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07 April, 2020

भारत के विश्व गुरु बनने की राह में रोड़े और उपाय

कुछ दिन पहले बिहार के पुलिस महानिदेशक (डीजीपी) गुप्तेश्वर पांडे लंदन गए थे। वहीं से उन्होंने फेसबुक पर लाइव होकर कहा था, हमारा देश पूरी दुनिया में अव्वल है। बस अनुशासन व राष्ट्रीयता की भावना की कमी के चलते हम विकसित मुल्कों से पिछड़ जाते हैं। हालांकि उनके इस ब्यान को लेकर कई तरह के सकारात्मक/नकारात्मक कयास लगाए गए। लेकिन इसी बहाने जाति, धर्म, अमीरी, गरीबी में बंटे हमारे समाज की बेहतरी के लिए कुछ मुद्दे भी उछले। जिन पर गौर फरमाना निहायत ही जरूरी है।


खत्म हो इंडिया और भारत के बीच की दीवार

आजादी के दशकों बाद भी हम आज उस मुहाने पर खड़े हैं। जहां एक रास्ता 'इंडिया', तो दूसरा 'भारत' की ओर जाता है। इंडिया में मॉल, मल्टीप्लेक्स, गगनचुम्बी अपार्टमेंट के टू या थ्री बीएचके का फ्लैट, कैब, कॉरपोरेट कल्चर, हिंगलिश जुबान, मल्टीस्पेशियल्टी हॉस्पिटल जैसी तमाम चीजें हैं। जहां देश के 20 प्रतिशत रहनिहारों में उपभोक्तवादी संस्कृति रच बस गई है। इसी संस्कृति में झुग्गी-झोपड़ियों में न्यूनतम सुविधाओं पर गुजर करने वाली लाखों की आबादी भी रेंगती है। दूसरी तरफ 70 प्रतिशत की आबादी वाला भारत है। इसमें गांव से लेकर कस्बे, बाजार तक हैं। इन्हें भी बाजारीकरण की हवा लग चुकी है। पढ़ाई, रोजगार और बेहतर जीवनशैली की तलाश में पलायन से गांव उजड़ तो शहर बस रहे हैं। गांवों में बिजली, गैस सुलभ तरीके से पहुंची है। और बनने की साथ ही टूट चुकी पक्की सड़कें विकास की रोशनी छूने की गवाही देती हैं। युवाओं के हाथों में 4G इंटरनेट वाला एंड्रॉयड हैं। बस नहीं है तो स्तरीय शिक्षा, रोजगार और चिकित्सा।

वर्ग विभेद और हीनता बढ़ा रहा कान्वेंट कल्चर

ग्रामीणों में यह धारणा गहराई से जड़ जमा चुकी है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ाई नहीं होती। बच्चों को निजी कान्वेंट में पढ़ाने का ट्रेंड चल निकला है। गली-गली में कुकुरमुते की तरह अंग्रेजी स्कूल खुल रहे हैं। यहां ज्ञान नहीं मिलता। तोता रटंत सूचना भर मिलती है। और हर कोई अपनी औकात के हिसाब से बच्चों को निजी स्कूलों में भेज रहे हैं। 200 रुपए से कुछ हजार तक की फीस है इनकी। जिनकी स्थिति थोड़ी अच्छी है। वे जिला मुख्यालयों, राजधानी या दूसरे प्रदेशों में बच्चे का नामांकन करा रहे हैं। इन स्कूलों में बच्चों को स्मार्ट बनाया जाता है। लेकिन ऐसे बच्चों की संख्या महज 30 प्रतिशत ही होगी। बीमारू राज्यों (बिहार, मध्यप्रदेश,राजस्थान, उत्तर प्रदेश) की स्थिति बेहद बुरी है। यहां के 30 बच्चे प्राथमिक शिक्षा से अभी भी वंचित हैं। बचे हुए में 70 प्रतिशत बच्चों का भविष्य अभी भी सरकारी स्कूलों पर है टिका है। जिनके लिए रैट का मतलब 'मूस', टेबल का मतलब 'पहाड़ा' से है। उल्लेखनीय है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे अधिकांश (लगभग 53 से 63 प्रतिशत) बच्चों की पढ़ाई आठवीं से लेकर दसवीं तक आते-आते दम तोड़ देती है। और कुछ आगे जाकर गेस का रटा मारकर उच्च शिक्षा प्राप्त भी करते हैं। लेकिन इनका पूरी तरह पर व्यक्तित्व विकास नहीं हो पाता। जब कॉलेजों में टीचर नहीं होंगे। लैब के अभाव में व्यवहारिक जानकारी नहीं दी जाएगी। तब तो रटा मारना ही होगा परीक्षा पास करने के लिए।

जॉब में ज्ञानी नहीं स्मार्ट बंदे की जरूरत

किसी भी प्रतियोगिता परीक्षा में बैठने का पैमाना एकेडमिक डिग्री होती है। आज की चयन प्रक्रिया जिस तरह की है। इसी से सहज अंदाजा लगा सकते हैं कि दों अलग-अलग स्कूली माध्यम से शिक्षा प्राप्त किए बच्चों का प्रदर्शन स्तर किस तरह का होगा। ऐसी बात नहीं है कि सरकारी स्कूलों में पढ़े बच्चे बुद्धिमान नहीं होते। लेकिन जिस कदर सरकारी नौकरियों में कटौती हो रही है। और कॉरपोरेट सेक्टर में आईटी, मैनेजमेंट, फार्मेसी, इंजीनियरिंग, मेडिकल की डिग्री वाले युवाओं के जॉब के मौके बढ़े हैं। निजी कान्वेंट से निकलकर जो बच्चे महंगे कोचिंग संस्थानों से तैयारी करते हैं। वे ही अच्छे शैक्षणिक संस्थानों में प्रवेश पाते हैं। उन बच्चों का 'स्मार्टनेस' सरकारी स्कूल से पढ़ाई किए बच्चों के 'ज्ञान' पर भारी पड़ता है। अधिकांश ग्रामीण बच्चे अंग्रेजी की जानकारी, कमजोर कम्युनिकेशन स्किल व आत्मविश्वास के अभाव में उभरी हीनता के चलते पिछड़ जाते हैं। हालांकि इन्हीं में से कुछ बच्चे कठिन संघर्ष से अपनी कमजोरी को खूबी में तब्दील कर काफी तरक्की भी हासिल किए हैं।

मुनाफा कमाने की होड़ में विकसित देश का सपना अधूरा

हम सभी बचपन से सुनते, पढ़ते आए हैं। भारत कभी सोने की चिड़िया हुआ करता था। विदेश आक्रमणकारियों की लूट और सैकड़ों वर्षों के शासन ने हमें खोखला कर दिया। नहीं तो हम आज विश्व गुरु होते। ब्रिटिश हुकूमत के समय से ही हमारे प्रति उनकी सोच बन गई। यह ओझा, गुनियों, सपेरों, राजाओं का देश है। यदि इतिहास पर गौर फरमाए तो शुरू से ही यहां सत्ता हथियाने की लड़ाई चलती रही है। कई टुकड़े में बंटी रियासतों पर जब भी विदेशी शासकों का हमला हुआ। देशी शासक अपनी सुविधा के लिहाज से रियासत बचाने के चक्कर में अलग-अलग मोर्चा बनाकर लड़ते रहे। सत्ता बचाने के चक्कर में गद्दारी के कई किस्से हैं। इसी सियासती लालच ने यूनानी, शकों, हूणों, खिलजी, तुर्कों मुगलों से लेकर ब्रिटिश हुकूमत को पनपने का मौका दिया। और आज भी लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ की यह परंपरा कायम है। जहां सत्ता और पूंजीपतियों का फेविकॉल वाला गठजोड़ बन गया है। जिसमें किसी भी तरह कारोबार से मुनाफा कमाना पहली, और आम जनता के रहन-सहन का स्तर सुधाकर विकसित देश बनाना दूसरी शर्त है।

पूंजीवादी मॉडल से बढ़ रही अमीरी गरीबी की खाई

हाल के वर्षों में जिस कदर पूंजीवादी व्यवस्था को जन्म दिया है। इस कुछ सकारात्मक तो ज्यादातर नकारात्मक पहलू उभरकर सामने आ रहे हैं। इस व्यवस्था में व्यवसायी, नौकरीपेशा वाले व मजदूर तीन वर्ग हैं। इस मॉडल में व्यवसायियों की बात छोड़ दें। तो 70 प्रतिशत जनता नौकरी कर या खेती-मजदूरी कर कमाती है, अपनी योग्यता व संसाधन के आधार पर। फिर लोग मेहनत की गाढ़ी कमाई से अलग-अलग माध्यमों से टैक्स चुकाते हैं। भोजन, बच्चों की शिक्षा और चिकित्सा पर खर्च करते हैं। इसी वजह से अमीरी व गरीबी की खाई बेतहाशा बढ़ रही है।

बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को चाहिए रोबोट

सरकारी स्कूलों में प्राथमिक शिक्षा चौपट है ही, अब सरकारी उच्च शिक्षण संस्थानों पर भी खतरा मंडरा रहा है। इसमें बढ़ती फीस और कैम्पस की राजनीति अहम मुद्दा है। इस कारण पढ़ाई बाधित हो रही है। जरा सोचिए जब स्तरीय कॉलेज ही नहीं रहेंगे तो गरीब मेधावी बच्चों को उच्च शिक्षा कहां से मिलेगी। रिसर्च कहां से होंगे। क्योंकि निजी शिक्षण संस्थान के तौर पर चाहे प्राथमिक स्कूल हो या कॉलेज। यहां बच्चों को पैसे की बदौलत डिग्रियां तो मिलती हैं। लेकिन ज्ञान नहीं मिलता। ना ही तर्क करने या सोचने की क्षमता में वृद्धि होती है। बच्चों में गम्भीर, स्तरीय किताब पढ़ने की प्रवृति खत्म हो रही है। क्या गांव, क्या शहर। युवा पीढ़ी व्हाट्सएप्प, फेसबुक यूनिवर्सिटी से मिली सूचना को ही ज्ञान मान रही है। जबकि ज्ञान तो किताबों से ही मिलता है, जो सही या फेक सूचना में अंतर करना सिखाता है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में चयन का मापदंड सरकारी नौकरियों से अलग होता है। ध्यान दीजिए, कॉरपोरेट सेक्टर को अपना प्रोडक्ट बेंचने के लिए रोबोट (गुलाम) चाहिए, मौलिक और तर्कशील सोच वाली प्रतिभा नहीं। और निजी शिक्षण संस्थान कई तरह की प्रोफेशनल डिग्रियां देकर ऐसे 'रोबोट' बखूबी तैयार कर रहे हैं। जिन्हें करोपोरेट सेक्टर 25 हजार से कुछ लाख रुपए तक के तनख्वाह देकर, उनकी काबिलियत से करोड़ों में मुनाफा कमाएं।

जनसंख्या नियंत्रण, समान शिक्षा और चिकित्सा व्यवस्था

इस वक्त देश को सबसे बड़ी जरूरत है, जनसंख्या नियंत्रण कानून बनाने की। बिना आबादी पर लगाम लगाए कोई भी सरोकारी एजेंडा सफल नहीं होगा। इसके साथ ही शिक्षा और चिकित्सा सुविधा सभी के लिए एक समान करनी होगी। इनके निजीकरण पर रोक लगनी चाहिए। सरकार भले ही तमाम तरह का टैक्स लें, वो तो लेती ही है। लेकिन लोगों को मेहनत की गाढ़ी कमाई यूं ही नहीं गंवानी पड़े। इसके लिए सरकार को शिक्षण संस्थान और अस्पताल को अपने नियंत्रण में रखना होगा। युवा पीढ़ी में किसी तरह की हीनता नहीं पनपे, वर्ग विभेद नहीं हो। इसके लिए ठोस रणनीति बनानी होगी। वो चाहे किसी राजनेता, प्रशासनिक अधिकारी, व्यवसायी का लड़का हो या किसान-मजदूर का। सभी को सरकारी स्कूलों या कॉलेजों में एक छत के नीचे समान शिक्षा मिले। भले ही उच्च कक्षा में अंग्रेजी माध्यम से पढ़ाई हो। लेकिन प्रारम्भिक शिक्षा अनिवार्य रूप से मातृभाषा में दी जाए। वहीं बीमार लोगों का सरकारी अस्पतालों में एक समान इलाज भी हों। दिल्ली के सीएम अरविंद केजरीवाल ने इस दिशा में बहुत काम किया है। भव्य इमारत में खुले अत्याधुनिक संसाधनों वाले सरकारी स्कूल और मोहल्ला क्लिनिक इसका उदाहरण है। लेकिन इस मॉडल को पूरे देश में अपनाने की जरूरत है। और हां, सेना की तरह शिक्षा और चिकित्सा की नौकरी में भी बहाली का आधार योग्यता हो, आरक्षण नहीं।

(*यह आलेख लेखक श्रीकांत सौरभ का निजी विचार है। इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं।)

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