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29 May, 2020

"काका हो माल खरचा कर$, सब एहिजे बेवस्था हो..!"

जब से गेनापुर जैसे पिछड़े गांव में मिनी बैंक यानी सीएसपी खुला था। सुभाष के बल्ले-बल्ले हो गए थे। मैट्रिक तक पढ़ा था। कम्प्यूटर चलाने की जानकारी भी थी। उसने सीएसपी की फ्रेंचाइज़ी ले ली। और पैसे की जमा-निकासी के साथ ही किसानों से जुड़े अन्य फ़ॉर्म भी भरने लगा। कम ही समय में भोले-भाले खेतिहर मजदूर किसानों में उसकी पैठ बन गई थी।

दीनानाथ उर्फ दीनू उसका लंगोटिया यार था। हमेशा गुटखा से मुंह को लभेरे रहता, पल्सर बाइक से चौक-चौराहे पर घूमता और ब्लॉक की नई-नई योजनाओं की टोह में रहता था। फुर्सत में सीएसपी पहुंच जाता। वह बिचौलिया का काम कर पेट्रॉल से लेकर घर का खर्च चला ही लेता। जरूरतमंदों को सूद पर पैसे देकर अच्छी कमाई भी करता था। इसीलिए दोनों में ख़ूब पटती थी, मिल-जुलकर शिकार करते। आज वह सीएसपी आया ही था कि उसे पड़ोसी चुलाई काका दिख गए।

"बोलीं महतो जी, बड़ी देर से खड़िआइल हई। पसेना से पूरा देही भींज गइल बा। एतना घामा में केने चलल बानी?" यह पूछते हुए सीएसपी संचालक सुभाष ने उन्हें एक नज़र देखा और लैपटॉप पर नजरें गड़ा दी।

बुजुर्ग चुलाई महतो ने हाथ में पकड़ी लाठी को कांख के नीचे टिकाया। आंखों का मोतियाबिंद पक जाने के कारण साफ़ नहीं दिखाई पड़ता था। इसलिए नाक पर चुकर आए ढीले चश्मे को उपर की तरफ़ सरकाते हुए बोले, "का दु मोदी जी सभके खातवा में दु हजार भेजत बाड़े। हमरा ना मिली का बबुआ?

"काहे ना मिली। आवेदन भरीं। रउआ खाता में भी आई।" इस पर महतो जी ने फिर सवाल किया, "ओकरा ला कवन-कवन कागज़ करावे के पड़ी?"

"कवनो हाथी-घोड़ा थोड़े लागी। आधार कार्ड, बैंक खाता, खेत के रसीद आ राउर अंगूठा के फिंगर प्रिंट देवे के पड़ी।" सुभाष का जवाब सुन उन्होंने ने कहा, "सब कागज़वा त बटले बा। मने जमींन के रसीदवा कइसे कटी? अब बुढ़ौती में हमरा से दउड़ भाग होई।"

इसके आगे कुछ और बातें होतीं। वहीं पर खड़े दीनू ने सुभाष की ओर देखकर हौले से आंखें मिचकाई। इशारों में ही दोनों की बातें हुई और एक कुटिल मुस्की छूट पड़ी। दीनू ने मुंह से मटमैले पीक को बाहर थूका दिया। जोर से गला खंखारते हुए कहा, "काका हो माल खरचा कर$, सब एहिजे बेवस्था होई जाई।"

"हम ठहरनी निपढ़ अदमी। एहि से नु पूछत बानी, केतना देवे के होई?" अबकी उनके सवाल पर सुभाष ने चिरपरिचित घाघ स्वर में कहा, "रेट फिक्स बा। दु सौ रुपए में कृषि विभाग के रजिस्ट्रेशन होई। आ बाकी काम ला दीनू से बतिया ली।"

उसने तपाक से कहा, "एमे रेट का पूछे के बा। सब केहु दु हजार देता। काका 15 सौ दे दिहे त काम हो जाई।" दीनू की मांग सुनते ही महतो जी ने कहा, "हमनी गरीबन के लगे एतना पइसा कहवां से आई। तनिका कम करीं।"

यह सुन उसने कहा, "एहि से पान सौ कमे मंगनी ह। एमे ऊपर ले नु खरचा लागेला। ना दिहल जाई त लाइने में रह जाएम। देखनी नु ढोड़ा भगत के, कहत रहले एके हजार में हो जाई। छव महीना से उनकर काम पेंडिंग में बा।"

"छोड़$ मरदे ढोड़ा के का बात, ढेर तेजा बनेलें। बेसी होशियारे के नु तीन जघे लागेला।" महतो जी ने कमर में ऐंठकर खोंसी गई धोती के किनारे को बाहर किया। उसमें से दो सौ रुपए के दो, सौ रुपए के दो और 10 रुपए के 10 तुड़े-मुड़े नोट निकाले।

फिर सुभाष को दो सौ रुपए दिए और खींसे निपोरते हुए बोले, "तीन हजार में पाड़ी बेंचले रहनी। मेहरारु के डायरिया भइल रहे। पानी चढ़ाई में उठ गइल। अब एतने बाचल बा, रउआ कम्पूटर में नाम चढ़ा दिही।"

आप पढ़ रहे हैं श्रीकांत सौरभ की कहानी - बिचौलिए

उसने रुपया का काउंटर में रखकर लैपटॉप से नेट कनेक्ट किया। मोज़िला ब्राउज़र में कृषि विभाग के वेबसाइट पर जाकर फ़ॉर्म खोलकर भरने लगा। कुछ देर के लिए वहां चुप्पी छा गई। सर्वर व्यस्त देख सुभाष ने बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ाया, "बेटवा कमाता त का हो जाता महतो जी? सब रुपया दाबके का करेम?"

मानो उसने ये कहकर उनकी दुखती रगों पर हाथ फेर दिया। वे शुरू हो गए, "अब उ हमार बेटा ना अपना मेहरी के मरद बन गइल बा। बियाह भइला दु साल भइल। आजु ले एको चवनी कमाके देले होई। पतोह ओइसने बिया। एह घड़ी के नवकी जनाना आव$ तारी स। आवते 'पिया सुनरा हम सुनरी अउरी सभे बनरा बनरी' जपे लागत बाड़ी स। आ एगो बात जान लीं बबुआ, एकलवत लइका जनमावल पाप के काम बा एह बेरा।"

इसी बीच फ़ॉर्म का काम पूरा हो गया। उसने प्रिंटर से एक पन्ना निकाला। उसका लेमिनेशन कर उनको देते हुए कहा, "राउर रजिस्ट्रेशन हो गइल। ई परची सम्हार के राखेम। फेरु विहने संझिया के आएम त आवेदन भरा जाई।"

इसके बाद महतो जी दीनू से मुख़ातिब होकर बोले, "हई पान सौ राख ल$ आ एक हज़ार उधारे रही, जल्दिए चुका देम।" तो उसने भाव खाते हुए तैश में कहा, "ना ना एमे उधार-बाकी ना चलीं। किसान सम्मान निधि के पइसा नु ह। एहिंगे साल में छव हजार उठइब$ का!"

"आछा त ठीक बा। करजे बुझिके अपना ओरी से एक हजार लगा द। हम दे देहम।" इस बात पर उसने कहा, "10 रुपया सैकड़ा बेयाज लागी, एक हजार पर 100 रुपया के महीना। आ जबे तोहार पइसा एहिजा खाता में आई। कुल्ही निकाल के भर देवे के होई। मंजूर होखे त बोल$?"

इस बार महतो जी ने बिना किसी हिल-हुज्जत के उसकी शर्त मान ली। बस इतना ही बोले, "आछा जइसन तोहार विचार। मने देखिह$ बाबू, काम गबड़ाए के ना चाहीं।" बाहर में धूप तेज निकल आई थी। उन्होंने लू से बचने के लिए कंधे पर रखे गमछे को पगड़ी बना सिर में लपेटा। और लाठी टेकते हुए वहां से निकल लिए।

©️श्रीकांत सौरभ (नोट - मनोरंजन के लिए लिखी गई यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों या पात्रों के नाम की, किसी भी वास्तविक जगह, जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)


28 May, 2020

गाते, बजाते या संगीत सृजन करते समय, आप दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होते हैं!

चुरा लिया है तुमने जो दिल को..! दम मारो दम मिट जाए गम फिर बोलो सुबह शाम...! नीले नीले अंबर पर चांद जब आए, ऐ मेरे हमसफ़र एक ज़रा इंतज़ार..! ओ ओ जाने जाना ढूंढे तेरा दीवाना...! आंख है भरी भरी और तुम मुस्कुराने..! सन 1980 से लेकर वर्ष 00 तक के इन गानों में एक बात ख़ास है। सभी में म्यूजिक डायरेक्टर ने गिटार का भरपूर प्रयोग किया है। आरडी वर्मन, बप्पी लहरी, मिलिंद आनन्द, नदीम श्रवण से लेकर एआर रहमान आदि तक ने।

दरअसल गिटार की धुन की मधुरता ही ऐसी होती है। इसमें भले ही ठहराव नहीं होता। फिर भी इसकी आवाज़ सीधे किसी के रूह को छूती है। वैसे भी कला और साहित्य में संगीत का स्थान सबसे ऊंचा माना गया है। पूरा सामवेद ही इसी पर आधारित है। संगीत की जानकारी किसी के भी जीवन में बहार लेकर आती है। कहा भी गया है, "जब आप गा, बजा या संगीत सृजन कर रहे होते हैं। उस समय आप दुनिया का सबसे खूबसूरत इंसान होते हैं।"

लेकिन विडंबना है कि ये हुनर किसी को भी विरासत में ही मिलता है। प्रशिक्षण से उसमें महज़ निखार लाया जाता है। हर आदमी के जीवन में एक मोड़ जरूर आता है। जब वह किसी न किसी वाद्य यंत्र की ओर आकर्षित जरूर होता है। बांसुरी, हारमोनियम, सितार, बैंजो, तबला, नाल, वायलिन, मेंडोलिन, पियानो (ऑर्गन), गिटार...! जिसके प्रति भी हो। अब इसे सिनेमा के गीतों का असर कहें या ग्लैमर। कैम्पस के दिनों में किशोरवय लड़कों में एक बड़ा भ्रम रहता है। वे गिटार बजाएंगे तो लड़कियां उनकी तरफ़ खींचीं चली आएंगी।

ऐसा होना स्वाभाविक भी है। दरअसल ये उम्र ही ख़्वाबों और ख्यालों में खोने की होती है। कल्पना में होती है एक ऐसी रूमानी जगह, जहां कोई नहीं हो। बस हरी-भरी पार्क हो, जंगल वाले पहाड़ की ढलान हो, नदी, समंदर की उफ़नाती लहरें हों। हम हो, 'वो' हो और साथ में गिटार। हम गाते जाएं, बजाते जाएं और 'वो' सुनती रहे! शायद इसी कारण से पूरी दुनिया के युवाओं में गिटार जितना क्रेज़ है, उसकी दूसरी कोई सानी नहीं।

लेकिन इतना जान लीजिए, लड़की से दोस्ती कर लेना चुटकी का खेल हो सकता है। जबकि गिटार सीखने के लिए महीनों कम पड़ जाएंगे। इसे सीखने के शुरुआती दिन भी कम कष्ट से भरे नहीं होते। रियाज़ के दरम्यान स्ट्रिंग्स (तारों) को दबाने से, बाएं हाथ की चार अंगलियां (अंगूठा को छोड़कर) उपरी भाग घिस जाता है। किसी किसी की अंगलियों में तो फटकर खून भी निकल जाता है। उनमें गड्ढे पड़ने से काले व बदसूरत दिखने लिखते हैं। और इसका दर्द तो कोई भुक्तभोगी ही बता सकता है।

लड़कियों को रिझाने वाली बात में यह भी गौर करने लायक है। दो जोड़ों में परस्पर प्यार तभी उमड़ता है। जब दोनों के ही मन में ऑक्सिटॉक्सिन और डोपामाइन हार्मोन का स्राव हो। इसका सूरत और सीरत से कोई वास्ता नहीं होता। उसी तरह आपके भीतर संगीत नहीं है, तो लाख हाथ-पांव मारते रह जाइएगा। कुछ भी पल्ले नहीं पड़ेगा, निराशा ही हाथ लगेगी। अंत में वहीं बात हो जाएगी, न तो ख़ुदा मिला न विसाले सनम! और जितने भी माहिर म्यूजिशियन हैं, उनका यहीं अनुभव है।

आप किसी एक वाद्य यंत्र में पारंगत हों तो अन्य म्यूजिकल इंस्ट्रुमेंट बजाना भी आपके लिए आसान हो जाते हैं। बता दें कि गिटार का अविष्कार 17वीं सदी में स्पेन में हुआ था। और 18वीं सदी में ब्रिटेन के युवाओं पर यह छा गया था। गिटार दो तरह के होते हैं, हवाईयन और स्पेनिश। हवाईयन में ठहराव होता है। इससे क्लासिकल सांग्स बजाए जा सकते हैं। लेकिन परेशानी ये है कि इसे पोर्टेबल रखकर बजाना पड़ता है। जबकि स्पेनिश की धुन में ठहराव नहीं होने के बावजूद मोबिलिटी है। बिना किसी सहारे के कोई भी, कहीं भी खड़े होकर कॉर्ड बजाते हुए गा सकता है।

यह लकड़ी से बना होता है जिसमें मोटे-पतले नायलॉन के छह स्ट्रिंग (तार) लगे होते हैं। इन्हें ट्यून करने के लिए छह घुंडीया भी लगी होती हैं। इसकी कीमत चार हजार से लेकर 50 हजार रुपए तक होती है। शुरुआत में सीखने के लिए चार हजार रुपए वाला एकॉस्टिक गिटार ही मुफ़ीद रहता है। इस पर अच्छे से कॉर्ड बजाया जा सकता है। सीखने के बाद ग्रुप परफॉर्मेंस या म्यूजिक कंपोज के दौरान लीड, बेस और रिदम बजाने के लिए इलेक्ट्रॉनिक गिटार लिया जा सकेता है। जहां तक सीखने का सवाल है, यदि कोई पहले से किसी एक वाद्य यंत्र को बजाना नहीं जानता। उसे बुनियादी चीजें समझने में थोड़ा समय लगता है।

हां एक बात और, ड्राइंग रूम की शोभा बढ़ानी या हाथों में लेकर फ़ोटो खिंचानी हो तो अलग बात है। लेकिन सही मायने यदि सीखने की ललक है। तो एक पुरानी कहावत है, "जल पियो छानकर, गुरू करो जानकर!" संगीत का गुरु उसी को बनाइए जिसका ध्यान आपके पॉकेट से ज़्यादा सिखाने पर हो। भले ही मीठा-मीठा नहीं बोलकर डांटने वाले हों। देश की किसी भी छोटे-बड़े शहर में ऐसे गुरुओं की संख्या भले ही कम है। लेकिन ढूंढने से तो भगवान भी..!

©️श्रीकांत सौरभ (पढ़ाई के लिए पटना प्रवास के दौरान शुरुआती दिनों में वाद्य यंत्र सीखने का प्रशिक्षण लिया। योग्य गुरु के सान्निध्य में महीनों तक तमाम प्रयास के बावजूद ख़ुद से धुनें निकालने का हुनर नहीं सीख पाया। इतना जरूर था कि संगीत की बुनियादी समझ आ गई। बचपन से तमन्ना रही इस क्षेत्र में कुछ अच्छा करने की। लेकिन नियति ने लेखक बना दिया।)


वो जेठ की तपती दुपहरी, नहर में डुबकी लगाना और गाछी का आम तोड़कर खाना!

जंगल जंगल बात चली है पता चला है, चड्डी पहन के फूल खिला है..! वर्ष 1990 का दशक, यानी एक ऐसा दौर जिसके आस-पास जन्मे लोग, कई सारे बदलाव का गवाह हैं। चीजों का मैन्युअल से डिजिटल होने का साक्षी भी हैं। तब टीवी पर काका जी कहिन, मालगुड़ी डेज, व्योमकेश बख्शी, तलाश, नीम का पेड़, रामायण, महाभारत, चित्रहार रंगोली, द सोर्ड ऑफ टीपू सुल्तान, आलिफ़ लैला, कृष्णा,चंद्रकांता जैसी धारावाहिकों से शुरू हुआ सफ़र शक्तिमान, स्वाभिमान और शांति पर आकर ठहर गया था। क्या बच्चे, क्या जवान और क्या बुजुर्ग सभी इन कार्यक्रमों के दीवाने थे।

गाने आंखों से नहीं कानों के रास्ते सीधे दिल में उतरते थे। यानी म्यूजिक देखने नहीं सुनने की चीज़ थी। मो. अजीज, पूर्णिमा, साधना सरगम, कविता कृष्णमूर्ति, नीतिन मुकेश, शब्बीर कुमार और अमित कुमार जैसे नकियाते सिंगर्स की गायिकी के दिन लद चले थे। और अलका याग्निक, कुमार शानू, उदित नारायण, सोनू निगम, अनुराधा पौडवाल इंट्री के साथ ही धमाल मचा रहे थे। मड़ई, घर या फुस का दालान हो, चौक-चौराहे की पान दुकान, बस या अन्य सवारियों की यात्रा हो। या फिर किसी के दरवाजे पर मांगलिक आयोजन।

टेप में कैसेट लगाकर फिल्मी गाने साउंड बॉक्स या एम्पलीफायर से बजते। तो सुनने वाले उसी में खो जाते। अधिकांश लड़के गाने गुनगुनाते हुए रोमांटिक हो जाते। और कुछ देर के लिए ख़ुद को सलमान, गोविंदा, शाहरुख, आमिर खान ही समझने लगते। बप्पी लहरी, लक्ष्मीकांत प्यारेलाल, आरडी वर्मन की चिरपरिचित धुनों के खात्मे के साथ ही नदीम श्रवण और जतिन ललित की सदाबहार जोड़ी ने म्यूजिक इंडस्ट्री को एक नया आयाम दिया था, धाचिक धाना बीट और मेलोडी म्यूजिक के साथ। 15-20 रुपए में मिलते थे टिप्स, टी सीरीज, वीनस, एचएमवी के रील वाले ऑडियो कैसेट्स। उनके कवर पर कलाकारों को निहारना भी अलहदा सुख देता था।

उन दिनों लोगों में पत्र-पत्रिकाओं को सिरहाने छुपाकर, चाट-चाटकर पढ़ने का जुनून था। किसी के लिए नंदन, बालहंस, चंपक, क्रिकेट सम्राट, तो किसी के लिए सरस सलिल, मायापुरी, मनोहर कहानियां, मधुर कथाएं, सरिता, माया, इंडिया टुडे और किसी लिए प्रेमचन्द्र, शरतचन्द्र, कुशवाहाकांत से लेकर वेदप्रकाश शर्मा, केशव पंडित के उपन्यासों को पढ़ना ही, अव्वल दर्जे का साहित्यिक अध्ययन था। इया, दादी या नानी की रातों की कहानियों में भी परियों या भूत-प्रेत का ही बसेरा रहता।

बेरहम वक्त के थपेड़ों से भले ही हम सब कुछ भूल जाएं। लेकिन इस काल में बिहार व उत्तरप्रदेश के गांवों में जन्म लिए, पले-बढ़े लौंडे कुछ चीजों को मरते दम तक नहीं भुला सकते। रह-रहकर याद आ ही जाती है, बचपन से लेकर किशोरपन के शैतानियों की। चारा मशीन से पुआल काटने की, गिल्ली-डंडा, गोली (कंचे), कब्बडी, लट्टू नचाने, लंगड़ी-बिच्छी खेलने की, स्कूल से भागकर लवंडा नाच या वीसीपी से रंगीन टीवी पर चल रही फ़िल्म देखने की, बदन को झुलसाती जेठ की दुपहरी में तपती सड़क पर नंगे पैर घूमने की, पापा के पॉकेट से सिक्के चुराकर अशोक जलजीरा, संगम आंवला पाचक या शिखर, मधु गुटखा खरीदकर चाटने या फांकने की, पेड़ से जामुन और लीची तोड़कर खाने की।

बगीचे में जाकर आम तोड़कर खाने के इतने किस्से हैं कि शायद एक पारी में उसे समेटा ना जा सके। रोहिणी नक्षत्र उतरते ही बीजू और जर्दा आम पकने लगते। इन दिनों गर्मियों की छुटियां भी हो जातीं। कोई सोनू पटना से, कोई विनीत दिल्ली से, कोई चुन्नू मोतिहारी से तो भोलू बेतिया से आता, छुट्टी बिताने। गांव किसी का घर, किसी के लिए ममहर तो किसी के लिए फुफहर होता। जब हमउम्र बच्चों की चंडाल चौकड़ी नहर में डुबकी लगाती। ग़ज़ब की धूम मचती। कोई सांस रोके मिनट तक पानी में छुप जाता। कोई तैरते हुए तेज धार को पछाड़ इस पार से उस पार आता-जाता। तो कोई किनारे ही कमर भर पानी में खड़े होकर तैरने की ट्रेनिंग लेता।

यहां के बाद अगला पड़ाव गाछी में होता। जहां बातों का अंतहीन सिलसिला चल पड़ता। जितने मुंह उतनी बतकही। उनमें हक़ीकत कम फ़साना ज़्यादा रहता। वीडियोगेम, वाकमैन, नागराज, चाचा चौधरी के अगले कॉमिक्स, शक्तिमान के किलवीस, गंगाधर, सुपरमैन की बातें होतीं। वहीं कभी-कभी मनोरंजन के लिए हिंदी, भोजपुरी गाने गाते हुए सभी झूमने लगते। दोल्हा-पाती, लूडो, शतरंज, व्यापार या ताश खेलकर टाइम पास किया जाता।

इसी बीच कोई लड़का सेनुरखा बीजू, जर्दा, सबुजा (चौसा) या डंका (मालदह) आम के पेड़ पर चढ़कर डाढ़ी हिलाता। फिर 'गछपक आम' भहराकर गिरने लगते। जिन्हें चूसकर-चूसकर सबका पेट भर जाता। हाथ धोने के लिए घड़े में पानी भरकर लाया जाता। कच्चे आम का 'भांजा' भी ख़ूब बनता। आम को ब्लेड से छीलकर महीने टुकड़े में काटा जाता। फिर उसे सूती कपड़े के टुकड़े में रख उसमें हरी मिर्च, आचार डालकर मुट्ठी से पकड़कर बांध लेते। और उसे पेड़ के तने पर जोर-जोर से पटकते। इसके बाद सभी बच्चे मिल-बंटकर चटखारे लेकर खाते। जिसके तेज खट्टे स्वाद को याद कर आज भी मुंह पानी से भर जाता है।

खैर, गांव अभी भी हैं। हर साल गर्मी की छुटियां भी आती हैं। लेकिन आज के बच्चों में ना तो वो उमंगें हैं। ना ही उतनी संख्या में बगीचे बचे हैं। पहले की तरह इस पीढ़ी को आज़ादी भी नहीं मिल पाती। नहर, पोखर, नदी आदि नई पीढ़ी के लिए महज़ प्राकृतिक जल स्रोत भर हैं। चारों तरफ़ हाइजीन का ढिंढ़ोरा पीटा जा रहा है। इस लिहाज़ से कान्वेंट में पढनेववाले बच्चों के लिए उसमें नहाना तो दूर की बात है। उसमें पैर भी नहीं रखना चाहेंगे।

फिटनेस के लिए आउटडोर गेम के नाम पर कहीं-कहीं क्रिकेट खेलते बच्चे जरूर दिख जाते हैं। लेकिन अब ज़्यादातर इनडोर गेम का चलन है। मोबाइल में पबजी, टिकटोक, विगो का आंनद ले रही, और फ़ास्ट फ़ूड के सेवन से शरीर को बेडौल करती पीढ़ी क्या जानें। तकनीकी किसी कदर उनसे मासूमियत, रचनात्मकता, मौलिकता, सृजनात्मकता छीनकर, उन्हें एकांकी, हिंसक, जिद्दी और गुस्सैल बना रही है। उनमें तनाव और अवसाद भर रही है। प्रकृति से कटकर कृत्रिम जीवनशैली अपनाने से, उनका शारीरिक व मानसिक स्तर पर जो नुकसान हो रहा है। उसकी भरपाई शायद ही हो पाए।

©️®️श्रीकांत सौरभ


26 May, 2020

"मम्मी उठ$ना स्टेशन आ गइल अपना घरे चलल जाव"

"ननकी ये ननकी, आंखि काहे नइखी खोलत रे बबुआ!", लालमती देवी ने बच्चे को दो-तीन बार झकझोरा। कोई सुगबुगाहट नहीं देख पति से बोली, "ये जी सुन$ तानी। ननकी के देखीं ना का भइल बा?"

उपर वाले बर्थ पर लेटे पति ने भन्नाते हुए कहा, "ओह! बुझाता तु हमरा के सुते ना देबू। जब नींद लाग$ता बोलके जगा देत बाड़ू।" और फिर से वह झपकी लेने लगा।

लॉकडाउन को लेकर प्रवासियों का पलायन चरम पर था। इसी क्रम में मजदूरों को लेकर लुधियाना से चंपारण जा रही स्पेशल ट्रेन पूरी रफ़्तार में थी। रात के 11 बजने वाले थे। एक तो जेठ का महीना होने के कारण भारी उमस थी। उस पर पंखा भी आग उगल रहा था। दूसरे, पेट में 24 घंटे से अन्न का एक भी निवाला नहीं जाने का कारण यात्रियों की नींद आंखों से कोसों दूर थी। ट्रेन के डिब्बे में किसी तरह लोग करवटें बदल कर अपनी मंजिल का इंतजार कर रहे थे।

पत्नी को दुबारा चिल्लाते देख हरिहर हड़बड़ाहट में बर्थ से नीचे उतरा। अंजाने डर से उसका कलेजा जोरों से धड़कने लगा था। उसने भी बेटे के चेहरे को दाहिने-बाएं हिलाया, सोनुआ ये सोनुआ, उठ ना रे बबुओ!'

मां ने गोद में बैठे बच्चे को ममतामयी नजरों से निहारा। उसका खाली पेट भीतर तक धंस चुका था। अर्ध बेहोशी की हालत में अबकी बच्चे ने पपनी झपकाते हुए आंखें खोली। थोड़ी देर तक शून्य में निहारता रहा, फिर मूंद ली। लालमती ने झोले से पानी की बोतल निकाली जो कि गर्म हो चली थी। बोतल का कॉक खोला और अंजुरी में थोड़ा सा पानी लेकर उसके मुंह पर छींटे मारा।

"मां दूध पिया द। बड़ी भूख लागल बा", उसने अंघियाए हुए रुंधे गले से कहा। मालूम पड़ रहा था, बच्चा सोते से अचानक जागा हो। यह सुनते ही लालमती ने तेजी से ब्लाउज के बटन खोला। और उसे सीने से लगाकर दूध पिलाने लगी। बच्चा धीरे-धीरे मुंह चुभलाने लगा।

"हे छठी माई, का जाने किसमत में का लिखल बा! केहु तरे हमनी के ठीकठाक घरे पहुंचा दिही। असो छठी घाटे चउबिसा कोसी भरेम जा।", बेटे के शरीर में हलचल देख वह मन ही मन मन्नत मांगने लगी। वैसे सुबह से लेकर रात तक वह भंगहा, मदनपुर के देवी माई, गांव के ब्रह्म बाबा, डिह बाबा, जिन बाबा जैसे कितने देवता-पितरों के नाम पर भखौती भाख चुकी थी। उसे खुद ही याद नहीं रही होगी।

जबकि सूखकर ठठरी पड़ चुकी उसकी छाती से दूध तो कब का निकलना बंद हो चुका था। दो महीना हो भी तो गया था ढंग से खाए हुए। पति का रेहड़ी पर घुमाकर सब्जी बेंचने का काम बिल्कुल ठप था। घर में राशन नाम मात्र के बचे थे। भंडारे और लंगर की कभी-कभार मिलने वाले रोटी व राजमा चने की सब्जियों के सहारे जिंदगी काटनी मुश्किल थी। रूम रेंट को लेकर मालिक ने भी अब दबाव बनाना शुरू कर दिया था।

दूसरों के देखा-देखी वे भी दो महीने से गांव लौटने का प्लान बना रहे थे। लेकिन पति, पत्नी का छह साल की बेटी और तीन साल के बेटे को लेकर लुधियाना से बेतिया आना, वह भी पैदल चलकर। परिणाम सोचकर ही हिम्मत जवाब दे देती थी। इसी बीच मालूम हुआ कि मजदूरों के लौटने के लिए स्पेशल ट्रेन चलाई जा रही है। टिकट बुक हुआ, एक सप्ताह बाद का नम्बर मिला। वे सपरिवार चल दिए।

"मां दुधवा आवते नइखे मुंह में..!" यह सुनकर दुविधाओं में घिरी लालमती का ध्यान उसकी ओर गया। उसने देखा, बोलकर बेटा फिर से अचेत हो गया था।

बगल में बैठी बेटी झुनिया ने दूध पिलाई थमाते हुए कहा, "मां गुड्डू के पिला द। हम एहि तरे सह लेम पानी पी पीके!" झुनिया गुड्डू से तीन वर्ष बड़ी थी। अब थोड़ी समझदार हो चली थी। उसे छोटे भाई की तकलीफ़ देखी नहीं जा रही थी। लेकिन कर भी क्या सकती थी बेचारी!

मां को अवचेतन मुद्रा में देख, उसने ख़ुद ही स्नेहवश भाई के मुंह में दूध पिलाई डाल दी। बोली, "ल$ गुड्डू चीनी-पानी ह। एकरे के दूध समझिके पी ल$। घरे चलल जाई नु त दादी भइस के दूध दिहे, छाली वाला।"

दरअसल लालमती दूध की उपलब्धता नहीं होने के चलते चीनी पानी का घोल तैयार करती। और दूध पिलाई में भरकर बेटे को दे देती पीने के लिए। झुनिया भी उसी से अपना काम चला लेती। लेकिन कब तक चलता यह?

आप पढ़ रहे हैं श्रीकांत सौरभ की कहानी - लॉकडाउन

ट्रेन को चले हुए आज दो दिन बीत चुके थे। और सफ़र था कि ख़त्म होने का नाम ही नहीं ले रहा था। रास्ते में कहीं-कहीं समाजसेवी युवक ब्रेड या केला आदि थमा देते थे। लेकिन यह तीन जने के लिए नाकाफ़ी था। झुन्ना तो दूध के अलावा कुछ छूता भी नहीं था।

हरिहर ने मोबाइल में समय देखा, रात के एक बजे का समय दिखा रहा। बटन दबाते ही पिक-पिक की आवाज़ के साथ उसका स्विच ऑफ हो गया। चार्ज नहीं होने से बैटरी जवाब दे गई थी। तभी लगातार हॉर्न बजाती ट्रेन की रफ़्तार धीमी होने लगी। गाड़ी एक बड़े स्टेशन पर आकर रुकी थी। उसने खिड़की से झांककर जगह का अंदाजा लगाना चाहा।

लाउड स्पीकर से बोला जा रहा था, "यात्रीगण कृप्या ध्यान दें। लुधियाना से चलकर चम्पारण को जाने वाली स्पेशल एक्सप्रेस ट्रेन बदले रूट के कारण भोपाल स्टेशन पर पहुंची है। यहां से ट्रेन अब गंतव्य के लिए प्रस्थान कर रही है। असुविधा के लिए हमें बेहद खेद है।" लेकिन उद्घोषक द्वारा बोला गया अंतिम वाक्य, "आपकी यात्रा मंगलमय हो!" जैसे यात्रियों को चिढ़ाते लग रहा था।

इधर, बेटे में कोई हरकत नहीं देख लालमती बेटी से बोली, "बबी रे, तोरे राखीं बान्हे ला गढ़ी माई से एकरा के मंगले रहनी। अब देही में नइखे ई। आई हो दादा... दूध बिनु मु गइल हमार करेजा के टुक्का..!", यह कहते हुए वह पुक्का फाड़कर रोने लगी और गश खाकर सीट पर निढ़ाल हो गई।

उसके विलाप से पूरी बोगी ग़मगीन हुए जा रही थी। लेकिन बगल से कोई भी यात्री झांकने तक नहीं आया। सामने बैठे दो यात्री भी अपने बर्थ पर दमी साधे लेटे हुए थे। आख़िर कोई ख़ैरियत पूछता भी कैसे। कोरोना का डर था ही, भूखे व गर्मी से भी सबकी स्थिति दयनीय हो चली थी।

वहीं हरा सिग्नल मिलते ही हॉर्न देकर ट्रेन हल्के धक्के के साथ चल पड़ी। रेंगते हुए कुछ ही देर में उसने तेज रफ़्तार पकड़ ली। इतनी कि सबको पीछे छोड़ते हुए बस भागे जा रही थी, छिटपुट स्टेशनों पर रुकते हुए। भले ही वह हर जगह नहीं रुकती थी। लेकिन परेशानी ये थी कि जहां रुकती वहां पांच-पांच घंटे खड़ी रह जाती। बिल्कुल आशाहीन हो गई थी।

इस तरह दो दिन और चलने के बाद पांचवें दिन सुबह में ट्रेन बेतिया पहुंची। स्टेशन पर उतरे लोगों को जांच कराने के बाद क्वारेंटाइन केंद्रों में पहुंचने की जल्दी थी। जबकि प्लेटफॉर्म पर दो-तीन तीन जगहों से लोगों की चीत्कार उठ रही थी। इस हृदयस्पर्शी दृश्य से उपस्थित रेलकर्मियों और पत्रकारों की आंखें नम हो चली थीं।

मुख्य गेट के पास ही हरहिर, लालमती और झुनिया बच्चे के शव के पास बिलख रहे थे। थोड़ी दूर आगे एक जवान मुस्लिम विधवा का शव रखा था। वह ईद मनाने घर आ रही थी, लेकिन पहले से ही बीमार थी। शायद गर्मी और भूख सहन नहीं कर पाई थी।

इससे बेख़बर उसकी दो छोटी-छोटी अबोध बेटियां, शव पर डाली गई चादरों को हवा में उड़ाकर खेल रही थीं। पिता के साये से पहले ही महरूम हो चुकी इन अभागियों का क्या पता था कि मां अब इस दुनिया में नहीं है। वह किसी किसी तरह यहां तक तो लेकर आ गई थी। लेकिन अब उनके शव को घर लेकर कौन लेकर जाएगा?

तभी छोटी बेटी शव पर लोटाते हुए कहने लगी, "मम्मी उठ$ना मम्मी, हमनी के स्टेशन आ गइल। अब घरे चलल जाव।" यह देख रेलवेकर्मी समेत अन्य यात्रियों की आंखों से आंसू की बूंदें लुढ़क पड़ी। मीडियाकर्मी भी विचलित हो गए। अगले दिन सभी अखबारों में यह ख़बर प्रमुखता से छपी थी, "प्रवासी मजदूरों को लेकर आ रही स्पेशल ट्रेन में भूख से दो मरे"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)


24 May, 2020

जबसे चढ़ल बइसखवा ये राजा चुए लागल..!

वर्ष 04 में ताड़ी के बखान पर केंद्रित एक भोजपुरी फ़िल्म का यह गाना काफ़ी हिट हुआ था। लिहाज़ा बिहार के ग्रामीण क्षेत्रों में ताड़ी का आज भी उतना ही क्रेज़ है। बैशाख व जेठ (अप्रैल से जुलाई) के महीने में ताड़ी भरपूर मात्रा में निकलने लगती है। और पश्चिमी यूपी व बिहार के देहात में मजदूरों के लिए जश्न मनाने का समय होता है। सूबे में शराबबंदी के बावजूद इसका महत्व कम नहीं हुआ है। सस्ती तो है ही आसानी से हर जगह मिल भी जाती है। 

गेंहू की फसलें कटने के बाद मजदूर खलिहर हो जाते हैं। इस मौसम में सूरज की सीधी धूप से गर्मी का प्रकोप बढ़ जाता है। ऐसे में मजदूरों को दो तीन बट्टा (ग्लास) मारकर किसी पेड़ की छाह में सुस्ताते देखा जा सकता है।

तभी तो वर्ष के नौ महीने नशा से दूर रहने वाले अधेड़ खदेरन, सुबह-सुबह जब बइसाखा चढ़ाकर घर आते हैं। तो मेहरारू को रोमांटिक मूड में कहते हैं, "झुनुआ के माई सुन$ तारु हो। असो छोटका के बियाह में तोहरा खातिर पियोर सिलिक के साड़ी किन ले आएम!" और वह मुंह बिचकाते कहती हैं, "बुझात सुबेरे सुबेरे नासा चढ़ी गइल बा कपार प। 25 बरिस भइल बिअहला, हमार हिया जुड़ा दिहनीं। अब फ़लाना बाबू बनल बानी।"

इन दिनों आदमी कौन कहे, कौवे तक नशे में झूमते हुए उड़ते हैं। खुमारी में किसी के सिर पर चोंच से ठोकर मारकर ज़ख्मी भी कर देते हैं। ताड़ी ताड़ और खजूर दोनों के पेड़ से निकलती है। ताड़ की ताड़ी ज्यादा मात्रा में निकलती है। लेकिन खजूर जितनी मीठी और गाढ़ी नहीं होती। 

यह भी कहा जाता है कि सूर्यास्त के समय लबनी टांग दी जाए। और अहले भिनसार में उतारा जाए तो पीने पर गुलाबी नशा छाता है। जिसके सेवन से महीने भर में कोई भी बॉडी-बिल्डर बन जाएगा। जबकि धूप लगने से उसमें खट्टापन और नशा दोनों ही बढ़ता है।

ताड़ी पीने वाले के पसीने से अजीब तरह की गंध आती है। इसलिए हर कोई नहीं पीता। लेकिन कुछ शौक़ीन बताते हैं कि ताड़ी के ताज़े रस में कोई गंध नहीं होती। लबनी की सफ़ाई सही तरह नहीं करने से बदबू मारने लगती है। दक्षिण भारत ताड़ी से शक्कर गुड़ भी बनता है। यह औषधीय काम में आता है। और महंगा होता है। 

अमिताभ बच्चन वाली पुरानी फ़िल्म 'सौदागर' तो पूरी तरह से इसी थीम पर आधारित है। किसी समय राजधानी पटना के चुनिंदे रेस्टोरेंटस में फ्रीज में रखकर ताड़ी बिकती थी। जो फ़िल्ट्राइज़ कर बोतल में गुलाब जल डालकर रखी रहती थी। हालांकि इन दिनों पासियों (ताड़ी छेने वाले) की कमी के चलते इसकी पर्याप्त उपलब्धता नहीं हो पाती।

ज़्यादा मुनाफ़े के लिए विक्रेता उसमें 'देशी, छोवा, चुअउआ' की मिलावट धड़ल्ले से कर रहे हैं। इसमें तेज नशा होता है। लेकिन यह किसी की भी सेहत के लिए जबर्दस्त नुकसानदायक है। बावजूद इसके मजदूरों को इससे क्या फ़र्क पड़ता है। वे तो कहते नहीं अघाते कि दिन भर इतनी मेहनत से पसीने बहाते हैं। रात में पीकर सोने से थकान दूर होती ही है। नींद भी ख़ूब आती है। यानी स्वास्थ्य की परवाह किसे है। उन्हें तो बस मादकता चाहिए होती है।

©️®️श्रीकांत सौरभ


22 May, 2020

सड़कों पर कोरोना संक्रमित खांसते, छींकते, बुखार में तपते और लुढ़कते नज़र आने लगे तो...

पानी वाला दूध! पतली दाल! मोटे चावल का भात! आलू की बेस्वाद झोलदार सब्जी! एक कमरे में जरूरत से ज़्यादा लोगों का ठूस-ठूसकर रहना! 100 से 150 लोगों के लिए महज़ दो-तीन शौचालय का होना! आधे से ज़्यादा लोगों का खुले में शौच के लिए जाना! और बेतरतीब ढंग से मास्क लगाए या गमछा से मुंह ढके मजदूरों का, साथ बैठकर ताश खेलना या गप्पे लड़ाना!

ये नज़ारा आम हो चला है बिहार के अधिकांश क्वारेंटाइन केंद्रों पर। हलांकि कई जगह अच्छी सुविधा भी दी जा रही है, इससे इंकार नहीं किया जा सकता। फिर भी सरकार लाख दावा कर ले। मीडिया का केंद्रों पर जाकर रिपोर्टिंग करना प्रतिबंधित कर दे। लेकिन इस वक़्त की यहीं कड़वी सच्चाई है। जहां एक तरफ बचाव के लिए तमाम तरह के सुविधाएं बहाल की जा रही हैं। वहीं मांग के अनुरूप आपूर्ति नहीं हो पाना कुव्यवस्था को जन्म देती है। ये सबसे बड़ी 'बाधा' भी है, कोरोना वायरस से निपटने की लड़ाई में।

हालांकि मैंने अभी तक जेल फिल्मों में ही देखा है। लेकिन इतना जरूर यक़ीन है। यहां से संतोषजनक हालत वहां की जरूर रहती होगी। जिन क्वारेंटाइन केंद्रों पर कोरोना पॉजिटिव मरीज मिल रहे हैं। उसके अहाते में कोई भी बड़ा अधिकारी नहीं जाना चाहता। जबकि सुबह-शाम खाना बनाकर खिलाने वाले रसोइया हों। मजदूरों की 24 घंटे तीमारदारी में लगे शिक्षक, अन्य कर्मी हों। या फिर 'जुगाड़' से केंद्रों का संचालन कर रहे 'साहब' के खास 'मौसम वैज्ञानिक' (बिचौलिए) हों। किसी के पास सुरक्षा किट (पीआईपी) नहीं है।

कहीं-कहीं तो एक अदद स्तरीय मास्क भी मुहैया नहीं है। फिर भी अपनी रिस्क पर, किसी को अवसर को फायदा में बदलकर पैसे कमाने की फ़िक्र है। तो किसी को नौकरी बचाने की चिंता खाए जा रही है। क्योंकि कोई भी अनहोनी हो जाए तो कार्रवाई की गाज, निचले स्तर के कर्मियों पर ही गिरती है। बड़ा सवाल यह भी उठता है कि इतनी कुव्यवस्था के बीच क्या कोरोना का चैन टूट पाएगा?

अब तो गांवों की स्थिति ये हो चली है कि क्वारेंटाइन केंद्रों पर जगह ही नहीं बची। मामूली जांच के बाद डॉक्टर उन्हें (बाहर से आए मजदूरों को) घर पर ही 14 दिनों तक क्वारेंटाइन में रहने की सलाह दे रहे हैं। जबकि ग्रामीण बाहर से आए अपने ही परिजन, पड़ोसी को रखने के लिए तैयार नहीं। कुछ परिजन स्नेह के चलते जहां अपने लाडले को रख ले रहे हैं। वहीं कड़े विरोध के कारण बहुत से मजदूरों को गांव के स्कूलों में अपनी व्यवस्था से रहना पड़ रहा है। इस सबके बीच सोशल डिस्टेंस की धज्जियां उड़ रही है।

ज़्यादातर क्वारेंटाइन केंद्र ऐसे हैं। जहां रहने-खाने को लेकर रोज़-रोज़ नए लफड़े हो रहे हैं। खाना का समय पर नहीं मिलना। जब नाश्ते के मेन्यू में ही कटौती हो। और 12 - 01 बजे खाना मिले तो असंतोष बढ़ेगा ही। वैसे भी बिहारियों को नाश्ता मिले या नहीं। दो समय भरपेट भोजन चाहिए ही होता है। आए दिन वायरल वीडियो से इसका खुलासा भी हो रहा है।

ठीक है, आप कहते हैं। मुफ़्त का खाना है। मजदूरों का शांति से धैर्य बनाकर रहना चाहिए। लेकिन 14 दिन कम नहीं होते साहब, किसी जगह पर बिताने के लिए। कहीं-कहीं तो जानवरों के बाड़े से भी बदतर व्यवस्था है। आज सबके हाथ में मोबाइल है। अखबार है। लोगों में जागरूकता बढ़ी है। वे पढ़ रहे हैं कि सरकार की ओर से केंद्रों पर कौन-कौन सी सुविधा दी जा रही है।

लेकिन हक़ीकत में जब उन्हें यह सुविधा नहीं दिखाई देती। तो हक़ की मांग करेंगे ही। ऐसे में बवाल का होना लाज़िमी है। दर्द और भी कई हैं। कुव्यवस्था के कारण बहुत सारे मजदूर रात में घर चले जाते हैं। और सुबह में आकर हाज़िरी बना लेते है। इतनी बड़ी अनियमितता में कब कौन किससे संक्रमित हो जाए कहना मुश्किल है। जरूरत के हिसाब से जांच किट की उपलब्धता कितनी है। यह बात किसी से अब छुपी नहीं रही। पहले से स्थिति सुधरी तो है, लेकिन राम भरोसे वाली बात भी झुठलाई नहीं जा सकती।

12 करोड़ की बड़ी आबादी वाले इस सूबे में 534 प्रखंड और 45 हजार के आस-पास गांव हैं। 15-20 हजार के आसपास या इससे भी ज़्यादा क्वारेंटाइन केंद्र अब तक बन चुके होंगे। या बनने की राह में होंगे। ऐसे में यहां की सघन आबादी पर न्यूनतम चिकित्सकीय सुविधा। और गरीबी के साथ कोढ़ में खाज की तरह अशिक्षा पर महामारी भारी पड़ती दिख रही है। सारी चीजें मीडिया में भी छपकर नहीं आ रही।

दिल्ली, मुम्बई, गुजरात जैसे जबर्दस्त संक्रमण वाले शहरों से ट्रेनों, ट्रकों, बसों में लदकर, पैदल, साइकिल, ऑटों या अन्य माध्यम से रोज़ाना लोगों का आना। और जांच के बाद कोरोना संक्रमितों की दिन पर दिन बढ़ती संख्या। डरावने भविष्य की ओर इशारा कर रही है।

यह कि प्रवासियों की बेतहाशा बढ़ती भीड़ के चलते क्वारेंटाइन केंद्रों के फेल होने, और आइसोलेशन केंद्रों की कमी से कहीं हालात बेकाबू हो गए, जैसा कि अंदेशा है। नतीजा सोच कर ही मन डर जाता है। फ़िल्म 'ट्रेन टू बुसान' के जॉम्बियों की तरह संक्रमित लोगों का दृश्य आंखों के सामने घूमने लगता है। यदि उसी तरह सड़को पर सरे आम खांसते, छींकते, बुखार में तपते और लुढ़कते मरीज़ नज़र आने लगे। तो क्या होगा?

भगवान करें महज़ हमारी कोरी कल्पना भर साबित हो। और यह बला जल्द से जल्द टल जाए। मैं तो बस यहीं कहूंगा, जो होना है होकर रहेगा। अब घर बैठे सरकार को कोसने से कुछ नहीं होने जाने वाला। संसाधन की उपलब्धता के आधार पर जो करना चाहिए सरकार कर रही है। लॉक डाउन का पालन करते हुए सोशल डिस्टेंसिंग बरतें। सेनेटाइजर, मास्क का सही तरह से प्रयोग करें। बाहर से आने पर, भोजन करने से पहले साबुन से केहुनी तक हाथ जरूर धोएं। घर में रहें, सुरक्षित रहें!

@श्रीकांत सौरभ

13 May, 2020

संस्मरण, भाग- 01) भगवान का शुक्र है कि फुल टाइमर पत्रकार नहीं बना

सभी के जीवन में उम्र का एक ऐसा पड़ाव भी आता है। जब वह करियर के उस मुहाने पर खड़ा होता है। जहां तय करना होता है, कौन सा स्टैंड लें? हालांकि 20 प्रतिशत युवक मैट्रिक या इंटर के बाद ही अपना लक्ष्य तय कर लेते हैं। इसमें उनकी पारिवारिक पृष्ठभूमि, सोच और सही दिशा में ली गई शिक्षा आदि चीज़ें काम आती हैं।

लेकिन तकनीकी डिग्री के बजाए कला से स्नातक करने वाले 80 प्रतिशत युवक। 'क्या करें, क्या न करें' के तर्ज पर असमंजस की मनोस्थिति से जरूर गुजरते हैं। शायद एकेडमिक पढ़ाई में औसत रहने के कारण मैं भी इन्हीं असमंजसों की जमात में शामिल था।

मोतिहारी के एमएस कॉलेज से आईएससी करने के बाद दिल्ली गया था। बीसीए करने। लेकिन वहां की आबो-हवा में मन नहीं रमा। इरादा बदल लिया। एक बात साफ कह दूं कि पापा जी के दबाव के चलते इधर-उधर की 'जुगाड़' से विज्ञान में बारहवीं कर लिया। नहीं तो साइंस से अपना छतीस का आंकड़ा रहा है। मेरे लिए गणित का मतलब जोड़, घटाव, गुणा, भाग से ज्यादा कुछ नहीं रहा। अलजबरा के समीकरण, साइन, कौस, टैन के मान और ज्यामिति की सीधी, आड़ी, तिरछी रेखाएं। जागते हुए कौन कहे, सपने में भी आकर डरा देते।

दिल्ली में आठ महीने बिताने के बाद ही पटना लौट गया। आर्ट से स्नातक कर प्रशासनिक सेवा की तैयारी के लिए। जैसा कि इस उम्र में मेरी तरह अधिकांश युवक का सपना होता है। राजकीय या संघीय कमीशन का एंट्रेंस निकालना। खैर, वर्ष 05 में आरपीएस कॉलेज, पटना से राजनीति विज्ञान से स्नातक कर रहा था। सेकेंड ईयर की परीक्षा दी थी। पारिवारिक स्थिति चरमराने के चलते जॉब की संभावना भी तलाशने लगा।

मेरा रहना बाजार समिति के पास जय महावीर कॉलोनी कॉलोनी में होता। और राजेन्द्र नगर के एक निजी संस्थान में क्लर्क और पीओ की तैयारी कर रहा था। वर्बल, नन वर्बल रिजनिग, अंग्रेजी के सिनोनिम्स, एनोनिम्स और गणित के लॉजिक में माथा खपाना पड़ता। इतना कि इनको सुलझाते हुए खुद भी उलझते जा रहा था।

यह दौर था, जब बिहार को 'जंगल राज' की उपाधि से छुटकारा मिले महज दो वर्ष ही हुए थे। केंद्रियों नौकरियों में रेलवे और बैंक का जबर्दस्त क्रेज़ था। राज्य में सरकारी नौकरी की जल्दी वैकेंसी ही नहीं निकलती थी। कुछ निकलतीं भी तो लेटलतीफी का शिकार हो जातीं। या फिर न्यायपालिका के चौखट पर न्याय की गुहार लगाने लगतीं। बिल्कुल आज ही की तरह।

हां इतना जरूर था। सचिवालयकर्मियों से लेकर जिला, अनुमंडल व प्रखंड स्तर तक कंप्यूटर ऑपरेटर, शिक्षक नियोजन, मनरेगाकर्मियों की बहाली की प्रक्रिया जारी थी। राज्य में कोरोपोरेट सेक्टर अभी पांव पसार रहे थे, जमे नहीं थे। प्राइवेट जॉब के लिए एमबीए, एमसीए कर बड़े शहरों में जाना होता।

बता दूं कि मुझमें बचपन से ही भावुकता और संवेदनशीलता कूट-कूटकर भरी है। अनुभूति स्तर गहरा होने के चलते साहित्य, अध्यात्म और संगीत में रुचि रही है। पटना प्रवास के दौरान एक संगीतज्ञ के सान्निध्य में कई तरह के वाद्य यंत्र बजाने का प्रयास किया। कड़ी मशक्कत के बाद भी इसमें सफलता नहीं मिली। लेकिन संगीत की प्रारंभिक समझ जरूर आ गई।

उसी तरह किताबें पढ़ने का बेहद शौक़ीन आदमी रहा हूं। इतना कि कोर्स की किताबें छोड़कर सब कुछ पढ़ना मंजूर रहता। मैट्रिक तक आते-आते नंदन, क्रिकेट सम्राट, बालहंस, सरस सलिल, अखंड ज्योति, कॉमिक्स, सत्य कथा, सरिता, गृह शोभा, मनोहर कहानियां, प्रेमचंद से लेकर वेदप्रकाश शर्मा के उपन्यास हों या फिर अखबार। पढ़ने का कोई मौका नहीं छोड़ा।

तीन घण्टे में पन्ना दर पन्ना उपन्यास चाट डालता था, चाहे कोई भी हो। मेरा पढ़ने का स्पीड उतना ही था। जितने स्पीड में आज एंड्राइड मोबाइल पर दाएं हाथ की रिंग फिंगर चलती है। और गूगल हिंदी इनपुट से रोमन में टाइप कर देवनागरी लिख लेता हूं।

गांव में रहते हुए भी, अपने जाने नंदन का कोई अंक मिस नहीं करने का भरपूर प्रयास किया। हां, उन दिनों पैसे देकर दूसरों से मंगाना पड़ता। और मैट्रिक के बाद जब शहरों में रहना हुआ। पत्रिकाएं ही ज़िंदगी बन गईं। किताबों का चस्का ऐसा लगा कि कुछ नहीं करने की हद तक पढ़ने से दीवानगी हो गई।

उन दिनों बस स्टैंड या रेलवे स्टेशन के व्हीलर पर कई तरह की किताबों और पत्रिकाओं की भरमार रहती। सजाकर या लटकाकर रखी गई उन पत्रिकाओं को घूर-घूरकर ललचाई नजरों से निहारने का अलग ही क्रेज था (इन जगहों पर पत्रिकाएं आज भी सजती हैं। लेकिन तब वाली फिलिंग नहीं आ पाती)। खरीदने के बहाने पत्रिकाओं को उठाकर सरसरी निगाहों से पलटने में ही मेरी कितनी ट्रेनें छूटी थीं।

मैंने क्या-क्या पढ़ा? यदि आप यह जानना चाहेंगे तो मेरा जवाब होगा। क्या नहीं पढा यह पूछिए? कुल जमे इतना ही समझ लीजिए। वर्ष 00 तक का दशक ही ऐसा रहा। जिन्हें पढ़ने का चस्का रहता था। वे कुछ भी नहीं छोड़ते थे। वो चाहे पुरस्कृत किताबें, लुगदी साहित्य, मस्त राम, दफा 376 जैसे पोर्न या इरोटिक डाइजेस्ट हों या फिर गीता, रामायण, सत्यार्थ प्रकाश, कुरान, बाइबल।

एक दिन मन में यूं ही ख्याल आया। क्यों नहीं पत्रकारिता की जाए? अखबार में एक मासिक क्षेत्रीय पत्रिका का विज्ञापन देखा। फ्रेजर रोड के एक अपार्टमेंट में कार्यालय था। रेंजर साइकिल की सवारी थी अपनी। चलाकर पहुंच गया। अंदर में एक अधेड़ सांवली सूरत वाले शख्स चश्मा लगाए बैठे मिले। उनसे सटे ही एक युवती बैठी थी।

चश्मे के उपर से आंखें जमाते हुए बोले, "कहिए क्या काम है?"

"पत्रकार बनना है।", मेरा जवाब था। यह सुन उन्होंने कहा, "इसके लिए आपको हमारे संस्थान से ट्रेनिंग लेनी होगी। 15 दिनों की। इसमें 1500 रुपए का खर्च आएगा। उसे आप जमा करा दे। ट्रेनिंग के बाद आपको आई कार्ड भी मिलेगा।"

उनकी बातें सुनते हुए ध्यान उनके चेहरे पर गया। बिल्कुल नपे-तुले शब्दों में बोलते हुए वे माहिर प्रोफेशनल लग रहे थे। रुपया का नाम सुनते ही मेरे दिमाग में घण्टी बजने लगी, 'गोलमाल है भाई सब गोलमाल है।' पता नहीं क्यों, उनकी सूरत देखकर ही सीरत का अंदाजा भी लगा लिया।

भले ही इस क्षेत्र में नया था। जहां के चाल, चरित्र और चेहरा से वाकिफ नहीं था। लेकिन मूर्ख तो नहीं ही था। अभी तक सुन रखा था कि काम के बदले पैसे मिलते हैं। यहां तो उल्टी स्थिति थी।

कुछ सोचकर मैंने कहा, "ठीक है। इस बावत जल्द मिलेंगे। अपने साथ रोलदार चार पन्ने पर लिखे एक आलेख को उनकी तरफ बढ़ाया।

और कहा, "देख लीजिए। लेखन सामग्री छपने लायक हो तो जगह दीजिएगा।" और वहां से मैं निकल लिया।

संस्मरण आगे भी जारी...

@श्रीकांत सौरभ (रोजी-रोटी के लिए टीईटी शिक्षक के तौर पर नियोजित हूं। ख़ुद को अपनी शर्तों पर ज़िंदगी गुजारने वाला। निहायत ही देहाती, गंवार, आलसी, वैचारिक आवारा क़िस्म का इंसान मानता हूं। किसी क्षेत्र की सेलिब्रिटी नहीं हूं, जिससे मेरा संस्मरण पढ़कर कोई प्रेरित हो सके।)


10 May, 2020

मदर्स डे प एगो माई के नामे बुरबक बेटा के चिट्ठी

मां,

गोड़ छूके गोड़ लाग$ तानी!!!

पाता बा आजु 'मदर्स डे' ह! सभे केहु इयाद करता अपना माई के। मने हम भुलाइल कब रहनी ह तोहरा के, जे इयाद करती। हमनी के भले बिलाला निहर छोड़िके चली गइलू। बाकिर का बताई कि कब बिसरेलु। सभे ओरी त लउकबे करेलू। आम-मारचा के आचार, सरसो-बथुआ के साग में! मकर सक्रंति के लाई-तिलुआ में! छठी घाट के गवनई-अरघ में! जिउतिया के नहान-कथा में! होली के रंग-अबीर में! दीवाली के दियरी-बाती में! चुमावन, मटकोरा, परिछावन, बियाह के भोजपुरी गीतन, सोहर, लाचारी में! लइकन के कोरा खेलावत कवनो माई के अंचरा में!

ई कुल्ही मोका प कबो-कबो रोआई भी आ जाला। मने आंखि के लोर पोछके छुपा लेवेनी। तुही नु कहत रहलू, मरद के दिल रोयेला, आंखि ना। एहि से सोचनी ह एगो चिठिए लिखी दिहीं। पूरे तीन बरिस हो जाई तोहरा गइला। 16 मई के ए दुनिया से विदा भइल रहलू, 27 बरिस ले बेमारी से लड़त-लड़त। दवाई आ बीमारी में खूबे लड़ाई भइल। एगो मुए ना देत रहे, एगो कहे संगही लेके जाएम। एह दुनु के बलजोरी में तोहार देही जरजर हो गइल रहे। बस एतने कहब मरी-मरिके जियत रहलु।

पहिले हार्ट, फेरु सुगर के बेमारी। ओकरा बाद किडनी फेल हो गइल। तबहु संतान के मोह अनघा कष्ट प भारी रहे। तोहरा अबही जाए के मन रहे कहवां। मरे के दु बरिस पहिले से पूरा देही सूज गइल रहे! यूरिन निकलल बन हो गइल! सांस ना लिहल जाए! आ फेरु कोमा में अनंतकाल ला चली गइलू! अंचरा के छाही मिटल आ ममता के मंदिर टूटी गइल! भगवान दुश्मनो के वइसन मवत ना देस! पापा जी के मरला के बाद, घर के एगो बरियार आधार स्तम्भ ढही गइल।

छोटकी बेटी के बियाह, नाती आ छोटका पोता के मुंह ना देख पवलु। हमरा से तोहरा ढेर सिकुआ-सिकायत रहे। तोहरा जिनगी के अंतिम आठ बरिस ले संगे बितवनी। अपना से जइसे बुझाइल, सेवा में तोहरा कोर कसर ना छोड़नी। बाकी जवन चतुर-चालाक बेटा दूर रहेला ओकरा में ना। जवन बुरबकवा बेटा लगे रहेला। नीमन-बेजाए जइसे होखे, सहजोग करेला। गारजियन के ओकरे में ढेर कमी लउकेला, इहो सांच बा।

आउर सब ठीक बा! मने जब तुही नइखू त खाक ठीक बा! तोहरा दया से बेटा-पतोह, पोती-पोता सभे स्वस्थ बा। गुनगुन पांच बरिस के हो गइली। असो नर्सरी में चली जइहे। पोता कुंज भी चार बरिस के भइले। एलकेजी में नाम लिखाई। गुनगुन के तोहर चेहरा इयाद बा। कहेली कि दादी मु गइली। आ कुंज से पूछल जाला त कहेले कि दादी भगवान किहां गइल बाड़ी। आछा त एतने रहे दे तानी। लॉक डाउन में सभे कोई फंसल बा। कोरोना से बाचेम त अगिला बरिस फेरु एगो चिट्ठी भेजेम।

❣️❣️❣️❣️❣️❣️❣️

तोहार बुरबक बेटा,

सिरिकांत

12 April, 2020

कृत्रिम आवरण से बाहर निकल प्रकृति को महसूस कीजिए

यदि आप एक अरसे के बाद शहर से गांव में आए हैं। लॉक डाउन में फंसे हैं। एंड्राइड पर फेसबुक, व्हाट्सएप्प, टिक टॉक, यूट्यूब के गाने, नेटफ्लिक्स या एमएक्स प्लेयर की वेब सीरीज देखकर उब चुके हैं। घर बैठे-बैठे तनाव की हद तक बोर हो रहे हैं। ऐसे में, हम यहीं सलाह देंगे कि थोड़ा आलस छोड़िए। और भरी दुपहरिया में निकल जाइए सरेह की तरफ। यकीन जानिए, बिल्कुल नया अनुभव होगा।

नीले आसमान से छनकर रौशनी बिखेरती सूर्य की किरणें, और चढ़ते वैशाख की जवान होती धूप। जमाने बाद ऐसा हुआ है कि इस महीने की तपिश बदन को झुलसाती नहीं, गुदगुदाती लगती है। कुछ पल ठहरकर प्रकृति के नायाब तोहफे का आनंद लीजिए। इनसे बातें कीजिए। मानो कह रही हों, हम तो हमेशा से आपके साथ हैं। आप ही हमको भूल गए। शर्मीली दुल्हन की तरह घूंघट काढ़े खड़ी, खेतों में पककर तैयार गेहूं की बालियों को निहारिए। यूं लगेगा धरती पर दूर-दूर तक पीली चादरें बिछा दी गई हों।

पछुआ हवा के झोंके से फसलें ऐसे झूम रही हैं, जैसे किसी गोरी का आंचल लहरा रहा हो। जरा ध्यान लगाकर जलतरंग की तरह झनझनाकर बज रहे झुर्राए दानों का कोरस सुनिए। और खेत से सटे ही आम के बगीचे की ओर बढ़ जाइए। पत्ते झड़ने के बाद ठूंठ पेड़ों की टहनियों में निकल रहे कोंपलें हों। या फिर आम के पेड़ पर टिकोले में तब्दील होते मंजर पर मंडराती मधुओं की टीम।

यहां के जर्रे-जर्रे में नयापन का संदेश मिलेगा। इनसे भीनी-भीनी निकल रही सोंधी सुगंध जैसे ही नाक के नथुनों से टकराती हैं। मदहोशी में मिजाज गजबे बउरा जाता है। नशा सा छाने लगता है कपार पर। डाल पर बैठकर चहचहा रही चिरपरिचित के साथ ही अनदेखी, अंजानी चिड़ियों की झुंड। हमें कोलाहल से दूर ले जाकर क्षणिक स्थिर प्रज्ञता का एहसास कराती है। इसी बीच दूर कहीं से आ रही विरहन कोयल की कुहू-कुहू। मन में हुक उठाते हुए अजीब सा टीस भी देती है।

वैसे तो सृष्टि में जन्म, मृत्यु, सृजन, विनाश का चक्र तो अनादि काल से चलता आ रहा है। दार्शनिक भी कहते हैं। जिसे हम मौत कहते हैं, वहीं तो जीवन है। विनाश के बाद ही सृजन होती है। लेकिन हम हैं कि इस सच्चाई से मुंह चुराकर निकल जाना चाहते हैं। भौतिक संसाधन जुटाने के फेरे में दरबदर भटक रहे हैं। क्या हमने कभी सोचा है कि जिस प्रकृति ने हमें इतने कुछ दिया। बदले में उसको हमने क्या चुकाया?

यहीं न अंधाधुंध हरे-भरे पेड़ों को काटकर कंक्रीटों का जंगल खड़ा किया। रहन-सहन का स्तर बढ़ाने के लिए, कस्बा को बाजार, बाजार को शहर, शहर को महानगर और महानगर को मेट्रो सिटी बना दिया। बदले में तालाबों को भर दिया। नदी, वतावरण सब प्रदूषित किया। ज्यादा से ज्यादा उपज की लालच में खेतों में जमकर रसायनिक खाद और कीटनाशकों का प्रयोग किया। जमीन को बंजर बनाया। कल-कारखाने, वाहनों के धुएं से हवा में जहर घोला। रक्षा के लिए परमाणु बम बनाए, लेकिन बीमारियों को लेकर शोध पर खर्च नहीं हुआ। अस्पताल नहीं बने।

हमने कमाने की होड़ में अनावश्यक पलायन कर मातृभूमि त्यागा। मातृभाषा को भुलाया। मौलिक रहने के बदले जिंदगी बनावटी बना ली। हाइजेनिक भोजन के बदले प्लास्टिक पैक वाले फूड स्टफ को आहार बनाया। शर्बत, सत्तू की जगह कोल्ड ड्रिंक, रसायनिक बेवरेज, बोतलबंद पानी का सेवन स्टेट्स सिंबल है। इसी तरह हमने अपनी अच्छाई को सीने में दफन कर आधुनिकता का झूठा नकाब चेहरे पर लगा लिया। पहचान बदल डाली। इतना ही नहीं, शहर का एकांकी जीवन जीते हुए कब हमारी जीन में स्वार्थीपन और मतलबीपन जैसे तमाम अवगुण घुल गए। पता भी नहीं चला।

चलते-चलते बस यहीं कहूंगा। यदि गलती हमने की है तो नतीजा भी हमें ही भुगतना ही पड़ेगा। प्रकृति से संदेश लेकर अभी भी नहीं चेते। तो आनेवाली पीढ़ी को और भी बुरे हालात से गुजरने होंगे। दुनिया के नजरों में भले ही कोरोना खतरनाक महामारी होगी। लेकिन अपने दिल पर हाथ रखकर, ईमानदारी से पूछिए। क्या यह हमसे ज्यादा जहरीली है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

10 April, 2020

डियर कोरोना अब वापस चली भी जाओ

डियर कोरोना

Hate you less love more!

मैं इन दिनों तुमसे थोड़ा-थोड़ा डरने लगा है। डर अपने संक्रमित होने का नहीं, अपनों के खोने का है। हमारे पास ना तो तुम्हारा इलाज है। ना ही बिना लॉक डाउन में रहे तुमसे बच सकते हैं। मुझे पता है, तुम भी हम निरीह प्राणियों को डराने की नई-नई तरकीबें सोच रही होगी। किस तरह ज्यादा ज्यादा से लोगों को संक्रमित कर मृत्यु दर बढ़ाई जाए? और जबसे तुमने गुजरात में उस 16 महीने की मासूम बच्चे की जान ली है। तुमसे नफरत सी हो गई है। इतनी कि भौतिक रूप में कहीं मिल जाती न इस बैशाख में। आम के टिकोड़े के साथ सिलबट्टे पर तुम्हारी चटनी पिसते। और उसमें निम्बू निचोड़कर खा जाते।

मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता, तुम्हारा लिंग क्या है? सजीव हो या निर्जीव? लेकिन रिसर्च में बताया जा रहा है। तुम सात रूपों वाली निर्जीव मादा हो। हैरान हूं ये जानकर। क्या निर्जीव का भी लिंग होता है? वैसे, रिसर्च का क्या? शोध करने वाले वैज्ञानिक आज कुछ और कह रहे हैं। कल कुछ और कहेंगे। इतना जरूर है कि तुम वर्ष 1815 में आए प्लेग, वर्ष 1920 के स्पेनिश फ्लू या वर्ष 1940 के हैजे की तरह खतरनाक नहीं हो। जिसकी चपेट में आकर पूरी दुनिया में करोड़ो लोग मारे गए थे। पढा हूं कि खतरे के मामले में टीबी रोग भी तुम पर भारी है। जो भी हो, इतना जान लो। तुम महामारियां मानव प्रजाति से ज्यादा विनाशकारी कभी नहीं हो सकती। हमारे पास परमाणु बम है। जिसके सामने तुम्हारा दो कौड़ी का मोल नहीं। एक बार फटा तो मिनटों में करोड़ों खल्लास। पूर्व में नागासाकी और हिरोशमा पर किया गया एक छोटे से प्रयोग का अंजाम दुनिया देख चुकी है।

खैर, तुमको अंदर की बात बता दें कि डरते-डरते तुमसे मोहब्बत भी होने लगी है। देखो ना, तुम्हारे आने से कितना कुछ बदला है। वर्षों से प्रदूषित होकर नाला बन चुकी युमना नदी काली से नीली हो चुकी है। जालंधर और चंडीगढ़ से हिमाचल के बर्फीले पहाड़ दिखने लगे हैं। पूरी दुनिया का आसमान बिल्कुल साफ लगने लगा है। रातों को टिमटिमाते तारों को देखते ही हर किसी का दिल 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार...!' गाने लगा है। दिनदहाड़े जंगलों से निकलकर जानवर सरेराह शहर की सड़कों पर चहल कदमी कर रहे हैं।

सीएम अरविंद केजरीवाल के इवन, ऑड फॉर्मूले का दिल्ली वाले जिस बेदिली से विरोध जता रहे थे। आज उससे भी बड़ा फॉर्मूला प्रकृति ने दिया है। आम दिनों में तेज रफ्तार गाड़ियों की रेलमपेल, शोरशराबे से जो सड़कें गुलजार रहती थीं। इन्हीं वीरान सड़कों पर विधवा विलाप की हद तक नितांत उदासी पसरी है। मानो ट्रैफिक सिस्टम और रेड लाइट को मुंह चिढ़ा रही हो। कोठी से लेकर बहुमंजिले भवनों के खिड़कियों से जहां पहले हवाई जहाज या गाड़ियों के तेज हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक से अहले सुबह नींद टूट जाती है। जाने कितने वर्षों से लोग घर और ऑफिस के जाल में उलझे, बदहवासी में जी रहे थे। व्यस्तता के चलते ना खाने का, ना सोने का समय तय था। पत्नी, बच्चों या बूढ़े मां-बाप से ढंग से कब बतियाए थे? यह भी याद नहीं। हर समय बस काम, काम और काम। अब जाकर एहसास हुआ है कि कोई लाख बेचैन होकर भागते रहे। ठहराव में बेहद ताकत होती है, इसे ही प्रकृति का ब्रेक लगाना कहते हैं।


कल देश के वरीय पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ला सर अपने फेसबुक वाल पर लिखे थे। गाजियाबाद के बिना लिफ्ट वाले जिस अपार्टमेंट में रहते हैं। वहां कुछ दिन पहले सीढियां चढ़ते-उतरते अक्सर रेलिंग पकड़ लेते थे। दम फूलने लगता था। 65 वर्ष की उम्र ने उन्हें ऐसा होना स्वाभाविक लगता था। लेकिन इस बार अनोखा अनुभव हुआ है। अपार्टमेंट की वहीं 40 सीढियां पांच बार बिना रेलिंग पकड़े चढ़-उतर लेते हैं। ना थकान होती है, ना सांस फूलती है। लॉक डाउन ने उनके जैसे हजारों अधेड़ों व बुजुर्गों को एहसास कराया। किसी की सांसें, महज एलर्जी, अस्थमा, हीमोग्लोबिन की कमी, बुढापा से ही नहीं, प्रदूषण से भी फूलता है।

पड़ोस की बड़की चाची के बेटा-पतोहू केरल से आए थे होली मनाने, तीन साल पर। लेकिन लॉक डाउन में यहीं फंस गए। बेटे का किराना व्यवसाय है वहां। घर भी बनवा लिए हैं। चाचा के मरने के बाद चाची अकेले ही गांव में रहती हैं। एक-दो बार गई थी बेटे के पास रहने। लेकिन पिजड़े की पंक्षी की तरह रहना नहीं भाया। ना ही वहां की भाषा और व्यस्त दिनचर्या रास आई। लौट आई घर, कभी वापस नहीं जाने के लिए। इधर बेटे ने भी मूड बना लिया है। आपदा से उबरने के बाद वहां की संपत्ति बेंचकर गांव में ही कोई रोजगार करेगा। आखिर अपनी भाषा, अपनी मिट्टी से किसे लगाव नहीं होता?

यहां भी गली-गली में पक्की सड़कें (घटिया गुणवत्ता वाली ही सही), बिजली पहुंच ही गई हैं। आरओ के पानी वाली गाड़ी तो पहले से ही आ रही थी। उससे भी स्वच्छ नल जल योजना का पानी फ्री में उपलब्ध है। एंड्रॉइड पर फोर जी नेट दनदना के चल रहा है। बाजार में चाउमीन, मोमो, एग रौल से लेकर फुचका तक बिक रहे। 20 किलोमीटर के दायरे में एक से बढ़कर एक कान्वेंट खुल गए हैं। बच्चे यहां भी स्कूलिंग कर लेंगे। मतलब साफ है जब गांव में ही काम चलने लायक संसाधन उपलब्ध है। फिर अनावश्यक रूप से उन शहरों में जाकर भीड़ क्यों बढ़ानी। जो पहले से ही बेइंतिहा प्रदूषण और आबादी की बोझ से दबे कराह रहे हैं।

सुबह में ही काका कह रहे थे, जानते हो बबुआ। कोरोना से सबसे ज्यादा डर उन राजनेताओं, अधिकारियों, व्यवसायियों, धन्नासेठों को लग रहा है। जिन्होंने काली कमाई कर अकूत संपत्ति अर्जित की है। भोग की अदम्य इच्छा उनके भीतर कुंडली मारे पड़ी है। उन्हें चिंता है कि बीमारी से कहीं मर गए तो पैसों का क्या होगा? डर नहीं है ति खेती का सीना चीरकर अनाज उपजाने वाले किसानों को। या 48 डिग्री तापमान में बदन की चमड़ी झुलसाकर मजदूरी करने वालों को। वे तो अपने साथ ही दूसरों का भोजन जुटाने के लिए रोज मर-मरकर जीते हैं। इधर, इस विपदा में भी कुछ लोगों का धंधा चमक गया है। जिधर देखो फेस वैल्यू बढ़ाने की होड़ लगी है। कोई दान या स्वैच्छनिक सेवा दिए नहीं कि सोशल साइट्स पर फोटो डालकर खुद को प्रचारित करने लगते हैं।

काका यकीन के साथ बोले कि देख लेना इस विषम काल में भी अधिकारी और जनप्रतिनिधि सरकारी फंड को लूट खाएंगे। सरकार कितना भी उपाय कर ले, बनियों की कालाबाजारी की जन्मजात आदत छूटने से रही। केंद्र सरकार सरकारी संस्थानों को चुन-चुनकर बेंच रही थी। जब कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। तो जवाब मिला था कि देश हित में यह जरूरी निर्णय है। आज संकट काल में सरकारी विमान एयर इंडिया, रेलवे, सरकारी चिकित्सक, अस्पताल, आशा, ममता, शिक्षक, सरकारी कार्यालयकर्मी ही काम आ रहे हैं। डीएम, एसपी, बीडीओ, सीओ, पुलिस, सेना के जवान जी जान लगाकर 24 घण्टे सेवारत हैं।

चलते-चलते बस इतना भर कहना चाहूंगा, तुम पर एकतरफा उमड़े प्यार का हवाला देकर। आज का इंसान दौलत, शोहरत, भौतिक संसाधनों को जुटाने की जद्दोजहद में जॉम्बी और रोबोट में तब्दील हो चुका है। महामारी के रूप में आकर तुमने हमेशा की तरह हमारी औकात बता दी। लेकिन बहुत हो गया, हमें सताना, डराना छोड़ो। अब वापस चली जाओ, हाइबरनेट मोड में। और फिर कभी ऑन या रीस्टार्ट मोड में नहीं आना। भले ही हमारे नॉस्टेलजिया में बनी रहना। और गाहे-बेगाहे हमारी ताकत का एहसास कराती रहना। इसलिए कि हम मनुष्य बड़े ही स्वार्थी, बनावटी व भुलक्कड़ किस्म के होते हैं, स्वभाव के मुताबिक।

©️®️श्रीकांत सौरभ

09 April, 2020

"यहां ना तो कोई भूख से मरता है, ना ही अकेलेपन के अवसाद में आत्महत्या का ख्याल आता है"

काका 70 वर्ष के हो चले हैं। उस जमाने के इंटर पास हैं। जब मैट्रिक पास करते ही दारोगा या मास्टर की नौकरी मिल जाती थी। लेकिन जमीन की ठाट ने नौकरी नहीं करने दिया। पूरी जिंदगी अपनी शर्तों पर गांव में ही बीता दिए। नील वाले कुर्ता व धोती, रेडियो और अखबार के गजब का शौकीन ठहरे। हां, अब टीवी पर ही इनकी ज्यादातर समय बीतता है। जी न्यूज के सुधीर चौधरी और रिपब्लिक वाले अर्णव गोस्वामी के जबरिया वाला फैन हैं। इनको देखते-सुनते उन्हें अब पक्का विश्वास हो चला है कि देश में सारे समस्या की जड़ मुस्लिम हैं। जिनको राहुल गांधी, कन्हैया, रवीश और केजरीवाल जैसे देशद्रोही शह देते हैं। इन चारों को पानी पी-पीकर गलियाते हैं। अक्सर कहते भी हैं, जब सभी चोर ही हैं। उनके बीच में अकेले मोदी जी क्या करेंगे? काका का वश चले तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में बस भाजपा की सरकार रहे। उनके विचार से विपक्ष नाम का कहीं भी अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए।

खैर, बात पर लौटते हैं। उनको बेटा नहीं है। उसी के इंतजार में तीन बेटियां हो गई। बहुत पहले ही तीनों का हाथ पीला कर दिए। दो एनसीआर में रहती हैं, एक बंगलुरू में। तीनों कॉरपोरेट सेक्टर में मुलाजिम पतियों के साथ खुश हैं। आज सांझ के बैठका में जाने क्यों, काका थोड़ा चिंतित दिखे। शायद कोरोना लॉक डाउन के चलते फ्लैट में कैद दामाद और बेटियों की परेशानी सुनकर आहत थे। हालांकि आम तौर पर वे 'कूल' ही रहते हैं। यदा कदा रामायण, रामचरितमानस और गीता की पंक्तियां बोलकर उसका अर्थ भी सुनाते रहते हैं। शायद इसीलिए रूढ़िवादी सोच होने के बावजूद कभी-कभी गंभीर बातें भी कह देते हैं।

रोज की तरह कोरोना पर चर्चा छिड़ी तो शुरू हो गए। बोले कि महानगरों में कमरे में घिरे लोगों की जिंदगी थम सी गई है। मोबाइल-टीवी पर नजर गड़ाए रखो या बालकनी-खिड़की से बाहर का नीरस नजारा निहारो। बेटी-दामाद को कितनी बार कहे कि लॉक डाउन में कोई जुगाड़ कर घर आ जाए। लेकिन उनको ईएमआई वाला वाला फ्लैट छोड़ना उचित नहीं लगा। और अब कमरे में पड़े-पड़े उब होने लगी है। नाती-नातिनी की शरारत से तंग आ गए हैं।

सुबह में ही नोएडा वाली छोटी बेटी का फोन आया था। कह रही थी कि उसके पड़ोस में जो रिटायर्ड आईएएस मिश्रा जी रहते हैं। सुगर, हार्ट और ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। उनकी पत्नी भी बीमार हैं। अर्थिराइटिस के कारण उनका दो कदम हिलना तक मुश्किल है। एक बेटा है जो जर्मनी में इंजीनियर है। बेटी चेन्नई में रहती है। मिश्रा जी अरबपति आदमी हैं। दिल्ली और गुड़गांव में भी काफी संपति है। रईसी इतनी है कि घर में खाना बनाने, पोछा लगाने और कपड़ा साफ करने के लिए नौकर दंपति को रखे थे।

लेकिन कोरोना महामारी के संकट में दोनों गांव चले गए। बेटा तो ऐसे भी शादी के बाद दो साल से घर नहीं आया। हां, रोज फोन कर पुत्र धर्म जरूर निभा लेता है। वहीं बंदी के कारण वे ना तो बेटी के पास जा सकते हैं। ना ही बेटी उनके यहां आ सकती है। ऐसे में मिश्रा जी को ही घर में पोछा लगाने, कपड़े साफ करने, खाना बनाने, बाहर से दवा, किराना समान या सब्जी लाने का काम करना पड़ रहा है। बेचारे ऑफिसर बनने के बाद पूरी तरह नौकरों पर आश्रित हो गए थे। कभी ये काम खुद से नहीं किए। ड्यूटी के दिनों में ऑफिस के चपरासी से घरेलू काम कराते थे।

अभी तो उनकी स्थिति ये हो गई है कि अक्सर भावुक होकर रोने लगते हैं। बुरी तरह डिप्रेस्ड ही चले हैं। इतना कि अकेलेपन के एहसास उन्हें जबर्दस्त सताने लगा है। पड़ोसी होने के बावजूद भी पहले मेरी नाती-नातिनी को वे देखना नहीं चाहते थे। ना ही हाय-हैलो करते थे। उनकी प्राइवेसी और योग-ध्यान में खलल पड़ती थी। अब वहीं लोग उनका हमदर्द बने हुए है। ग्रामीण संस्कार होने के कारण मेरी बेटी उनके कमरे में जाकर खाना बना देती है। बेटा या नाती उनके लिए बाहर से जरूरी समान खरीदकर ला देते हैं। मिश्रा जी ने सपने में नहीं सोचा था कि उन्हें जिंदगी की अंतिम बेला में यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब जाकर समझ आई है कि हर बार दौलत काम नहीं आता। बुरे समय में पड़ोसियों से आत्मीय जुड़ाव ही उम्मीद की किरण बनकर आता है।

कहते हुए काका भी पूरे रौ में आ गए थे। एक लंबी जम्हाई लिए। और बोले कि जिस सुविधा, शौक और उत्तम जीवन शैली के लिए आदमी रात-दिन धन के पीछे भागे रहता है। अकूत पैसे अर्जित करता है। मुफसिल से लेकर मेट्रो सिटीज तक में आशियाना बनाता है। भगवान न करे कि वैसे लोगों को मिश्रा जी वाली हालत से गुजरना पड़े। सीमित संसाधन होने के बावजूद गांव तो फिर भी अच्छा है। कोरोना को लेकर मीडिया की पहुंच ने बहुत हद तक सबको जागरूक बनाया है। इतना जरूर है कि लोग सोशल के बदले फिजिकल डिस्टेंस का पालन कर रहे हैं। मास्क नहीं गमछे से ही सही, नाक बांधकर घूमते हैं। और छह फिट की दूरी से भी बतियाते हुए आपस के भावनात्मक लगाव को जिंदा रखे हैं। दुआरे, खेत-खलिहान का चक्कर लगाते हुए समय आसानी से कट जाता है। यहां गरीब से गरीब आदमी कम से कम भूख से तो नहीं मर सकता। ना ही अकेलेपन के अवसाद से जूझते हुए किसी के मन में आत्महत्या का ख्याल आता है।

©️®️श्रीकांत सौरभ

07 April, 2020

भारत के विश्व गुरु बनने की राह में रोड़े और उपाय

कुछ दिन पहले बिहार के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) गुप्तेश्वर पांडे लंदन गए थे। वहीं से उन्होंने फेसबुक पर लाइव होकर कहा था, हमारा देश पूरी दुनिया में अव्वल है। बस अनुशासन व राष्ट्रीयता की भावना की कमी के चलते हम विकसित मुल्कों से पिछड़ जाते हैं। हालांकि उनके इस ब्यान को लेकर कई तरह के सकारात्मक/नकारात्मक कयास लगाए गए। लेकिन इसी बहाने जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी में बंटे हमारे समाज की बेहतरी के लिए कुछ मुद्दे भी उछले। जिन पर गौर फरमाना निहायत ही जरूरी है।


खत्म हो इंडिया और भारत के बीच की दीवार

आजादी के दशकों बाद भी हम आज उस मुहाने पर खड़े हैं। जहां एक रास्ता 'इंडिया', तो दूसरा 'भारत' की ओर जाता है। इंडिया में मॉल, मल्टीप्लेक्स, गगनचुम्बी अपार्टमेंट के टू या थ्री बीएचके का फ्लैट, कैब, कॉरपोरेट कल्चर, हिंगलिश जुबान, मल्टीस्पेशियल्टी हॉस्पिटल जैसी तमाम चीजें हैं। जहां देश के 20 प्रतिशत रहनिहारों में उपभोक्तवादी संस्कृति रच बस गई है। इसी संस्कृति में झुग्गी-झोपड़ियों में न्यूनतम सुविधाओं पर गुजर करने वाली लाखों की आबादी भी रेंगती है। दूसरी तरफ 70 प्रतिशत की आबादी वाला भारत है। इसमें गांव से लेकर कस्बे, बाजार तक हैं। इन्हें भी बाजारीकरण की हवा लग चुकी है। पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जीवनशैली की तलाश में पलायन से गांव उजड़ तो शहर बस रहे हैं। गांवों में बिजली, गैस सुलभ तरीके से पहुंची है। और बनने की साथ ही टूट चुकी पक्की सड़कें विकास की रोशनी छूने की गवाही देती हैं। युवाओं के हाथों में 4G इंटरनेट वाला एंड्रॉयड हैं। बस नहीं है तो स्तरीय शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा।

वर्ग विभेद और हीनता बढ़ा रहा कान्वेंट कल्चर

ग्रामीणों में यह धारणा गहराई से जड़ जमा चुकी है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। बच्चों को निजी कान्वेंट में पढ़ाने का ट्रेंड चल निकला है। गली-गली में कुकुरमुते की तरह अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं। यहां ज्ञान नहीं मिलता। तोता रटंत सूचना भर मिलती है। और हर कोई अपनी औकात के हिसाब से बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। 200 रुपए से कुछ हजार तक की फीस है इनकी। जिनकी स्थिति थोड़ी अच्छी है। वे जिला मुख्यालयों, राजधानी या दूसरे प्रदेशों में बच्चे का नामांकन करा रहे हैं। इन स्कूलों में बच्चों को स्मार्ट बनाया जाता है। लेकिन ऐसे बच्चों की संख्या महज 30 प्रतिशत ही होगी। बीमारू राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश,राजस्थान, उत्तर प्रदेश) की स्थिति बेहद बुरी है। यहां के 30 बच्चे प्राथमिक शिक्षा से अभी भी वंचित हैं। बचे हुए में 70 प्रतिशत बच्चों का भविष्य अभी भी सरकारी स्कूलों पर है टिका है। जिनके लिए रैट का मतलब 'मूस', टेबल का मतलब 'पहाड़ा' से है। उल्लेखनीय है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे अधिकांश (लगभग 53 से 63 प्रतिशत) बच्चों की पढ़ाई आठवीं से लेकर दसवीं तक आते-आते दम तोड़ देती है। और कुछ आगे जाकर गेस का रटा मारकर उच्च शिक्षा प्राप्त भी करते हैं। लेकिन इनका पूरी तरह पर व्यक्तित्व विकास नहीं हो पाता। जब कॉलेजों में टीचर नहीं होंगे। लैब के अभाव में व्यवहारिक जानकारी नहीं दी जाएगी। तब तो रटा मारना ही होगा परीक्षा पास करने के लिए।

जॉब में ज्ञानी नहीं स्मार्ट बंदे की जरूरत

किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने का पैमाना एकेडमिक डिग्री होती है। आज की चयन प्रक्रिया जिस तरह की है। इसी से सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि दों अलग-अलग स्कूली माध्यम से शिक्षा प्राप्त किए बच्चों का प्रदर्शन स्तर किस तरह का होगा। ऐसी बात नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। लेकिन जिस कदर सरकारी नौकरियों में कटौती हो रही है। और कॉरपोरेट सेक्टर में आईटी, मैनेजमेंट, फार्मेसी, इंजीनियरिंग, मेडिकल की डिग्री वाले युवाओं के जॉब के मौके बढ़े हैं। निजी कान्वेंट से निकलकर जो बच्चे महंगे कोचिंग संस्थानों से तैयारी करते हैं। वे ही अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाते हैं। उन बच्चों का 'स्मार्टनेस' सरकारी स्कूल से पढ़ाई किए बच्चों के 'ज्ञान' पर भारी पड़ता है। अधिकांश ग्रामीण बच्चे अंग्रेजी की जानकारी, कमजोर कम्युनिकेशन स्किल व आत्मविश्वास के अभाव में उभरी हीनता के चलते पिछड़ जाते हैं। हालांकि इन्हीं में से कुछ बच्चे कठिन संघर्ष से अपनी कमजोरी को खूबी में तब्दील कर काफी तरक्की भी हासिल किए हैं।

मुनाफा कमाने की होड़ में विकसित देश का सपना अधूरा

हम सभी बचपन से सुनते, पढ़ते आए हैं। भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था। विदेश आक्रमणकारियों की लूट और सैकड़ों वर्षों के शासन ने हमें खोखला कर दिया। नहीं तो हम आज विश्व गुरु होते। ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हमारे प्रति उनकी सोच बन गई। यह ओझा, गुनियों, सपेरों, राजाओं का देश है। यदि इतिहास पर गौर फरमाए तो शुरू से ही यहां सत्ता हथियाने की लड़ाई चलती रही है। कई टुकड़े में बंटी रियासतों पर जब भी विदेशी शासकों का हमला हुआ। देशी शासक अपनी सुविधा के लिहाज से रियासत बचाने के चक्कर में अलग-अलग मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। सत्ता बचाने के चक्कर में गद्दारी के कई किस्से हैं। इसी सियासती लालच ने यूनानी, शकों, हूणों, खिलजी, तुर्कों मुगलों से लेकर ब्रिटिश हुकूमत को पनपने का मौका दिया। और आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ की यह परंपरा कायम है। जहां सत्ता और पूंजीपतियों का फेविकॉल वाला गठजोड़ बन गया है। जिसमें किसी भी तरह कारोबार से मुनाफा कमाना पहली, और आम जनता के रहन-सहन का स्तर सुधाकर विकसित देश बनाना दूसरी शर्त है।

पूंजीवादी मॉडल से बढ़ रही अमीरी गरीबी की खाई

हाल के वर्षों में जिस कदर पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया है। इस कुछ सकारात्मक तो ज्यादातर नकारात्मक पहलू उभरकर सामने आ रहे हैं। इस व्यवस्था में व्यवसायी, नौकरीपेशा वाले व मजदूर तीन वर्ग हैं। इस मॉडल में व्यवसायियों की बात छोड़ दें। तो 70 प्रतिशत जनता नौकरी कर या खेती-मजदूरी कर कमाती है, अपनी योग्यता व संसाधन के आधार पर। फिर लोग मेहनत की गाढ़ी कमाई से अलग-अलग माध्यमों से टैक्स चुकाते हैं। भोजन, बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा पर खर्च करते हैं। इसी वजह से अमीरी व गरीबी की खाई बेतहाशा बढ़ रही है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को चाहिए रोबोट

सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा चौपट है ही, अब सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों पर भी खतरा मंडरा रहा है। इसमें बढ़ती फीस और कैम्पस की राजनीति अहम मुद्दा है। इस कारण पढ़ाई बाधित हो रही है। जरा सोचिए जब स्तरीय कॉलेज ही नहीं रहेंगे तो गरीब मेधावी बच्चों को उच्च शिक्षा कहां से मिलेगी। रिसर्च कहां से होंगे। क्योंकि निजी शिक्षण संस्थान के तौर पर चाहे प्राथमिक स्कूल हो या कॉलेज। यहां बच्चों को पैसे की बदौलत डिग्रियां तो मिलती हैं। लेकिन ज्ञान नहीं मिलता। ना ही तर्क करने या सोचने की क्षमता में वृद्धि होती है। बच्चों में गम्भीर, स्तरीय किताब पढ़ने की प्रवृति खत्म हो रही है। क्या गांव, क्या शहर। युवा पीढ़ी व्हाट्सएप्प, फेसबुक यूनिवर्सिटी से मिली सूचना को ही ज्ञान मान रही है। जबकि ज्ञान तो किताबों से ही मिलता है, जो सही या फेक सूचना में अंतर करना सिखाता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चयन का मापदंड सरकारी नौकरियों से अलग होता है। ध्यान दीजिए, कॉरपोरेट सेक्टर को अपना प्रोडक्ट बेंचने के लिए रोबोट (गुलाम) चाहिए, मौलिक और तर्कशील सोच वाली प्रतिभा नहीं। और निजी शिक्षण संस्थान कई तरह की प्रोफेशनल डिग्रियां देकर ऐसे 'रोबोट' बखूबी तैयार कर रहे हैं। जिन्हें करोपोरेट सेक्टर 25 हजार से कुछ लाख रुपए तक के तनख्वाह देकर, उनकी काबिलियत से करोड़ों में मुनाफा कमाएं।

जनसंख्या नियंत्रण, समान शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था

इस वक्त देश को सबसे बड़ी जरूरत है, जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की। बिना आबादी पर लगाम लगाए कोई भी सरोकारी एजेंडा सफल नहीं होगा। इसके साथ ही शिक्षा और चिकित्सा सुविधा सभी के लिए एक समान करनी होगी। इनके निजीकरण पर रोक लगनी चाहिए। सरकार भले ही तमाम तरह का टैक्स लें, वो तो लेती ही है। लेकिन लोगों को मेहनत की गाढ़ी कमाई यूं ही नहीं गंवानी पड़े। इसके लिए सरकार को शिक्षण संस्थान और अस्पताल को अपने नियंत्रण में रखना होगा। युवा पीढ़ी में किसी तरह की हीनता नहीं पनपे, वर्ग विभेद नहीं हो। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी। वो चाहे किसी राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, व्यवसायी का लड़का हो या किसान-मजदूर का। सभी को सरकारी स्कूलों या कॉलेजों में एक छत के नीचे समान शिक्षा मिले। भले ही उच्च कक्षा में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा में दी जाए। वहीं बीमार लोगों का सरकारी अस्पतालों में एक समान इलाज भी हों। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इस दिशा में बहुत काम किया है। भव्य इमारत में खुले अत्याधुनिक संसाधनों वाले सरकारी स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक इसका उदाहरण है। लेकिन इस मॉडल को पूरे देश में अपनाने की जरूरत है। और हां, सेना की तरह शिक्षा और चिकित्सा की नौकरी में भी बहाली का आधार योग्यता हो, आरक्षण नहीं।

(*यह आलेख लेखक श्रीकांत सौरभ का निजी विचार है। इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं।)

पेट रुपया, डॉलर, यूरो से नहीं, अनाज से ही भरता है

पत्नी - 'ए जी सुन$ तानी कि ना?'

'कह$ ना, का कहत बाड़ू?' पत्नी की आवाज सुन पति ने रिमोट से टीवी का वॉल्यूम कम करते हुए कहा।

पत्नी - 'चइत बीतत बा। एक-दू दिन में बइसाख चढ़ जाई। मने सउसे कटनी बाकिए बा।'

पति - 'त ई लॉक डाउन में का कइल जाव? कोरोना बेमारी जे ना करावे। खेतन में गहु पाकके झुरा गइल बा। पछुआ हवा प झनझन बाजत बा। जजात के झरल देखिके करेजा फाटे लाग$ता।

पत्नी - 'का जाने ए साल भगवान के का मंजूर बा। ओने केतना हाली आन्ही-पानी, बुनौरी आके तबाही कइलस। अब जवन बाचलो बा ऊ पाता ना घरे आई कि ना।'

पति - 'उहे नु। जवन चंवरा में रहे ओकरा के त कटवा लिहनी। मने सड़किया के साइड वाला खेतवा में बनिहार जाए में डेरात बाड़े स। काल्हे त मटरू चाचा के खेत में कटनी के बाद दउरी होत रहे। तब ले पुलिस आके डंडा चला देलन स। सुने में आइले थरेसर आला से रुपयो अइठले स।'

पत्नी - 'सरकार के कहनाम बा गरीबन के तीन महीना ले राशन दिहल जाई। मने किसान जदि खेती कइल छोड़ देवे, ओकरा बाद का होई?'

पति - 'होई का, फसल समे प कटाई ना त। अनाज कइसे घरे आई। उहे फसल बेंचके रबी के खेती होला। एक बेर जवन सिस्टम बिगड़ी तवन बिगड़ते चली जाई। हमनिए के अनाजवा से गांव-नगर सभे जियता। अदमी रूपया खाके जियता नानु रह सकेला। पेट त अनाज के दाने से भरेला।'


पति-पत्नी के इन चंद संवाद से ही बिहार-यूपी के ग्रामीण इलाके की पूरी तस्वीर उजागर हो जाती है। किसानों के लिए खेतों में खड़ी फसल का मूल्य क्या होता है? इसे कोई कृषक परिवार का आदमी ही अच्छी तरह से समझ सकता है। आम तौर पर उत्तर भारत मे अप्रैल का महीना कटाई का होता है। खेतों में उपजी गेहूं, दलहन फसल की धुंआधार कटाई होती है। कटाई के बाद दउरी की जाती है। खेतों की जुताई होती है। धान के बिचड़े गिराए जाते हैं।

लेकिन इस बार परिस्थिति कुछ अलग है। एक तो फसल के तैयार होने से पहले से ही बेमौसम बरसात ने अधिकांश खेतों को चौपट कर दिया। उस पर कोरोना महामारी के कारण लॉक डाउन में सबका हाल बेहाल है। किसानों का दर्द साधारण तरीके से समझा जाए। लगभग सभी किसान खाने भर अनाज घर में रखकर बचा सौदा बनिया के हाथों बेंच देते हैं। रबी फसल की बिक्री से ही खरीफ की बुआई का खर्च निकलता है। पहले से ली गई खाद-बीज की उधारी, महाजन या बैंक के केसीसी का ब्याज भी सधाने होते है।

किसी कारण से एक बार यदि यह चक्र टूटता है तो इसकी भरपाई शायद ही कोई कर पाए। और इसका दुष्परिणाम भी बेहद भयावह होगा। फसल क्षति अनुदान या फसल बीमा की हकीकत किसी से छुपी नहीं है। उस पर से महंगाई ने ऐसे ही सबकी कमर तोड़ रखी है। प्रभावितों में सब्जी उगाने वाले किसान भी हैं। यह नकदी व्यवसाय है। हाल के दिनों में यह सबसे मुनाफेदार साबित हुआ है। जाने कितने किसानों ने सब्जी की खेती से अपनी तकदीर बदली है। घर बनवाने, बेटे-बेटियों की शादी करने या जमीन लिखाने का काम तक किए हैं। फिर भी मान लें कि बिना सब्जी खाए आदमी कुछ दिन रह भी सकता है। लेकिन बिना अनाज के सेवन के कोई कितना दिन रह पाएगा।

जरा कल्पना कीजिए। गांव-बाजार के किराना दुकानों से लेकर शहर के मॉल तक में जो चावल या आटे के पैकेट बिकते हैं। जब किसी भी कीमत पर उपलब्ध नहीं होंगे। तब लोगों की क्या स्थिति होगी? ऐसे भी सरकारी उदासीनता और बीज-उर्वरक की महंगाई से ग्रामीणों का खेती से मोह भंग हो रहा है। नई पीढ़ी के लिए तो खेती से नाता, बस फसलों के बीच खड़े होने। और सेल्फी या फोटो खींचकर सोशल साइट्स पर पोस्ट करने भर से है। इसके बावजूद किसानों के पास 'मरता क्या न करता' वाली स्थिति है। वे नकदी फसल जैसे गन्ना, सब्जी, मक्के, नकदी, लहसुन की खेती पर ज्यादा ध्यान दे रहे हैं। और धान, गेहूं की खेती बस जरूरत भर हो रही है। आप ही बताइए यदि किसान खुद की जरूरत भर ही खाद्द फसलों को उपजाएं। किसी भी कीमत पर इनकी बिक्री नहीं करें तो खाद्दान्न कहां से आएगा?

हालांकि मैं ये सब लिखकर किसी को डरा नहीं रहा। हो सकता है कुछ लोगों को ऐसा होना मुमकिन नहीं लगे। लेकिन आंखों देखी सच्चाई को झुठलाया भी तो नहीं जा सकता। चलते-चलते फिर वहीं बात कहना चाहूंगा। आप जरूर मुलाहिजा फरमाइएगा। सूर्य की तपिश में पसीने बहाकर चमड़ी झुलसाने वाले इन्हीं अन्नदाताओं की बदौलत बाजार से लेकर महानगरों तक की चकाचौध कायम है। यह भी कि हमारा पेट रुपया, डॉलर, यूरो से नहीं, अनाज से ही भरता है।

©️®️श्रीकांत सौरभ

21 February, 2020

LOVE स्टोरी - अधूरी चाहत

"मने एकदमे भुचड़ हैं आप! हम बोल रहे हैं कि ई टुटलका धरमशाला की पीछे जो जामुन का पेड़ है। उसकी तरफ़ देखिए। और आप हैं कि एने-ओने देखे जा रहे हैं।" मोबाइल से बात करते हुए जैसे ही लड़की ने हाथों को उठाकर इशारा किया। उजले कुर्ता-पजामा वाले लड़के से उसकी आंखें चार हुईं।

रणवीर कपूर स्टाइल की दाढ़ी में गजब का हैंडसम लुक था। इधर लड़का देखते ही रह गया उसे। क्या झक्कास लग रही थी! पांच फीट तीन इंच का कद। सांवलापन से कुछ उपर, गोरा नहीं लेकिन पानीदार चेहरा! तीखे नैन नक्श! कंधे तक कटे बाल, लाल रंग के शूट पर छींटदार दुपट्टा, पैरों में पाटियाला जुत्ती! कानों में पहने छोटे-छोटे ईयर रिंग्स!

जाने क्यों? समय थम सा गया, और दोनों की धड़कनें तेज हो गईं। लड़के का मन हुआ कि दौड़कर जाएं, और उसे अपनी बांहों में भर लें। लेकिन उसके साथ आई एक और लड़की को देखकर उसने यह रूमानी ख़्याल त्याग दिया।

आज शिवधाम में ग़ज़ब की भीड़ उमड़ी थी। जहां देखिए उत्सवी नज़ारा झलक रहा था। मंदिर में पुरुष-महिलाएं कतार में खड़े होकर शिव लिंग पर जल चढ़ाने की जद्दोजहद में थे। मालूम होता था सभी एक-दूसरे को धकियाते हुए निकलना चाह रहे हैं। कहीं भी तिल रखने भर की जगह नहीं बची थी। अटैची से निकालकर पहनी हुई नई सिंथेटिक साड़ी में महिलाओं का उत्साह चरम पर था। उनके माथे पर लगे तेल, सिंदूर की चिरपरिचित गंध नथुने से टकराते हुए जेहन तक पहुंच रही थी।

यहां से सीधे लौटकर वे मेले में सजी परचून की दुकानों पर जमघट लगाए हुई थीं। टिकुली के पत्ते, सिंदूर का गद्दी, आलता, रंग-बिरंगी चूड़ियां, कृत्रिम गहने, बच्चों के खिलौने। फेम एंड लभली, मिको, लकमा, दादर आंवला (फेयर एंड लवली, विको, लक्मे, डाबर आंवला नहीं) के क्रीम, तेल, पाउडर आदि से लेकर प्रसाद वाला लायचीदाना (मकुदाना) तक बिक रहे थे।

लड़की ने दादी को देखा। एक दुकानदार से लहठी की खरीदारी को लेकर मोलजोल कर रही थीं। "का बबुआ सुनत बाड़$। सौ रुपया लगा द ना भाव।"

उसने व्यस्तता दिखाते हुए कहा, "अम्मा जी, एक दाम दु सौ लगा देले बानी। अब पइसा नइखे त फ्री में ले जाई। मने ए से कम भाव में परता ना पड़ी। ना त अगिला दोकान देख लिहीं।"

लड़की ने भांप लिया कि दादी अब एक घण्टा से पहले फुर्सत पाने वाली नहीं हैं। "दादी जी, रउआ एहिजा रहेम। तनि हम दोकानवा से टेड्डी लेके आवत बानी।" इतना कह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना उसने सहेली का हाथ पकड़ा, और वहां से मंदिर के गेट की ओर से पुरानी धर्मशाला की ओर निकल गई।

"तु जा और वो धरमशाला का कमरा है न। वहीं बैठकर बतिया ले अपने राजा बाबू से। तब तक मैं इधर रहकर चौकीदारी करती हूं।" उसकी सलाह पर लड़की शर्माते हुए उधर चली दी। साथ में लड़का भी हो लिया।

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जजर्र धर्मशाला के कमरे में पहुंचकर उसने चेहरे पर हाथ रखना चाहा। लेकिन लड़की ने मुंह फेर लिया। "जाईए आपसे बात नहीं करेंगे।"

लड़के ने पूछने के लिहाज़ से कहा, "अब क्या हो गया जो नखरे दिखा रही हो? थोड़ी देर पहले तो मिलने के लिए बेचैन थी। लगातार मिस कॉल मारे जा रही थी।"

"वादा किए थे छाया दीदी की शादी में मिलेंगे। फिर आए क्यों नहीं उस रात?"

"ओहो, तो ये बात है। शायद तुम्हें याद नहीं। कहा था मैंने कि बीएससी पार्ट वन का प्रैक्टिकल चल रहा है। कोशिश करेंगे आने के लिए। लेकिन मोतिहारी से नहीं आ सका। सॉरी!"

"नहीं आए, ठीक है कोई नहीं। उस दिन तो बता तो देना चाहिए था।"

"तुम्हारा मोबाइल छीना गया है। फिर बताता कैसे? और आज किसके मोबाइल से बतिया रही थी? पहले कभी बताया नहीं?"

"सखी के फोन से लगाया था। दो महीने बाद उनकी भी शादी है। नहीं चाहती कि मोबाइल नबंर का परचार हो।"

"अच्छा, छोड़ो ये सब। देखो तो तुम्हारा लिए क्या लाया हूं?", लड़के ने एक लाल रंग का बड़ा सा रोंयादार टेडी बियर उसे थमाया।

"वाओ, कितना प्यारा लग रहा है! मेरा फेवरिट कलर है।" अब लड़की शिक़वा शिकायत भूल चुकी थी। उसकी चेहरे की मुस्कान और चमक दोनों ही बढ़ चली थीं।

"प्यारा है, लेकिन तुमसे ज्यादा नहीं!" कहते हुए लड़के ने उसे सीने से लगाया। उसके बालों से आ रही क्लिनिक प्लस शैंपू की भीनी भीनी खुशबू अपनी सी लगी। उसने लड़की के पलकों और माथा को एक-एक कर चुमा।

इस बार लड़की के तन-मन में अजीब सी गुदगुदी हुई। अपनी भावनाओं को छुपाती हुई बोली, "झूठ नहीं बोलिए। सब कहते हैं करिया कलूटे हैं हम।"

"ख़बरदार जो और कुछ अपने बारे में कहा तुमने। काले होंगे तुम्हारे दुश्मन।"

"इतना प्यार करते हैं हमसे।" लड़की का जवाब सुनकर उसने आंखों में आंखें डालकर कहा, "बहुत ज्यादा। मन करता है बस तुम्हें देखता ही रहूं। घण्टे, दिन, महीने, साल..!"

"बस बस, अब रहने भी दीजिए। कुछ ज़्यादा नहीं लग रहा, फिल्मों की तरह?"

यह सुन लड़के ने कहा, "विश्वास नहीं तो परमिशन दो। अभी तुमको भगा ले जाउंगा। सबकी नजरों से दूर।"

"अच्छा, कहीं लभेरिया तो नहीं हो गया आपको?" लड़की ने चुस्की ली।

कहानी आगे भी जारी है, थोड़ा इंतजार करिए...



©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

15 February, 2020

नियोजित शिक्षकों की कहानी - 'हड़ताल'

"मित्रो, इस कुम्भकर्णी सरकार की ईट से ईट बजा देंगे हम लोग। वेतनमान भीख नहीं, हमारा अधिकार है। और हम इसे लेकर रहेंगे!", यह कहते हुए जैसे ही टीईटी शिक्षक संघ के जिला अध्यक्ष नेता रामायण ठाकुर ने शिक्षक एकता के नारे लगाए। वहां पर उपस्थित शिक्षकों की तालियों की गड़गड़ाहट तेज हो गई।

उनका जोश दुगुना हो चला था। उन्होंने कहा, "अब मैं सम्मानित विद्वान शिक्षक दयाशंकर जी को संबोधित करने के लिए आमंत्रित करना चाहूंगा। भाई इकोनॉमिक्स में पीजी हैं। नेट भी निकाल लिए हैं। और शिक्षा जगत की लेटेस्ट जानकारी इनके पास पूरे डाटा के साथ रहती है।"

वेतनमान को लेकर बिहार में शिक्षकों की हड़ताल की तैयारी चल रही थी। महज़ कुछ ही दिन रह गए थे। करीब डेढ़ दर्जन संगठन एक साथ आ गए थे। वहीं कुछ संगठन अलग तिथि से हड़ताल करने के मूड में थे। लेकिन सबकी बस यहीं मांग थी, ‘उन्हें वेतन वृद्धि नहीं राज्यकर्मी का दर्जा दिया जाए।‘ इसके बावजूद गुटबंदी जारी थी। यहीं कारण था कि टीईटी शिक्षकों का समूह अलग बैठक कर चर्चा कर रहे थे। प्रतापपुर प्रखंड मुख्यालय स्थित बीआरसी में भी इसी की मंत्रणा चल रही थी।

संबोधन सुनकर दयाशंकर मास्साब खड़े हो गए। सजने-संवरने के शौकीन आदमी ठहरे, अविवाहित थे शायद इसलिए। करीने से संवारी गई लट वाली जुल्फ़ी में हमेशा क्योकार्पिन तेल चुपड़ी रहती। मालूम होता था कि तेल चुकर चेहरे पर लुढ़क जाएगा। कुर्ता-पजामा के उपर चढ़ी बंडी में उनका दुबला-पतला शरीर, मानो देश में पसरे कुपोषण का अर्थशास्त्र सीखा रहा था। जबर्दस्त पढ़ाकू थे अखबार का। इतना कि एक बार जब खोलते। पहले पन्ने पर अखबार के नाम के साथ राष्ट्रीय, प्रादेशिक, स्थानीय, संपादकीय, खेल, अंतर्राष्ट्रीय खबरों तक पहुंच जाते। और अंतिम पन्ने में नीचे छपे प्रेस और संपादक का नाम पढ़कर ही ख़त्म करते। सोशल साइट यूनिवर्सिटी के सस्ते ज्ञान से उन्हें आपत्ति रहती थी।

वहां से थोड़ी दूर एक कोने में जाकर मुंह में खाए पान को उन्होंने पीक के साथ थूक दिया। और लौटकर चिरपरिचित शैली में पूछा, "क्या आप बता सकते हैं? पूरे भारत में सबसे कम सैलरी कहां के टीईटी शिक्षकों को मिलती है?

"जी, बिहार में।", सुरेश दास ने कहा।

"बिल्कुल सही कहा आपने। लेकिन ऐसा क्यों है, कोई बताएगा?" जब उन्हें कहीं से जवाब मिलता नहीं दिखा। तो बोले, "दरअसल पूरे देश में बिहार एकमात्र राज्य है जो अपनी जीडीपी का साढ़े पांच प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है। लेकिन यह खर्च शिक्षकों के वेतन नहीं ट्रेनिंग और अन्य मदों में होता है।"

"आरटीई यानी शिक्षा अधिकार अधिनियम लगभग पूरी दुनिया में लागू है। हमारे यहां अक्सर आरटीई का हवाला देकर शिक्षकों के कर्तव्यबोध बताते हुए हड़काया जाता है। लेकिन उसी आरटीई में यह भी नियम है कि गैर टीईटी पास, अप्रशिक्षित या बिना वेतनमान के शिक्षक नहीं रखना है।", यह शिक्षक अशीषनाथ का स्वर था।

इस पर सुरेश दास ने समर्थन करते हुए कहा, "लेकिन हमारे बिहार में होता इसके उलटा है। वर्ष 15 में हड़ताल के बाद सरकार ने चाइनीज सेवा शर्त बनाकर आधा-अधूरा वेतनमान दिया। जिसका खामियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं।"

"वहीं तो मैं बता रहा था। इस साजिश की शुरुआत वर्ष तीन और पांच में ही 'कागज दिखाओ नौकरी पाओ' वाली नियोजन नीति के साथ की थी। हमारे सीएम साहब की मंशा साफ थी कि 15 सौ रुपए मासिक के मेहनताना पर शायद ही योग्य आदमी शिक्षक बनना चाहे। मजबूरी में कुछ योग्य शिक्षक आ भी गए तो विरोध नहीं जता सकेंगे। अयोग्य की संख्या ज्यादा रहेगी इसलिए।" अशीषनाथ ने कहा।

बीच में ही रहमान अली ने कहा, "सरकार अपने मंसूबे में कामयाब भी रही। एक समय था इन शिक्षकों को नियमित वाले छूत के समान समझते थे। नियोजितों ने कई बार हड़ताल, आंदोलन किया। लेकिन हर बार सरकार ने उनकी आवाज़ दबा दी। कुछ अपनी करनी रही। और कुछ ग्रामीणों में ऐसी धारणा भी बना दी गई। फर्जी कागज़ पर बहाल हैं। अयोग्य हैं। पढ़ाते नहीं। ये इतने के ही लायक हैं। पढ़ाना है नहीं, वेतन चाहिए पूरा। आदि आदि।"

"और उसी का नतीज़ा हम भी आज भुगत रहे हैं। यदि सरकार ने बिना एंट्रेंस या उचित कागज़ जांच कराए नियोजन किया। इसमें हमारी क्या गलती है? यह कहां का वसूल है कि कुछ लोगों के चलते सभी को वाज़िब हक़ से वंचित रखा जाए। आज लाखों पढ़े-लिखे युवक सड़क पर हैं। उनको उचित वेतनमान देकर बहाली करनी की महती जिम्मेवारी भी सरकार की ही है।", अबकी राबिया ने सवाल उठाया।

सुरेश दास बोले, "इसमें हमारी गलती नहीं, सरकार की चाल रही है। 70 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे आज भी सरकारी स्कूलों में ही ककहरा का 'क' या अल्फाबेट का 'ए' सीखते हैं। सरकार ने शुरू से ही कम वेतन में शिक्षकों को रखा। और वोट बैंक के लिए अन्य लुभावने योजनाओं में पैसे लुटाए गए। मक़सद अभिभावकों को खुश रखना था। वैसे भी योग्य शिक्षक तमाम तरह की तरह गैर शैक्षणिक योजनाओं एमडीएम, बीएलओ, जनगणना, सर्वे में नहीं उलझाए जाएं। कम सैलरी देकर उन्हें हीनता से ग्रसित नहीं बनाया जाए। और वे स्कूल में ईमानदारी से पढ़ाने लगे। तो पढ़-लिखकर गरीब के बच्चे अधिकार नहीं मांगने लगेंगे।"

"लेकिन ये तो लोकतांत्रिक मूल्यों का सरासर हनन है। हमारे संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई है, शोषणकारी नहीं। जहां राज्य सरकार कितना भी निजी क्षेत्र को बढ़ावा दें। सरकारी संस्थानों और कर्मियों को हर हाल में प्राथमिकता देनी है। इसमें शिक्षा का स्थान सबसे उपर है।", ये बात चंदन झा ने कही।

उन्होंने वहां बैठे अन्य लोगों की ओर एक नजर डाली। लगा कि सभी उनको चाव से सुन रहे हैं। बोले, "भले ही सरकार ने मुख्य मुद्दे से भटकाकर आम जनता के बीच हमारी छवि धूमिल की है। लेकिन कहना चाहूंगा आप सबसे। पड़ोस, गांव का लोग मज़ाक उड़ाते हैं न हमारा। कल उनके भी बच्चे जब हाथों में कई तरह की डिग्रियां लिए धक्के खाएंगे तो आटा-चावल का भाव समझ में आ जाएगा।"

दयाशंकर की मुख मुद्रा अब गंभीर दिखने लगी थी। उन्होंने हाथों से इशारा किया तो सभी चुप हो गए। बोले, "सरकार ने यह क्रम वर्ष 10 तक जारी रखा। और लाखों शिक्षकों की बहाली कर ली। उस बाद हम टीईटी शिक्षकों की बारी आई। सरकार की मिलीभगत से एक तो मीडिया ने पहले ही शिक्षकों की छवि खराब कर डाली थी। उस पर नेतागिरी के फेरे में सुप्रीम कोर्ट में भी हम अपना पक्ष सही तरह से नहीं रख पाए।"

"लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पैराग्राफ 78 में तो स्पष्ट निदेश दिया है टीईटी शिक्षकों के लिए?", अशीषनाथ ने कहा।

"आशीष सर, ध्यान दीजिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है निर्देश नहीं। राज्य सरकार चाहे तो हम टीईटी शिक्षकों को वेतनमान देने पर विचार कर सकती है। लेकिन सरकार यह सुझाव मानने से रही। उसे शैक्षणिक गुणवत्ता या योग्य शिक्षकों से क्या मतलब बनता है? यहां तो वोट बैंक की राजनीति है। और संख्या में हम एक तिहाई हैं। हम लोगों को राज्यकर्मी का दर्जा देने से जितना फायदा होगा। उससे ज्यादा सरकार को वोट का नुकसान।"

"इसका मतलब हुआ सभी को एक साथ हड़ताल पर रहने में ही भलाई है? लेकिन कुछ टीईटी और माध्यमिक शिक्षक संघ बाद के दिनों में हड़ताल पर जाने के पक्ष में क्यों हैं?", राबिया ने पूछा।

इसके जवाब में संघ के जिलाध्यक्ष रामायण ठाकुर ने कहा, "यदि सरकार हमारे संवैधानिक हकों को नहीं देती। तो उसी संविधान में हमे विरोध जताने का अधिकार भी दिया है। 'संघे शक्ति कलियुगे सुने हैं न?' समय के मुताबिक उचित निर्णय तो यहीं रहेगा। हम सभी मिलकर एकता दिखाएं। और एक साथ हड़ताल पर चलें। वैसे जिनको इसी बहाने राजनीति चमकानी है। उनकी बात और है।"

"वो तो ठीक है। लेकिन इस बात की क्या गारंटी है वर्ष 15 की तरह इस बार फिर हमारे साथ धोखा नहीं हो?", सुरेश दास ने असमंजस में सवाल उठाया।

तो उन्होंने कहा, "इस बार बजाप्ते सभी मुख्य संघों की लिखित समन्वय समिति बनी है। ऐसे में कोई नकारात्मक राजनीति कर बदनाम नहीं होना चाहेगा। सोशल साइट्स, व्हाट्सएप्प ने हम सबको बेहद सशक्त बनाया है। हर पल की सूचना मिल जाती है। इसलिए एक या दो नेता के चलते हड़ताल का टूटना नामुमकिन है।"

उनके इतना कहते ही उपस्थित शिक्षकों ने एक स्वर में हामी भरी। एक बार फिर से अभियान गीत गाया सबने। सादे कागज पर प्रस्ताव पास कर घोषणा हुई। और अगले सप्ताह के पहले दिन से ही हड़ताल पर जाने के निर्णय के साथ बैठक समाप्त कर दी गई।


©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

11 February, 2020

विद्या कसम है तुमको, ये 'लभ लेटर' जरूर पढ़ना

प्यारी सैंकी ,

आज नौ फरवरी है। हिंदी के लास्ट परीक्षा के साथ हमारा आईएससी का एक्जाम बीत गया। अंगरेजी आ केमेस्ट्री तनि कमजोर गया है। मने चिंता की बात नहीं है। प्रैक्टिकल का नंबर बढ़ाने के लिए कॉलेज से मैनेज कर लिए हैं। मम्मी भी गांव के तीन पेड़ियां वाले जीन बाबा की भखौती भाखी है। हमारे लिए आछा नम्बर से पास करना, जीवन-मरण का सवाल है। पापा जी बोल दिए हैं कि रिजल्ट में फस्ट डिवीजन से कम लाया। तो मामा जी के संगे लुधियाना कम्बल फैक्ट्री में भेज देंगे, काम सीखे।

फिलहाल तुमको बहुत मिस कर रहा हूं। चिट्ठी भेजने का नहीं, तुमसे बतियाने का मूड था। लेकिन बतियाए कैसे? जबसे तुम्हारा मोबाइल छिनाया है, बात भी तो नहीं हुई। मने दोसर उपाय का है। वैसे दिल का हाल लिखकर बताने में जो मजा है। उतना फोन पर बतियाने में नहीं। कल कइसहु तुम्हारे पास हेमवा से चिट्ठी भेज देंगे। तनी जादा लिखा गया है। रिक्वेस्ट है, पूरा पढ़ना। एक सांस में नहीं त थोड़ा-थोड़ा करके।

याद करो। ठीक तीन बरिस पहिले पकड़ी बाजार पर गोलू सर के कोचिंग में हमलोग मिले थे। मैटिक परीक्षा के तैयारी के लिए नया-नया एडमिशन हुआ था। सर हाई स्कूल में साइंस के नामी टीचर थे। लेकिन 'नाम' का प्रयोग स्कूल की पढ़ाई से जादा अपना 'दोकान' चमकाने में करते थे। गजबे भीड़ जुटती थी। दू कोस के एरिया में जेतना भी मैटिक का छात्र था। सब इहे कहता था कि उनके पास एक बार जेकर नाम लिखा गया। ओकर पास होना तय है।

कोचिंग हॉल में 25 गो बरेंच रखा था। एक बैच में 100 विद्यार्थी पढ़ते। अगिला पांच बरेंच लड़की सब के लिए रिजर्व। सर के बारे में चरचा थी। मैथ, केमेस्ट्री, फिजिक्स तीनों विषय पर बराबर पकड़ रखते हैं। बोर्ड पर लिखते तो सभी कोई अपनी कॉपी पर एकदम रचकर लिख लेते। समझ में आए या नहीं। वो खुदे कहते थे कि साइंस समझे वाला चीज है, रटे वाला नहीं। क्लास के बाद नोट्स के फोटो कॉपी लेवे खातिर अइसन हल्ला मचता। जइसे तकिया के नीचे रखकर कोई सुत जाएगा। तो भी फस्ट डिवीजन मिल जाएगा एक्जाम में।

हम तो एक बरिस में 30-40 क्लास अटेंड किए होंगे। एतना दिन में किताब का कवनो चैप्टर माथा में पूरी घुसा कि नहीं। याद नहीं। मने लड़की सबको अगिला बरेंच पर बैठाने का राज, हमको जरूर बुझा गया। बोर्ड का एक्जाम हुआ। मैथ में कम आए तीन नम्बर से हम फस्ट डिवीजन लाते-लाते रह गया। तब केतना हंगामा मचा था घर में। पापा जी तो पूरा फायर हुए थे सुनकर। एतना कि आपन बाटा के पुरनका संडक चप्पल हमरा देहे पर तोड़ दिए। पढ़ाई छोड़ावे के मूड में थे। लेकिन मम्मी के निहोरा कइला के बाद मान गए। ओकरा बाद हम आईएससी करने शहर चले गए।



शहर के कोचिंग में भी उहे हाल है। हर साल गांव से हजारों बच्चा पहुंचते हैं। यहां पढ़ाई के नाम पर भरपूर लुटाई है। अलग-अलग नाम से सैकड़ों 'गोलू सर' करोड़पति हो गए हैं। 95 परसेंट पढ़निहार भले चपरासिया ना बने। मने सरकारी कम्पीटिशन निकाले के पूरा गारंटी लेते हैं। लमहर दुरभाग है बिहार का। सरकारी स्कूल में पढ़ाई तो कहिया से रामभरोसे है। मातृभाषा भोजपुरी के बदले बचपन से हमनी के हिन्दी में साइंस का कोरामिन दिया जाता रहा है। नतीजा का हुआ, भोजपुरी बिगड़ी। हिंदी भी गड़बड़ा गई। और अंगरेजी तो जिनगी भर सीखना ही है। अब तो भगवाने मालिक हैं हिंदी मेडियम वालों का।

अरे हम भी केतना बुरबक है? का अटपट लिखे जा रहे हैं। मेन बात पर आते हैं। तुमको पता है पिछले साल दो बार घर आया था। होली के दिन ललुआ के संगे अपाची से तुम्हारे गांव गए थे। तुम बरामदा में खड़ी दिखी थी। मने हमको चिन्ह नहीं पाई। रमपुरवा वाला 'छुछेर' सब एतना ना हरिहरका रंग पोत दिया। हमको एकदमे बानर बना दिया था।

दूसरी बार, तुम्हारे छठ घाट पर गए थे। सिरसोपता के आगे चउका-मउका बैठे हुए गुलाबी सलवार शूट में केतना सुनर लग रही थी। मन हुआ कि सेल्फी खींच ले नुका कर। मने मुस्टंडे लड़के मुझ अजनबी को कटाह नजर से घूर रहे थे। एहि से उहां से चलते बने। मने इस बार वादा है। बहुत जल्दी तुमसे मिलकर रहेंगे, चाहे कुछो हो जाए। दिन और समय तय कर तुम लौटती चिट्ठी में बता देना। अब बहुत हो गया रखते हैं।

चलते चलते बस एतने कहेंगे, आई लभ यू मेरी करेजा!

तुम्हारे जवाब के इंतिजार में,

तुम्हारा अपना,

सोनू

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस लघु व्यंग्य कहानी के पात्र, जगह पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

08 February, 2020

लघु कहानी - मन की बात

पत्नी - "ए जी, सुनते हैं पमी के पापा! भेलेन्टाइन डे नियरा गया है। उस दिन फिलिम दिखाने ले चलिएगा न 'सिनेपोलिस' में?"

ऑफिस के लिए तैयार होते पति - "तुम भी न एकदमे सठिया गई हो। छव बरिस हो गया बियाह हुए। बाल-बच्चेदार हो गई। मने..!"

पत्नी - "त का बूढ़ा गए हैं हमलोग?"

पति - "अब अपने बारे में कह सकता हूं। तुमको कुछ कहने का अवकात हमको कहां? नहीं तो भेलेन्टाइन में देरी है। अभिए 'बेलन टाइट' करने लगोगी।"

पत्नी - "जादे बहाना मत बनाइए। मैरेज से पहिले फोनवा पर कहते थे। करेजा, जानू, जानेमन तुम्हारे लिए ई करेंगे, ऊ करेंगे। मने आज ले मन तरसते रह गया। कहियो त होटल, रेस्टोरेंट ले चलेंगे। हाथ में हाथ मिलाकर बतियाएंगे, सीरियल में जइसन होता है।"

पति - "वहीं तो हम भी कह रहे हैं कि बियाह से पहले तुम्हारे देह से रेकसोना बॉडी स्प्रे महकता था। अब आटा, तेल, मसाले की गंध आती है। सब दिन एकही समान थोड़े रहता है।"

पत्नी - "त का करे? घर के साफ-सफ़ाई, खाना बनाना छोड़ दे। आ दिन भर सेंट लगाके सुतल रहे, बोलिए? मने इसके लिए तो नोकर रखना होगा न?"

पति - "वो तो हम हैं कि बक्सर के हेठार (दियरा) से सीधे तुमको राजधानी पटना लाए। ना त केतना अगुआ आगे-पीछे कर रहे थे।"

पत्नी - "हम कवनो फ्री में आए हैं का? पूरे 10 लाख कैश गिने थे बाबूजी। हमसे बढ़िया त सखी है। पांचे लाख में सेट हो गई थी। गुड़गांव में हसबैंड के साथ रहती है। शादी उसके लिए केतना लकी रहा! 25 हजारे कमाने वाला पति बाद में एमबीए कर लिया। आज लाख रुपए महीने में कमा रहा। अपना फ्लैट, अपनी गाड़ी है। व्हाट्सएप्प पर पिक भेजते रहती है। मॉल में खरीदारी करने, रेस्टोरेंट में पिज्जा, बर्गर खाने, मल्टीप्लेक्स में फिलिम देखने का।

पति - "ई बात तो अब अगुआ न बताएंगे कि काहे हमरा से बियाह कराए? ऊ सब पापा जी से कहे थे। लड़की गांव में रहती है। मने बक्सर कॉलेज से बीए में पढ़ रही है। का गांव, का देहात, कवनो माहौल में रखिएगा। वहीं सेट कर जाएगी। ये भी बताए थे कि लड़की तनी सांवर है। पटना जइसन शहर में बिजली बत्ती के अंजोरा रहेगी त गोरा जाएगी।"

पत्नी - "उहे अगुवा तो हमारे बाबू जी से कहे थे कि लड़का पटना सचिवालय में सेटल है। अभी नोकरी टेम्परोरी है मने आगे चलकर परमानेंट हो जाएगा। आपकी बेटी राज करेगी। हूं..! इहे 'राज' लिखा था हमारे किसमत में!"

पति - "तुमको और कोई टाइम नहीं मिलता है, बहस के लिए। जब निकलना होता है, तभी शुरू हो जाती हो। घड़ी में देखो, साढ़े आठ हो गया है। नौ बजे के बाद पहुंचा तो हाजिरी कटा समझों।"

पत्नी - "अब त कहबे करेंगे। जवाब नहीं सूझता है तो कोई न कोई बहाना कके निकल जाते है। रात को नींद ही लगती है। दिन में फुरसत नहीं है। संडे को इयार दोस्त से मिलने निकल जाते हैं। तो हमसे बतियाने का मोका कब है?"

पति - "देखो, तुम सब बुझते हुए भी बच्चों वाली बात करती हो। सचिवालय में नोकरी है लेकिन ठेका वाली। पहले 15 मिलता था। अब 25 हजार हो गया है। वो तो कुछ उपरवार हो जाता है। नहीं तो घर से खरचा मंगाना पड़ता। मेरे जैसे हजारों लोग इसी तरह से सरकारी के नाम पर खट रहे हैं। सबको आशा है कि एक न एक दिन वेतनमान मिल जाएगा। अब पमी भी चार साल की ही गई। अप्रैल में नाम लिखवाना है। फिजूलखर्ची से काम कैसे चलेगा, तुम्हीं बताओ?"

पत्नी - "बात बनाना कोई आपसे सीखे। हम कवनो नहीं समझते घर की स्थिति। मने एगो फिलिम दिखाने का बात मुंह से का कह दिए। आप लगे परवचन सुनाने। अरे कवनो हम जाइए रहे थे का? खाली हां, कर देते तो मन खुश हो जाता। पति हैं आप। दिल के बात आपसे नहीं कहेंगे तो का दोसर मरद को सुनाएंगे! अब आप ऑफिस जाइए। कहीं सांचो के लेट नहीं हो जाए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। लेकिन एक सीख है, उन अभिभावकों के लिए। जो यह सोच कर बेटी की शादी करते हैं कि 'सरकारी' नौकरी वाला 'दूल्हा' खुश रखेगा उनकी लाडली को। शादी के मामले में 'लड़का' या 'लड़की' किसी भी पक्ष या अगुआ को वस्तु स्थिति नहीं छुपानी चाहिए। और पति-पत्नी भी यह बात अच्छी तरह से समझ लें, शादीशुदा ज़िंदगी कोई सीरियल नहीं। जिसमें हर पल मौजमस्ती, सिनेमा, फैशन, प्रपंच दिखते रहता है। यह एक जिम्मेवारी है और हर हाल में सामंजस्य बनाकर चलना होता है।)


लघु प्रेम कहानी - वैलेंटाइन वीक

मोबाइल पर चंदू : "हैलो, चिंकी।"

चिंकी : "हां, हैपी रोज डे!

चंदू : "अरे वाह, सेम टू यू! विश करने के लिए पहिले हम फोन किए। आ उल्टे तुम्ही..! लेकिन तुम कैसे जानती हो?"

चिंकी : तो का हम नहीं जानते हैं? आजु कवन फेस्टिबल है!"

चंदू : "फेस्टिबल?"

चिंकी : "और क्या? भले आप इंटर करे मोतिहारी चले गए। आ हम गांव में रहते हैं। एकर मतलब ई नहीं हुआ कि हमको कुछो नहीं पता।"

अंजान बनते हुए चंदू ने पूछा : आछा। तो क्या जानती हो?"

चिंकी : "परसों सैंकी दीदी मिली थी मटकोरा में। वो बताई थी हमको।"

चंदू : "अब ये 'सैंकी दीदी' कौन है?"

चिंकी : "अरे बताया तो था। चंदन चाचा की बेटी पूनम दीदी के बारे में। उन्हें घर में प्यार से सब 'सैंकी' कहते हैं। कितनी जल्दी भूल जाते हैं आप? वो मुजफ्फरपुर से बीसीए कर रही हैं। पट्टीदारी में बियाह है तो आई हैं।"



चंदू : "ओहो! याद आ गया। हम तो भूलिए गए थे। वैसे और क्या कह रह थी दीदी?"

चिंकी : "और का? बता रही थी कि आज के दिन बॉयफ्रेंड अपने लभर को गुलाब का फूल देकर परपोज करता है।"

चंदू : "गुलाब का फूल देता है कि परपोज करता है?"

चिंकी : "जाइए हम बात नहीं करेंगे। आप तो हमको एकदमे बुरबक समझ लिए हैं। पत्रकार जैसा कोसचन पर कोसचन कर रहे हैं।

चंदू : "हाय मेरी जान, मेरी करेजा! तुम तो बुरा मान गई। सॉरी, सॉरी!"

चिंकी : "नहीं, बुरा काहे मानेंगे? जेतना जानते थे, उतना बता दिए। आपके जैसा हम यहां, कवनो एंडोरायड मोबाइल थोड़े रखे हैं। जो फेसबुक आ व्हाट्सएप्प से सब बात जान जाएंगे। बोलिए।"

चंदू : "यही तो बता रहा था मैं। लेकिन जानना चाह रहा था कि मेरी डार्लिंग कितना जानती है?"

चिंकी : "आछा तो ये बात है। बाबू साहब मेरा इम्तिहान ले रहे थे। कोई बात नहीं। हमको भी इस साल मैटिक पास कर जाने दीजिए। एक बार शहर पहुंच गए। फिर पूछिएगा हमसे।"

चंदू : "इसीलिए तो तुमसे दिल का सब बात शेयर करता हूं। तुमको बता दूं कि आज से वेलेंटाइन वीक शुरू हो गया है। पूरे एक सप्ताह चलेगा। पहला दिन रोज़ डे, दूसरे दिन प्रपोज़ डे, तीसरे दिन चॉकलेट डे, चौथे दिन टेडी डे, पांचवें दिन प्रॉमिस डे, छठे दिन हग डे, सातवें दिन किस डे। और अंतिम दिन वैलेंटाइन्स डे।"

चिंकी : "बाप रे..! एतना तो हम जानते ही नहीं थे।"

चंदू : "जानेमन, एहि से तो बता दिया तुमको। अब बोलो?"

चिंकी : "खैर, छोड़िए। ये बताइए कि आपका आईएससी का एक्जाम कइसन जा रहा है?"

चंदू : "अभिए तो मैथ का पेपर देकर लौटे हैं। केमेस्ट्री का थिउरी थोड़ा गड़बड़ाया है। मने प्रैक्टिकल से मेक अप हो जाएगा। हिंदी का पेपर बाकी है। सोमवार को लास्ट है। तुम अपना सुनाओ?"

चिंकी : "आप जानते ही हैं। साइंस तो हमारा फेवरिट सब्जेक्ट है। आर्ट और अंगरेजी में तनिका कमजोर हैं। लेकिन गेस पेपर रट रहे हैं। इनमें पास तो कर ही जाएंगे।"

चंदू : "चलो ठीक है। तुम्हारा सेंटर तो अरेराज पड़ा है न?"

चिंकी : "हे भगवान इहो भूल गए है। आप भी न। रक्सौल में सेंटर पड़ा है। और 17 से परीक्षा है। बूझ गए न।"

चंदू : "चलो, टेंशन की कोई बात नहीं है। तब ले हमारा एक्जाम तो बीत ही जाएगा। आएंगे तुम्हारे सेंटर पर सोनुआ के संगे। उसके भइया की शादी में दहेजुआ पल्सर मिला है। 30 का एभरेज देता है। खरचा के डरे कोई चलाता ही नहीं। हमने तेल डलवाने के नाम पर सेटिंग कर लिया है, परीक्षा भर के लिए।"

चिंकी : "ठीक है रखिए अब। बाद में बतियाते हैं। कोई बाहर से दरवाजा ठुकठुका रहा है।"

चंदू : "ऐसे नहीं। पहले एगो 'किस्सी' दे दो तब काटेंगे फोन।"

चिंकी : "इसमें मांगने की क्या जरूरत है। सब आपका ही है। ले लीजिए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

06 February, 2020

'क्या वाकई में बसंत सबको एक समान महसूस होता है?'

सरेह में दूर-दूर तक फैले खेतों में लहलहाते गेहूं के हरे-पौधे! उनके बीच में उगे पीले-पीले सरसों के फूल! आंखों को ग़ज़ब का सुकून दे रहे हैं। यूं कहें कि प्रेम आंनद बरसते महसूस हो रहा है। दिल को जवां करती फ़फ़नाकर बहती पछुआ ब्यार! तन के साथ मन को भी झुमाते हुए सिहरा रही है! माना कि ऋतुराज बसंत की जवानी उफ़ान पर है। क्या कवि, क्या साहित्यकार? सभी इसकी मादकता में मंत्रमुग्ध हुए जा रहे हैं। फ़ेसबुक से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं तक, काव्य रस या गद्द रूप में महीने भर इसका ही गुणगान होगा।

लेकिन इसी रूमानी मौसम में, हमारे मुंह में निकल आए छाले। ओठ पर पड़े फोफले के फटने से बना घाव! जिस पर ना चाहते हुए भी, जीभ का चले जाना। बार-बार सुखी पपड़ी कुरेदकर घाव को ताज़ा कर देती है। 10 दिन तो हो ही गए इसे झेलते। इस पर भी क्या किसी लेखक की नजरें इनायत हो रही है? सड़क से गुज़रते हुए, रास्ते में आठ वर्ष की अनपढ़ झुनिया दिख गई। रोज़ की तरह दुआरे पर गोबर से चिपरी पाथ रही थी। आज तक उसने स्कूल का मुंह नहीं देखा।


थोड़ी दूर पर ही किशोरियों की झुंड आइस-पाइस खेल रही थी। खेत के मेंड पर उनकी बकरियां चर रही थीं। वहीं पर गेंहू के खेत में फुलाए सरसों के बीच बैठी हुई काकी दिखीं। वो दुबककर बथुआ का साग खोंट रही थीं। फटी-पुरानी चादर ओढ़े हुए, ठंड से सिर और कान को बचाने के एवज़ में पीठ को उघाड़ की हुई थी। क्या है कि बढ़ती उम्र के साथ, जाड़ का भी एहसास बढ़ जाता है न! कुछ और आगे बढ़े तो हीरामन काका पटवन के बाद फसलों में खाद छीट रहे थे। हमेशा के तरह निर्विकार मुद्रा में अपने काम में लीन लगे।

बचपन से देखते आ रहा हूं उनको। जब से होश संभाला मैंने। उन्हें खुलकर हंसते या बोलते नहीं देखा। मौन रहते हैं, स्थिर प्रज्ञता की हद तक! लेकिन सालों भर खेतों में खटते रहते हैं। दो बेटों को पढ़ाकर नौकरी में सेट करा दिए। एक बेटी थी, उसके भी हाथ पीले कर दिए। चुपचाप दो बीघे ज़मीन भी लिखा लिए। सब कहते हैं, काका मनहूस लेकिन भाग्यशाली आदमी हैं। इसके बाद मन में सोच उठती है। क्या इन सभी को भी 'बसंत' महसूस होता होगा, मेरी और आपकी तरह? या फिर यह रचनात्मक लोगों की वैचारिक विलासिता भर है?

©️®️श्रीकांत सौरभ