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17 June, 2020

डियर सुशांत, सहानुभूति तुमसे नहीं, बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है

प्रिय सुशांत,

नमस्ते अलविदा!

मुझे पता है, यह चिट्ठी तुम तक नहीं पहुंच पाएगी। फिर भी लिख रहा हूं, बिना किसी आसरा के। इसमें कोई शक नहीं, एक मंजे हुए अभिनेता के रूप में करोड़ों हिंदी भाषियों के दिलों पर तुम राज कर रहे थे। तभी तो तुम्हारे जाने के बाद लाखों फैन, कला प्रेमियों, बुद्धिजीवियों ने, ना जाने कितने पोस्ट लिखे होंगे।

सबने भावुक शब्दों के तीर से फेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम का कलेजा छलनी-छलनी कर दिया। जिसे देखों सलमान खान, करण जौहर, एकता कपूर, कपूर खानदान को जी भर गालियां और आहें भर बद्दुआ दे रहा है। लेकिन देख लेना, हर बार की तरह यह मुद्दा कुछ दिनों तक ही चलेगा। फिर कोई नया मामला आएगा और लोग तुम्हें भूल जाएंगे।

रही मेरी बात तो सच कहता हूं। मुझे सहानुभूति तुम्हारी मौत से नहीं, वहां संघर्षरत सैकड़ों बिहारी कलाकारों की बदक़िस्मती से है। मन में आक्रोश है बॉलीवुड के उस घिनौने चलन के खिलाफ़। जिसमें कलाकार को 'रेस का घोड़ा' समझा जाता है। मुम्बई जैसी मायानगरी में फ़िल्मों के क़िरदार निभाते-निभाते आदमी स्वाभाविक रह भी कहां जाता है।

विडंबना ये है कि दूसरे परिवेश से आया कोई भी अभिनेता उधार की जीवन शैली में भले ही ख़ुद को ढाल ले। लेकिन वो संस्कृति उसे नहीं अपना पाती, इतना तो तय है। अपनी जड़ों से कटा आदमी डाल का चूका बंदर के समान होता है। हमारे शास्त्रों में मातृ, पितृ और देव ऋण की चर्चा यूं ही नहीं की गई है।

ख़ैर, मां तो तुम्हारी बहुत पहले चल बसी थीं। शायद ही कभी तुम घर, परिवार में किसी से मातृभाषा मैथिली में बतियाए भी होगे। और मातृभूमि के लिए कुछ करना तो दूर, पिछले वर्ष आए भी थे तो 17 वर्षों के बाद। तुम्हें कितना अपनापन था यहां की मिट्टी से, उसका सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है। यदि इससे जुड़े रहते तो, मुझे पूरा यक़ीन है कि आत्महत्या की नौबत नहीं आती।

मरने से पहले एक बार, पटना के राजीव नगर में तन्हां जीवन गुजार रहे बीमार पिता के बारे में तो सोचा होता। लेकिन नहीं, तुम सोचते भी कहां से। तुम तो वर्षों से उस सपनीले शहर का हिस्सा बन गए थे। जिसकी चकाचौंध किसी भी सेलिब्रिटी का दिमाग हैक कर लेती है।

सफ़लता की ख़ुमारी में आदमी इतना मतलबी हो जाता है कि मां, बाप, परिवार जैसी चीजें बहुत पीछे छूट जाती हैं। और दौलत, शोहरत, लिव इन रिलेशन... की चिंता खाए रहती है।

जब कोई अपनी मिट्टी, अपनी भाषा छोड़कर, दूसरी जगह अपनी प्रतिभा दिखाने जाएगा। और उसका सामना वहां के रीति-रिवाज, चलन और मठाधीशों से होगा। ऐसी स्थिति में 'रेस का घोड़ा' या 'कोल्हू का बैल' जो भी कहें, बनना ही पड़ेगा।

जबकि इसी देश में दक्षिणी राज्य भी हैं, जहां तमिल, तेलगु, मलयालम, कन्नड़ फिल्में बनती हैं। उनकी भाषा में, उन्हीं की ज़मीन पर पूरी फ़िल्म तैयार होती है। गुणवत्ता के मामले में ये फिल्में हॉलीवुड को टक्कर देते हैं। यहीं नहीं उड़िया, गुजराती, बंगाली, मराठी फिल्मों का भी अपना क्रेज है।

12 करोड़ की आबादी जापान की है और पूरी दुनिया में उसकी कोई सानी नहीं। लेकिन इतनी ही आबादी वाले बिहार के रहनिहार महज़ मैन पावर और खरीदार भर हैं। हम पैदा ही होते हैं पलायन करने के लिए। दूसरी जगहों पर जाकर मरने-खपने के लिए।

वैसे भी जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय नहीं रहा। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। वहां साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी ही होगी।

चलते-चलते मैं कहना चाहूंगा कि यदि ईश्वर तुम्हें मिलें। तो उनसे जरूर निहोरा करना कि या तो हमारे बदहाल राज्य की सूरत बदल दें। जिससे कोई मजबूरी में पलायन नहीं करे। अन्यथा किसी को यहां की धरती पर भेजे ही नहीं।

तुम्हारा,

©श्रीकांत सौरभ




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