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31 March, 2013

यादें (1): देवनागरी का ज्ञान ही मेरे जीवन की बड़ी कमाई!


अतीत की यादें अक्सर हमारी स्मृति को कुरेदती हैं. और... गुजरी जिंदगी में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें हम चाहकर भी नहीं भूल सकते! किसी के भी जीवन में तीन अवस्थाएं बेहद खास होती हैं- बचपन, जवानी व बुढ़ापा. मैंने इनमें दो पड़ाव को, कुछ अपनी मर्जी से और कुछ जबरिया जी ही लिया है. इसलिए इनसे जुड़े किस्से का होना भी स्वाभाविक है. सही है कि जीवन कोई व्यवसाय नहीं, जिसके हर पल का हिसाब लिया जाए. लेकिन एक लेखक के तौर पर भावनाओं की पड़ताल कर, उसे लच्छेदार शब्दों में तब्दील करने की आदत सी हो चली है. सो, ना चाहने के बावजूद भी भावुक मन फ़्लैश बैक में चला ही जाता है. शुरुआत बीते बचपन से करना चाहूंगा.

छुटपन से ही दादा का यह कथन सुनते हुए बड़ा हुआ, ‘खेलोगे-कूदोगे तो होखोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब!’ दादा यानी आम ग्रामीण की तरह पूरे खेतिहर, स्वभाव से कर्मठ व जमीन से जुड़े एक इंसान. 20 बीघे जमीन जोतने वाले किसान थे वह. सो खेतों वाले झगड़े-फसाद में मुकदमा लड़ने को लेकर पूरे गाँव में उनकी कोई सानी नहीं थी. दूर-दराज के गरीब-गुरबे व मजदूर टाइप के लोग उनसे जमीनी विवाद से संबंधित कानूनी मशविरा लेने आते रहते थे. हालांकि मेरे दादा स्व. रामरीत सिंह किताबी जानकारी के मामले में अनपढ़ थे. लेकिन दुनियादारी के मामले में काफी व्यावहारिक व सुलझे हुए थे. कुछ इस तरह कि डिग्री वाले सज्जन भी सामने पानी भरने लगें. 

चाणक्य की इस नीति पर उनका अटूट भरोसा था, ‘राजा बनने से अच्छा है, दूसरे को राज-पाट दिलाओ.’ उनके दादा राम अवतार सिंह देश की आजादी के बाद से ही 33 वर्षों तक कनछेदवा पंचायत का मुखिया रहते हुए स्वर्ग सिधार गए. जब ग्रामीणों ने दादा को मुखिया (ग्राम प्रधान) पद संभालने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने सिरे से इसे ख़ारिज कर दिया. चूंकि उस वक्त मुखिया पद का चुनाव मतदान से नहीं होकर प्रत्यक्ष तरीके से होता था. उन्होंने अन्य व्यक्ति को समर्थन देकर मुखिया बनवा दिया.

अधेड़पन की बेला में दादा को गांव की ही रात्रि पाठशाला में हिंदी भाषा का अक्षर ज्ञान मिला था. इसलिए अपना हस्ताक्षर तो करते ही थे, अख़बार व धार्मिक किताबों में छपे शब्दों की धर-पकड़ कर, उनका पाठ भी कभी-कभार कर लेते थे. मुझे वो दिन अभी भी याद हैं, जब बाबा मोतिहारी स्थित कचहरी से मुक़दमे की तारीख कर लौटते. कचहरी के वकीलों की कमाई व हकीमों के ठाट-बाट का वर्णन करते अघाते नहीं थे. शायद यह रात्रि पाठशाला में मिले ‘अक्षर ज्ञान’ का ही असर था कि दादा शिक्षा को लेकर बेहद संजीदा रहते थे, कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. 

दादा मुझे अच्छी पढ़ाई कर अफसर बनने की सलाह देते थे. उनका मानना था कि कड़ी मेहनत के बाद किसी भी महकमे में कोई बड़ा पद मिल जाएगा. तो फिर शेष जिंदगी रौब-रुआब व मजे से गुजरेगी. इस मायने में पिता जी जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं, तो उनसे भी बीस थे. दिल से नरम व स्वभाव से बेहद कड़क मिजाज वाले आदमी थे, पेशे से ठेकेदार. कद व चेहरा भी बिल्कुल अमिताभ बच्चन की तरह, पर थे बेहद स्मार्ट व दबंग व्यक्तित्व वाले. अक्सर ठेकेदारी के लिए टेंडर भरने जिला मुख्यालय जाना-आना व इंजीनियरों के साथ उनका उठना-बैठना लगा रहता था.

पिता जी जब देर रात घर लौटते तो प्रायः मां को सुनाकर कर कहते, यद्दपि उनका इशारा मेरी तरफ होता था. ‘अजी सुनती हो जी, फलाने एसई साहब के लड़के ने आईआईटी का एंट्रेंस निकाल लिया है!’ तो कभी किसी जेई साहब के लड़के की बीपीएससी पास कर एसडीओ बनने की बात कहते थे. मैं उस वक्त गांव के ‘सैंट बोरिस विद्दालय’ (इसकी जिक्र यादें (2) में करूंगा) में पांचवी का छात्र था. पिताजी की आए-दिन दी जाने वाली नसीहतें सुन-सुनकर कोफ़्त महसूस करता था. आखिर क्यों, गांव में रहने वाले एक अदने बच्चे की तुलना शहरी लड़कों से करते हैं? 

कहां बिजली के उजाले में रहकर अंग्रेजी कांवेंट में पढ़ने वाले वे बच्चे. और कहां प्राइमरी स्कूल में प्लास्टिक के बोरे पर बैठ देवनागरी लिपि में पढ़ने वाला यह नीचट देहाती, जो दुअरा पर ‘भुकभुकिया लालटेन’ की धूमिल रौशनी में देर रात गए बीटीसी की किताबों में उलझे हुए मच्छर मारते रहता. पता नहीं, क्यों जलन होने लगी थी, इन सब बातों से? लेकिन पिता जी का खौफ जेहन में इस कदर भरा हुआ था कि क्या मजाल हम मुंह से बगावत के एक शब्द भी निकाल सके. क्योंकि ये उम्र ही ऐसी होती है, जब डांट-फटकार से ज्यादा पिटाई का डर लगता है. मन ही मन घुटने व कोसने के अलावा चारा भी क्या था. 

इसके बावजूद सच कहूं तो अपना अकादमिक सत्र बेहद ही ख़राब रहा. जाने क्यों, स्कूल के समय से ही इन कोर्स की किताबों से उबकाई आती रही है? इसी कारण ज्यादा सीरियसली पढ़ाई नहीं की कभी. बस किसी तरह स्नातक कर लिया, वह भी ताक-झांक करके. कुछ तक़दीर की भी मेहरबानी रही. 

वरना 28 साल की उम्र बीतने को है. बंदे को ये बात अभी तक समझ में नहीं आई कि इतने दिनों तक फिजूल में स्कूल व कॉलेज की पढ़ाई में वक्त क्यों जाया किया? मैं तो देवनागरी ज्ञान यानी हिंदी की सतही जानकारी को ही जीवन की अमूल्य उपलब्धि मानता हूं. यहीं मेरी सबसे बड़ी कमाई भी है. बाकि जो भी पढ़ा महज क्लास पास करने के लिए. वह भी उस समाज के लोक-लाज के भय से जहां पला-बढ़ा, जिसका दबाव अभी भी झेल रहा हूं. यह कि पढ़-लिख कर जो सरकारी चाकरी पकड़ ले, चाहे वह चपरासी की नौकरी ही क्यों ना हो. बोले तो वही दुनिया में सबसे बड़ा ‘तीस मार खां’ है. जारी...

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यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!



13 March, 2013

काश, फगुआ का वो दौर फिर से लौट आता!


"नीक लागे धोती, नीक लागे कुरता, नीक लागे गउवा जवरिया हो, नीक लागे मरद भोजपुरिया सखी, नीक लागे मरद भोजपुरिया..!" इस लोकप्रिय भोजपुरी गीत में खांटी देहाती अंदाज में होली की ठिठोली रची-बसी है. बसंती बयार से आई फागुन की धमक, हर साल कुछ नयेपन का एहसास लेकर आती है. फिर क्या बच्चे, क्या जवान व क्या बूढ़े. सभी के उपर इसका भरपूर असर पड़ता है. भले ही संवेदना व्यक्त करने की खातिर कोई अपनी भावनाओं को शब्दों का रूप नहीं दे पाए. 

लेकिन इतना तो तय है कि सबके मन में अजब सी मस्ती छाई व दिल में गुदगुदी होती रहती है. बिना कुछ किए ही मिजाज हर पल अलसाये व बौराए रहता है, कभी-कभी रोमांटिक भी हो जाता है. वहीँ माह के अंत में होली के बहाने कहीं ना कहीं प्रकृति भी हमें सीख देती है, कि आपने भादो की बरसात झेली है तो बसंत का भी लुत्फ़ उठाइए. . ठीक वैसे ही जैसे जीवन में दुःख है तो सुख भी आता है.
    
खासकर भोजपुरी के गढ़ माने जाने वाले आरा, मोतिहारी, छपरा, सिवान, बेतिया, बक्सर, गाजीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर आदि क्षेत्रों में फागुन की सतरंगी छटा की तो बात ही निराली है. पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गाँव कनछेदवा में बिताई बचपन की होली को याद कर नास्टैलजिक हो जाता हूँ. खट्टी-मीठी यादों के बीच वो खुशनुमा पल आज भी जेहन में कैद हैं.  

होली के कुछ दिन पहले से ही दोस्तों के संग मिलकर, दूसरो को रंगने की कवायद शुरू हो जाती थी. लेकिन क्लास में तो अकेले ही सबको तंग किए रहता. तब सातवीं में पढ़ता था. दोस्तों को बिना बताए रंग लगाने के लिए नयी-नयी तरकीबें निकालते रहता. उस समय दस पैसे में रंग की पुड़िया आती थी. मैं रोजाना लाल या हरे रंग की आठ-दस पुड़िया लेकर बेंच पर बैठता. 

एक बेंच पर तक़रीबन पांच लड़के बैठते थे. मैं चुपके से पुड़िया फाड़ बारी-बारी से सबके सिर के पीछे से हाथ ले जाकर उनके बालों पर इसे झाड़ देता था. कल होके जब वे स्नान करते तो उनका पूरा बदन ही रंगीन हो जाता. और देखने वाला हँसे बिना नहीं रह पाता कि सामने वाले को किसी ने मामू बना दिया है. पकड़ में नहीं आए इसलिए हर दिन बेंच बदल अपनी कारामात चालू रखता. शरारतों के दौरान कभी-कभी भेद खुलने पर बात पीटने-पिटाने तक पहुँच जाती थी. पर अगले ही दिन सभी लड़के गिले-शिकवे भूला एक हो जाते, जैसे कुछ हुआ ही ना हो. 

होली के रोज शाम में गाँव के बड़े-बूढ़े व युवाओं की टोली ढोल-मंजीरे लेके फगुआ गीत गाते सभी के दरवाजे पर पहुँचती. “पनिया लाले लाल ये गऊरा तोहरो के रंगेब” की तान हो या फिर ”वृन्दावन कृष्ण खेले होली वृन्दावन” की आलाप, हुड़दंग के साथ बसंती कोरस में सुरों की महफ़िल सज जाती. सबके माथे पर लगे अबीर-गुलाल से चढ़ी खुमारी कुछ यूँ मदहोश करती कि बदहवास थप्पड़ बजाते हुए हर कोई झूमने को मजबूर हो जाता. 

इसी दौरान गृह स्वामी प्लेट में बादाम, नारियल, किशमिश व छुहारा सत्कार के तौर पर लाकर देता. जिसे हम पॉकेट में रख लेते. फिर घर पर मौजूद बराबर या छोटी उम्र वालों के माथे व बड़ों के पाँव पर अबीर स्पर्श कराते थे. और “सदा आनंद रहे ये द्वारे” गाते हुए दूसरे दरवाजे की ओर रूख करते. 

खैर, ये तो रही गुजरे जमाने की बात. अभी की बात करें तो आज भी गाँव वैसे ही है, थोड़े-बहुत बदलाव के साथ. पर भौतिकतावाद की आंधी ने देहात में एक नयी सभ्यता को जन्म दिया है. जहाँ भाईचारे, भोलेपन, आपसी सौहार्द, व रहन-सहन की मौलिकता पर इर्ष्या, स्वार्थीपन, मक्कारी व बनावटीपन का बदनुमा धब्बा लग चुका है. 

रोजी-रोटी व बेहतर जीवन के लिए गाँव से शहरों की तरफ बेहिसाब पलायन, पंचायत चुनाव की गंदी राजनीति व आधुनिक बनने की होड़ ने ग्रामीणों से बहुत कुछ छीन भी लिया है. उनके लिए होली महज खाओ-पियो व ऐश करो वाला त्यौहार रह गया है. सड़क पर दारू के नशे में बहक गाली-गलौज करती युवकों की टोली कुछ अलग ही नजारा प्रस्तुत करती है. वहीँ भले मानस इस दिन घर में ही दुबकना पसंद करते है. 

रही बात फगुआ गीत की तो इसे गाने वाली पूरानी पीढ़ी या तो गुजर गई या उसकी राह पर है. मोबाइल से भोजपुरी के अश्लील गाने सुनने वाले नवही को गली-गली घूमकर फगुआ गाने में शर्म लगती है. उनकी नज़रों में यह परम्परा आउटडेटेड हो चली है. अब अबीर व रंग लगाने का सरोकारी दौर भी नहीं रहा. वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को भी निजी हित साधने के तौर पर ढोया जा रहा है. क्योंकि यह संस्कार नहीं दिखावा बन गया है.
  

18 January, 2013

सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है

दो लफ्जों की है अपनी कहानी, या तो मोहब्बत या है जवानी. जवानी यानी जीवन का वह खूबसूरत दौर. जब हर युवा की चाहत होती है, किसी को अपना बना लेने की. या फिर किसी के दिल में बस जाने की. भले ही आज मेरी शादी के दो वर्ष गुजर गए. पर आज भी मुझे गर्व है कि एक वक्त मैंने भी किसी से प्या...किया था. ये अलग बात है कि कुछ समय बाद एक खुशनुमा मुकाम पे पहुँच, मैंने उससे ब्रेक अप कर लिया. इस गाने के तर्ज़ पर कि 'प्यार को प्यार ही रहने दो, इसे रिश्ते का इलज़ाम ना दो.' 

 ये तो रहा उस उम्र का एहसास जिसमें कुछ हकीकत है, कुछ फ़साना. एक कोरी कल्पना, मृगतृष्णा व अनबूझी बेचैनी सी जेहन में समाई रहती है. ख्यालों में जीना और हर घड़ी किसी का इंतजार. एक ऐसी तलाश जो कभी पूरी ही ना हुई. उम्र के एक खास मोड़ पे अधिकांश लोगों का पाला इससे कभी ना कभी पड़ता ही है. लेकिन आज एक विवाहित के तौर पर इतना तो आत्मविश्वास के साथ कह ही सकता हूँ. कि सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है. और समर्पण भी. 

जाने क्यों लोगों में यह धारणा आम है कि शादी का लड्डू जो खाए वो भी पछताए, जो ना खाए वो भी. क्योंकि शादी दो जोड़ों का मिलन भर नहीं है. ना ही दो प्राणियों का रिश्ते में बंध जाना. यह पूरी तरह से दर्शन, अध्यात्म, व संस्कार है. इसकी गहराई जीवन के अंतिम पड़ाव  में समझ में आती है. यानी नितांत अकेलेपन की वह बेला, जब सबसे ज्यादा किसी के साथ की जरूरत होती है. मैं तो कहूँगा कि बिना शादी हर स्त्री-पुरुष का जीवन अधुरा है. इस तथ्य से आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है. बशर्ते आप शादी-शुदा हों.

17 January, 2013

रूकती सांसे सांसें... थमते नब्ज... और झूठा दिलासा

जिंदगी तो बेवफा है... एक दिन ठुकराएगी, मौत दिलरूबा है यारों संग लेके जाएगी...! मौत यानी जिंदगी का सबसे भयावह क्षण. खासकर अल्प आयु में किसी अपने के जाने की कल्पना से ही लोग सिहर जाते हैं. इसकी संवेदना व गहराई वही समझ सकता है, जिसके सामने उसका करीबी या परिजन गुजरा हो.

...और जिसने इस नाजुक पल को जिया हो. क्या...ह्रदय विदारक दृश्य होता है वह! जब जिंदगी से जद्दोजहद कर रहा कोई अपना घड़ी दर घड़ी मौत के आगोश में जाने को बेताब हो.

अधखुले मुंह... रूकती साँसे...थमते नब्ज...शून्य में पथराई आँखें. जिंदगी है कि साथ नहीं छोड़ना चाहती. और मौत साथ ले जाने को बेताब. समीप बैठे परिजनों का दिल भी अनहोनी की आशंका से बैठा जाता है. आशा-निराशा के जबरदस्त उधेड़बुन में फंसे सभी एक-दूसरे को देते कोरी संतावना.

इस बेबसी व लाचारी के बीच एक झूठा दिलासा भी कि...कुछ नहीं हुआ है. सब ठीक हो जाएगा. फिर इसी रस्साकशी में आत्मा शरीर का साथ छोड़ जाती है. मचती है ख़ामोशी को चीरती अपनों की चीख-पुकार. कुछ दिल से रोते हुए व कुछ समाज को दिखाने के लिए. कुछ न चाहते हुए भी गमगीन माहौल की वजह से आंसू ढलका ही देते है. क्योंकि यह सनातनी परम्परा है. 

16 January, 2013

धंधा चमकाने को लेबल बूरा नहीं है!

अखबार में बतौर स्टिंगर कुछ अच्छा लिख कर बाईलाइन खबर छपवाने की सनक. यानी कि ऐसी बीमारी जिसका इलाज बेहद महंगा है, जबकि तरीका उतना ही घटिया. खासकर कस्बाई क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हो तब. भगवान ना करें किसी को छपास का रोग लगे. वरना शीशी में करुआ तेल लेके हर वक्त हथेलियों को मालिश के लिए तैयार रखना होगा. इस पर भी छपने की गारंटी नहीं रहती. क्योंकि 'हर शाख पर उल्लू...' वाली कहावत सुने हैं ना. 

और अख़बार के मुफसिल मॉडेम केन्द्रों की बात ही न पूछिए. यहाँ तो अच्छी से अच्छी खबरों को भी बेदर्दी से काट-छांट कर लगाने या एकदम से दबाने की ओछी परम्परा तो दशकों से चली आ रही है. हाँ कभी-कभी उदार प्रवृति के सरोकारी सोच वाले प्रभारी भी आते हैं. जो आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए आपकी लेखनी को जगह देते हैं. लेकिन इनके जाते ही स्थिति जस की तस हो जाती है. 

वैसे धंधा चमकाने के लिहाज से खबरची का लेबल बूरा नहीं है. लेकिन टिकाऊ बने रहने के लिए रचनात्मकता को मारना ही पड़ता है. वरना ज्यादा लिखा-पढ़ी की, तो कई सारे साथी कलमची भी विकेट गिराने की हद तक दुश्मन बन जाते हैं. यह बात मैंने निजी अनुभव के आधार पर कही है. इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं.

11 October, 2012

'' लिखो ऐसा कि रिक्शा चालक भी समझ जाए ''

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श्रीकांत भले ही प्रस्तुत आलेख के शीषर्क में सस्तेपन का तड़का लगा हो, लेकिन परोसे गए रोचक कंटेंट से आपको, खासकर कलमकारों को नए तेवर में लेखन का एक बेहतर आइडिया मिल सकता है, ऐसा मेरा मानना है. यदि अच्छा लगे तो प्रतिक्रिया जरूर दीजिएगा.

बात 2006 की है,  तब हिन्दुस्तान फीचर डेस्क, पटना में अवधेश प्रीत की पाठशाला का छात्र था. मैंने अखबार के लिए एक फीचर लिखा और उन्हें दिखाया. फीचर में लिखे दो शब्दों पर उन्होंने कड़ी आपत्ति जताई. इस में पहली पंक्ति 'उनकी शिक्षा-दीक्षा गांव में ही संपन्न हुई' और दूसरी पंक्ति 'उनका स्थानांतरण पटना हो गया' था. इसी को लेकर श्री प्रीत ने जोर की डांट लगाते हुए कहा, यार बार-बार मना करता हूं लेखन में तत्सम या क्लिष्ट शब्दों के प्रयोग को लेकर. समझते क्यों नहीं तुम एक पत्रकार हो, न कि शब्दों के आडंबर से विद्धता झाड़ने वाले साहित्यकार.

उन्होंने कहा, ''अखबार आमजनों की भाषा में उनकी आवाज है. हम वैसे सरल शब्दों को क्यों ना लिखें जिसे रिक्शा चालक या पांचवीं पास भी आसानी से समझ जाए. यदि तुम 'संपन्न हुई' की जगह 'पूरी हुई' व 'स्थानांतरण' के बदले 'तबादला' लिखते तो कितना अच्छा होता!''  कहना चाहूंगा कि यह नसीहत सुनकर मुझे बड़ी कोफ्त महसूस हुई और कुंठित हो गया. क्योंकि पुराने ढ़र्रे को छोड़कर नई चीजें अपनाना किसी को भी बेहद मुश्किल लगता है. और यह मनुष्य की सहज प्रवृति है.

मैं मन ही मन सोचने लगा कि जब भी कुछ अच्छा करके लाओ, सर उसमें कोई न कोई खामी ढूंढ़ ही लेते हैं. फिर मैंने डरते-डरते पूछा, ''लेकिन सर...इससे तो लेखन का स्तर गिर जाएगा.''  इस पर श्री प्रीत ने कहा, ''सरल शब्दों के प्रयोग का मेरा आशय भाषा के सस्तेपन से नहीं है. लिखते वक्त इसका खास ख्याल रखो कि एक ही शब्द का दोहराव न हो, ताकि लेखन में नयापन, रचनात्मकता व रोचकता की चाशनी बरकरार रहे.

कुछ ऐसा कि पाठक एक बार पढ़ना शुरू करे तो उसकी नजर अंतिम पैराग्राफ पर ही ठहरे.''  धीरे-धीरे मैंने इन चीजों को अपने लेखन में अपना लिया और मुझे मजा आने लगा. आज युवाओं के हाट लेखक चेतन भगत के अंग्रेजी उपन्यासों से लेकर प्रभात खबर,दैनिक भास्कर,नंदन, कादांबनी, सरिता, हंस इत्यादि तमाम स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में यह बदलाव देखा जा सकता है.
लेखक श्रीकांत सौरभ ब्लॉग के संपादक हैं.