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24 June, 2020

साहित्य में प्रेमचंद्र जैसा हो जाना सबके वश का नहीं

मूसलाधार बरसात में गांव की फुस वाली मड़ई की ओरियानी चु रही हो। उसी मड़ई में आप खटिया पर लेटकर 'गबन' पढ़ रहे हों! तभी पुरवैया हवा के झोंके से उड़कर आई बारिश की चंद बूंदें देह को छूती हैं! उस समय यह महसूस करना कठिन हो जाता है कि प्रेमचंद्र की लेखनी में ज़्यादा रोमांच है या बारिश की बूंदों में। शायद कलम की जादूगरी इसे ही कहा जाता है।

पिछले कुछ दिनों से हंस के वर्तमान संपादक का वो ब्यान काफ़ी चर्चा में है। जिसमें उन्होंने कथाकार प्रेमचंद्र की दो-तीन रचनाओं को छोड़कर अन्य को कूड़ा-करकट बताया है। इन संपादक महोदय का नाम संजय सहाय है। कुछ साहित्यकारों व लेखकों को छोड़कर शायद ही किसी ने इनका नाम पहले सुना हो। लेकिन विवादस्पद ब्यान के बाद वे एकाएक (कु) चर्चित हो गए हैं। सोशल साइट्स पर इन्हें लोगों ने घेरना शुरू कर दिया है।

अफ़सोस ये है कि यहां भी गुटबाज़ी होने लगी है। जिसके कारण कुछ लिक्खाड़ उनके समर्थन भी में खड़े होकर मोर्चा खोल लिए हैं। इस डिजिटल युग में फेसबुक, व्हाट्सएप्प, यूट्यूब, टिकटॉक, वेबसीरीज के मायाजाल में फंसी, तीसरी या चौथी पीढ़ी भले ही लहालोट हों। लेकिन 90 के दशक में होश संभाले मेरे जैसे करोड़ों ग्रामीण व कस्बाई युवकों ने प्रेमचंद्र को ही पढ़कर साहित्य का 'स' जाना। तब वे लेखनी का एक बड़ा ब्रांड हुआ करते थे, वैसे तो हम आज भी मानते हैं।

उनकी लेखनी का सच में कोई जोड़ा लगाने वाला नहीं। मानवीय भावनाओं पर वे जितनी पकड़ रखते थे। वो बिरले ही किसी लेखक को नसीब होती होगी। तभी तो उनके रचित पात्रों के संवाद बिल्कुल जीवंत हो उठते थे। कहना चाहूंगा कि मैंने हाई स्कूल में पढ़ाई के दौरान ही उनकी सभी कहानी संग्रह पढ़ डाली थी। इसमें कफ़न, पूस की रात, ईदगाह, पंच परमेश्वर तो भुलाए नहीं भूलतीं। साथ ही गोदान, गबन, कर्मभूमि, निर्मला, सेवासदन जैसे कालजयी उपन्यास को तो पढ़कर चाट डाला था।

इन उपन्यासों या कहानियों के गोबर, होरी, झुनिया, पंडित मातादीन, निर्मला, मिस मालती, हल्कू, हामिद, घीसू जैसे दर्जनों पात्र अभी भी स्मृति में अमर हैं। अंग्रेजी हुकूमत की सच्चाई को उजागर करते हुए, लेखन का जबर्दस्त करिश्माई जाल रचते थे साहब! वे एक साथ कई बिंबों को उकेर देते थे। चाहें वो गांव के दलितों, मजदूर-किसानों की दुर्दशा हों, जमींदारों का शोषण हों, बनियों की मुनाफाखोरी हों, शहरी जीवन के रंगीनियां या स्याह पक्ष हों।

ज़नाब, स्त्री चरित्र चित्रण के मामले यानी नारी के उदार और कठोर स्वभाव को बखूबी दर्शाने की कला में भी माहिर थे। ये प्रेमचंद्र ही थे, जो अपनी रचना में कभी जमींदार को अत्याचारी तो कभी उदार, महिला को किसी जगह पीड़ित, शोषित लाचार तो कहीं सशक्त, आधुनिक बनाकर प्रस्तुत कर देते थे। इतनी लेखकीय विविधताएं और कहां पढ़ने को मिलेगी? लेकिन उन्हें क्या पता था कि जिस 'हंस' पत्रिका की शुरआत वे कर रहे हैं। भविष्य में उसी पत्रिका में कोई मनबढ़ उनकी रचना को इतनी ओछी उपाधि देगा।

इन दिनों भले ही शहरी या महानगरीय चकाचौंध से आकर्षित युवा पीढ़ी में अंग्रेजी या हिंगलिश लेखकों की बाढ़ आ गई है। जो देश की महज़ तीस प्रतिशत खाती-पीती, अघाई आबादी को ध्यान में रखकर लिखते हैं। उनकी अंग्रेजी की कचरा किताबें भी बेस्ट सेलर बन जाती हों। इनमें गिने-चुने लेखक करोड़ों रुपए की रॉयलिटी भी कमा रहे हैं। लेकिन लिखकर रख लीजिए, फ़ास्ट फ़ूड की तरह इनकी भी कृति एक दिन कचरे के डिब्बे में फेंकी जाएंगी।

और किसी को भी दूसरा प्रेमचंद्र, शरतचन्द्र, रामवृक्ष बेनीपुरी, रामधारी सिंह दिनकर, गोपाल सिंह नेपाली और फणीश्वरनाथ रेणु आदि बनने के लिए, क्रमशः लमही (बनारस), देवनन्दपुर (प. बंगाल), बेनीपुर (मुज्जफरपुर), सिमरिया (बेगूसराय), रामनगर (बेतिया) और औराही हिंगना (फारबिसगंज) जैसी जगहों की खालिस मिट्टी में जन्म लेना होगा! गंडक, सिकरहना, बागमती, सरयू, गंगा  जैसी तमाम नदियों के पानी में डुबकी लगानी होगी!

गौर फ़रमाइए, यहां की उर्वरा मिट्टी में लोटाकर पले-बढ़े लोग कला और साहित्य संगीत जगत का 'अनमोल नगीना' बनकर निकलते रहे हैं, निकलते रहेंगे।

©श्रीकांत सौरभ




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