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26 June, 2020

"धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले..!"

अदरा चढ़े दो दिन हो गया था। देर रात से ही तेज बारिश हो रही थी। तीन बजे भोर में बालेसर काका की नींद टूट गई। ऐसे भी वे रोज़ चार बजे उठ ही जाते थे, मवेशियों को सानी-पानी देने के लिए। लेकिन आज थोड़ा जल्दी उठने का कारण झमरकर पानी का बरसना था। कम से कम दमकल से पटवन के हजार रुपए तो बच ही गए। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि भगवान जब खुश होते हैं तो पानी देते हैं!

काका को भोर में ही में जना जोड़ने दखिनवारी टोला जाना है। अब तो खेती में भी सौ तरह के ताम-झाम हैं। लेवाठ के लिए ट्रैक्टर की व्यवस्था करिए। फिर मजदूरों के टोला में दस बार दौर लगाइए। अइसन मौका पर तो उनका भाव गजबे बढ़ जाता है। और भाव बढ़े भी क्यों नहीं, अब सबके पास बटाई खेत है। पहले ख़ुद का धान रोपेंगे कि गिरहत का।

बिछावन पर बैठेकर वे खैनी मलते हुए सोचने लगे। पहले से ही खाद की महंगाई थी ही। अब डीजल की कीमत भी कमर तोड़ रही है। मजदूरों को बनिहारी के बदले नकदी चाहिए। इतना तक भी रहता तो कोई बात नहीं थी। बुआई के बाद फ़सल बाढ़, सुखाड़, घासकटों, ओला, नीलगाय से बच जाए, तभी खलिहान आ पाती है।

सरकार ने पैक्स के माध्यम से सरकारी रेट पर खरीद की व्यवस्था की है। मने औने-पौने दाम में जब बिचौलिया बनिया सौदा उठा लेते हैं तो सरकारी खरीदारी शुरू होती है। अब जिसको महाजन और दुकानदार का करजा सधाना होता है। कौन उतना दिन इंतजार करेगा? कई बार काका के मूड में आया कि खेतों को बटाई लगा दें। लेकिन हर बार इरादा बदल देते हैं।

नफ़ा होखे चाहे घाटा किसान के लिए खेत तो मां के समान ही है! गणेश की माई भी कहती है, "जब तक हाथ-गोड़ चल रहा है। अपने से खेती किया जाए। गाय-गोरु का चारा मिल ही जाता है। अनाज से भरे बेरही-बखारी भी दुआर की शोभा बढ़ाते हैं।"

तभी काका का ध्यान खैनी पर गया, अंगूठे से कुछ ज़्यादा ही रगड़ा गया था। उन्होंने ताल ठोका तो झांस से रधिया काकी छींकने लगी। हा छि:! हा छि:!

"का जी रउरा बुझाला कि ना अदमी के जाने ले लेहम! अधरतिया में अपने नीन नइखे लागत त दोसरो के बेचएन कइले बानी।"

इस पर काका ने दांत चियारते हुए कहा, "अधरतिया कहवां बा, तीन बज गइल हवे। रोपनिहार ला सवकेरही जाए के पड़ी।"

यह सुन काकी का चेहरा भी खिल उठा। आंखें मलते हुए भी बोलीं, "सुनी ना आजु गावा लागी त भोज खिआवे के पड़ी। दखिनवारी टोला से लवटेम त साव किहां से गरम मसाला आ पापड़ लेले आएम।"

आछा ठीक बा। तनी चाह बना द। हम मालन के खूंटा प बान्ह के आव$ तानी।"

गाय की नाद में चारा सानने के बाद उन्होंने चाय पिया। और छाता लगाकर दखिनवारी टोला के लिए निकल पड़े। टोले में घुसते ही सुखाड़ी बहु मिल गई। सांवली सूरत होने के बावजूद 50-52 वर्ष की उम्र में भी उसके चेहरा का पानी देखने के लायक था। चालू-पुर्जा और हरफनमौला इंसान थी। किसी को भी मजदूर चाहिए होता, वह जल्द सेटिंग करा देती।

शायद इसी कारण उसे सब कोई 'ठीकदार' कहकर बुलाते। काका से उसका देवर-भौजाई का रिश्ता था, सो अक़्सर हंसी-ठिठोली होती रहती। उन्हें देखते ही हाथ नचाकर बोली, "का मलिकार, एतना सुनर मवसम में मलकिनी के लगे होखे के चाही ? भोरे-भोरे केने चलल बानी रउआ?"

काका ने उससे रोपनी को लेकर बात की। छह कट्ठा खेत के लिए आठ जने तय हुए। ठीक 11 बजे सभी महिलाएं हाज़िर थीं। उन्होंने बगल के बियाराड़ से बिचड़ों को उखाड़कर गठरी बनाया और माथे पर लादकर ले आईं।

लेवाठ होते ही रोपनी शुरू होई कि पूरब से उमड़कर काली घटा छा गई। रिमझिम फुहारों के बीच बह रही ठंडी बेयार से मौसम सुहावना हो चला था। पानी में जुताई के बाद निकल रही, पांक की सोंधी खुशबू नाक में घुसते ही मदमस्त किए जा रही थी।

काका उनके साथ ही खेत में उपलाए सूखे घास को छानकर किनारे फेंक रहे थे। अचानक से सुखाड़ी बहु ने कादो उठाकर उनके बनियान पर फेंका और जबर्दस्त ठहाका छूट पड़ा।

इसी बीच सभी कोई जोर-जोर से गाने लगीं, "खेतवा में धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले मुंहजोर, नये बाडे़ हरवा, नये रे हरवहवा, नये बाड़े हरवा के कोर..!"

(*गावा- चंपारण में किसान जिस दिन खेत मे धान की रोपनी शुरू करते हैं। चंदन, अक्षत और दही से पूजा-पाठकर कुछ बिचड़े रोपते हैं। जिसे 'गावा लगाना' कहते हैं। इस दिन रोपनिहारों को भोज खिलाया जाता है। हालांकि यह परंपरा अब लुप्त हो रही है।)

©श्रीकांत सौरभ


24 June, 2020

साहित्य में प्रेमचंद्र जैसा हो जाना सबके वश का नहीं

मूसलाधार बरसात में गांव की फुस वाली मड़ई की ओरियानी चु रही हो। उसी मड़ई में आप खटिया पर लेटकर 'गबन' पढ़ रहे हों! तभी पुरवैया हवा के झोंके से उड़कर आई बारिश की चंद बूंदें देह को छूती हैं! उस समय यह महसूस करना कठिन हो जाता है कि प्रेमचंद्र की लेखनी में ज़्यादा रोमांच है या बारिश की बूंदों में। शायद कलम की जादूगरी इसे ही कहा जाता है।

पिछले कुछ दिनों से हंस के वर्तमान संपादक का वो ब्यान काफ़ी चर्चा में है। जिसमें उन्होंने कथाकार प्रेमचंद्र की दो-तीन रचनाओं को छोड़कर अन्य को कूड़ा-करकट बताया है। इन संपादक महोदय का नाम संजय सहाय है। कुछ साहित्यकारों व लेखकों को छोड़कर शायद ही किसी ने इनका नाम पहले सुना हो। लेकिन विवादस्पद ब्यान के बाद वे एकाएक (कु) चर्चित हो गए हैं। सोशल साइट्स पर इन्हें लोगों ने घेरना शुरू कर दिया है।

अफ़सोस ये है कि यहां भी गुटबाज़ी होने लगी है। जिसके कारण कुछ लिक्खाड़ उनके समर्थन भी में खड़े होकर मोर्चा खोल लिए हैं। इस डिजिटल युग में फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, टिकटॉक, वेबसीरीज के मायाजाल में फंसी, तीसरी या चौथी पीढ़ी भले ही लहालोट हों। लेकिन 90 के दशक में होश संभाले मेरे जैसे करोड़ों ग्रामीण व कस्बाई युवकों ने प्रेमचंद्र को ही पढ़कर साहित्य का 'स' जाना। तब वे लेखनी का एक बड़ा ब्रांड हुआ करते थे, वैसे तो हम आज भी मानते हैं।

उनकी लेखनी का सच में कोई जोड़ा लगाने वाला नहीं। मानवीय भावनाओं पर वे जितनी पकड़ रखते थे। वो बिरले ही किसी लेखक को नसीब होती होगी। तभी तो उनके रचित पात्रों के संवाद बिल्कुल जीवंत हो उठते थे। कहना चाहूंगा कि मैंने हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उनकी सभी कहानी संग्रह पढ़ डाली थी। इसमें कफ़न, पूस की रात, ईदगाह, पंच परमेश्वर तो भुलाए नहीं भूलतीं। साथ ही गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवासदन जैसे कालजयी उपन्यास को तो पढ़कर चाट डाला था।

इन उपन्यासों या कहानियों के गोबर, होरी, झुनिया, पंडित मातादीन, निर्मला, मिस मालती, हल्कू, हामिद, घीसू जैसे दर्जनों पात्र अभी भी स्मृति में अमर हैं। अंग्रेजी हुकूमत की सच्चाई को उजागर करते हुए, लेखन का जबर्दस्त करिश्माई जाल रचते थे साहब! वे एक साथ कई बिंबों को उकेर देते थे। चाहें वो गांव के दलितों, मजदूर-किसानों की दुर्दशा हों, जमींदारों का शोषण हों, बनियों की मुनाफाखोरी हों, शहरी जीवन के रंगीनियां या स्याह पक्ष हों।

ज़नाब, स्त्री चरित्र चित्रण के मामले यानी नारी के उदार और कठोर स्वभाव को बखूबी दर्शाने की कला में भी माहिर थे। ये प्रेमचंद्र ही थे, जो अपनी रचना में कभी जमींदार को अत्याचारी तो कभी उदार, महिला को किसी जगह पीड़ित, शोषित लाचार तो कहीं सशक्त, आधुनिक बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। इतनी लेखकीय विविधताएं और कहां पढ़ने को मिलेगी? लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिस 'हंस' पत्रिका की शुरआत वे कर रहे हैं। भविष्य में उसी पत्रिका में कोई मनबढ़ उनकी रचना को इतनी ओछी उपाधि देगा।

इन दिनों भले ही शहरी या महानगरीय चकाचौंध से आकर्षित युवा पीढ़ी में अंग्रेजी या हिंगलिश लेखकों की बाढ़ आ गई है। जो देश की महज़ तीस प्रतिशत खाती-पीती, अघाई आबादी को ध्यान में रखकर लिखते हैं। उनकी अंग्रेजी की कचरा किताबें भी बेस्ट सेलर बन जाती हों। इनमें गिने-चुने लेखक करोड़ों रुपए की रॉयलिटी भी कमा रहे हैं। लेकिन लिखकर रख लीजिए, फ़ास्ट फ़ूड की तरह इनकी भी कृति एक दिन कचरे के डिब्बे में फेंकी जाएंगी।

और किसी को भी दूसरा प्रेमचंद्र, शरतचन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली और फणीश्वरनाथ रेणु आदि बनने के लिए, क्रमशः लमही (बनारस), देवनन्दपुर (प. बंगाल), बेनीपुर (मुज्जफरपुर), सिमरिया (बेगूसराय), रामनगर (बेतिया) और औराही हिंगना (फारबिसगंज) जैसी जगहों की खालिस मिट्टी में जन्म लेना होगा! गंडक, सिकरहना, बागमती, सरयू, गंगा  जैसी तमाम नदियों के पानी में डुबकी लगानी होगी!

गौर फ़रमाइए, यहां की उर्वरा मिट्टी में लोटाकर पले-बढ़े लोग कला और साहित्य संगीत जगत का 'अनमोल नगीना' बनकर निकलते रहे हैं, निकलते रहेंगे।

©श्रीकांत सौरभ




19 June, 2020

क्या सच में बिहार के नियोजित शिक्षक बोझ हैं?

जब भी नियोजित शिक्षकों के बारे में लोगों की उल्टी-सीधी प्रतिक्रिया पढ़ता हूं। मन बेचैन हो जाता है। यदि कोई शिक्षक फेसबुक पर वेतनमान की मांग वाला पोस्ट करता है। या अपने अधिकारों को लेकर आवाज़ उठाता है। तो जवाब मिलता है, "उतने ही तेज थे पढ़ाई में, फिर आईएएस, आईपीएस, बीडीओ, डॉक्टर, इंजीनियर क्यों नहीं बन गए?" "जितना मिल रहा है उतना के भी लायक नहीं हो।" "पांच हजार रुपए में प्राइवेट वाले पढ़ाते हैं। तुमको इतना में पेट नहीं भरता।" आदि-आदि।

अब इन लोगों को कौन समझाए कि कोई शिक्षक उपरोक्त पद भले ही हासिल कर नहीं पाया हो। लेकिन अपनी काबिलियत से दूसरे बच्चों को इन पदों पर जाने के लायक जरूर बना देता है। आप ही बताइए, क्या शिक्षक इंसान नहीं होते? आज की महंगाई में प्राइवेट स्कूलों के 05 से 15 हजार रुपए की मामूली सैलरी में क्या कोई आदमी पांच से सात लोगों का पारवारिक खर्च चला सकता है? क्या शिक्षकों को अच्छे घर, कपड़े, वाहन की जरूरत नहीं है? बिहार में शिक्षकों के प्रति आम जनों की सोच नकारात्मक कब, क्यों और कैसे बन गई? इस मुद्दे पर सकारात्मक मंथन जरूर होना चाहिए।

मैं वर्ष 90 के दशक में गांव के उस सरकारी विद्यालय से पढ़कर निकला हूं, जो दो कमरे का खपड़ेंनुमा मकान था। 150 बच्चों पर महज़ दो शिक्षक थे। प्लास्टिक का बोरा बिछाकर पढ़ाई किया था, यह व्यवस्था आज भी है। तब ना एमडीएम था, ना ही कपड़े, साइकिल या छात्रवृति मिलते थे। लेकिन शिक्षकों के प्रति लोगों में जो सम्मान था। उसका 10 प्रतिशत भी आज नहीं है। उस समय शिक्षक नाम से ही बच्चे भय खाते थे। और वो 'भय', गलती को लेकर पिटाई का था। उनके प्रति सम्मान का था।

लेकिन अब स्थिति भयावह है, और यहां तक पहुंचने में दो दशक लगे हैं। बता दूं कि वर्ष 02 में बीपीएससी से बड़े पैमाने पर स्थायी शिक्षकों की वैकेंसी निकली थी। मैं उन दिनों पटना में स्नातक कर रहा था। लंबी लाइन में लगकर जीपीओ से फॉर्म ख़रीदा था। लेकिन कोर्ट के आदेश पर बहाली रोक दी गई। वर्ष 05 में मुख्यमंत्री श्री नीतीश कुमार ने 'सर्टिफिकेट दिखाओ नौकरी पाओ' की तर्ज पर पंचायतों में प्रारंभिक स्कूलों में बहाली शुरू की।

सरकार की नीयत 15 सौ रुपए में वैसे साक्षर युवकों को भर्ती करने की थी। जो जनगणना, सर्वे, चुनाव या अन्य सरकारी कार्य करा सकें, बच्चों को एमडीएम खिला सकें। समय मिले तो अक्षर ज्ञान भी दे सकें। मुखिया व प्रमुख को जिम्मेवारी मिली थी नियुक्त करने की। स्वाभाविक है कि चयन प्रक्रिया में पारदर्शिता नहीं बरती गई (वो तो आज भी नहीं बरती जा रही है)। इसीलिए बड़े पैमाने पर फर्जी कागज़ात लगाकर बेरोजगार भी शिक्षक बन गए। आए दिन मीडिया में ऐसे फर्जी शिक्षकों का नियोजन रद्द होने की ख़बरें आती ही रहती हैं।

और नियोजन वर्ष 08-10 तक में यहीं 'खेला' चलता रहा। इस दौरान कई योग्य शिक्षक दूसरी नौकरियों में भी चयनित होकर जाते रहे। वर्ष 09 में, देश में आरटीआई (शिक्षा का अधिकार) कानून लागू हो गया। इसके मुताबिक प्रशिक्षण प्रमाणपत्र वाले अभ्यर्थियों का टीईटी लेकर स्थायी शिक्षक के रूप में नियुक्त करना था। जिन्हें मानदेय नहीं वेतनमान देना था। इसी आधार पर बिहार में वर्ष 11 में बड़े पैमाने पर टीईटी लिया गया। केवल कक्षा 01 से 05 में 26 लाख अभ्यर्थी शामिल हुए थे। जिसमें 03 प्रतिशत यानी 82 हजार लोग पास हुए थे।

तब प्रशिक्षित अभ्यर्थी नहीं थे। इसीलिए सरकार ने एनसीटीई से अनुमति लेकर नियोजन का काम शुरू किया। और आरटीई कानून को दरकिनार कर पुरानी सेवा शर्त पर ही, 09 हजार रुपए के मानदेय पर नियोजन हुआ। वर्ष 15 में शिक्षकों के हड़ताल और विधानसभा चुनाव के मद्देनजर सरकार ने शिक्षकों की नौकरी स्थायी तो कर दी। लेकिन 'चाइनीज' सेवा शर्त वाले वेतनमान और नियोजित के ठप्पे से मुक्ति नहीं मिली।

वहीं शिक्षकों की माने तो शिक्षा विभाग वेतनमान देने के नाम पर कम बजट का रोना रोती है। जबकि बजट का एक बड़ा हिस्सा गैर जरूरी 'लोक लुभावने' कामों में खर्च कर देती है। यहीं नहीं सुप्रीम कोर्ट में जब वेतनमान का मामला पहुंचा। इस पर बिहार सरकार ने हलफनामा दायर कर कहा कि नियोजित शिक्षक सरकारी कर्मी नहीं हैं। न्यायालय ने भी फ़ैसला सरकार के पक्ष में ही सुनाया, टीईटी शिक्षकों के लिए 'पैरा 78' की चर्चा करते हुए।

सवाल यह भी उठता है, सरकारी की गलत चयन नीति का ठीकरा दूसरे पर क्यों फोड़ा जाए? पूर्व के नियोजित शिक्षकों से, वर्तमान में बहाल योग्य शिक्षकों की तुलना कर सभी को नीचा दिखाना कहां तक उचित है? सोचिएगा, कहीं आपकी इस कुंठित सोच से हजारों नौनिहालों का भविष्य तो नहीं बर्बाद हो रहा? याद रखिए, कल को आपका लड़का भी अच्छी पढ़ाई कर जॉब के लिए मैदान में उतरेगा। उसे भी इसी ठेका प्रथा वाली दमनकारी सिस्टम का हिस्सा बनकर पीसना पड़ेगा।

क्योंकि या तो सरकारी नौकरी ही नहीं बचेगी, या रहेगी भी तो नियोजन वाली। और ऐसा हो भी रहा है। कल तक जो पड़ोसी या रिश्तेदार इन शिक्षकों से जलते थे। एक ही स्कूल में कार्यरत स्थायी शिक्षक अपने ही नियोजित सहकर्मी को हीन और छूत समझते थे। उनकी बेबसी पर हंसते थे। आज उन्हीं का होनहार लड़का पढ़ाई में ख़ूब नम्बर लाकर, बीएड, सीटेट, नेट निकालकर, प्राइवेट स्कूल-कॉलेजों में 15 से 25 हजार के रुपए की मामूली तनख्वाह पर गुजारा कर रहा है। आख़िरकार लोग इस भ्रम से कब निकलेंगे कि सरकारी शिक्षकों पर खर्च करना ख़ैरात लुटाना नहीं है।

यक़ीन नहीं तो कम से कम दुनिया के जितने भी विकसित देश हैं। वहां की शिक्षा प्रणाली का अध्ययन जरूर कर लीजिए। गारंटी है आपकी आंखें खुल जाएंगी। यह जगज़ाहिर है कि मातृभाषा और प्राथमिक शिक्षा को मजबूत किया बिना किसी समाज की तरक्क़ी नामुमकिन है। लेकिन यहां पर उपरोक्त दोनों बुनियादी चीजों का चौपट होना, किस बात की ओर इशारा करता है, यह भी गौर करने लायक है। क्या सूबे की बदहाली का एक बड़ा कारण ये भी नहीं है?

अभी की स्थिति ये है कि विद्यालयों में बच्चों के अनुपात में शिक्षकों की भारी कमी है। जबकि हजारों बेरोजगार युवकों के पास डीएलएड, बीएड, टीईटी, सीटीईटी का प्रमाणपत्र है। एक तरफ़ वे नौकरी के लिए सड़क पर संघर्षरत हैं, वहीं दूसरी तरफ़ नियोजित शिक्षक वेतनमान के लिए। जबकि सूबे के 70 प्रतिशत बच्चे प्राथमिक शिक्षा के लिए सरकारी विद्यालयों पर ही आश्रित हैं। ऐसे में इन स्कूलों में पारदर्शी तरीके से वेतनमान के आधार पर पर्याप्त संख्या में शिक्षकों को नियुक्त नहीं करना। क्या इन लाखों गरीब, किसान, मजदूर परिवार के बच्चों के साथ हकमारी नहीं है?

©श्रीकांत सौरभ


17 June, 2020

डियर सुशांत, सहानुभूति तुमसे नहीं, बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है

प्रिय सुशांत,

नमस्ते अलविदा!

मुझे पता है, यह चिट्ठी तुम तक नहीं पहुंच पाएगी। फिर भी लिख रहा हूं, बिना किसी आसरा के। इसमें कोई शक नहीं, एक मंजे हुए अभिनेता के रूप में करोड़ों हिंदी भाषियों के दिलों पर तुम राज कर रहे थे। तभी तो तुम्हारे जाने के बाद लाखों फैन, कला प्रेमियों, बुद्धिजीवियों ने, ना जाने कितने पोस्ट लिखे होंगे।

सबने भावुक शब्दों के तीर से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का कलेजा छलनी-छलनी कर दिया। जिसे देखों सलमान खान, करण जौहर, एकता कपूर, कपूर खानदान को जी भर गालियां और आहें भर बद्दुआ दे रहा है। लेकिन देख लेना, हर बार की तरह यह मुद्दा कुछ दिनों तक ही चलेगा। फिर कोई नया मामला आएगा और लोग तुम्हें भूल जाएंगे।

रही मेरी बात तो सच कहता हूं। मुझे सहानुभूति तुम्हारी मौत से नहीं, वहां संघर्षरत सैकड़ों बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है। मन में आक्रोश है बॉलीवुड के उस घिनौने चलन के खिलाफ़। जिसमें कलाकार को 'रेस का घोड़ा' समझा जाता है। मुम्बई जैसी मायानगरी में फ़िल्मों के क़िरदार निभाते-निभाते आदमी स्वाभाविक रह भी कहां जाता है।

विडंबना ये है कि दूसरे परिवेश से आया कोई भी अभिनेता उधार की जीवन शैली में भले ही ख़ुद को ढाल ले। लेकिन वो संस्कृति उसे नहीं अपना पाती, इतना तो तय है। अपनी जड़ों से कटा आदमी डाल का चूका बंदर के समान होता है। हमारे शास्त्रों में मातृ, पितृ और देव ऋण की चर्चा यूं ही नहीं की गई है।

ख़ैर, मां तो तुम्हारी बहुत पहले चल बसी थीं। शायद ही कभी तुम घर, परिवार में किसी से मातृभाषा मैथिली में बतियाए भी होगे। और मातृभूमि के लिए कुछ करना तो दूर, पिछले वर्ष आए भी थे तो 17 वर्षों के बाद। तुम्हें कितना अपनापन था यहां की मिट्टी से, उसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यदि इससे जुड़े रहते तो, मुझे पूरा यक़ीन है कि आत्महत्या की नौबत नहीं आती।

मरने से पहले एक बार, पटना के राजीव नगर में तन्हां जीवन गुजार रहे बीमार पिता के बारे में तो सोचा होता। लेकिन नहीं, तुम सोचते भी कहां से। तुम तो वर्षों से उस सपनीले शहर का हिस्सा बन गए थे। जिसकी चकाचौंध किसी भी सेलिब्रिटी का दिमाग हैक कर लेती है।

सफ़लता की ख़ुमारी में आदमी इतना मतलबी हो जाता है कि मां, बाप, परिवार जैसी चीजें बहुत पीछे छूट जाती हैं। और दौलत, शोहरत, लिव इन रिलेशन... की चिंता खाए रहती है।

जब कोई अपनी मिट्टी, अपनी भाषा छोड़कर, दूसरी जगह अपनी प्रतिभा दिखाने जाएगा। और उसका सामना वहां के रीति-रिवाज, चलन और मठाधीशों से होगा। ऐसी स्थिति में 'रेस का घोड़ा' या 'कोल्हू का बैल' जो भी कहें, बनना ही पड़ेगा।

जबकि इसी देश में दक्षिणी राज्य भी हैं, जहां तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ फिल्में बनती हैं। उनकी भाषा में, उन्हीं की ज़मीन पर पूरी फ़िल्म तैयार होती है। गुणवत्ता के मामले में ये फिल्में हॉलीवुड को टक्कर देते हैं। यहीं नहीं उड़िया, गुजराती, बंगाली, मराठी फिल्मों का भी अपना क्रेज है।

12 करोड़ की आबादी जापान की है और पूरी दुनिया में उसकी कोई सानी नहीं। लेकिन इतनी ही आबादी वाले बिहार के रहनिहार महज़ मैन पावर और खरीदार भर हैं। हम पैदा ही होते हैं पलायन करने के लिए। दूसरी जगहों पर जाकर मरने-खपने के लिए।

वैसे भी जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय नहीं रहा। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। वहां साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी ही होगी।

चलते-चलते मैं कहना चाहूंगा कि यदि ईश्वर तुम्हें मिलें। तो उनसे जरूर निहोरा करना कि या तो हमारे बदहाल राज्य की सूरत बदल दें। जिससे कोई मजबूरी में पलायन नहीं करे। अन्यथा किसी को यहां की धरती पर भेजे ही नहीं।

तुम्हारा,

©श्रीकांत सौरभ




09 June, 2020

कॉलेजिया लईकी ढूंढने वाले बाबूजी के बेरहम दुख!!!

चनेसर काका का बड़का बेटा जब बीटेक कर गया तो अगुआ दुआर कोड़ने लगे। और लड़की थी कि कोई भी उनको जंच ही नहीं रही थी। कोई पढ़ी-लिखी थी तो कद छोटा मिलता, कोई गोरी होती तो उसके पास डिग्री नहीं रहती। इसी माथापच्ची में दो वर्ष बीत गए। उन्हें कोई रिश्ता पसंद ही नहीं आया।

रिश्तेदार, गोतिया कितनी बार समझाए, "तिवारी जी, लड़के की शादी में देरी अच्छी बात नहीं है। एक तो इंजीनियर और दिखने में भी सुंदर है। बम्बे जइसन शहर में नौकरी है। कहीं उधर ही मामला सेट कर लिया तो सब गुड़-गोबर हो जाएगा। एने छोटका भी लाइने में है।"

जबकि वे नाक पर माछी नहीं बैठने देते थे। उन्हें अपने दोनों संस्कारी बेटों पर फेविकॉल के जोड़ वाला भरोसा था। इसी कारण एकदम से ज़िद पर अड़े थे। कनिया को लेकर मिल्की व्हाइट, रसियन हाइट और पैसा टाइट वाली जबरिया शर्त रखी थी! इतना ही नहीं जब तब कहते फिरते भी, 'लड़की एमबीए, एमसीए, इंजीनियर न सही, कम से कम साइंस ग्रेजुएट तो चाहिए ही!

दरअसल काका के पास खेती की आठ बिगहा पुश्तैनी ज़मीन थी। उपर से चार पीढ़ी से घर का एकलौता समांग थे। दरवाजे पर ट्रैक्टर, हीरो होंडा मोटरसाइकिल खड़ा कर ही लिए थे। दहेज़ में भी कार की डिमांड थी। करनी नहीं तो बातों से ही सही, गांव में धाक जमाकर रखते। रोज़ दालान में 10 लोग बैठे मिल जाते, भले ही इसकी वजह एक कप चाय क्यों न रहती हो!

पंचायती में भी उनकी ख़ूब पूछ होती। ये बात और थी कि 60 वर्ष की उम्र में सैकड़ों पंचायती में गए। लेकिन क्या मजाल कि एक भी झगड़ा सही से सुलझाए हों। अब सही बात बोलने पर किसी न किसी की तो तरफ़दारी करनी ही पड़ती। इसीलिए पंचायती में जब मारपीट की नौबत आ जाती तो रामचरितमानस का श्लोक, "होइहि सोइ जो राम रचि राखा, को करि तर्क बढ़ावै साखा..." पढ़ते हुए निकल जाते।

ख़ैर, उन्हें वर्षों से इस बात का मलाल था कि ग्रेजुएट होते ही अंगूठा छाप लड़की उनके खूंटे में डोर दी गई थी। वो जमाना ही ऐसा था, पान की दुकानों में, बसों में या नाच-बाजा में बिजली रानी के गाने की धूम मची रहती, "कॉलेजिया लईका ढूंढ लइह$ हमरा ला बाबूजी..!" एक तरह से ट्रेंड ही बन गया था, निपढ़ लड़की के लिए भले ही नौकरियाहा दूल्हा नहीं मिले।

पिता लोग बीए, एमए पास वालों को सतुआ बांध कर खोजते। जहां कोई लड़का मिला नहीं कि छेंक लेते। काका के साथ भी यहीं हुआ था। बीए पास कोर्स में सेकेंड डिवीजन रिजल्ट आते ही अगुआ छान कूटने लगे। और खाते-पीते घर के एकलवत पूत का दाम लगाते हुए, उनके बाबूजी को खरीद लिए।

तो बात काका के बेटे की शादी की हो रही थी। समय के साथ दोनों बेटों का घर बसा दिए। पांच वर्ष पहले, बड़े बेटे के लिए बीएससी तो नहीं मिली। समाजशास्त्र में ऑनर्स लड़की पसंद आ गई। बबुआन के ठाठ में से थी। मोटा दहेज लेकर आई, साथ में फ्रिज, एलईडी, वाशिंग मशीन, कूलर और हुंडई की नारंगी रंग वाली सेंट्रो कार भी।

साल भर बाद छोटका बेटा चंडीगढ़ में बैंक पीओ बन गया। उसी साल दारोगा की लड़की से उसका ब्याह भी कर दिए। समधी जी ने चंडीगढ़ में ही बेटी के नाम से थ्री बीएचके का फ्लैट ख़रीद दिया था। पूरे 60 लाख रुपए गिना था उन्होंने। जब तिलक-फलदान की रात काका को फ्लैट की चाभी थमाई गई, तो लोगों में चर्चा का विषय बन गया था। पूरी पंचायत में आज तक उतना दहेज़ किसी को नहीं मिला था। घर का अंतिम लगन था इसलिए दिल खोलकर खरचा किए रहे। मुज्जफरपुर की आधा दर्जन नामी बाई जी का साटा कर बरियात ले गए थे।

लेकिन हाय रे बदला ज़माना! अब काका का दुख सुनिए। गर्मी का महीना चरम पर है। 10 कट्ठे में आम और लीची की फुलवारी है। लीची तो पहले ही तुरहा के हाथों बेंच दिए थे। अब जर्दा आम गाछी पर पक कर चू रहा है। लेकिन खाने वाले कोई नहीं। इसके बाद मालदह, सीपिया, शुकुल की भी बारी है। बेटी का ससुराल नज़दीक में ही है। उसके लिए कुछ आम छांटकर पूरी गाछी पएकार से सलटा दिए।

दो वर्ष पहले की ही तो बात है। जब बूढ़ी के साथ बड़े बेटे-पतोहू के पास गए थे, मुम्बई में। पोता हुआ था। पतोहू ने सेवा तो ख़ूब की लेकिन बार-बार दवाब बनाने लगी यह कहते हुए, "पापा जी, अब गांवे के रहे जाता। उहां के ज़मीन बेंच दी इहवां फ़्लैट ले लियाव। अपने भी दुनु अदमी इहवे रहीं लोगन।" ये सब सुनकर वे भला कहां रुकने वाले थे वहां। बस इतना ही बोले, "हमनी के जिनगी में ई कुल्ही मुमकिन नइखे। अब मुअला प जे मन में आए करिह$ लो! फिर दोनों जने लौट आए।

इसके कुछ दिन बाद छोटका बेटा पतोहू के बारम्बार निहोरा पर, उनके पास भी चंडीगढ़ गए। लेकिन 20 दिन में ही उब गए। वहां की आबोहवा रास नहीं आई। पतोहु सात बजे तक सोए रहती और सास से काम कराने लगी थी। उसका रूखा व्यवहार उन्हें अखर गया। फिर तो ऐसे लौटे कि अब जाने के नाम ही नहीं लेते। बूढ़ी के जोर देने पर वे ही कभी-कभार दोनों जगह फ़ोन कर पोते से बतिया लेते हैं।

दीवाली, छठ, होली सब फ़ीकी बीतती है। और बीते भी क्यों नहीं, जब दोनों में कवनो बेटा पतोहू अइबे नहीं करता। शहर में पाकिट वाला बिना चोकर का आटा और हाफ बॉयल चाउर ख़रीदकर खाते हैं। मने गांव उनको काटने दौड़ता है। अब अकेले काका क्या करें, लगान के चलते ट्रैक्टर भी बेंच दिए।

खेत-बाड़ी तो पहले ही बटाई दे दिए थे, उन्हीं लोगों को जो कभी जना का काम करते थे। वे अब मलिकार बन गए हैं, जो मन में आया उपज दे जाते हैं। कबो दहाड़ के, कबो सुखाड़ के नाम पर, केतना तरह का रोना रोकर इमोशनल ब्लैकमेल करते हैं। जबकि उनके दरवाजे पर बेरही-बखारी बढ़ते ही जा रहे हैं। काका सब 'खेला' बढ़िया से बुझते हैं। मने बुढ़ौती में करें भी तो क्या!

बूढ़ी को हफनी बेमारी धर लिया है। दु डेग चलती है हांफे लगती है। डॉक्टर दमा की शिकायत बताकर पंप खिंचेला दिए हैं। इधर छह महीने से उनके घुटने में साइटिक का दर्द बेचैन किए है। जब तक दवा का असर रहता है आराम बुझाता है। अब तो बुदबुदाते भी रहते हैं, "का फ़ायदा वइसन गृहस्थी के जब ओकरा के केहु भोगही वाला ना होखे।"

और गुस्से में कभी यह भी कह डालते हैं, "जान$ तारु फलनवां के माई, दुनु बेटवा-पतोहिया हमनी के मुए के राह देख$ तारे स$! ओकरा बाद कुल्ही जमीनिया बेंचेके शहरी में ठेका दिहे स$!"

©️श्रीकांत सौरभ, मोतिहारी


03 June, 2020

अब माड़ो में दूल्हे साईकिल, घड़ी, रेडियो तो समधी दही लगाने के लिए नहीं रूठते!

'भरी भरी अंजुरी में मोतिया लुटाइब हे दूल्हा दुल्हनिया के...,' 'कथी के चटइया पापा जी बइठल बानी...,' 'दूल्हा के माई बनारस के...,' 'जइसन रेलिया के चाका वइसन पंडि जी...' घर हो या ननिहाल, जब भी कहीं वैवाहिक आयोजन होता। ऐसे तमाम पारंपरिक गाने मां, मौसी, नानी, दादी, फुआ, मामी, भाभी, पट्टीदारी की महिलाओं के साथ समूह में गातीं। सुनकर खुशी की लहरें मन में हिलोर मारने लगतीं! लेकिन गाली गायन को सुनकर कई बार असहज भी हो जाता।

थोड़ा बड़ा हुआ तो समझदारी बढ़ी। जाना कि भोजपुरी जीवन के कई रसों को समेटी ऐसी जीवंत भाषा है। जिसमें हर आयोजन के लिए अलग-अलग गाने हैं। सबसे ज़्यादा वैवाहिक उत्सव के। यहां तक कि बारात की ख़ातिरदारी में, स्वागत में गारी सुनाव.. गाया जाता है। और किसी को बुरा भी नहीं लगता। दूल्हे, उसकी मां, पिता, हज्जाम, पंडित, बाराती, सभी के लिए अलग-अलग गाली गीत हैं। जिन्हें महिलाएं माइक के सहारे लाउडस्पीकर से चिल्ला-चिल्लाकर गाती हैं। इस पर लोग चुस्की लेते नहीं अघाते!

विवाह के नेग भी तो कितने होते हैं। छेंका! वर्ग रक्षा! तिलक-फलदान! सगुन का चूड़ा कुटना! लगन चुमावन! कथा मटकोर! घिवढ़री! हल्दी चढ़ावन! मातृ पूजा! माई बरहम पूजन! आम-महुआ का बियाह! परिछावन! द्वार पूजा! जय माल! ईमली घोटावन! कन्या निरीक्षण! कन्यादान! सिंदूरदान! कोहबर! मुंहझांका! समधी मिलाप! विदाई! पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्रों का शायद ही कोई रहनिहार होगा। जो इन शब्दों से वाकिफ़ नहीं होगा। और दुनिया के किसी भी संस्कृति में इतने 'नेग' नहीं होंगे।

हां, इनमें 'मरजाद' अब जरूर लुप्त हो चला है। महज़ 10-15 वर्ष पहले तक यह जबर्दस्त चलन में था। जब बारात दूसरे दिन शाम को 'भतखही' के बाद विदा होती थी। मरजाद में बोरियत नहीं हो, इसके लिए 'लौंडा' या 'बाई' जी के नाच का साटा होता। तब नाच देखने के नाम पर ही लोग बारात में उमड़ पड़ते। न्यौता का कार्ड महीना दिन पहले से हज्जाम ठाकुर घुमाने लगते। बारात जाने को लेकर एक सप्ताह पहले घर-घर जाकर निमंत्रण दिया जाता, "ये बाबा, काका, भईया, बबुआ कपड़ा धोवा लिह$ लोगन हो, फलाना दिने सम्हरवा बरिआत चले के बा।" अब क्या बताए, कितना रोमांच छुपा था इन चंद शब्दों में! मारे उत्साह के मिज़ाज हरिहरा जाता!

दूल्हे का बियाह से दो-तीन पहले लगन चुमाकर पियरी कपड़ा पहना दिया जाता। इस दौरान उसे नहाने, चापाकल चलाने या कुआं में झांकने की सख्त मनाही रहती। मटकोर की रात सत्यनारायण भगवान का कथा होता। दुआरे से बजनिया तासा बजाते हुए माटी कोडवाने जाते। और उनके पीछे-पीछे दूल्हा, महिलाएं 'कहवां के पियर माटी कहां के कुदार हे...' गाते हुए जातीं। फिर प्रसाद बंटते, उसके बाद आंगन में फूफा हल्दी चढ़ाने की विद्य करते। तभी कोई फ़लाना बो सरहज चुपके से आकर, उनके मुंह में प्यार से हल्दी वाली दही लगा देती। दही चुकर उनकी शर्ट को भिंगो देता। इस मीठे नोक-झोंक को देख हंसी की बौछार छूट पड़तीं।

अगले दिन सुबह में ही साव जी हलुआई आकर ईट को जोड़कर चूल्हे बनाते। पीली मिट्टी से लिपाई करते। और उसमें कोयला डालकर लकड़ी जलाते। उसी आंच पर दाल, भात बनते। आलू-परवल की सुखी सब्जी में अशोक मसाले पड़ते ही, उसकी गंध जब पुरवैया, पछुआ या चौपाई हवा के झोंके से फ़िजां में तैरती। चारों ओर भोजमय वतावरण हो जाता!

बरातियों की तैयारी में भी सौ तरह के नखरे थे। चाहें वो दूल्हे के परिजन हों, रिश्तेदार हों, पट्टीदार हों या ग्रामीण। किसी को चमरौधे चप्पल या जूते के पॉलिश की चिंता रहती। कोई धोबी के यहां कुर्ता-पजामा, शर्ट-पैंट या बिहउती कोट को प्रेस कराने के लिए दौड़ लगाता। कोई सैलून में बाल कटाने या दाढ़ी बनाने जाता। किसी को वीडियो कैमरे वाले को बुला लाने के लिए भेजा जाता। वहीं दूल्हे के मामा या फूफा के दबाव में आकर वर्षों से सिर के बाल व दाढ़ी को उजला रखने वाले पिता, चाचा भी रंगवाने को तैयार हो जाते। गोदरेज हेयर डाई के गाढ़े काले घोल से उनके माथे व मूंछ के बाल रंगे जाते। इसे सुखाते हुए कपार या ओठों पर चुकर आए कालिख़ यूं नजर आते। मानो रामलीला में पाठ की तैयारी चल रही हो।

इधर, घर में खुली कई अटैचियों और ब्रीफ़केस से कपड़े बिखरे रहते। बेतिया वाली फुआ, रामनगर वाली मउसी और गोपालगंज वाली मामी की मुलाकात वर्षों बाद होती। तो सबके पास कई तरह की नई डिज़ाइन की साड़ियां होतीं। जिनकी ख़ूबी सुनाने की हड़बड़ी रहती, "हई मद्रासी साड़ी गोलू के पापा देले रहनी!" "जॉर्जेट वाला छोटका बेटा सूरत से ले आइल रहे।" वे एक-दूसरे को सिल्क या बनारसी साड़ी दिखाते हुए उनके गुणों का बखान करते जाती थीं। जबकि बड़की भाभी कुंवारी बहन से आई ब्रो बनवाते हुए मेकअप और गहनों पर चर्चा कर रही होतीं, "प्रीति देख$ त आम-महुआ बियाहे जाए ला कवन कलर के साड़ी नीक रही! परिछावन में लहंगा साड़ी प हार सेट चली कि कुछ आउर..?"

12 बजते-बजते अंग्रेजी बैंड दरवाजे पर बजने लगता। जब लाउडस्पीकर से हनुमान चालीस या अन्य भक्ति गीत के साथ बैंड बाजे की आवाज़ चारों ओर गूंजती। सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती। चार-पांच गाने के बाद कार्यक्रम का विराम दिया जाता। मातृ पूजा होते ही आम-महुआ ब्याहने या माई बरहम पूजने के लिए महिलाओं की झुंड गीत गाते निकलती। दूल्हे की भौजाई, मां या चाची उसके सिर पर साड़ी का पल्लू रखे रहतीं। साथ में बैड बजाते हुए आधे बजनिया भी जाते। लौटकर पांच कुंवारे लड़कों को बुलाया जाता। उनके साथ दूल्हे को दही-चूड़ा खिलाकर 'कुंअरपत' उतारा जाता था।

इसके बाद दर्जनों की संख्या में वैन, जीप, मार्शल, कमांडर, मिनी या बड़े बस और ट्रैक्टर की कतार लगाकर बारात सजकर निकलती। इनसे आगे व बाजे के पीछे दूल्हे की मारुति कार या बोलेरो गाड़ी खड़ी रहती। कोट-टाई या शेरवानी पहने, आंखों में काजल लगाए, सिर पर मउर रखे दूल्हे की खूबसूरती देखते ही बनती। जिसे घेरे हुए दर्जनों की संख्या में लड़कियां और महिलाएं परिछावन के लिए खड़ी रहती। भले ही उनका बदन पसीने से लथपथ रहता। लेकिन वीडियो कैमरे के आगे नाचते हुए उनका जोश थमने का नाम नहीं लेता था। उनके बालों में गमकौआ तेल, माथे से नाक तक टीके सिंदूर, चेहरे पर पोती फेयर एंड लवली या विको क्रीम, कपड़े पर छिड़की गई चार्ली, डेनिम या मैग्नेट सेंट या पोंड्स पाउडर की भीनी-भीनी खुशबू, कुछ दूर तक खड़े लोगों के नथुने में प्रवेश कर जाती। इसी बीच जब रंगे चावल के अक्षत, फूल के साथ पैसे लुटाए जाते तो उसे लूटने के लिए बच्चे लपक पड़ते।

उधर, बारात जनवासे पहुंचते ही बेटिहा के दरवाजे पर सजधज कर निकलती। और मातृपूजा से विदाई तक उपर लिखे अन्य नेग पूरे किए जाते। वैसे किसी जमाने में ससुरारी से बारात निकलते समय फूफा या शादी के लिए माड़ो में बैठे दूल्हे का, साइकिल, घड़ी या रेडियों के लिए खिसियाने के कई किस्से हैं। जिन्हें बाद में लिखूंगा। अभी माड़ो के दो चुटीले किस्से! एक बार आंगन में भतखही के बाद दुल्हन के पिता ने पूछा, "समधी जी, बताईं कवनो कमी नइखे नु रह गइल सेवा-सत्कार में। इस पर दूल्हे के पिता ने कहा, "सब त ठीके रहल ह। मने माड़ो में मुंहवा प दही लगवावे के शारधा लागले रह गइल। जाईं महाराज, पहिले से जनले रहती।  त भाड़ा प जनाना स के बोलवले आइल रहती, ई कुल्ही ला!" वहीं ससुरारी में एक दूल्हे ने परिछते समय अपनी चचिया ससुर का हाथ ही पकड़ लिया था। यह कहते हुए, "ए जी रउरा एतना ना सुनर लागत बानी! मन करता रउरा से ही बियाह क लीं!" और इसके बाद माड़ो में दूल्हे की क्या फ़जीहत हुई थी, ना ही पूछिए तो अच्छा है!

ख़ैर, विवाह तो आज भी होते हैं। लेकिन सामियाना बदलकर पंडाल हो गया है। पंगत में साथ खाने की जगह बुफे सिस्टम का रिवाज चल पड़ा है, जिसमें मेजबानी की विनम्रता नहीं झलकती। डीजे और आर्केस्ट्रा की धुन पर युवा कमर मटकाते हैं। और घर से आंगन क्या विदा हुए, नानी, मौसी और मां भी विदा हो गईं दूसरी दुनिया को! विवाह को लेकर छत या दुआरे पर सिंथेटिक माड़ो बनते हैं। जयमाल होता है। और एक रात में ही सारी रस्में पूरे कर लेने की जल्दी होती है। ये सब कुछ इतना फटाफट होता है कि उत्सव की मौलिकता तो चली ही गई। पहले वाली फिलिंग भी अब नहीं आ पाती। बचपन की यादें तो अब बस नॉस्टेल्जिया में कैद होकर रह गई हैं।

©️श्रीकांत सौरभ


02 June, 2020

बिहार में रहेगा नहीं 'लाला' तो क्या करेगा जीकर हजार साला!

भले ही भूल जाइए कि आप क्या हैं! लेकिन याद जरूर रखिए कि हम बिहारी हैं! जब गुजरात वालों को गुजराती, पंजाब वालों को पंजाबी, असम वालों को असमिया कहते हैं तो हम भी बिहारी ही न हुए। लेकिन अन्य राज्यों के निवासियों का सम्बोधन जहां बड़े शान से किया जाता है। वहीं 'बिहारी' शब्द हमारे लिए गर्व की अनुभूति कराने वाला नहीं, बल्कि गाली होता है। वो इसलिए कि हमारे यहां बच्चे जन्मते नहीं, बदकिस्मती से टपक जाते हैं। बड़े होकर पलायन करने के लिए। दूसरे राज्यों में जाकर मरने-खपने के लिए।

जिसकी मिट्टी में लोटा कर बचपना बिताते हैं। वहीं धरती बेगानी हो जाती है। यहां टपकने वाला कोई भी बच्चा इंसान नहीं होकर, पहले बाभन, भूमिहार, राजपूत, लाला, बनिया, यादव, कोयरी, कुर्मी, दलित या महादलित होता है। स्कूल जाने की उम्र में किसी बच्चे का सरकारी विद्यालय में नामांकन होता है। तो किसी का एडमिशन कान्वेंट में होता है। किसी को हिंदी की घुट्टी पिलाई जाती है, तो किसी को अंग्रेजी की कोरामिन दी जाती है। दोनों ही माध्यमों से पढ़ाई का स्तर जो भी रहे, सबसे पहले मातृभाषा ही मारी जाती है।

काहे कि बिहारी हैं हम...

गांव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले जाने कितने बच्चे दसवीं तक आते-आते पढ़ाई छोड़ देते हैं। इनके अभिभावकों को असमय पढ़ाई छूट जाने का, जरा भी मलाल नहीं होता। दरअसल शुरू से ही लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गई है। अक्सर मजदूर या किसान पिता कहते मिल जाते हैं, जल्दी से बड़े हो जाओ, फिर बाहर जाना है कमाने। पंजाब के खेतों में फसल बोने-काटने, असम के चाय बगानों को, लुधियाना, सूरत की कपड़ा फैक्ट्रियों को, बंगलुरू, हैदराबाद, केरल के ऑइल मिलों को, आबाद करने। जहां किसी के मामा, फूफा, गांव के चाचा लेबर, मुंशी या ठीकेदार होते हैं।

अब चाहें रोज़गार के लिए हो या उत्तम जीवन शैली के लिए, पलायन तो बिहारियों के भाग्य में लिखा होता है। और जाना भी सभी का ट्रेन से ही होता है। फर्क बस इतना होता है कि इस पर सवार कोई लड़का दिल्ली, जयपुर, शिमला, कोटा, देहरादून कमाने जा रहा होता है। तो कोई बैंकिंग, एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी की पढ़ाई करने। कोई एसी या स्लीपर से जाता है तो कोई जेनरल बॉगी में ठूस-ठूसकर। वहां जाकर कोई फ्लैट में रहता है, तो कोई संकरी गलियों वाले सिंगल कमरे के मकान में। और कोई झुग्गियों में ही जवानी गुजार देता है। कोई वातानुकूलित कमरे में दिन बिताता है। तो कोई सड़क पर काम करते हुए जेठ-बैशाख की दोपहरी में चमड़ी झुलसाकर पसीने बहाता है।

अब जो हो लेकिन एक बार जो किसी के क़दम यहां से उठते हैं। फिर स्थायी रूप से लौटकर आते भी कहां हैं। प्रवासी लोग मौका-बेमौका, वर्ष-दो वर्ष में एकाध बार यहां आते भी हैं। तो छठ, होली, दीवाली, शादी-ब्याह, मरण-हरण जैसे आयोजनों में शरीक होने। गांव उनके लिए डेरा बन जाता है। अपनी जड़ों से कटा आदमी, बनावटी जिंदगी जीता आदमी, पहचान की संकट से गुजरता आदमी। उसका सबसे बड़ा उदाहरण हम ही हैं, जो दोयम जिंदगी जीते हुए अपनी मौलिकता भी भूल चुके हैं। किसी कम्पनी में यदि बंगाली, मराठी, उड़िया, मद्रासी जीएम है, तो अपनी तरफ़ के मजदूर से मातृभाषा में बात करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा। लेकिन एक बिहारी सुपरवाइजर भी अपने मुंशी से टूटी-फूटी हिंदी में रौब झाड़ेगा। बड़े शहरों में वर्षों से रह रहे लोग 'बिहारी' कहलाने में ख़ुद की तौहीनी समझते हैं। इसलिए पहचान ही छुपा लेते हैं। और यहीं लोग 'जिअ हो बिहार के लाला जिअ तु हजार साला...' वाला गाना सुनकर आत्ममुग्ध भी हो जाते हैं।

काहे कि बिहारी हैं हम...

आपने कभी सोचा है, आजादी के 73 वर्षों बाद भी देश के मानचित्र पर हम कहां हैं? पुरानी कंपनियां धीरे-धीरे बंद तो होती ही गई। पिछले 50 वर्षों में ढंग की एक अदद फैक्टरी नहीं लग सकी। ना तो जरूरत के हिसाब से अच्छे कॉलेज खुलें। ना ही अस्पतालों की संख्या बढ़ाई जा सकी। वैसे भी 12 करोड़ की आबादी वाले, जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय रहा ही नहीं। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। उस भाषा में साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी होगी कि नहीं। फ़िल्मों में भी अक्सर हमारे भाषा, वेशभूषा, चलन, रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। नकारात्मक छवि परोसी जाती है। और हम हैं कि इसका विरोध नहीं कर, उल्टे मौन समर्थन देते हैं।

हमारे यहां छात्र हैं, दर्शक हैं, उपभोक्ता हैं, कलाकार हैं, खिलाड़ी हैं, साहित्यिक प्रतिभा हैं, अभिनेता हैं, बीमार हैं, डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, कारोबारी हैं, श्रमिक हैं। लेकिन अफ़सोस, सभी कोई चीजों की पूर्ति के लिए बाहर पर ही आश्रित हैं। बाहर, मतलब वैसे राज्य जिनके लिए हम महज़ बाजार, ख़रीददार और मैन पावर भर हैं। हम उनके यहां बने समान ख़रीदकर, उनके अस्पताल में इलाज कराकर, उनके शैक्षणिक संस्थानों में पढ़कर, उनकी फिल्में देखकर, उनकी दवा खाकर, उनके कपड़े पहनकर, उनकी कम्पनियों में काम कर, उनकी इकॉनमी में बढ़ोतरी करते ही हैं। बदले में, दोतरफ़ा मार भी झेल रहे हैं। मैन पावर के रूप में वर्षों से प्रवासी के रूप में काम करते हुए, ना तो वे ही हमें अपना सके। और ना अपने राज्य में हम आज तक अपनी ज़मीन तैयार कर पाए।

उद्यमिता की भावना तो हममें कभी रहीं ही नहीं। बाहर में सड़कों पर ठेले घुमाकर जूस या सब्जी बेंच लेंगे। लेकिन अपने यहां छोटा काम करने में शर्म आती है। सही है कि बाहर जाकर कुछ हजार लोगों ने मेहनत से ज़िंदगी बदली है। लेकिन लॉकडाउन में वापस लौट रही लाखों की भीड़ चीख-चीखकर किस बात की गवाही देती है? यह भी गौर करने लायक है। चीजों को बदलने की जिम्मेवारी जिस सत्ता पर होती है। उसके लिए भी हम महज़ वोट बैंक हैं। राजनेताओं के लोकलुभावने भाषण, मुफ़्त के राशन, अनुदान, जाति-धर्म के प्रायोजित लफड़ों में उलझी जनता, जब तक वोट बैंक बनी रहेगी। तब तक बाढ़, सुखाड़, गरीबी, बेरोज़गारी व पलायन से जूझते बिहार को 'बीमारू' राज्य के ठप्पे से छुटकारा नहीं मिलने वाला।

काहे कि बिहारी हैं हम...

लेकिन अब हमें जागना होगा। मां, मातृभूमि और मातृभाषा को अपनाकर इसी ज़मीन पर अपनी तक़दीर की इबारत लिखनी होगी। हमारा बिहार, प्यारा बिहार!!!

©️श्रीकांत सौरभ


01 June, 2020

सच्ची घटना : जब हैजा से अयोध्या वाले 'महात्मा जी' मरे

यह किस्सा वर्ष 1940 का है। तब पूरे देश में हैजा महामारी फैली थी। इलाज नहीं होने और छूत रोग के चलते यह जानलेवा बीमारी तेज से पसरी। शायद ही कोई गांव रहा होगा, जहां से रोज लाशें नहीं निकलती होंगीं। ग्रामीणों में दहशत के कारण गजब का भ्रम हो गया था। संक्रमित आदमी के पास जाने से ही नहीं, डरकर कल्पना करने या नाम लेने से भी यह बीमारी किसी को अपने चंगुल में जकड़ लेती। मृतक के घर पड़ोसी का जाना तो दूर की बात थी। घर वाले भी पास नहीं फटकते थे।

बीमार कितनी खतरनाक थी। इसका अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं। जिसको भी यह बीमारी लगती। अचानक से आठ-दस बार पतला दस्त होता। उल्टियां होतीं। डिहाइड्रेशन से ब्लड प्रेशर नीचे चला जाता। और कुछ ही घन्टे में मौत हो जाती। बिना लोगों के सहयोग के मृतकों का दाह संस्कार करना गंभीर समस्या थी। गांव के पश्चिम टोला में मियां जी 'खलीफा' ही एकमात्र साहसी और जीवट करेजा के इंसान थे। उन्हें सूचना दी जाती तो वे गड़ी (लकड़ी का पहिया वाली छोटी बैल गाड़ी) लेकर आते। एक साथ चार-पांच लाशों को लादकर दूर दक्षिण दिशा वाले सरेह में गड्ढा खोदकर दबा देते।

उसी समय के मेरे गांव कनछेदवा (पूर्वी चंपारण) में एक जमींदार आदमी के घर पर कोई सन्यासी ठहरे हुए थे। अयोध्या से आए थे। गुरु महाराज होने के कारण उनका शिष्य के यहां साल में एक बार आना जरूर होता था। अन्य लोग भी उनके सान्निध्य सुख में प्रवचन सुनने या समस्या का समाधान कराने के लिए पहुंचते।

वे बस इतना ही कहते, 'भगवान पर भरोसा रखिए। सब ठीक हो जाएगा।' कुछ ऐसा ही विश्वास गृहस्वामी को भी हो चला था। साधु बाबा बहुत फक्र से कहते, 'मैं सन्यासी आदमी हूं। ध्यान, प्रणायाम, तपस्या में लीन रहने वाला। मंत्रोच्चारण से मुझे तो यह बीमारी छू भी नहीं पाएगी।

इस वाकये के दो घन्टे बाद ही साधु बाबा को दिशा मैदान की तलब लगी। लोटा में पानी भरे थे कि पेट में जोरदार गड़गड़ाहट हुई। तेज आवाज में बोले, 'फलाना बाबू, जोरों की लगी है। क्या घर के पास ही खेत में निपट लूं?'

यह कहते हुए चापाकल से गिनकर 20 कदम की दूरी पर ही चले थे। बर्दास्त करना मुश्किल हो गया तो धोती उठाकर वहीं बैठ गए। हलकान होकर आए कि 10 मिनट बाद दूसरी बार, फिर तीसरी बार, फिर चौथी बार... और पांचवीं बार में महात्मा जी चापाकल के पास ही ढेर हो गए। पानी वाला लोटा बगल में लुढ़क गया। वहीं पर पड़े पड़े उनके मुंह से उल्टियां होने लगीं। पिछवाड़े में धोती से पतला द्रव बहे जा रहा था।

लेकिन भय के मारे कोई देखने भी नहीं गया। सभी संक्रमित की तरह कुछ घन्टे बाद ही उन्होंने भी वहीं पर दम तोड़ दिया। फिर क्या था। शव को तो ठिकाने लगाना ही था। मियां जी (खलीफ़ा) को बुलाया गया। उन्होंने अकेले कंधे पर लादकर शव को गड़ी में रखा। और बियाबान में ले जाकर निपटा दिया।

©️श्रीकांत सौरभ (*जैसा कि संस्मरण के तौर पर गांव के बड़े-बुज़ुर्गों ने सुनाया। उसी पर यह किस्सा आधारित है।)