली नागिन से इठलाती बल खाती 12 फीट की चिकनी सड़क. और सड़क के दोनों ओर खेतों में नजर आ रही गेहूं की बाली, हरी भरी मकई, कटती ईख, पक्की सरसो व दलहन की फसलें. बहुत कुछ कह रही थी. यह की गंडक से हर वर्ष आनेवाली बाढ़ अपने साथ त्रासदी तो लाती है. लेकिन बाढ़ के साथ बहकर आई गाद वाली मिट्टी इतनी उर्वर होती है कि अगली फसल से क्षति की भरपाई हो जाती है. हालांकि किसी किसी जगह चंवर में जमा पानी इस बात का आभास भी करा रहा था कि फ्लड एरिया है. तो यह देख खुशी भी हुई. एक समय जिस कच्ची सड़क से गुजरने से पहले लोग सौ बार सोचते थे. खासकर बरसात के दिनों में तो बंद ही रहती होगी. आज उसपर चकाचक सड़क बनी हुई है.

हालांकि कहीं कहीं थोड़ी दूरी के उबड़ खाबड़ रास्ते भी मिले. जो पुराने हालात की गवाही दे रहे थे. इस कारण ना चाहते हुए भी बाइक में ब्रेक लगाना पड़ता. ठीक टीवी पर चल रही किसी बढ़िया फिल्म के बीच बीच में आ रहे विज्ञापन की तरह. कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. थोड़ी दूर आगे ही एक जगह सड़क के दोनों किनारे खड़े घने बांसों की हरियाली दूर से ही मन मोह रही थी. यहीं नहीं दोनों ओर से बांस झुककर मंडप की आकृति में सड़क के उपर पसरे थे. मानो खुद प्रकृति ने बाहर से आनेवाले अतिथियों के स्वागत में इसे सजाया हो. ख्याल आया, कम से कम एक फोटो तो बनता ही है, सो खींच लिया. आगे बढ़ने पर एक घासवाहिन मिली सिर पर घास की गठरी लादे हुए. उससे गांव का रास्ता पूछा. तो बताई, दो दिशा से जा सकते हैं. एक गांव के पूरब से है जो कि सीधे बांध तक जाता है. दूसरा पश्चिम में सेंटर चौक से मेन गांव में. तय हुआ अभी पहले वाले रास्ते से चलते हैं. लौटते समय दूसरे रास्ते से आएंगे.

बांध पर के बरहम बाबा और किनारे का पोखरा


थोड़ी देर में ही हम गंडक के बांध पर पहुंच गए. पक्की सड़क वहीँ तक थी और उपर में ईट का खरंजा. बांध पर चौमुहान था जहां तीन पीपल के पेड़ खड़े थे अगुआनी के लिए. और किनारे ही पोखरा में कुछ लोग भैंसों को नहला रहा थे. सामने से गंजी पहने एक जनाब हाथ में डिबिया लिए आते दिखे. मुद्रा बता रहा था कि दिशा मैदान से आ रहे हैं. पूछने पर नाम हसमत अंसारी बताए. बोले, ई गांव का बरह्म बाबा चौक है. समझ लीजिए गांव का पूर्वी सिवान. बियाह का परिछावन, लईका सब का खेलकूद आ बूढ़-पुरनिया का घुमाई फिराई सब इहवे होता है. यहां से गांव के चारो दिशा में जा सकते हैं. बोले, जब मेन रोड नहीं बना था बरसात में बांध ही रास्ता था. मैंने पूछा, आपके गांव में बिजली आई है? उन्होंने कहा हां, आई तो है लेकिन हमारे घर नहीं रहती. काहे कि मीटर नहीं लगा है न.


तभी मैंने पूछा, आप रविश कुमार का घर बता सकते हैं? कौन रविश?, यह उनका जवाब था. पत्रकार साहब का, मैंने जोर देकर कहा. उन्होंने कहा, ई तो नहीं जानते हैं. लेकिन मेरे एक पड़ोसी दिल्ली में बड़का पत्रकार हैं. उहें के प्रयास से इहां लाइन आया है. उनका नाम नहीं बता सकता. बचपने से कमाई के लिए कश्मीर रहता हूं. कभी कभी छुट्टी में आना होता है. इसीलिए बहुत कुछ इयाद नहीं रहता. मैं उसकी बातों को सुन अचकचाया और बुदबुदाया, अरे भाई पड़ोसी होकर भी आपने रविश का नाम नहीं सुना. तो उन्होंने कहा, घरे चलिए ना, उहें बाबूजी से पूछ लीजिएगा आ बिजली वाला ट्रांसफार्मरो देख लीजिएगा.

रविश के घर तक ही है बिजली का ट्रांसफार्मर

रविश के पैतृक घर के पास खड़ा ट्रांसफ़ॉर्मर

पड़ोसी राजा मियां
हमलोग बांध से उतारकर उनके पीछे मुख्य सड़क पकड़कर पश्चिम की ओर बढ़े. थोड़ी दूरी पर ही एक बड़े मकान की बाउंड्री के आगे लगे ट्रांसफार्मर के पास ठहर गए. तभी एक उम्रदराज मौलाना आते दिखे. ये हसमत के पिता राजा मियां थे. उन्होंने बताया, जी इहे रविश पांडे यानी पत्रकार रविश कुमार का घर है. आ सामने वाला हमारा घर है. गांव के नाता से ऊ (रविश) मेरे बाबा लगते हैं. चार भाई हैं. पटना में भी मकान है. साल भर में कोई ना कोई अइबे करता है. अबकी छठ पूजा में रविश काका भी आए थे. सब लोग कहे आप एतना बड़का साहेब हैं. गांव में और जगहे लाइन है. मनिस्टर से कहके इहां भी बिजली मंगा दीजिए. आ उनकरे प्रयास है कि इहों बिजली आ गई. मैंने पूछा, आपके घर में बिजली है? जवाब मिला, कनेक्शन के लिए आवेदन दिए हैं. मिलेगा तभिए जलाएंगे, चोराके नहीं.
पड़ोसी ऋषिदेव मिश्रा

पास में ही एक अधेड़ साईकल से उतर हमें सुनने लगे. चेहरे से लगा कुछ कहने के लिए उतावले हैं. उनकी ओर मुखातिब हुआ. नाम ऋषिदेव मिश्रा बताए. बोले, आप जहवां खड़े हैं. इहे हमर घर है. पत्रकार है त जाकर अखबार में लिखिए ना कनेक्शन लेवे में बहुते लफड़ा है. चार बेर अरेराज ऑफिस में कनेक्शन के आवेदन के लिए गए. कभी कोई नहीं रहता है तो कभी कोई. आप ही बताइए, ‘नया बियाह हुआ हो तो बथानी पर सुते के केकरा मन करता है.’ बोलते बोलते वे तमतमाने भी लगे और उनका आक्रोश बातों से झलकने लगा. का कीजिएगा प्रशासने सब भ्रष्ट है. ई हाल है कि गांव में दस घर में कनेक्शन है आ पच्चीसों आदमी टोका फंसा कर (चोरी छुपे) इस्तेमाल कर रहे हैं. हम त कसम खाए हैं बिना मीटर नहीं जलाएंगे.

इसी बीच बगल में खड़ा एक लड़का कहने लगा, सर लाइनों तो चार पांचे घंटा रहता है, उहो दिन में. रात में अइबे नहीं करता है. का फायदा एह बिजली से कि किरकेट आ सीरियलो नहीं देख पाते हैं. कुछ बढ़े तो मोड़ पर महेद्र राय मिले. बिजली के बाबत बताए, सर बांध के किनारे दोनों ओर केतना लोग बसे हैं. उहां तक तो पोल नहीं गया है. रविश बाबा के घरे तक ट्रांसफोर्मर है. आप बताइए एतना दूर तार कइसे खीँच कर ले जाएंगे. यानी बिजली नहीं थी तो कोई बात नहीं थी. अब आ गई है तो भी घर में अंधेरा रहे और पड़ोसियों के यहां बल्ब जले, टीवी चले. या फिर बिजली नियमित नहीं रहे. ये किसी को बर्दाश्त नहीं.

पहले था जंगल राज अब शांति

बांध पर खड़े ग्रामीण. चलो एक फोटो हो जाए, यहीं कहते हुए.
बांध के दक्षिण तरफ किनारे पर भी लोग बसे हैं. इधर की तरफ बांध से सटे बांस, बगीचे और खेतों की हरियाली थोड़ी बहुत है. लेकिन दूर दूर तक केवल खरही के झुरमुट और रेतीले मैदान दिखाई पड़ते हैं. क्योंकि इसके बाद रेतीली जमीन और नदी की धारा है. बांध पर टहलते हुए तपस्या भगत मिले. विधि व्यवस्था के बाबत पूछा तो बताने लगे, दस साल पहले लालटेन के जमाने में पूरी तरह जंगल राज था. दिनदहाड़े कब कौन कहां चाकू, गोली, बम या छिनतई का शिकार हो जाए. कहना मुश्किल था. दियर के एक खास जाति का लोग सब एतना जियान करता था कि एने के लोग अपना रेता वाला खेत में ककरी, लालमी आ खीरा रोपना छोड़ दिए थे. डकैतों के डर से कोई खरही काटने भी नहीं जाता था. शाम के सात बजे ही घरों में ताले लग जाते थे. रात भर जाग के बिहान होता था. ना मालूम कब कवना घरे डकैती हो जाए. फिर उन्होंने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, पर अब शांति है. 

त्रासदी है बाढ़ पर पलायन से आई खुशहाली

बगल में ही वरीय सामाजिक कार्यकर्ता जगन्नाथ सिंह का घर है. इन्हें स्थानीय लोग प्यार से ‘नेता जी’ से संबोधन करते हैं. उन्होंने बताया, पिपरा पंचायत में 16 वार्ड और आठ हजार मतदाता हैं. मुख्य सड़क तो पक्की हो गई है पर गलियां अभी भी कच्ची हैं. एक उप स्वाथ्य केंद्र है जहां कभी कभी नर्स नजर आ जाती है. सरकारी प्रारंभिक व मध्य विद्दालय हैं. लेकिन अधिकांश लोग अपने बच्चों को शहर में रहकर कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं. उन्होंने बताया, बांध के दक्षिण नदी वाले दिशा में ग्रामीणों की हजारों एकड़ जमीन बाढ़ के कारण परती (वीरान) रहती है. पर उतर साइड में थोड़े बहुत उपजाउ खेत हैं. गांव की पच्चास प्रतिशत आबादी का पलायन है. यहां के निवासी काफी कर्मठ व जीवट प्रवृति के हैं. इसी कारण जहां भी जाएं अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ लेते हैं. 

वे बताते हैं, गांव के लोग मोतिहारी, बेतिया, पटना, मुंबई, दिल्ली, असम, गुजरात से लेकर अरब, दुबई और अमेरिका आदि जगहों तक पसरे हैं. बाहरी पैसा आने से हर घर में खुशहाली है. अधिकांश घरों में कोई ना कोई सरकारी नौकरी में है. यहां ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, मुस्लिम, गिरी, दलित, महादलित, कुर्मी सभी जातियों के लोग हैं. लेकिन आपस में सदभावना है और एकता भी. आपको बता दें कि अरेराज अनुमंडल के तहत गंडक किनारे दो प्रखंड आते हैं, गोविंदगंज और संग्रामपुर. और मोतिहारी शहर में 60 प्रतिशत डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद्, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, ठेकेदार या व्यवसायी इन्हीं जगहों से हैं. मतलब जिला मुख्यालय में भी इनका ही वर्चस्व है.

चौक पर बिक रही एफएमसीजी उत्पाद


प्लान के मुताबिक लौटते वक्त हम पिपरा सेंटर चौक की ओर से निकले. यहां भी चौमुहान रास्ता दिखा. एक छोटा सा चौक, सड़क से सटे एक सैलून, एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान, पान की गुमटी व एक परचून की दुकान जैसा मिशलेनियस स्टोर भी दिखे. इस स्टोर में मोबाइल चार्ज, रिचार्ज. तम्बाकू, भुजिया, नमकीन, बिस्किट, मैगी, ब्रेड, कुरकुरे, ठंडें की बोतलें आदि चीजें बिकने के लिए रखी थीं. वहीँ पर हरिनाथ शुक्ल जी खड़े होकर एक छोटे रोते बच्चे को कोरा में थामे चुप करा रहे थे. बोले, पोता हैं ‘कुरकुरा’ खरीदने का जिद कर रहा था. इसलिए चौक पर लाया. खरीद दिया तो अब कह रहा है, स्प्राईट चाही. बताइए ई कोई बात हुआ, ठंडा गरमी का सीजन है. ठंढ़वा पियेगा त लोल नहीं बढ़ जाएगा.

(यह रिपोर्ट ग्रामीणों से भोजपुरी में बातचीत पर आधारित है. कंटेंट को पाठ्यपरक बनाने के लिए बातों को भदेस में तब्दील किया गया है.)

21 comments:

prabhat ranjan said...

बहुत अच्छा लगा. आपने ऐसा चित्र खींचा है कि मन अपने गाँव चला गया. हालाँकि सीतामढ़ी जिला के मेरे गाँव में बिजली 1969 से है. बाकी वहां भी खुशहाली विस्थापन से ही आई है.

prabhatdixit said...

बहुत खूब। मुझे बेहद पसंद आयी आपकी रिपोर्ट।

शब्द मसीहा said...

बहुत सुंदर वर्णन है ,और हार्दिक ख़ुशी भी की विकास की पहल हुई है ..बधाई इस सुंदर आलेख और जानकारी के लिए

saroj mishra said...

अच्छी रिपोर्ट लिखी है अपने बधाई

Girish Mishra said...

Very good. Please explore that there was a teacher Pandit Aneg Tiwary at Areraj middle school. He had written Indian history in poems and it was published. One of the earliest communists, Vishwanath Singh, belonged to this village. Pandit Kamal Nath Tiwary belonged to neighbouring Pipra and was part of Bhagat Singh's group and was sent to Cellular jail, Andamans. Later he settled down in Bagaha and was an MP for more than two terms from Bettiah constituency.

Unknown said...

shaandaar, adbhut drishya gujare saamne se ........ek vichaar ayaa ki gaon salaa gaon hi hai , ab chahe pawan ka ho ya ravish ka ...ha ha ha ha ...ek baar fir parhunga dubaraa , aur in anubhootiyon par kuchh atirikt pratikriya bhi dunga sir

Unknown said...

आप को ढेर सारी बधाई .......आपने मेरे गाव का बिलकुल ही सही चित्रण किया है | मे भी रबिश भैया का ग्रामीण हु |अभी मोतिहारी सिविल कोर्ट में अधिवक्ता हु ..............बहुत बहुत धन्यवाद

Pankaj kumar Tripathi said...

bahoot achchi prastooti......ganv ke sookoon ki bat hi nirali hai.....

tinku baba said...

आपकी कवरेज हमेशा से ही शानदार रही है। धन्यबाद बहुत ही सुन्दर लिखा है आपने

Unknown said...

bahut khub srikant g.par 1 chakar to areraj bijli office ka bhi banta hai taki gramino ka taklif dur ho jaye

ghughutibasuti said...

आपने तो हमें इस गाँव में ही पहुंचा दिया. बहुत बढ़िया.
घुघूतीबासूती

श्रीकांत सौरभ said...

टिप्पणी के लिए धन्यवाद!

Bhaskar G Vatsa said...

अच्छा लगा , पुरे बिहार का कमोबेश यही हाल है।

सीतामढ़ी जिले में स्थित मेरे गाव में भी बिजली तो ३० सालों से थी लेकिन बस कागजों पे , पिछले साल असली वाली बिजली का ट्रांसफार्मर लगा तो मुम्बई से गाव जब भी जाना होता था तो , भाग दौर कर के , मीटर लगाए लेकिन २ महीने बाद फिर ट्रांसफार्मर ही जल गया।

पलायन तो ९०% हैं गांव कि आबादी का , ३० % पटना तक , बांकी ६० % सारे देश में , अजीब हाल है , लोग एक न एक दिन वापस भी जरुर आयेंगे।

Unknown said...

किसी काली नागिन से इठलाती बल खाती 12 फीट की चिकनी सड़क. यहीं नहीं दोनों ओर से बांस झुककर मंडप की आकृति में सड़क के उपर पसरे थे. मानो खुद प्रकृति ने बाहर से आनेवाले अतिथियों के स्वागत में इसे सजाया हो. ....

बहुत ही शानदार वर्णन...अबतक की उम्दा रिपोर्ट

Unknown said...

Bhut hi sunadr anubhaw sajha kiya aap ne ..aanand aa gya..

narendra raj purohit said...

bahut khub...

Bikesh Pandey said...

वाह !!! बहुत बढ़िया वर्णन किया है आपने मेरे गाँव का।
मै भी गुरहा गाँव का रहनीयार हूँ।

Rajeev kumar Mishra said...

वाह वाकई बहुत शानदार लिखा है आपने।पढ़ने पर लगता है कि मै उस गाँव के गलियों से गुजर रहा हुँ।सारी बातें चलचित्र की भाँति दिखने लगती है।मेरे कई रिश्तेदार हैं इन गावों मे जिनके चलते वाहाँ अक्सर जाने का मौका मिलता रहता है।आपकी कवरेज लाजवाब है।

कमल said...

अरे बहुत बढ़िया लिखा है आप

अमरेन्द्र कुमार said...

शानदार और जानदार ..

Shubhendu vivek said...

Once start reading your blogs no matter how long they are ,at end it always like, it should be more and more.....Keep it up....