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03 June, 2020

अब माड़ो में दूल्हे साईकिल, घड़ी, रेडियो तो समधी दही लगाने के लिए नहीं रूठते!

'भरी भरी अंजुरी में मोतिया लुटाइब हे दूल्हा दुल्हनिया के...,' 'कथी के चटइया पापा जी बइठल बानी...,' 'दूल्हा के माई बनारस के...,' 'जइसन रेलिया के चाका वइसन पंडि जी...' घर हो या ननिहाल, जब भी कहीं वैवाहिक आयोजन होता। ऐसे तमाम पारंपरिक गाने मां, मौसी, नानी, दादी, फुआ, मामी, भाभी, पट्टीदारी की महिलाओं के साथ समूह में गातीं। सुनकर खुशी की लहरें मन में हिलोर मारने लगतीं! लेकिन गाली गायन को सुनकर कई बार असहज भी हो जाता।

थोड़ा बड़ा हुआ तो समझदारी बढ़ी। जाना कि भोजपुरी जीवन के कई रसों को समेटी ऐसी जीवंत भाषा है। जिसमें हर आयोजन के लिए अलग-अलग गाने हैं। सबसे ज़्यादा वैवाहिक उत्सव के। यहां तक कि बारात की ख़ातिरदारी में, स्वागत में गारी सुनाव.. गाया जाता है। और किसी को बुरा भी नहीं लगता। दूल्हे, उसकी मां, पिता, हज्जाम, पंडित, बाराती, सभी के लिए अलग-अलग गाली गीत हैं। जिन्हें महिलाएं माइक के सहारे लाउडस्पीकर से चिल्ला-चिल्लाकर गाती हैं। इस पर लोग चुस्की लेते नहीं अघाते!

विवाह के नेग भी तो कितने होते हैं। छेंका! वर्ग रक्षा! तिलक-फलदान! सगुन का चूड़ा कुटना! लगन चुमावन! कथा मटकोर! घिवढ़री! हल्दी चढ़ावन! मातृ पूजा! माई बरहम पूजन! आम-महुआ का बियाह! परिछावन! द्वार पूजा! जय माल! ईमली घोटावन! कन्या निरीक्षण! कन्यादान! सिंदूरदान! कोहबर! मुंहझांका! समधी मिलाप! विदाई! पश्चिमी बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश के भोजपुरी क्षेत्रों का शायद ही कोई रहनिहार होगा। जो इन शब्दों से वाकिफ़ नहीं होगा। और दुनिया के किसी भी संस्कृति में इतने 'नेग' नहीं होंगे।

हां, इनमें 'मरजाद' अब जरूर लुप्त हो चला है। महज़ 10-15 वर्ष पहले तक यह जबर्दस्त चलन में था। जब बारात दूसरे दिन शाम को 'भतखही' के बाद विदा होती थी। मरजाद में बोरियत नहीं हो, इसके लिए 'लौंडा' या 'बाई' जी के नाच का साटा होता। तब नाच देखने के नाम पर ही लोग बारात में उमड़ पड़ते। न्यौता का कार्ड महीना दिन पहले से हज्जाम ठाकुर घुमाने लगते। बारात जाने को लेकर एक सप्ताह पहले घर-घर जाकर निमंत्रण दिया जाता, "ये बाबा, काका, भईया, बबुआ कपड़ा धोवा लिह$ लोगन हो, फलाना दिने सम्हरवा बरिआत चले के बा।" अब क्या बताए, कितना रोमांच छुपा था इन चंद शब्दों में! मारे उत्साह के मिज़ाज हरिहरा जाता!

दूल्हे का बियाह से दो-तीन पहले लगन चुमाकर पियरी कपड़ा पहना दिया जाता। इस दौरान उसे नहाने, चापाकल चलाने या कुआं में झांकने की सख्त मनाही रहती। मटकोर की रात सत्यनारायण भगवान का कथा होता। दुआरे से बजनिया तासा बजाते हुए माटी कोडवाने जाते। और उनके पीछे-पीछे दूल्हा, महिलाएं 'कहवां के पियर माटी कहां के कुदार हे...' गाते हुए जातीं। फिर प्रसाद बंटते, उसके बाद आंगन में फूफा हल्दी चढ़ाने की विद्य करते। तभी कोई फ़लाना बो सरहज चुपके से आकर, उनके मुंह में प्यार से हल्दी वाली दही लगा देती। दही चुकर उनकी शर्ट को भिंगो देता। इस मीठे नोक-झोंक को देख हंसी की बौछार छूट पड़तीं।

अगले दिन सुबह में ही साव जी हलुआई आकर ईट को जोड़कर चूल्हे बनाते। पीली मिट्टी से लिपाई करते। और उसमें कोयला डालकर लकड़ी जलाते। उसी आंच पर दाल, भात बनते। आलू-परवल की सुखी सब्जी में अशोक मसाले पड़ते ही, उसकी गंध जब पुरवैया, पछुआ या चौपाई हवा के झोंके से फ़िजां में तैरती। चारों ओर भोजमय वतावरण हो जाता!

बरातियों की तैयारी में भी सौ तरह के नखरे थे। चाहें वो दूल्हे के परिजन हों, रिश्तेदार हों, पट्टीदार हों या ग्रामीण। किसी को चमरौधे चप्पल या जूते के पॉलिश की चिंता रहती। कोई धोबी के यहां कुर्ता-पजामा, शर्ट-पैंट या बिहउती कोट को प्रेस कराने के लिए दौड़ लगाता। कोई सैलून में बाल कटाने या दाढ़ी बनाने जाता। किसी को वीडियो कैमरे वाले को बुला लाने के लिए भेजा जाता। वहीं दूल्हे के मामा या फूफा के दबाव में आकर वर्षों से सिर के बाल व दाढ़ी को उजला रखने वाले पिता, चाचा भी रंगवाने को तैयार हो जाते। गोदरेज हेयर डाई के गाढ़े काले घोल से उनके माथे व मूंछ के बाल रंगे जाते। इसे सुखाते हुए कपार या ओठों पर चुकर आए कालिख़ यूं नजर आते। मानो रामलीला में पाठ की तैयारी चल रही हो।

इधर, घर में खुली कई अटैचियों और ब्रीफ़केस से कपड़े बिखरे रहते। बेतिया वाली फुआ, रामनगर वाली मउसी और गोपालगंज वाली मामी की मुलाकात वर्षों बाद होती। तो सबके पास कई तरह की नई डिज़ाइन की साड़ियां होतीं। जिनकी ख़ूबी सुनाने की हड़बड़ी रहती, "हई मद्रासी साड़ी गोलू के पापा देले रहनी!" "जॉर्जेट वाला छोटका बेटा सूरत से ले आइल रहे।" वे एक-दूसरे को सिल्क या बनारसी साड़ी दिखाते हुए उनके गुणों का बखान करते जाती थीं। जबकि बड़की भाभी कुंवारी बहन से आई ब्रो बनवाते हुए मेकअप और गहनों पर चर्चा कर रही होतीं, "प्रीति देख$ त आम-महुआ बियाहे जाए ला कवन कलर के साड़ी नीक रही! परिछावन में लहंगा साड़ी प हार सेट चली कि कुछ आउर..?"

12 बजते-बजते अंग्रेजी बैंड दरवाजे पर बजने लगता। जब लाउडस्पीकर से हनुमान चालीस या अन्य भक्ति गीत के साथ बैंड बाजे की आवाज़ चारों ओर गूंजती। सुनने के लिए लोगों की भीड़ उमड़ पड़ती। चार-पांच गाने के बाद कार्यक्रम का विराम दिया जाता। मातृ पूजा होते ही आम-महुआ ब्याहने या माई बरहम पूजने के लिए महिलाओं की झुंड गीत गाते निकलती। दूल्हे की भौजाई, मां या चाची उसके सिर पर साड़ी का पल्लू रखे रहतीं। साथ में बैड बजाते हुए आधे बजनिया भी जाते। लौटकर पांच कुंवारे लड़कों को बुलाया जाता। उनके साथ दूल्हे को दही-चूड़ा खिलाकर 'कुंअरपत' उतारा जाता था।

इसके बाद दर्जनों की संख्या में वैन, जीप, मार्शल, कमांडर, मिनी या बड़े बस और ट्रैक्टर की कतार लगाकर बारात सजकर निकलती। इनसे आगे व बाजे के पीछे दूल्हे की मारुति कार या बोलेरो गाड़ी खड़ी रहती। कोट-टाई या शेरवानी पहने, आंखों में काजल लगाए, सिर पर मउर रखे दूल्हे की खूबसूरती देखते ही बनती। जिसे घेरे हुए दर्जनों की संख्या में लड़कियां और महिलाएं परिछावन के लिए खड़ी रहती। भले ही उनका बदन पसीने से लथपथ रहता। लेकिन वीडियो कैमरे के आगे नाचते हुए उनका जोश थमने का नाम नहीं लेता था। उनके बालों में गमकौआ तेल, माथे से नाक तक टीके सिंदूर, चेहरे पर पोती फेयर एंड लवली या विको क्रीम, कपड़े पर छिड़की गई चार्ली, डेनिम या मैग्नेट सेंट या पोंड्स पाउडर की भीनी-भीनी खुशबू, कुछ दूर तक खड़े लोगों के नथुने में प्रवेश कर जाती। इसी बीच जब रंगे चावल के अक्षत, फूल के साथ पैसे लुटाए जाते तो उसे लूटने के लिए बच्चे लपक पड़ते।

उधर, बारात जनवासे पहुंचते ही बेटिहा के दरवाजे पर सजधज कर निकलती। और मातृपूजा से विदाई तक उपर लिखे अन्य नेग पूरे किए जाते। वैसे किसी जमाने में ससुरारी से बारात निकलते समय फूफा या शादी के लिए माड़ो में बैठे दूल्हे का, साइकिल, घड़ी या रेडियों के लिए खिसियाने के कई किस्से हैं। जिन्हें बाद में लिखूंगा। अभी माड़ो के दो चुटीले किस्से! एक बार आंगन में भतखही के बाद दुल्हन के पिता ने पूछा, "समधी जी, बताईं कवनो कमी नइखे नु रह गइल सेवा-सत्कार में। इस पर दूल्हे के पिता ने कहा, "सब त ठीके रहल ह। मने माड़ो में मुंहवा प दही लगवावे के शारधा लागले रह गइल। जाईं महाराज, पहिले से जनले रहती।  त भाड़ा प जनाना स के बोलवले आइल रहती, ई कुल्ही ला!" वहीं ससुरारी में एक दूल्हे ने परिछते समय अपनी चचिया ससुर का हाथ ही पकड़ लिया था। यह कहते हुए, "ए जी रउरा एतना ना सुनर लागत बानी! मन करता रउरा से ही बियाह क लीं!" और इसके बाद माड़ो में दूल्हे की क्या फ़जीहत हुई थी, ना ही पूछिए तो अच्छा है!

ख़ैर, विवाह तो आज भी होते हैं। लेकिन सामियाना बदलकर पंडाल हो गया है। पंगत में साथ खाने की जगह बुफे सिस्टम का रिवाज चल पड़ा है, जिसमें मेजबानी की विनम्रता नहीं झलकती। डीजे और आर्केस्ट्रा की धुन पर युवा कमर मटकाते हैं। और घर से आंगन क्या विदा हुए, नानी, मौसी और मां भी विदा हो गईं दूसरी दुनिया को! विवाह को लेकर छत या दुआरे पर सिंथेटिक माड़ो बनते हैं। जयमाल होता है। और एक रात में ही सारी रस्में पूरे कर लेने की जल्दी होती है। ये सब कुछ इतना फटाफट होता है कि उत्सव की मौलिकता तो चली ही गई। पहले वाली फिलिंग भी अब नहीं आ पाती। बचपन की यादें तो अब बस नॉस्टेल्जिया में कैद होकर रह गई हैं।

©️श्रीकांत सौरभ


1 comment:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' said...

जानकारी साझा करने के लिए शुक्रिया।