सबसे अच्छा कंटेंट अभी बाकी है, आते रहिएगा

12 April, 2020

कृत्रिम आवरण से बाहर निकल प्रकृति को महसूस कीजिए

यदि आप एक अरसे के बाद शहर से गांव में आए हैं। लॉक डाउन में फंसे हैं। एंड्राइड पर फेसबुक, व्हाट्सएप्प, टिक टॉक, यूट्यूब के गाने, नेटफ्लिक्स या एमएक्स प्लेयर की वेब सीरीज देखकर उब चुके हैं। घर बैठे-बैठे तनाव की हद तक बोर हो रहे हैं। ऐसे में, हम यहीं सलाह देंगे कि थोड़ा आलस छोड़िए। और भरी दुपहरिया में निकल जाइए सरेह की तरफ। यकीन जानिए, बिल्कुल नया अनुभव होगा।

नीले आसमान से छनकर रौशनी बिखेरती सूर्य की किरणें, और चढ़ते वैशाख की जवान होती धूप। जमाने बाद ऐसा हुआ है कि इस महीने की तपिश बदन को झुलसाती नहीं, गुदगुदाती लगती है। कुछ पल ठहरकर प्रकृति के नायाब तोहफे का आनंद लीजिए। इनसे बातें कीजिए। मानो कह रही हों, हम तो हमेशा से आपके साथ हैं। आप ही हमको भूल गए। शर्मीली दुल्हन की तरह घूंघट काढ़े खड़ी, खेतों में पककर तैयार गेहूं की बालियों को निहारिए। यूं लगेगा धरती पर दूर-दूर तक पीली चादरें बिछा दी गई हों।

पछुआ हवा के झोंके से फसलें ऐसे झूम रही हैं, जैसे किसी गोरी का आंचल लहरा रहा हो। जरा ध्यान लगाकर जलतरंग की तरह झनझनाकर बज रहे झुर्राए दानों का कोरस सुनिए। और खेत से सटे ही आम के बगीचे की ओर बढ़ जाइए। पत्ते झड़ने के बाद ठूंठ पेड़ों की टहनियों में निकल रहे कोंपलें हों। या फिर आम के पेड़ पर टिकोले में तब्दील होते मंजर पर मंडराती मधुओं की टीम।

यहां के जर्रे-जर्रे में नयापन का संदेश मिलेगा। इनसे भीनी-भीनी निकल रही सोंधी सुगंध जैसे ही नाक के नथुनों से टकराती हैं। मदहोशी में मिजाज गजबे बउरा जाता है। नशा सा छाने लगता है कपार पर। डाल पर बैठकर चहचहा रही चिरपरिचित के साथ ही अनदेखी, अंजानी चिड़ियों की झुंड। हमें कोलाहल से दूर ले जाकर क्षणिक स्थिर प्रज्ञता का एहसास कराती है। इसी बीच दूर कहीं से आ रही विरहन कोयल की कुहू-कुहू। मन में हुक उठाते हुए अजीब सा टीस भी देती है।

वैसे तो सृष्टि में जन्म, मृत्यु, सृजन, विनाश का चक्र तो अनादि काल से चलता आ रहा है। दार्शनिक भी कहते हैं। जिसे हम मौत कहते हैं, वहीं तो जीवन है। विनाश के बाद ही सृजन होती है। लेकिन हम हैं कि इस सच्चाई से मुंह चुराकर निकल जाना चाहते हैं। भौतिक संसाधन जुटाने के फेरे में दरबदर भटक रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि जिस प्रकृति ने हमें इतने कुछ दिया। बदले में उसको हमने क्या चुकाया?

यहीं न अंधाधुंध हरे-भरे पेड़ों को काटकर कंक्रीटों का जंगल खड़ा किया। रहन-सहन का स्तर बढ़ाने के लिए, कस्बा को बाजार, बाजार को शहर, शहर को महानगर और महानगर को मेट्रो सिटी बना दिया। बदले में तालाबों को भर दिया। नदी, वतावरण सब प्रदूषित किया। ज्यादा से ज्यादा उपज की लालच में खेतों में जमकर रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया। जमीन को बंजर बनाया। कल-कारखाने, वाहनों के धुएं से हवा में जहर घोला। रक्षा के लिए परमाणु बम बनाए, लेकिन बीमारियों को लेकर शोध पर खर्च नहीं हुआ। अस्पताल नहीं बने।

हमने कमाने की होड़ में अनावश्यक पलायन कर मातृभूमि त्यागा। मातृभाषा को भुलाया। मौलिक रहने के बदले जिंदगी बनावटी बना ली। हाइजेनिक भोजन के बदले प्लास्टिक पैक वाले फूड स्टफ को आहार बनाया। शर्बत, सत्तू की जगह कोल्ड ड्रिंक, रसायनिक बेवरेज, बोतलबंद पानी का सेवन स्टेट्स सिंबल है। इसी तरह हमने अपनी अच्छाई को सीने में दफन कर आधुनिकता का झूठा नकाब चेहरे पर लगा लिया। पहचान बदल डाली। इतना ही नहीं, शहर का एकांकी जीवन जीते हुए कब हमारी जीन में स्वार्थीपन और मतलबीपन जैसे तमाम अवगुण घुल गए। पता भी नहीं चला।

चलते-चलते बस यहीं कहूंगा। यदि गलती हमने की है तो नतीजा भी हमें ही भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति से संदेश लेकर अभी भी नहीं चेते। तो आनेवाली पीढ़ी को और भी बुरे हालात से गुजरने होंगे। दुनिया के नजरों में भले ही कोरोना खतरनाक महामारी होगी। लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर, ईमानदारी से पूछिए। क्या यह हमसे ज्यादा जहरीली है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

10 April, 2020

डियर कोरोना अब वापस चली भी जाओ

डियर कोरोना

Hate you less love more!

मैं इन दिनों तुमसे थोड़ा-थोड़ा डरने लगा है। डर अपने संक्रमित होने का नहीं, अपनों के खोने का है। हमारे पास ना तो तुम्हारा इलाज है। ना ही बिना लॉक डाउन में रहे तुमसे बच सकते हैं। मुझे पता है, तुम भी हम निरीह प्राणियों को डराने की नई-नई तरकीबें सोच रही होगी। किस तरह ज्यादा ज्यादा से लोगों को संक्रमित कर मृत्यु दर बढ़ाई जाए? और जबसे तुमने गुजरात में उस 16 महीने की मासूम बच्चे की जान ली है। तुमसे नफरत सी हो गई है। इतनी कि भौतिक रूप में कहीं मिल जाती न इस बैशाख में। आम के टिकोड़े के साथ सिलबट्टे पर तुम्हारी चटनी पिसते। और उसमें निम्बू निचोड़कर खा जाते।

मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता, तुम्हारा लिंग क्या है? सजीव हो या निर्जीव? लेकिन रिसर्च में बताया जा रहा है। तुम सात रूपों वाली निर्जीव मादा हो। हैरान हूं ये जानकर। क्या निर्जीव का भी लिंग होता है? वैसे, रिसर्च का क्या? शोध करने वाले वैज्ञानिक आज कुछ और कह रहे हैं। कल कुछ और कहेंगे। इतना जरूर है कि तुम वर्ष 1815 में आए प्लेग, वर्ष 1920 के स्पेनिश फ्लू या वर्ष 1940 के हैजे की तरह खतरनाक नहीं हो। जिसकी चपेट में आकर पूरी दुनिया में करोड़ो लोग मारे गए थे। पढा हूं कि खतरे के मामले में टीबी रोग भी तुम पर भारी है। जो भी हो, इतना जान लो। तुम महामारियां मानव प्रजाति से ज्यादा विनाशकारी कभी नहीं हो सकती। हमारे पास परमाणु बम है। जिसके सामने तुम्हारा दो कौड़ी का मोल नहीं। एक बार फटा तो मिनटों में करोड़ों खल्लास। पूर्व में नागासाकी और हिरोशमा पर किया गया एक छोटे से प्रयोग का अंजाम दुनिया देख चुकी है।

खैर, तुमको अंदर की बात बता दें कि डरते-डरते तुमसे मोहब्बत भी होने लगी है। देखो ना, तुम्हारे आने से कितना कुछ बदला है। वर्षों से प्रदूषित होकर नाला बन चुकी युमना नदी काली से नीली हो चुकी है। जालंधर और चंडीगढ़ से हिमाचल के बर्फीले पहाड़ दिखने लगे हैं। पूरी दुनिया का आसमान बिल्कुल साफ लगने लगा है। रातों को टिमटिमाते तारों को देखते ही हर किसी का दिल 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार...!' गाने लगा है। दिनदहाड़े जंगलों से निकलकर जानवर सरेराह शहर की सड़कों पर चहल कदमी कर रहे हैं।

सीएम अरविंद केजरीवाल के इवन, ऑड फॉर्मूले का दिल्ली वाले जिस बेदिली से विरोध जता रहे थे। आज उससे भी बड़ा फॉर्मूला प्रकृति ने दिया है। आम दिनों में तेज रफ्तार गाड़ियों की रेलमपेल, शोरशराबे से जो सड़कें गुलजार रहती थीं। इन्हीं वीरान सड़कों पर विधवा विलाप की हद तक नितांत उदासी पसरी है। मानो ट्रैफिक सिस्टम और रेड लाइट को मुंह चिढ़ा रही हो। कोठी से लेकर बहुमंजिले भवनों के खिड़कियों से जहां पहले हवाई जहाज या गाड़ियों के तेज हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक से अहले सुबह नींद टूट जाती है। जाने कितने वर्षों से लोग घर और ऑफिस के जाल में उलझे, बदहवासी में जी रहे थे। व्यस्तता के चलते ना खाने का, ना सोने का समय तय था। पत्नी, बच्चों या बूढ़े मां-बाप से ढंग से कब बतियाए थे? यह भी याद नहीं। हर समय बस काम, काम और काम। अब जाकर एहसास हुआ है कि कोई लाख बेचैन होकर भागते रहे। ठहराव में बेहद ताकत होती है, इसे ही प्रकृति का ब्रेक लगाना कहते हैं।


कल देश के वरीय पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ला सर अपने फेसबुक वाल पर लिखे थे। गाजियाबाद के बिना लिफ्ट वाले जिस अपार्टमेंट में रहते हैं। वहां कुछ दिन पहले सीढियां चढ़ते-उतरते अक्सर रेलिंग पकड़ लेते थे। दम फूलने लगता था। 65 वर्ष की उम्र ने उन्हें ऐसा होना स्वाभाविक लगता था। लेकिन इस बार अनोखा अनुभव हुआ है। अपार्टमेंट की वहीं 40 सीढियां पांच बार बिना रेलिंग पकड़े चढ़-उतर लेते हैं। ना थकान होती है, ना सांस फूलती है। लॉक डाउन ने उनके जैसे हजारों अधेड़ों व बुजुर्गों को एहसास कराया। किसी की सांसें, महज एलर्जी, अस्थमा, हीमोग्लोबिन की कमी, बुढापा से ही नहीं, प्रदूषण से भी फूलता है।

पड़ोस की बड़की चाची के बेटा-पतोहू केरल से आए थे होली मनाने, तीन साल पर। लेकिन लॉक डाउन में यहीं फंस गए। बेटे का किराना व्यवसाय है वहां। घर भी बनवा लिए हैं। चाचा के मरने के बाद चाची अकेले ही गांव में रहती हैं। एक-दो बार गई थी बेटे के पास रहने। लेकिन पिजड़े की पंक्षी की तरह रहना नहीं भाया। ना ही वहां की भाषा और व्यस्त दिनचर्या रास आई। लौट आई घर, कभी वापस नहीं जाने के लिए। इधर बेटे ने भी मूड बना लिया है। आपदा से उबरने के बाद वहां की संपत्ति बेंचकर गांव में ही कोई रोजगार करेगा। आखिर अपनी भाषा, अपनी मिट्टी से किसे लगाव नहीं होता?

यहां भी गली-गली में पक्की सड़कें (घटिया गुणवत्ता वाली ही सही), बिजली पहुंच ही गई हैं। आरओ के पानी वाली गाड़ी तो पहले से ही आ रही थी। उससे भी स्वच्छ नल जल योजना का पानी फ्री में उपलब्ध है। एंड्रॉइड पर फोर जी नेट दनदना के चल रहा है। बाजार में चाउमीन, मोमो, एग रौल से लेकर फुचका तक बिक रहे। 20 किलोमीटर के दायरे में एक से बढ़कर एक कान्वेंट खुल गए हैं। बच्चे यहां भी स्कूलिंग कर लेंगे। मतलब साफ है जब गांव में ही काम चलने लायक संसाधन उपलब्ध है। फिर अनावश्यक रूप से उन शहरों में जाकर भीड़ क्यों बढ़ानी। जो पहले से ही बेइंतिहा प्रदूषण और आबादी की बोझ से दबे कराह रहे हैं।

सुबह में ही काका कह रहे थे, जानते हो बबुआ। कोरोना से सबसे ज्यादा डर उन राजनेताओं, अधिकारियों, व्यवसायियों, धन्नासेठों को लग रहा है। जिन्होंने काली कमाई कर अकूत संपत्ति अर्जित की है। भोग की अदम्य इच्छा उनके भीतर कुंडली मारे पड़ी है। उन्हें चिंता है कि बीमारी से कहीं मर गए तो पैसों का क्या होगा? डर नहीं है ति खेती का सीना चीरकर अनाज उपजाने वाले किसानों को। या 48 डिग्री तापमान में बदन की चमड़ी झुलसाकर मजदूरी करने वालों को। वे तो अपने साथ ही दूसरों का भोजन जुटाने के लिए रोज मर-मरकर जीते हैं। इधर, इस विपदा में भी कुछ लोगों का धंधा चमक गया है। जिधर देखो फेस वैल्यू बढ़ाने की होड़ लगी है। कोई दान या स्वैच्छनिक सेवा दिए नहीं कि सोशल साइट्स पर फोटो डालकर खुद को प्रचारित करने लगते हैं।

काका यकीन के साथ बोले कि देख लेना इस विषम काल में भी अधिकारी और जनप्रतिनिधि सरकारी फंड को लूट खाएंगे। सरकार कितना भी उपाय कर ले, बनियों की कालाबाजारी की जन्मजात आदत छूटने से रही। केंद्र सरकार सरकारी संस्थानों को चुन-चुनकर बेंच रही थी। जब कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। तो जवाब मिला था कि देश हित में यह जरूरी निर्णय है। आज संकट काल में सरकारी विमान एयर इंडिया, रेलवे, सरकारी चिकित्सक, अस्पताल, आशा, ममता, शिक्षक, सरकारी कार्यालयकर्मी ही काम आ रहे हैं। डीएम, एसपी, बीडीओ, सीओ, पुलिस, सेना के जवान जी जान लगाकर 24 घण्टे सेवारत हैं।

चलते-चलते बस इतना भर कहना चाहूंगा, तुम पर एकतरफा उमड़े प्यार का हवाला देकर। आज का इंसान दौलत, शोहरत, भौतिक संसाधनों को जुटाने की जद्दोजहद में जॉम्बी और रोबोट में तब्दील हो चुका है। महामारी के रूप में आकर तुमने हमेशा की तरह हमारी औकात बता दी। लेकिन बहुत हो गया, हमें सताना, डराना छोड़ो। अब वापस चली जाओ, हाइबरनेट मोड में। और फिर कभी ऑन या रीस्टार्ट मोड में नहीं आना। भले ही हमारे नॉस्टेलजिया में बनी रहना। और गाहे-बेगाहे हमारी ताकत का एहसास कराती रहना। इसलिए कि हम मनुष्य बड़े ही स्वार्थी, बनावटी व भुलक्कड़ किस्म के होते हैं, स्वभाव के मुताबिक।

©️®️श्रीकांत सौरभ

09 April, 2020

"यहां ना तो कोई भूख से मरता है, ना ही अकेलेपन के अवसाद में आत्महत्या का ख्याल आता है"

काका 70 वर्ष के हो चले हैं। उस जमाने के इंटर पास हैं। जब मैट्रिक पास करते ही दारोगा या मास्टर की नौकरी मिल जाती थी। लेकिन जमीन की ठाट ने नौकरी नहीं करने दिया। पूरी जिंदगी अपनी शर्तों पर गांव में ही बीता दिए। नील वाले कुर्ता व धोती, रेडियो और अखबार के गजब का शौकीन ठहरे। हां, अब टीवी पर ही इनकी ज्यादातर समय बीतता है। जी न्यूज के सुधीर चौधरी और रिपब्लिक वाले अर्णव गोस्वामी के जबरिया वाला फैन हैं। इनको देखते-सुनते उन्हें अब पक्का विश्वास हो चला है कि देश में सारे समस्या की जड़ मुस्लिम हैं। जिनको राहुल गांधी, कन्हैया, रवीश और केजरीवाल जैसे देशद्रोही शह देते हैं। इन चारों को पानी पी-पीकर गलियाते हैं। अक्सर कहते भी हैं, जब सभी चोर ही हैं। उनके बीच में अकेले मोदी जी क्या करेंगे? काका का वश चले तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में बस भाजपा की सरकार रहे। उनके विचार से विपक्ष नाम का कहीं भी अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए।

खैर, बात पर लौटते हैं। उनको बेटा नहीं है। उसी के इंतजार में तीन बेटियां हो गई। बहुत पहले ही तीनों का हाथ पीला कर दिए। दो एनसीआर में रहती हैं, एक बंगलुरू में। तीनों कॉरपोरेट सेक्टर में मुलाजिम पतियों के साथ खुश हैं। आज सांझ के बैठका में जाने क्यों, काका थोड़ा चिंतित दिखे। शायद कोरोना लॉक डाउन के चलते फ्लैट में कैद दामाद और बेटियों की परेशानी सुनकर आहत थे। हालांकि आम तौर पर वे 'कूल' ही रहते हैं। यदा कदा रामायण, रामचरितमानस और गीता की पंक्तियां बोलकर उसका अर्थ भी सुनाते रहते हैं। शायद इसीलिए रूढ़िवादी सोच होने के बावजूद कभी-कभी गंभीर बातें भी कह देते हैं।

रोज की तरह कोरोना पर चर्चा छिड़ी तो शुरू हो गए। बोले कि महानगरों में कमरे में घिरे लोगों की जिंदगी थम सी गई है। मोबाइल-टीवी पर नजर गड़ाए रखो या बालकनी-खिड़की से बाहर का नीरस नजारा निहारो। बेटी-दामाद को कितनी बार कहे कि लॉक डाउन में कोई जुगाड़ कर घर आ जाए। लेकिन उनको ईएमआई वाला वाला फ्लैट छोड़ना उचित नहीं लगा। और अब कमरे में पड़े-पड़े उब होने लगी है। नाती-नातिनी की शरारत से तंग आ गए हैं।

सुबह में ही नोएडा वाली छोटी बेटी का फोन आया था। कह रही थी कि उसके पड़ोस में जो रिटायर्ड आईएएस मिश्रा जी रहते हैं। सुगर, हार्ट और ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। उनकी पत्नी भी बीमार हैं। अर्थिराइटिस के कारण उनका दो कदम हिलना तक मुश्किल है। एक बेटा है जो जर्मनी में इंजीनियर है। बेटी चेन्नई में रहती है। मिश्रा जी अरबपति आदमी हैं। दिल्ली और गुड़गांव में भी काफी संपति है। रईसी इतनी है कि घर में खाना बनाने, पोछा लगाने और कपड़ा साफ करने के लिए नौकर दंपति को रखे थे।

लेकिन कोरोना महामारी के संकट में दोनों गांव चले गए। बेटा तो ऐसे भी शादी के बाद दो साल से घर नहीं आया। हां, रोज फोन कर पुत्र धर्म जरूर निभा लेता है। वहीं बंदी के कारण वे ना तो बेटी के पास जा सकते हैं। ना ही बेटी उनके यहां आ सकती है। ऐसे में मिश्रा जी को ही घर में पोछा लगाने, कपड़े साफ करने, खाना बनाने, बाहर से दवा, किराना समान या सब्जी लाने का काम करना पड़ रहा है। बेचारे ऑफिसर बनने के बाद पूरी तरह नौकरों पर आश्रित हो गए थे। कभी ये काम खुद से नहीं किए। ड्यूटी के दिनों में ऑफिस के चपरासी से घरेलू काम कराते थे।

अभी तो उनकी स्थिति ये हो गई है कि अक्सर भावुक होकर रोने लगते हैं। बुरी तरह डिप्रेस्ड ही चले हैं। इतना कि अकेलेपन के एहसास उन्हें जबर्दस्त सताने लगा है। पड़ोसी होने के बावजूद भी पहले मेरी नाती-नातिनी को वे देखना नहीं चाहते थे। ना ही हाय-हैलो करते थे। उनकी प्राइवेसी और योग-ध्यान में खलल पड़ती थी। अब वहीं लोग उनका हमदर्द बने हुए है। ग्रामीण संस्कार होने के कारण मेरी बेटी उनके कमरे में जाकर खाना बना देती है। बेटा या नाती उनके लिए बाहर से जरूरी समान खरीदकर ला देते हैं। मिश्रा जी ने सपने में नहीं सोचा था कि उन्हें जिंदगी की अंतिम बेला में यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब जाकर समझ आई है कि हर बार दौलत काम नहीं आता। बुरे समय में पड़ोसियों से आत्मीय जुड़ाव ही उम्मीद की किरण बनकर आता है।

कहते हुए काका भी पूरे रौ में आ गए थे। एक लंबी जम्हाई लिए। और बोले कि जिस सुविधा, शौक और उत्तम जीवन शैली के लिए आदमी रात-दिन धन के पीछे भागे रहता है। अकूत पैसे अर्जित करता है। मुफसिल से लेकर मेट्रो सिटीज तक में आशियाना बनाता है। भगवान न करे कि वैसे लोगों को मिश्रा जी वाली हालत से गुजरना पड़े। सीमित संसाधन होने के बावजूद गांव तो फिर भी अच्छा है। कोरोना को लेकर मीडिया की पहुंच ने बहुत हद तक सबको जागरूक बनाया है। इतना जरूर है कि लोग सोशल के बदले फिजिकल डिस्टेंस का पालन कर रहे हैं। मास्क नहीं गमछे से ही सही, नाक बांधकर घूमते हैं। और छह फिट की दूरी से भी बतियाते हुए आपस के भावनात्मक लगाव को जिंदा रखे हैं। दुआरे, खेत-खलिहान का चक्कर लगाते हुए समय आसानी से कट जाता है। यहां गरीब से गरीब आदमी कम से कम भूख से तो नहीं मर सकता। ना ही अकेलेपन के अवसाद से जूझते हुए किसी के मन में आत्महत्या का ख्याल आता है।

©️®️श्रीकांत सौरभ

07 April, 2020

भारत के विश्व गुरु बनने की राह में रोड़े और उपाय

कुछ दिन पहले बिहार के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) गुप्तेश्वर पांडे लंदन गए थे। वहीं से उन्होंने फेसबुक पर लाइव होकर कहा था, हमारा देश पूरी दुनिया में अव्वल है। बस अनुशासन व राष्ट्रीयता की भावना की कमी के चलते हम विकसित मुल्कों से पिछड़ जाते हैं। हालांकि उनके इस ब्यान को लेकर कई तरह के सकारात्मक/नकारात्मक कयास लगाए गए। लेकिन इसी बहाने जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी में बंटे हमारे समाज की बेहतरी के लिए कुछ मुद्दे भी उछले। जिन पर गौर फरमाना निहायत ही जरूरी है।


खत्म हो इंडिया और भारत के बीच की दीवार

आजादी के दशकों बाद भी हम आज उस मुहाने पर खड़े हैं। जहां एक रास्ता 'इंडिया', तो दूसरा 'भारत' की ओर जाता है। इंडिया में मॉल, मल्टीप्लेक्स, गगनचुम्बी अपार्टमेंट के टू या थ्री बीएचके का फ्लैट, कैब, कॉरपोरेट कल्चर, हिंगलिश जुबान, मल्टीस्पेशियल्टी हॉस्पिटल जैसी तमाम चीजें हैं। जहां देश के 20 प्रतिशत रहनिहारों में उपभोक्तवादी संस्कृति रच बस गई है। इसी संस्कृति में झुग्गी-झोपड़ियों में न्यूनतम सुविधाओं पर गुजर करने वाली लाखों की आबादी भी रेंगती है। दूसरी तरफ 70 प्रतिशत की आबादी वाला भारत है। इसमें गांव से लेकर कस्बे, बाजार तक हैं। इन्हें भी बाजारीकरण की हवा लग चुकी है। पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जीवनशैली की तलाश में पलायन से गांव उजड़ तो शहर बस रहे हैं। गांवों में बिजली, गैस सुलभ तरीके से पहुंची है। और बनने की साथ ही टूट चुकी पक्की सड़कें विकास की रोशनी छूने की गवाही देती हैं। युवाओं के हाथों में 4G इंटरनेट वाला एंड्रॉयड हैं। बस नहीं है तो स्तरीय शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा।

वर्ग विभेद और हीनता बढ़ा रहा कान्वेंट कल्चर

ग्रामीणों में यह धारणा गहराई से जड़ जमा चुकी है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। बच्चों को निजी कान्वेंट में पढ़ाने का ट्रेंड चल निकला है। गली-गली में कुकुरमुते की तरह अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं। यहां ज्ञान नहीं मिलता। तोता रटंत सूचना भर मिलती है। और हर कोई अपनी औकात के हिसाब से बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। 200 रुपए से कुछ हजार तक की फीस है इनकी। जिनकी स्थिति थोड़ी अच्छी है। वे जिला मुख्यालयों, राजधानी या दूसरे प्रदेशों में बच्चे का नामांकन करा रहे हैं। इन स्कूलों में बच्चों को स्मार्ट बनाया जाता है। लेकिन ऐसे बच्चों की संख्या महज 30 प्रतिशत ही होगी। बीमारू राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश,राजस्थान, उत्तर प्रदेश) की स्थिति बेहद बुरी है। यहां के 30 बच्चे प्राथमिक शिक्षा से अभी भी वंचित हैं। बचे हुए में 70 प्रतिशत बच्चों का भविष्य अभी भी सरकारी स्कूलों पर है टिका है। जिनके लिए रैट का मतलब 'मूस', टेबल का मतलब 'पहाड़ा' से है। उल्लेखनीय है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे अधिकांश (लगभग 53 से 63 प्रतिशत) बच्चों की पढ़ाई आठवीं से लेकर दसवीं तक आते-आते दम तोड़ देती है। और कुछ आगे जाकर गेस का रटा मारकर उच्च शिक्षा प्राप्त भी करते हैं। लेकिन इनका पूरी तरह पर व्यक्तित्व विकास नहीं हो पाता। जब कॉलेजों में टीचर नहीं होंगे। लैब के अभाव में व्यवहारिक जानकारी नहीं दी जाएगी। तब तो रटा मारना ही होगा परीक्षा पास करने के लिए।

जॉब में ज्ञानी नहीं स्मार्ट बंदे की जरूरत

किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने का पैमाना एकेडमिक डिग्री होती है। आज की चयन प्रक्रिया जिस तरह की है। इसी से सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि दों अलग-अलग स्कूली माध्यम से शिक्षा प्राप्त किए बच्चों का प्रदर्शन स्तर किस तरह का होगा। ऐसी बात नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। लेकिन जिस कदर सरकारी नौकरियों में कटौती हो रही है। और कॉरपोरेट सेक्टर में आईटी, मैनेजमेंट, फार्मेसी, इंजीनियरिंग, मेडिकल की डिग्री वाले युवाओं के जॉब के मौके बढ़े हैं। निजी कान्वेंट से निकलकर जो बच्चे महंगे कोचिंग संस्थानों से तैयारी करते हैं। वे ही अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाते हैं। उन बच्चों का 'स्मार्टनेस' सरकारी स्कूल से पढ़ाई किए बच्चों के 'ज्ञान' पर भारी पड़ता है। अधिकांश ग्रामीण बच्चे अंग्रेजी की जानकारी, कमजोर कम्युनिकेशन स्किल व आत्मविश्वास के अभाव में उभरी हीनता के चलते पिछड़ जाते हैं। हालांकि इन्हीं में से कुछ बच्चे कठिन संघर्ष से अपनी कमजोरी को खूबी में तब्दील कर काफी तरक्की भी हासिल किए हैं।

मुनाफा कमाने की होड़ में विकसित देश का सपना अधूरा

हम सभी बचपन से सुनते, पढ़ते आए हैं। भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था। विदेश आक्रमणकारियों की लूट और सैकड़ों वर्षों के शासन ने हमें खोखला कर दिया। नहीं तो हम आज विश्व गुरु होते। ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हमारे प्रति उनकी सोच बन गई। यह ओझा, गुनियों, सपेरों, राजाओं का देश है। यदि इतिहास पर गौर फरमाए तो शुरू से ही यहां सत्ता हथियाने की लड़ाई चलती रही है। कई टुकड़े में बंटी रियासतों पर जब भी विदेशी शासकों का हमला हुआ। देशी शासक अपनी सुविधा के लिहाज से रियासत बचाने के चक्कर में अलग-अलग मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। सत्ता बचाने के चक्कर में गद्दारी के कई किस्से हैं। इसी सियासती लालच ने यूनानी, शकों, हूणों, खिलजी, तुर्कों मुगलों से लेकर ब्रिटिश हुकूमत को पनपने का मौका दिया। और आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ की यह परंपरा कायम है। जहां सत्ता और पूंजीपतियों का फेविकॉल वाला गठजोड़ बन गया है। जिसमें किसी भी तरह कारोबार से मुनाफा कमाना पहली, और आम जनता के रहन-सहन का स्तर सुधाकर विकसित देश बनाना दूसरी शर्त है।

पूंजीवादी मॉडल से बढ़ रही अमीरी गरीबी की खाई

हाल के वर्षों में जिस कदर पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया है। इस कुछ सकारात्मक तो ज्यादातर नकारात्मक पहलू उभरकर सामने आ रहे हैं। इस व्यवस्था में व्यवसायी, नौकरीपेशा वाले व मजदूर तीन वर्ग हैं। इस मॉडल में व्यवसायियों की बात छोड़ दें। तो 70 प्रतिशत जनता नौकरी कर या खेती-मजदूरी कर कमाती है, अपनी योग्यता व संसाधन के आधार पर। फिर लोग मेहनत की गाढ़ी कमाई से अलग-अलग माध्यमों से टैक्स चुकाते हैं। भोजन, बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा पर खर्च करते हैं। इसी वजह से अमीरी व गरीबी की खाई बेतहाशा बढ़ रही है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को चाहिए रोबोट

सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा चौपट है ही, अब सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों पर भी खतरा मंडरा रहा है। इसमें बढ़ती फीस और कैम्पस की राजनीति अहम मुद्दा है। इस कारण पढ़ाई बाधित हो रही है। जरा सोचिए जब स्तरीय कॉलेज ही नहीं रहेंगे तो गरीब मेधावी बच्चों को उच्च शिक्षा कहां से मिलेगी। रिसर्च कहां से होंगे। क्योंकि निजी शिक्षण संस्थान के तौर पर चाहे प्राथमिक स्कूल हो या कॉलेज। यहां बच्चों को पैसे की बदौलत डिग्रियां तो मिलती हैं। लेकिन ज्ञान नहीं मिलता। ना ही तर्क करने या सोचने की क्षमता में वृद्धि होती है। बच्चों में गम्भीर, स्तरीय किताब पढ़ने की प्रवृति खत्म हो रही है। क्या गांव, क्या शहर। युवा पीढ़ी व्हाट्सएप्प, फेसबुक यूनिवर्सिटी से मिली सूचना को ही ज्ञान मान रही है। जबकि ज्ञान तो किताबों से ही मिलता है, जो सही या फेक सूचना में अंतर करना सिखाता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चयन का मापदंड सरकारी नौकरियों से अलग होता है। ध्यान दीजिए, कॉरपोरेट सेक्टर को अपना प्रोडक्ट बेंचने के लिए रोबोट (गुलाम) चाहिए, मौलिक और तर्कशील सोच वाली प्रतिभा नहीं। और निजी शिक्षण संस्थान कई तरह की प्रोफेशनल डिग्रियां देकर ऐसे 'रोबोट' बखूबी तैयार कर रहे हैं। जिन्हें करोपोरेट सेक्टर 25 हजार से कुछ लाख रुपए तक के तनख्वाह देकर, उनकी काबिलियत से करोड़ों में मुनाफा कमाएं।

जनसंख्या नियंत्रण, समान शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था

इस वक्त देश को सबसे बड़ी जरूरत है, जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की। बिना आबादी पर लगाम लगाए कोई भी सरोकारी एजेंडा सफल नहीं होगा। इसके साथ ही शिक्षा और चिकित्सा सुविधा सभी के लिए एक समान करनी होगी। इनके निजीकरण पर रोक लगनी चाहिए। सरकार भले ही तमाम तरह का टैक्स लें, वो तो लेती ही है। लेकिन लोगों को मेहनत की गाढ़ी कमाई यूं ही नहीं गंवानी पड़े। इसके लिए सरकार को शिक्षण संस्थान और अस्पताल को अपने नियंत्रण में रखना होगा। युवा पीढ़ी में किसी तरह की हीनता नहीं पनपे, वर्ग विभेद नहीं हो। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी। वो चाहे किसी राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, व्यवसायी का लड़का हो या किसान-मजदूर का। सभी को सरकारी स्कूलों या कॉलेजों में एक छत के नीचे समान शिक्षा मिले। भले ही उच्च कक्षा में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा में दी जाए। वहीं बीमार लोगों का सरकारी अस्पतालों में एक समान इलाज भी हों। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इस दिशा में बहुत काम किया है। भव्य इमारत में खुले अत्याधुनिक संसाधनों वाले सरकारी स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक इसका उदाहरण है। लेकिन इस मॉडल को पूरे देश में अपनाने की जरूरत है। और हां, सेना की तरह शिक्षा और चिकित्सा की नौकरी में भी बहाली का आधार योग्यता हो, आरक्षण नहीं।

(*यह आलेख लेखक श्रीकांत सौरभ का निजी विचार है। इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं।)

पेट रुपया, डॉलर, यूरो से नहीं, अनाज से ही भरता है

पत्नी - 'ए जी सुन$ तानी कि ना?'

'कह$ ना, का कहत बाड़ू?' पत्नी की आवाज सुन पति ने रिमोट से टीवी का वॉल्यूम कम करते हुए कहा।

पत्नी - 'चइत बीतत बा। एक-दू दिन में बइसाख चढ़ जाई। मने सउसे कटनी बाकिए बा।'

पति - 'त ई लॉक डाउन में का कइल जाव? कोरोना बेमारी जे ना करावे। खेतन में गहु पाकके झुरा गइल बा। पछुआ हवा प झनझन बाजत बा। जजात के झरल देखिके करेजा फाटे लाग$ता।

पत्नी - 'का जाने ए साल भगवान के का मंजूर बा। ओने केतना हाली आन्ही-पानी, बुनौरी आके तबाही कइलस। अब जवन बाचलो बा ऊ पाता ना घरे आई कि ना।'

पति - 'उहे नु। जवन चंवरा में रहे ओकरा के त कटवा लिहनी। मने सड़किया के साइड वाला खेतवा में बनिहार जाए में डेरात बाड़े स। काल्हे त मटरू चाचा के खेत में कटनी के बाद दउरी होत रहे। तब ले पुलिस आके डंडा चला देलन स। सुने में आइले थरेसर आला से रुपयो अइठले स।'

पत्नी - 'सरकार के कहनाम बा गरीबन के तीन महीना ले राशन दिहल जाई। मने किसान जदि खेती कइल छोड़ देवे, ओकरा बाद का होई?'

पति - 'होई का, फसल समे प कटाई ना त। अनाज कइसे घरे आई। उहे फसल बेंचके रबी के खेती होला। एक बेर जवन सिस्टम बिगड़ी तवन बिगड़ते चली जाई। हमनिए के अनाजवा से गांव-नगर सभे जियता। अदमी रूपया खाके जियता नानु रह सकेला। पेट त अनाज के दाने से भरेला।'


पति-पत्नी के इन चंद संवाद से ही बिहार-यूपी के ग्रामीण इलाके की पूरी तस्वीर उजागर हो जाती है। किसानों के लिए खेतों में खड़ी फसल का मूल्य क्या होता है? इसे कोई कृषक परिवार का आदमी ही अच्छी तरह से समझ सकता है। आम तौर पर उत्तर भारत मे अप्रैल का महीना कटाई का होता है। खेतों में उपजी गेहूं, दलहन फसल की धुंआधार कटाई होती है। कटाई के बाद दउरी की जाती है। खेतों की जुताई होती है। धान के बिचड़े गिराए जाते हैं।

लेकिन इस बार परिस्थिति कुछ अलग है। एक तो फसल के तैयार होने से पहले से ही बेमौसम बरसात ने अधिकांश खेतों को चौपट कर दिया। उस पर कोरोना महामारी के कारण लॉक डाउन में सबका हाल बेहाल है। किसानों का दर्द साधारण तरीके से समझा जाए। लगभग सभी किसान खाने भर अनाज घर में रखकर बचा सौदा बनिया के हाथों बेंच देते हैं। रबी फसल की बिक्री से ही खरीफ की बुआई का खर्च निकलता है। पहले से ली गई खाद-बीज की उधारी, महाजन या बैंक के केसीसी का ब्याज भी सधाने होते है।

किसी कारण से एक बार यदि यह चक्र टूटता है तो इसकी भरपाई शायद ही कोई कर पाए। और इसका दुष्परिणाम भी बेहद भयावह होगा। फसल क्षति अनुदान या फसल बीमा की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। उस पर से महंगाई ने ऐसे ही सबकी कमर तोड़ रखी है। प्रभावितों में सब्जी उगाने वाले किसान भी हैं। यह नकदी व्यवसाय है। हाल के दिनों में यह सबसे मुनाफेदार साबित हुआ है। जाने कितने किसानों ने सब्जी की खेती से अपनी तकदीर बदली है। घर बनवाने, बेटे-बेटियों की शादी करने या जमीन लिखाने का काम तक किए हैं। फिर भी मान लें कि बिना सब्जी खाए आदमी कुछ दिन रह भी सकता है। लेकिन बिना अनाज के सेवन के कोई कितना दिन रह पाएगा।

जरा कल्पना कीजिए। गांव-बाजार के किराना दुकानों से लेकर शहर के मॉल तक में जो चावल या आटे के पैकेट बिकते हैं। जब किसी भी कीमत पर उपलब्ध नहीं होंगे। तब लोगों की क्या स्थिति होगी? ऐसे भी सरकारी उदासीनता और बीज-उर्वरक की महंगाई से ग्रामीणों का खेती से मोह भंग हो रहा है। नई पीढ़ी के लिए तो खेती से नाता, बस फसलों के बीच खड़े होने। और सेल्फी या फोटो खींचकर सोशल साइट्स पर पोस्ट करने भर से है। इसके बावजूद किसानों के पास 'मरता क्या न करता' वाली स्थिति है। वे नकदी फसल जैसे गन्ना, सब्जी, मक्के, नकदी, लहसुन की खेती पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। और धान, गेहूं की खेती बस जरूरत भर हो रही है। आप ही बताइए यदि किसान खुद की जरूरत भर ही खाद्द फसलों को उपजाएं। किसी भी कीमत पर इनकी बिक्री नहीं करें तो खाद्दान्न कहां से आएगा?

हालांकि मैं ये सब लिखकर किसी को डरा नहीं रहा। हो सकता है कुछ लोगों को ऐसा होना मुमकिन नहीं लगे। लेकिन आंखों देखी सच्चाई को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। चलते-चलते फिर वहीं बात कहना चाहूंगा। आप जरूर मुलाहिजा फरमाइएगा। सूर्य की तपिश में पसीने बहाकर चमड़ी झुलसाने वाले इन्हीं अन्नदाताओं की बदौलत बाजार से लेकर महानगरों तक की चकाचौध कायम है। यह भी कि हमारा पेट रुपया, डॉलर, यूरो से नहीं, अनाज से ही भरता है।

©️®️श्रीकांत सौरभ