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26 February, 2014

इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है

मुफ्फसिल क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद दुरुह काम है. और यहां तकरीबन 90 प्रतिशत ग्रामीण पत्रकारों को दस टके पर खटना पड़ता है. वह भी सुबह से शाम तक. जबकि यही एक पेशा है जिसमें महज पैसे कमाने के लिए कोई नहीं आता, यदि अपवाद के तौर पर चंद दल्लमचियों को छोड़ दें तो. अभी भी अखबारों के जिला कार्यालय में कुछ ऐसे खबरची हैं, जिनके लिए पत्रकारिता मिशन व प्रोफेशन के बीच 'कुछ' है. इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है. जिससे समाज में इस बिरादरी की थोड़ी बहुत पूछ व विश्वसनीयता है.

हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया के नाम पर दल्लागिरी करने वाले कतिपय भांडों ने सौ- दो सौ रुपए के लिए जिस तरह से अपनी जमीर का सौदा करना शुरु कर दिया है. फिलहाल आम जनता सभी को एक ही नजर से देखने लगी है. दीगर की बात ये है कि जिस कथित सम्मान के लिए पत्रकार मरता है. यदि वह भी नहीं मिलेगा तो कोई कब तक इसे झेलेगा? आने वाले दिनों में पत्रकारों की स्थिति और भी गर्त में गिरेगी, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

"...घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला"

कल एक शादी समारोह में खाना बनाने वाले कैटरर्स को आपस में बंगाली में बतियाते देख नजरें उनपर ठहर गई. स्थानीय हलुवाई टीम का एक भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इस कदर दूसरी भाषा में बातें करने को लेकर उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई. वजह यह भी रही कि वे जितनी सहजता से बांगला बोल रहे थे, भोजपुरी भी उतनी आसानी से. पूछने पर पता चला वे बेतिया के लालसरैया गांव से हैं. उनके पूर्वज कई दशक पहले बांग्लादेश से बतौर शरणार्थी (रिफ्यूजी) बिहार आए तो यही पर बस गए. जहां उनकी अच्छी खासी आबादी हैं. मैंने पूछा, 'तोहनी के आपन देश छूटला एतना दिन बीत गइल. बाकिर बांगला बोलल ना भुलाइल.'

तो एक ने कहा, बंगाली हमनी के माई-बाबू जी के भाषा ह, घर के भी. आ भोजपुरी चंपारण के. हमनी के अपना समाज में घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला. एही से अपना में बांगला में बतिआनी सन. उसका भोजपुरी में जवाब सुन मुझे बेहद सुकून मिला. महान हैं ये लोग जिनका वतन छूटे इतने वर्ष बीत गए. फिर भी इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी भाषा व संस्कृति सहेज कर रखी है. और एक हम हैं जो जरा सी शहरी हवा लगी नहीं की आपस में ही हिंदी और अंग्रेजी की टंगड़ी मारना शुरू कर देते है. साथ ही मुझे तरस आया उन कथित बुद्धिजीवियों व संगठन वालों पर जो मोतिहारी व बेतिया (चंपारण) को मैथिली भाषी क्षेत्र बता इसे अलग मिथिला राज्य में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. हां, भोजपुरी भाषा के आधार पर पूर्वांचल राज्य में इन जिलों को शामिल करने की मांग बहस का उम्दा विषय जरूर है. (अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष)

सौजन्य से, तराई भोजपुरी मंच

18 February, 2014

अब कलम नहीं चलाते ब्यूरो चीफ

एक जमाना था जब अखबारों के जिला संस्करण नहीं होकर प्रादेशिक पन्ने छपते थे. जिला कार्यालय में ब्यूरो चीफ की अच्छी खासी धाक रहती थी. अखबार के चर्चित संवाददाताओं की गरिमा निराली थी. उनकी धारदार लेखनी के कायल स्थानीय विधायक, मंत्री से लेकर एसपी व डीएम तक रहते. स्थिति यह थी कि ये हुक्मरान चिरौरी के लिए खुद कार्यालयों का साप्ताहिक या पाक्षिक दौरा लगाते थे. तब न आज की तरह इंटरनेट, कंप्यूटर, डिजिटल कैमरे व मोबाइल जैसी हाइटेक सुविधाएं थीं. ना ही रंग बिरंगे पन्ने बनते थे.

संवाददाता सूचना प्रेषित करने के लिए पूरी तरह फैक्स, तार या डाक पर निर्भर थे. और पूरे जिले में अखबार का 2 हजार प्रसारण भी काफी माना जाता. लेकिन उस वक्त श्वेत श्याम अखबार के पीले पन्ने में छपी खबर का जो रुतबा था. उसे शब्दों में व्यक्त करना मुमकिन नहीं. भ्रष्टाचार की एक खबर से सरकारी कर्मी का तबादला हो जाता. तो अवैध कारोबारी सलाखों की भीतर रहते. लेकिन वर्ष 00 के बाद जब जिले में अखबारों के मोडेम कार्यालय खुलने शुरु हुए. ब्यूरो चीफ की जगह कार्यालय प्रभारी रखे जाने लगे. क्षेत्रीय खबरों का दायरा जिले भर में ही सिमट कर रह गया. और वर्ष 14 में, अखबारों का स्तर गिरते गिरते उस दौर में पहुंच चुका है. कि भले ही जिले में अखबारों का प्रसारण हजारों में है.

लेकिन आकर्षक कलेवर में रंगीन छपाई वाले पन्नों की हालत परचे पोस्टर से ज्यादा की नहीं रह गई. लगभग सभी बैनरों के प्रबंधन का ही सख्त आदेश है कि विवादित यानी हार्ड खबरों की रिपोर्टिंग फूंक फूंक कर करनी है. भले ही खबर छूट जाए लेकिन बिना पूरा तथ्य के खबर नहीं छापनी है. स्पष्ट कहे तो फिलहाल लाइफ स्टाइल व पीआरओ शीप पत्रकारिता का चलन है. जहां कार्यालय प्रभारी की हैसियत महज प्रबंधक की है. जिसे अपने बैनर का प्रसारण बढ़ाने व उसके लिए विग्यापन जुटाने की मानसिक जद्दोजहद से ही फुर्सत नहीं. बचा समय स्टिंगरों से प्लानिंग की हुई खबरें संग्रह करवा यूनिट में भिजवाने में ही गुजर जाता है. फिर वह खबर क्या खाक लिख पाएगा?

भाषा सुधार नहीं सूचना के लिए पढ़ें अखबार

भले ही अन्य निजी संस्थानों में तमाम डिग्रियां होने के बावजूद स्किल टेस्ट लेकर ही भर्ती करने का प्रावधान है. लेकिन मीडिया में दक्षता जांच कर पत्रकार रखने की परिपाटी लगभग खत्म सी हो चुकी है. जबकि 90 के दशक के अंतिम वर्ष तक अखबारी जगत में परीक्षा लेकर रखने का चलन था. वे चाहे ग्रामीण संवाद सूत्र हों या सिटी रिपोर्टर. खासकर उनसे भाषाई शुद्धता व सामान्य जानकारी की अपेक्षा तो जरुर की जाती थी. मुझे याद है वर्ष 05 में जब मैं पटना में लेखन की एबीसी सीख रहा था.

श्रीकांत प्रत्यूष ने अपने अखबार नवबिहार के लिए बिस्कोमान भवन के नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दफ्तर हाल में संवाददाताओं की नियुक्ति के लिए टेस्ट आयोजित किया था. जिसमें मैं भी शरीक हुआ. यहीं पर मैंने जाना कि अंग्रेजी शासन में श्री कृष्ण सिंह बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री चुने गए थे. हालांकि इस टेस्ट में मेरा चयन न हो सका. लेकिन महज खानापूर्ति के लिए सतही स्तर पर ही सही, एक क्षेत्रीय अखबार की यह बहाली प्रक्रिया मुझे अच्छी लगी. अब प्रिंट में काम करने के लिए देवनागरी की समझ, 4 सी लिपिका में टाइपिंग व ज्यादा से ज्यादा हुआ क्वार्क एक्सप्रेस में पेजिनेशन की कला प्रवेश की शर्तें हैं.

जबकि नौकरी बचाने व प्रोन्नति के लिए संपादक स्तर पर तगड़ी पहुंच व सेटिंग भी निहायत अनिवार्य है. ऐसे में अखबार के लिए विग्यापन जुटाने व उससे बचे खाली पन्नों को डेडलाइन की भीतर भरने की कठिन झंझावातों के बीच व्यकारण के लिहाज से भाषाई शुद्धता की बात करना बेइमानी सरीखा है. एक यूनिटकर्मी की माने तो काम की अधिकता व समय पकड़ने की हड़बड़ी में बमुश्किल शीर्षक सुधारने का वक्त मिल पाता है. स्थिति ये है कि किसी भी हिंदी अखबार के मुख्य पृष्ठ का गंभीरता से अवलोकन कर लीजिए दर्जनों खामियां जरा निकल आएंगी. तर्क यह भी है कि आज का पाठक भाषा सुधारने के लिए नहीं सूचना पाने के लिए अखबार पढ़ता है.

मेरी वीरगंज (नेपाल) यात्रा - 1

जब भी रक्सौल आता हूं, जाने क्यों नास्टलेजिक हो जाता हूं. इस पार भारत व उस पार नेपाल का वीरगंज शहर. इस बार मां की आंखों के इलाज के लिए परवानीपुर (नेपाल) आया हूं. लकिन रक्सौल में ही एक रिश्तेदार के यहां ठहरना हुआ है. सीमा पर बसा यह अनुमंडलीय शहर दूसरों की नजर में भले ही अंतराष्ट्रीय कस्बाई बाजार से ज्यादा मायने नहीं रखता हो. लेकिन एक पत्रकार व लेखक के तौर पर मेरी भावुक आंखें यहां 'कुछ' और ही तलाशती हैं. तो जेहन में कई तरह के विचार कुलांचे मारने लगते हैं.

हालांकि मेरे गांव कनछेदवा से रक्सौल की दूरी महज 40 किमी है. सो साल में एक दो बार जरुर आना होता है. लेकिन पूरे 11 वर्ष बाद उस पार वीरगंज जाना हुआ. जाहिर सी बात है इतने समय के अंतराल में कई सारी चीजें बदली हैं. कंक्रीटों के जंगल के बीच व्यस्त सड़क पर ट्रक, आटो व घोड़ा गाड़ी की कतारें लंबी हुई हैं. तो भागमभाग के बीच जाम में फंसा पूरा शहर धूल व धुआं के गर्द गुबार में उनींदा अंघिआया मालूम होता है. लेकिन नहीं बदला है तो टांगे वालों का खांटी भोजपुरी बोलने का वह जमीनी अंदाज.

यहां के आम लोगों में भोजपुरिया ठसक के साथ एक खास तरह का आत्मीय लगाव बरबस ही मन मोह लेता है. साथ ही गजब के अपनापन का अहसास होता है. बचपन से सुनते आया हूं यह अरबपतियों का शहर है. धनकुबेरों की अनगिनत सूची में यहां का पान बेचने वाला भी करोड़पति है. शायद यहां संचालित कई तरह के गोरखधंधे से यह अफवाह फैली हुई है. मसलन चरस, गांजा, हेरोइन, जाली नोट, आर्म्स, कंप्यूटर पार्ट्स, सोना, खाद, अनाज की तस्करी से लेकर रुपये की खरीद बिक्री तक. पर इतना तो तय है कि यहां पोस्टिंग के लिए हर सरकारी कर्मी तरसता है.

चाहे वह पुलिस, कस्टम, राजदूत हो या प्रखंड के अधिकारी. सुनने में तो यह भी आता है कि यहां तैनाती के लिए उंची बोली लगती है. यहीं नहीं दो नंबर की कमाई करने वालों की भीड़ हर रविवार को वीरगंज के बीयर बार व होटलों में अय्याशी के लिए उमड़ पड़ती है. वही शाम ढले शराब, श्बाब व कवाब से लेकर जुए के लिए कैसिनो की महफिल सज जाती है. इतना होने के बावजूद भी दोनों तरफ के लोगों में गजब की सरलता, सहजता व मौलिता हैं. नेपाली व भारतीय रुपए का मिला जुला चलन. भोजपुरी, हिंदी व नेपाली किसी भाषा में बात कर लीजिए, इसको लेकर कोई दुराग्रह, पूर्वाग्रह या बनावटीपन नहीं. जारी...