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06 February, 2020

'क्या वाकई में बसंत सबको एक समान महसूस होता है?'

सरेह में दूर-दूर तक फैले खेतों में लहलहाते गेहूं के हरे-पौधे! उनके बीच में उगे पीले-पीले सरसों के फूल! आंखों को ग़ज़ब का सुकून दे रहे हैं। यूं कहें कि प्रेम आंनद बरसते महसूस हो रहा है। दिल को जवां करती फ़फ़नाकर बहती पछुआ ब्यार! तन के साथ मन को भी झुमाते हुए सिहरा रही है! माना कि ऋतुराज बसंत की जवानी उफ़ान पर है। क्या कवि, क्या साहित्यकार? सभी इसकी मादकता में मंत्रमुग्ध हुए जा रहे हैं। फ़ेसबुक से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं तक, काव्य रस या गद्द रूप में महीने भर इसका ही गुणगान होगा।

लेकिन इसी रूमानी मौसम में, हमारे मुंह में निकल आए छाले। ओठ पर पड़े फोफले के फटने से बना घाव! जिस पर ना चाहते हुए भी, जीभ का चले जाना। बार-बार सुखी पपड़ी कुरेदकर घाव को ताज़ा कर देती है। 10 दिन तो हो ही गए इसे झेलते। इस पर भी क्या किसी लेखक की नजरें इनायत हो रही है? सड़क से गुज़रते हुए, रास्ते में आठ वर्ष की अनपढ़ झुनिया दिख गई। रोज़ की तरह दुआरे पर गोबर से चिपरी पाथ रही थी। आज तक उसने स्कूल का मुंह नहीं देखा।


थोड़ी दूर पर ही किशोरियों की झुंड आइस-पाइस खेल रही थी। खेत के मेंड पर उनकी बकरियां चर रही थीं। वहीं पर गेंहू के खेत में फुलाए सरसों के बीच बैठी हुई काकी दिखीं। वो दुबककर बथुआ का साग खोंट रही थीं। फटी-पुरानी चादर ओढ़े हुए, ठंड से सिर और कान को बचाने के एवज़ में पीठ को उघाड़ की हुई थी। क्या है कि बढ़ती उम्र के साथ, जाड़ का भी एहसास बढ़ जाता है न! कुछ और आगे बढ़े तो हीरामन काका पटवन के बाद फसलों में खाद छीट रहे थे। हमेशा के तरह निर्विकार मुद्रा में अपने काम में लीन लगे।

बचपन से देखते आ रहा हूं उनको। जब से होश संभाला मैंने। उन्हें खुलकर हंसते या बोलते नहीं देखा। मौन रहते हैं, स्थिर प्रज्ञता की हद तक! लेकिन सालों भर खेतों में खटते रहते हैं। दो बेटों को पढ़ाकर नौकरी में सेट करा दिए। एक बेटी थी, उसके भी हाथ पीले कर दिए। चुपचाप दो बीघे ज़मीन भी लिखा लिए। सब कहते हैं, काका मनहूस लेकिन भाग्यशाली आदमी हैं। इसके बाद मन में सोच उठती है। क्या इन सभी को भी 'बसंत' महसूस होता होगा, मेरी और आपकी तरह? या फिर यह रचनात्मक लोगों की वैचारिक विलासिता भर है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

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