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24 March, 2014

NDTV वाले रविश के गांव से श्रीकांत सौरभ की रिपोर्ट

बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी से 36 किमी दक्षिण-पश्चिम में बसी है एक छोटी सी पंचायत, पिपरा. गंडक (नारायणी) नदी के बांध से सटे कछार में बसा यह गांव, प्राकृतिक दृश्यों के लिहाज से बिहार के मैदानी इलाके में स्थित किसी भी गांव से ख़ूबसूरत और उसी के अनुरुप पिछड़ा भी है. पर खांटी भोजपुरी परिवेश यहां के रग रग में चलायमान है. विश्व प्रसिद्द सोमेश्वर नाथ मंदिर, बाबा भोले की नगरी अरेराज अनुमंडल मुख्यालय से महज आठ किलोमीटर किमी की दूरी पर स्थित यह पंचायत अंतिम छोर पर है. क्योंकि यहां के बाद गंडक (नारायणी) नदी का दियारा शुरू हो जाता है. फिर नदी के उस पार गोपालगंज जिला. करीब 12 हजार की आबादी वाली इस पंचायत में तीन राजस्व गांव पड़ते हैं, पिपरा, गुरहा व जितवारपुर. इनमें बात अगर जितवारपुर की करें तो, यह जग़ह इस मायने में खास है कि यहां NDTV के संपादक व वरीय पत्रकार रविश कुमार का पुश्तैनी घर है.

यह सही है कि जब कोई आदमी अपने कर्मों से लोकप्रिय होकर ग्लोबल पर्सनालिटी बन जाता है. तो उसे किसी विशेष गांव, धर्म, जाति या काल में बांध कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन जैसा कि खुद रविश अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ में अक्सर गांव के ‘बाबू जी’, ‘मां’, ‘बाग-बगीचे’, ‘खलिहान’, ‘बरहम बाबा’, ‘पोखर’, ‘छठी माई’, ‘नारायणी नदी’, ‘गौरैया’ आदि का जिक्र करते रहते हैं. क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए. मातृभूमि में बचपन के बिताए कुछ सुनहरे पल भुलाए भी कहां भूलते हैं. बल्कि स्मृतियों में जीवित रहते है ‘नौस्टेलेजिया’ बनकर. और जब कभी मन में भावनाओं का शैलाब उमड़ता है. फ्लैश बैक में गोता लगाते हुए बीते दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं.

कुछ समय पहले रविश ने अपने ‘ब्लॉग’ में लिखा था कि उनके गांव में बिजली आ गयी है. इसको लेकर ग्रामीणों में किस तरह का उत्साह है? उनकी ज़िंदगी में बिजली आने के बाद किस तरह का बदलाव आया है? स्थानीय मीडिया इस खबर का कवरेज जरूर करें. लेकिन ऐसा नहीं होना था सो नहीं हुआ. कस्बाई पत्रकारिता में इसके कारण तो बहुत सारे हैं, पर उल्लेख करना मैं उचित नहीं समझता. इसलिए कि मैं भी इसी समाज का रहनिहार हूं और पानी में रहकर मगर से..! खैर, मेरे गांव से जितवारपुर की दूरी मात्र 20 किमी है. पिछले दिनों वहीँ पर एक रिश्तेदारी में जाने का प्रोग्राम बना. सोचा, रविश तो पूरे देश की रिपोर्ट बनाते हैं. क्यों नहीं उनके गांव की ही एक छोटी सी रिपोर्ट बनाने की गुस्ताखी कर ली जाए, अपनी नवसिखुआ शैली में. आखिर एक ही गांव-ज्वार के होने के नाते कुछ अपना भी कर्तव्य तो बनता ही है.

प्रकृति के साए में नजर आया विकास


अरेराज से दक्षिण दिशा की तरफ जा रहे स्टेट हाइवे 74 को पकड़ जैसे ही चार किमी आगे बढ़े. भेलानारी पुल के समीप से एक पक्की सड़क पश्चिम की ओर निकलती दिखी. एक राहगीर से पूछा, पता चला यहीं से जितवारपुर पहुंचा जा सकता है. किसी काली नागिन से इठलाती बल खाती 12 फीट की चिकनी सड़क. और सड़क के दोनों ओर खेतों में नजर आ रही गेहूं की बाली, हरी भरी मकई, कटती ईख, पक्की सरसो व दलहन की फसलें. बहुत कुछ कह रही थी. यह की गंडक से हर वर्ष आनेवाली बाढ़ अपने साथ त्रासदी तो लाती है. लेकिन बाढ़ के साथ बहकर आई गाद वाली मिट्टी इतनी उर्वर होती है कि अगली फसल से क्षति की भरपाई हो जाती है. हालांकि किसी किसी जगह चंवर में जमा पानी इस बात का आभास भी करा रहा था कि फ्लड एरिया है. तो यह देख खुशी भी हुई. एक समय जिस कच्ची सड़क से गुजरने से पहले लोग सौ बार सोचते थे. खासकर बरसात के दिनों में तो बंद ही रहती होगी. आज उसपर चकाचक सड़क बनी हुई है.

हालांकि कहीं कहीं थोड़ी दूरी के उबड़ खाबड़ रास्ते भी मिले. जो पुराने हालात की गवाही दे रहे थे. इस कारण ना चाहते हुए भी बाइक में ब्रेक लगाना पड़ता. ठीक टीवी पर चल रही किसी बढ़िया फिल्म के बीच बीच में आ रहे विज्ञापन की तरह. कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. थोड़ी दूर आगे ही एक जगह सड़क के दोनों किनारे खड़े घने बांसों की हरियाली दूर से ही मन मोह रही थी. यहीं नहीं दोनों ओर से बांस झुककर मंडप की आकृति में सड़क के उपर पसरे थे. मानो खुद प्रकृति ने बाहर से आनेवाले अतिथियों के स्वागत में इसे सजाया हो. ख्याल आया, कम से कम एक फोटो तो बनता ही है, सो खींच लिया. आगे बढ़ने पर एक घासवाहिन मिली सिर पर घास की गठरी लादे हुए. उससे गांव का रास्ता पूछा. तो बताई, दो दिशा से जा सकते हैं. एक गांव के पूरब से है जो कि सीधे बांध तक जाता है. दूसरा पश्चिम में सेंटर चौक से मेन गांव में. तय हुआ अभी पहले वाले रास्ते से चलते हैं. लौटते समय दूसरे रास्ते से आएंगे.

बांध पर के बरहम बाबा और किनारे का पोखरा


थोड़ी देर में ही हम गंडक के बांध पर पहुंच गए. पक्की सड़क वहीँ तक थी और उपर में ईट का खरंजा. बांध पर चौमुहान था जहां तीन पीपल के पेड़ खड़े थे अगुआनी के लिए. और किनारे ही पोखरा में कुछ लोग भैंसों को नहला रहा थे. सामने से गंजी पहने एक जनाब हाथ में डिबिया लिए आते दिखे. मुद्रा बता रहा था कि दिशा मैदान से आ रहे हैं. पूछने पर नाम हसमत अंसारी बताए. बोले, ई गांव का बरह्म बाबा चौक है. समझ लीजिए गांव का पूर्वी सिवान. बियाह का परिछावन, लईका सब का खेलकूद आ बूढ़-पुरनिया का घुमाई फिराई सब इहवे होता है. यहां से गांव के चारो दिशा में जा सकते हैं. बोले, जब मेन रोड नहीं बना था बरसात में बांध ही रास्ता था. मैंने पूछा, आपके गांव में बिजली आई है? उन्होंने कहा हां, आई तो है लेकिन हमारे घर नहीं रहती. काहे कि मीटर नहीं लगा है न.


तभी मैंने पूछा, आप रविश कुमार का घर बता सकते हैं? कौन रविश?, यह उनका जवाब था. पत्रकार साहब का, मैंने जोर देकर कहा. उन्होंने कहा, ई तो नहीं जानते हैं. लेकिन मेरे एक पड़ोसी दिल्ली में बड़का पत्रकार हैं. उहें के प्रयास से इहां लाइन आया है. उनका नाम नहीं बता सकता. बचपने से कमाई के लिए कश्मीर रहता हूं. कभी कभी छुट्टी में आना होता है. इसीलिए बहुत कुछ इयाद नहीं रहता. मैं उसकी बातों को सुन अचकचाया और बुदबुदाया, अरे भाई पड़ोसी होकर भी आपने रविश का नाम नहीं सुना. तो उन्होंने कहा, घरे चलिए ना, उहें बाबूजी से पूछ लीजिएगा आ बिजली वाला ट्रांसफार्मरो देख लीजिएगा.

रविश के घर तक ही है बिजली का ट्रांसफार्मर

रविश के पैतृक घर के पास खड़ा ट्रांसफ़ॉर्मर

पड़ोसी राजा मियां
हमलोग बांध से उतारकर उनके पीछे मुख्य सड़क पकड़कर पश्चिम की ओर बढ़े. थोड़ी दूरी पर ही एक बड़े मकान की बाउंड्री के आगे लगे ट्रांसफार्मर के पास ठहर गए. तभी एक उम्रदराज मौलाना आते दिखे. ये हसमत के पिता राजा मियां थे. उन्होंने बताया, जी इहे रविश पांडे यानी पत्रकार रविश कुमार का घर है. आ सामने वाला हमारा घर है. गांव के नाता से ऊ (रविश) मेरे बाबा लगते हैं. चार भाई हैं. पटना में भी मकान है. साल भर में कोई ना कोई अइबे करता है. अबकी छठ पूजा में रविश काका भी आए थे. सब लोग कहे आप एतना बड़का साहेब हैं. गांव में और जगहे लाइन है. मनिस्टर से कहके इहां भी बिजली मंगा दीजिए. आ उनकरे प्रयास है कि इहों बिजली आ गई. मैंने पूछा, आपके घर में बिजली है? जवाब मिला, कनेक्शन के लिए आवेदन दिए हैं. मिलेगा तभिए जलाएंगे, चोराके नहीं.
पड़ोसी ऋषिदेव मिश्रा

पास में ही एक अधेड़ साईकल से उतर हमें सुनने लगे. चेहरे से लगा कुछ कहने के लिए उतावले हैं. उनकी ओर मुखातिब हुआ. नाम ऋषिदेव मिश्रा बताए. बोले, आप जहवां खड़े हैं. इहे हमर घर है. पत्रकार है त जाकर अखबार में लिखिए ना कनेक्शन लेवे में बहुते लफड़ा है. चार बेर अरेराज ऑफिस में कनेक्शन के आवेदन के लिए गए. कभी कोई नहीं रहता है तो कभी कोई. आप ही बताइए, ‘नया बियाह हुआ हो तो बथानी पर सुते के केकरा मन करता है.’ बोलते बोलते वे तमतमाने भी लगे और उनका आक्रोश बातों से झलकने लगा. का कीजिएगा प्रशासने सब भ्रष्ट है. ई हाल है कि गांव में दस घर में कनेक्शन है आ पच्चीसों आदमी टोका फंसा कर (चोरी छुपे) इस्तेमाल कर रहे हैं. हम त कसम खाए हैं बिना मीटर नहीं जलाएंगे.

इसी बीच बगल में खड़ा एक लड़का कहने लगा, सर लाइनों तो चार पांचे घंटा रहता है, उहो दिन में. रात में अइबे नहीं करता है. का फायदा एह बिजली से कि किरकेट आ सीरियलो नहीं देख पाते हैं. कुछ बढ़े तो मोड़ पर महेद्र राय मिले. बिजली के बाबत बताए, सर बांध के किनारे दोनों ओर केतना लोग बसे हैं. उहां तक तो पोल नहीं गया है. रविश बाबा के घरे तक ट्रांसफोर्मर है. आप बताइए एतना दूर तार कइसे खीँच कर ले जाएंगे. यानी बिजली नहीं थी तो कोई बात नहीं थी. अब आ गई है तो भी घर में अंधेरा रहे और पड़ोसियों के यहां बल्ब जले, टीवी चले. या फिर बिजली नियमित नहीं रहे. ये किसी को बर्दाश्त नहीं.

पहले था जंगल राज अब शांति

बांध पर खड़े ग्रामीण. चलो एक फोटो हो जाए, यहीं कहते हुए.
बांध के दक्षिण तरफ किनारे पर भी लोग बसे हैं. इधर की तरफ बांध से सटे बांस, बगीचे और खेतों की हरियाली थोड़ी बहुत है. लेकिन दूर दूर तक केवल खरही के झुरमुट और रेतीले मैदान दिखाई पड़ते हैं. क्योंकि इसके बाद रेतीली जमीन और नदी की धारा है. बांध पर टहलते हुए तपस्या भगत मिले. विधि व्यवस्था के बाबत पूछा तो बताने लगे, दस साल पहले लालटेन के जमाने में पूरी तरह जंगल राज था. दिनदहाड़े कब कौन कहां चाकू, गोली, बम या छिनतई का शिकार हो जाए. कहना मुश्किल था. दियर के एक खास जाति का लोग सब एतना जियान करता था कि एने के लोग अपना रेता वाला खेत में ककरी, लालमी आ खीरा रोपना छोड़ दिए थे. डकैतों के डर से कोई खरही काटने भी नहीं जाता था. शाम के सात बजे ही घरों में ताले लग जाते थे. रात भर जाग के बिहान होता था. ना मालूम कब कवना घरे डकैती हो जाए. फिर उन्होंने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, पर अब शांति है. 

त्रासदी है बाढ़ पर पलायन से आई खुशहाली

बगल में ही वरीय सामाजिक कार्यकर्ता जगन्नाथ सिंह का घर है. इन्हें स्थानीय लोग प्यार से ‘नेता जी’ से संबोधन करते हैं. उन्होंने बताया, पिपरा पंचायत में 16 वार्ड और आठ हजार मतदाता हैं. मुख्य सड़क तो पक्की हो गई है पर गलियां अभी भी कच्ची हैं. एक उप स्वाथ्य केंद्र है जहां कभी कभी नर्स नजर आ जाती है. सरकारी प्रारंभिक व मध्य विद्दालय हैं. लेकिन अधिकांश लोग अपने बच्चों को शहर में रहकर कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं. उन्होंने बताया, बांध के दक्षिण नदी वाले दिशा में ग्रामीणों की हजारों एकड़ जमीन बाढ़ के कारण परती (वीरान) रहती है. पर उतर साइड में थोड़े बहुत उपजाउ खेत हैं. गांव की पच्चास प्रतिशत आबादी का पलायन है. यहां के निवासी काफी कर्मठ व जीवट प्रवृति के हैं. इसी कारण जहां भी जाएं अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ लेते हैं. 

वे बताते हैं, गांव के लोग मोतिहारी, बेतिया, पटना, मुंबई, दिल्ली, असम, गुजरात से लेकर अरब, दुबई और अमेरिका आदि जगहों तक पसरे हैं. बाहरी पैसा आने से हर घर में खुशहाली है. अधिकांश घरों में कोई ना कोई सरकारी नौकरी में है. यहां ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, मुस्लिम, गिरी, दलित, महादलित, कुर्मी सभी जातियों के लोग हैं. लेकिन आपस में सदभावना है और एकता भी. आपको बता दें कि अरेराज अनुमंडल के तहत गंडक किनारे दो प्रखंड आते हैं, गोविंदगंज और संग्रामपुर. और मोतिहारी शहर में 60 प्रतिशत डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद्, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, ठेकेदार या व्यवसायी इन्हीं जगहों से हैं. मतलब जिला मुख्यालय में भी इनका ही वर्चस्व है.

चौक पर बिक रही एफएमसीजी उत्पाद


प्लान के मुताबिक लौटते वक्त हम पिपरा सेंटर चौक की ओर से निकले. यहां भी चौमुहान रास्ता दिखा. एक छोटा सा चौक, सड़क से सटे एक सैलून, एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान, पान की गुमटी व एक परचून की दुकान जैसा मिशलेनियस स्टोर भी दिखे. इस स्टोर में मोबाइल चार्ज, रिचार्ज. तम्बाकू, भुजिया, नमकीन, बिस्किट, मैगी, ब्रेड, कुरकुरे, ठंडें की बोतलें आदि चीजें बिकने के लिए रखी थीं. वहीँ पर हरिनाथ शुक्ल जी खड़े होकर एक छोटे रोते बच्चे को कोरा में थामे चुप करा रहे थे. बोले, पोता हैं ‘कुरकुरा’ खरीदने का जिद कर रहा था. इसलिए चौक पर लाया. खरीद दिया तो अब कह रहा है, स्प्राईट चाही. बताइए ई कोई बात हुआ, ठंडा गरमी का सीजन है. ठंढ़वा पियेगा त लोल नहीं बढ़ जाएगा.

(यह रिपोर्ट ग्रामीणों से भोजपुरी में बातचीत पर आधारित है. कंटेंट को पाठ्यपरक बनाने के लिए बातों को भदेस में तब्दील किया गया है.)

14 March, 2014

यहां भोजपुरी बोलने पर मिलता है सम्मान

“इतिहास हमें सिखाता है कि किसी देश को बर्बाद करना है तो सबसे पहले वहां की मातृभाषा को नष्ट कर दो. शायद जर्मनी, चीन, फ्रांस व जापान के लोग इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ थे. इसलिए उन्होंने अपनी मातृभाषा को मरने नहीं दिया. मातृभाषा का मतलब महज कुछ शब्द भर नहीं, यह हमारी पहचान, हमारा अभिमान और हमारी एकता का प्रतीक है. सही भी है कोई भी इंसान अपनी सभ्यता व संस्कृति को नजरंदाज कर एक अच्छा लेखक या कलाकार नहीं बन सकता.” विदेशी अस्पताल की गैलरी में एक कोने पर सूचना बॉक्स में चिपकाए गए इस कतरन को पढ़ नजरें उस ओर ठहर गई. उपरोक्त चंद पंक्तियां लेबनान की कवयित्री व सामाजिक कार्यकर्ता सुजैन टोलहॉक के स्तम्भ से ली गई है, जो 12 जनवरी वर्ष 14 को ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपा था.

नेपाल के तराई शहर वीरगंज से कुछ ही दूरी स्थित परवानीपुर के केडिया आंखा अस्पताल में मां की आंखों के इलाज के लिए पिछले दिनों जाना हुआ. इस पार बिहार का सीमाई कस्बा रक्सौल और उसपार वीरगंज. अस्पताल में जब भाषाई संवेदनशीलता से रूबरू हुआ तो जिज्ञासु मन में सहज ही जानने की इच्छा प्रबल हुई. कि बिहार या भारत में किसी भी सार्वजनिक जगह पर ऐसा कुछ चिपकाया देखने को नहीं मिलता. सिवाए सरकारी टाइप दफ्तरों में हिंदी में लिखे स्लोगन के, जो कि एक विज्ञापन से ज्यादा नहीं जान पड़ते. मसलन ‘हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है’, ‘हिंदी में काम करना हमारा नैतिक कर्तव्य है’, ‘हिंद है हम वतन है हिंदोस्ता हमारा’ आदि आदि. ताज्जुब की बात है ये स्लोगन किसी अन्दुरुनी प्रेरणा से नहीं बल्कि महज खानापूर्ति के लिए लिखे गए हैं. क्योंकि ऐसा सरकारी आदेश है. वरना पूरे भारत में कथित राष्ट्र भाषा हिंदी की क्या दुर्गति है यह किसी से छुपी नहीं. खैर, मै विषय की तरफ लौटना चाहुंगा.

मैंने इस बाबत कुछ जानने के इरादे से बगल में खड़े अस्पताल के सहायक कम्पाउण्डर राम तपस्या यादव से पूछा, ‘यादव जी.’

उन्होंने विनम्रता से कहा, ‘हुजूर?’ (नेपाल में किसी को संबोधन के तौर पर ‘सर’ या ‘महाशय’ की जगह, जैसा कि भारत में बोला जाता है, ‘हुजूर’ ही कहा जाता है.)

उनकी सवालिया नजरों को ताड़ मैंने बॉक्स की तरफ इशारा कर कहा, ‘ये अखबार का कटिंग यहां क्यों चिपकाया गया है?’

पहले तो वे अचकचाकर मुझे घूरने लगे कि ये क्या पूछ रहा हूं. लेकिन फिर माजरा को समझ उन्होंने कहा, ‘बै महाराज, बुझाता रऊआ बेलायत से आइल बानी. हिंदिए में त लिखल बा पढ़के समझ ली.’ 


उन्होंने भोजपुरी में इतना ही कह मुझे टरकाना चाहा पर मैंने सफाई दी, ‘जी समझ में त आवता बाकिर हम जानल चाहा तानी ई इहवां चिपकावल काहे बा?’
तो उन्होंने कहा, ‘हम त अस्पताल के छोटहन स्टाफ बानी. लेकिन हमरा जहां ले बुझाता ई उपर वाला (मुख्य प्रशासक) सभे सटवइले बाड़न. आपन मातृभासा के प्रचार करेला.’

‘प्रचार मतलब?’, मैंने अंजान बन पूछा.

'देखी इहवां नेपाल के राष्ट्र भाषा नेपाली ह आ हमनी के घरेया भासा भोजपुरी. आ ई दुनू भासा में इहवां बतियावला प रऊआ जादा आदर मिली. समझनी कि ना?'

यादव की बात सुन दिल को थोड़ी तसल्ली मिली क्योंकि मैं खुद झिझक के मारे हिंदी में बतिया रहा था. और उनके जवाब की पुष्टि भी हो गई, जब मैंने अस्पताल के चिकित्सकों से भोजपुरी में बात की. सभी ने काफी शालीनता से मुझे सुना, जवाब दिया. ना कोई बनावटीपन, ना ऐठ, ना तो कोई पूर्वाग्रह ना ही भेदभाव, जैसा कि उतर भारत के शहरों में क्षेत्रीय जुबान में बात करने पर एक प्रकार की मानसिक हीनता से गुजरना पड़ता है. अस्पताल की प्रतीक्षा गैलरी में भी माइक से भोजपुरी में ही मरीजों को आवश्यक जानकारी दी जा रही थी. हालांकि परिसर में मैंने एक चीज पर गौर किया की यहां आए 90 फीसदी मरीज बिहार व यूपी के मोतिहारी, बेतिया, बगहा, गोपालगंज, छपरा, सिवान, आरा, पटना व महराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर आदि जगहों के दिखे. जो कि खांटी भोजपुरी क्षेत्र है. यानी भोजपुरी में सहज संवाद का एक खास कारण इस भाषा का यहां मार्केट वैल्यू होना भी है.

वीरगंज में दिखा भोजपुरी का पहला दैनिक अखबार


वीरगंज स्थित घंटाघर चौराहा यानी शहर का चर्चित स्थल, जहां से बाजार जाने के लिए कई गलियां निकलती हैं. यही कोने पर पत्र-पत्रिकाओं की एक छोटी सी अस्थायी दुकान दिखी. जहां काउंटर पर हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर (सभी मोतिहारी संस्करण) के साथ तमाम हिंदी, अंग्रेजी व नेपाली पत्र-पत्रिकाएं बिकने के लिए सजी थीं. तभी इसी कतार में ‘भोजपुरी पाती’ नामक दैनिक पर आंखें रूक गई. उठाकर पड़ताल की तो पाया दो पृष्ठों के इस श्वेत-श्याम अखबार में तराई क्षेत्र की दैनिक खबरें छपी हैं. मैंने बिना देरी किए वेंडर से अखबार का दाम पूछा. जवाब मिला, नेपाली पांच रूपये यानी तीन रुपये भारतीय. हालांकि कंटेंट के हिसाब से मूल्य कुछ ज्यादा लगा. लेकिन भोजपुरी में पढ़ने का मोह नहीं छोड़ पाया. सो उसे खरीद लिया.

घर आकर अखबार को पलटा तो उम्मीद के मुताबिक ही छपी सामग्री सतही लगी. इसमें भोजपुरी को लेकर किए जा रहे संघर्ष के अलावा कुछ भी खास नजर नहीं आया. अखबार के कार्यालय का पता वीरगंज ही छपा था. जबकि अंतिम पृष्ठ पर रक्सौल, बिहार के संवाददाता लटपट ब्रजेश का नाम और उनका मोबाइल नंबर विज्ञापन की तरह एक बैनर में प्रकाशित था. अधिक जानकारी के लिए उनको फोन मिलाया. तो बतकही का सिलसिला चल पड़ा और कब एक घंटा निकल गया पता ही नहीं चला.

कई सारी चीजों पर चर्चा हुई जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा. लेकिन मेरे जैसे नवही व गवही मातृभाषा प्रेमी की संतुष्टि के लिए इतनी ही जानकारी काफी थी कि पूरे तराई क्षेत्र में इस दैनिक की प्रसार संख्या 10 हजार के करीब है. मुंह से तो न सही पर दिल से एक अनकही दुआं भी निकली, चलो कोई तो है जिसकी बदौलत भोजपुरी भाषा की पटरी खिंच रही है. (एक पत्रकार, कवि, लेखक व भोजपुरी एक्टिविस्ट लटपट ब्रजेश के लंबे संघर्षों की दास्तान जल्द ही साक्षात्कार के तौर पर इस ब्लॉग में प्रस्तुत करूंगा.)

दर्जनों नेपाली एफएम पर बह रही भोजपुरिया बयार

“ई गढ़ी माई एफएम ह, तनी देर में रउआ तराई क्षेत्र के समाचार सुनेम.”, “बनल रही हमनी के संगे जाई मत कही. काहेकि संस्कृति एफएम सुनावे जा रहल बा कल्पना के आवाज में पूर्वी गीत.” जी हां, कुछ इसी तरह के उद्गारों के साथ नेपाल के तराई कस्बों में करीब दो दर्जन एफएम गुलजार हैं. बिहार व नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों वीरगंज, कलैया, गौर, ढेंग, बैरगीनिया, जनकपुर, विराट नगर आदि में संचालित इन एफएम केन्द्रों से भोजपुरी, नेपाली, मैथिली में मनोरंजक कार्यक्रम, समाचार व गाने दिन भर प्रसारित होते रहते हैं. जिनके श्रोताओं में बिहार में मोतिहारी, सीतामढ़ी, बेतिया, शिवहर, बगहा, मधुबनी के रहनिहार भी शामिल हैं.

नेपाल में कुकुरमुते की तरह इनके फैले होने की खास वजह यहां भारत की तरह एफएम लाइसेंस लेने की प्रक्रिया का पेचिदा नहीं होना भी है. और कोई भी तीन से पांच लाख भारतीय रुपये में इसे शुरू कर सकता है. इनका कवरेज क्षेत्र 30-70 किमी तक है. हालांकि कंटेंट के मामले में भारतीय एफएम की गुणवता से तुलना करना बेईमानी सरीखा होगा. हां, इतना जरूर है कि बिहारी विज्ञापनों से हो रही अकूत कमाई से इन सबकी पाव बारह है.

पहले नहीं था भोजपुरी को लेकर इतना क्रेज

आज से 30 साल पहले नेपाल में भोजपुरी भाषी को नीची नजरों से देखा जाता था. हर जगह नेपाली बोलने का चलन चरम पर था. यह कहना है भोजपुरी बौद्धिक विकास मंच के संस्थापक लटपट ब्रजेश का. वे रक्सौल से ही सटे जटियाही गांव के निवासी हैं जो फिलहाल शहर के कौडिहार चौक के पास रहकर करीब 30 वर्षों से मधेसियों के बीच भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहें. इन्होंने भारतीय होते हुए भी काठमांडू में 15 देशों को लेकर आयोजित ‘विश्व भोजपुरी सम्मलेन’ में नेपाल की ओर से प्रतिनिधित्व किया हैं.

वे बताते हैं कि बचपन में जब अपने ननिहाल नेपाल के एक गांव में जाता था. तो ग्रामीणों की भाषा भोजपुरी देख बेहद खुशी मिलती. जब थोड़ा बड़ा हुआ और समझदारी आई तो नेपाल में भोजपुरी को लेकर किए जा रहे भेदभाव, खासकर वहां के मूल निवासियों (पहाड़ी लोगों) का भाषाई आधार पर मधेसियों के साथ दोयम व्यवहार मन को काफी कचोटता था. इस भाषा में अखबार व साहित्य गढ़ना तो दूर की बात थी. भोजपुरी बोलने का मतलब खुद को पिछड़ा होना साबित करना था. जबकि यहां का बाजार व कारोबार पूरी तरह भोजपुरी भाषियों पर ही केंद्रित है.

आगे उन्होंने बताया कि भोजपुरी वैसी समृद्ध भाषा है जिसमें स्वाभिमान, ओज, आग्रह, विनम्रता, मिठास के साथ ही दबंगता भी कूट कूट कर भरा है. इस रसिक बोली में इतनी क्षमता भी है कि किसी भी गैर भाषी जनों को खुद में समाहित कर सकती है. ब्रजेश बताते हैं कि आज आप इस तराई शहर में जो कुछ भी देख रहे हैं. यह एक लंबे संघर्ष का परिणाम है.



नेपाल के परवानीपुर में स्थित केडिया आंखा अस्पताल

                                     
नोटिफिकेशन बॉक्स में चिपकी स्तंभ की कतरन

वीरगंज स्थित शहर की ह्रदय स्थली घंटा घर चौराहा

नेपाल से प्रकाशित भोजपुरी दैनिक

26 February, 2014

इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है

मुफ्फसिल क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद दुरुह काम है. और यहां तकरीबन 90 प्रतिशत ग्रामीण पत्रकारों को दस टके पर खटना पड़ता है. वह भी सुबह से शाम तक. जबकि यही एक पेशा है जिसमें महज पैसे कमाने के लिए कोई नहीं आता, यदि अपवाद के तौर पर चंद दल्लमचियों को छोड़ दें तो. अभी भी अखबारों के जिला कार्यालय में कुछ ऐसे खबरची हैं, जिनके लिए पत्रकारिता मिशन व प्रोफेशन के बीच 'कुछ' है. इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है. जिससे समाज में इस बिरादरी की थोड़ी बहुत पूछ व विश्वसनीयता है.

हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया के नाम पर दल्लागिरी करने वाले कतिपय भांडों ने सौ- दो सौ रुपए के लिए जिस तरह से अपनी जमीर का सौदा करना शुरु कर दिया है. फिलहाल आम जनता सभी को एक ही नजर से देखने लगी है. दीगर की बात ये है कि जिस कथित सम्मान के लिए पत्रकार मरता है. यदि वह भी नहीं मिलेगा तो कोई कब तक इसे झेलेगा? आने वाले दिनों में पत्रकारों की स्थिति और भी गर्त में गिरेगी, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

"...घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला"

कल एक शादी समारोह में खाना बनाने वाले कैटरर्स को आपस में बंगाली में बतियाते देख नजरें उनपर ठहर गई. स्थानीय हलुवाई टीम का एक भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इस कदर दूसरी भाषा में बातें करने को लेकर उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई. वजह यह भी रही कि वे जितनी सहजता से बांगला बोल रहे थे, भोजपुरी भी उतनी आसानी से. पूछने पर पता चला वे बेतिया के लालसरैया गांव से हैं. उनके पूर्वज कई दशक पहले बांग्लादेश से बतौर शरणार्थी (रिफ्यूजी) बिहार आए तो यही पर बस गए. जहां उनकी अच्छी खासी आबादी हैं. मैंने पूछा, 'तोहनी के आपन देश छूटला एतना दिन बीत गइल. बाकिर बांगला बोलल ना भुलाइल.'

तो एक ने कहा, बंगाली हमनी के माई-बाबू जी के भाषा ह, घर के भी. आ भोजपुरी चंपारण के. हमनी के अपना समाज में घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला. एही से अपना में बांगला में बतिआनी सन. उसका भोजपुरी में जवाब सुन मुझे बेहद सुकून मिला. महान हैं ये लोग जिनका वतन छूटे इतने वर्ष बीत गए. फिर भी इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी भाषा व संस्कृति सहेज कर रखी है. और एक हम हैं जो जरा सी शहरी हवा लगी नहीं की आपस में ही हिंदी और अंग्रेजी की टंगड़ी मारना शुरू कर देते है. साथ ही मुझे तरस आया उन कथित बुद्धिजीवियों व संगठन वालों पर जो मोतिहारी व बेतिया (चंपारण) को मैथिली भाषी क्षेत्र बता इसे अलग मिथिला राज्य में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. हां, भोजपुरी भाषा के आधार पर पूर्वांचल राज्य में इन जिलों को शामिल करने की मांग बहस का उम्दा विषय जरूर है. (अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष)

सौजन्य से, तराई भोजपुरी मंच

18 February, 2014

अब कलम नहीं चलाते ब्यूरो चीफ

एक जमाना था जब अखबारों के जिला संस्करण नहीं होकर प्रादेशिक पन्ने छपते थे. जिला कार्यालय में ब्यूरो चीफ की अच्छी खासी धाक रहती थी. अखबार के चर्चित संवाददाताओं की गरिमा निराली थी. उनकी धारदार लेखनी के कायल स्थानीय विधायक, मंत्री से लेकर एसपी व डीएम तक रहते. स्थिति यह थी कि ये हुक्मरान चिरौरी के लिए खुद कार्यालयों का साप्ताहिक या पाक्षिक दौरा लगाते थे. तब न आज की तरह इंटरनेट, कंप्यूटर, डिजिटल कैमरे व मोबाइल जैसी हाइटेक सुविधाएं थीं. ना ही रंग बिरंगे पन्ने बनते थे.

संवाददाता सूचना प्रेषित करने के लिए पूरी तरह फैक्स, तार या डाक पर निर्भर थे. और पूरे जिले में अखबार का 2 हजार प्रसारण भी काफी माना जाता. लेकिन उस वक्त श्वेत श्याम अखबार के पीले पन्ने में छपी खबर का जो रुतबा था. उसे शब्दों में व्यक्त करना मुमकिन नहीं. भ्रष्टाचार की एक खबर से सरकारी कर्मी का तबादला हो जाता. तो अवैध कारोबारी सलाखों की भीतर रहते. लेकिन वर्ष 00 के बाद जब जिले में अखबारों के मोडेम कार्यालय खुलने शुरु हुए. ब्यूरो चीफ की जगह कार्यालय प्रभारी रखे जाने लगे. क्षेत्रीय खबरों का दायरा जिले भर में ही सिमट कर रह गया. और वर्ष 14 में, अखबारों का स्तर गिरते गिरते उस दौर में पहुंच चुका है. कि भले ही जिले में अखबारों का प्रसारण हजारों में है.

लेकिन आकर्षक कलेवर में रंगीन छपाई वाले पन्नों की हालत परचे पोस्टर से ज्यादा की नहीं रह गई. लगभग सभी बैनरों के प्रबंधन का ही सख्त आदेश है कि विवादित यानी हार्ड खबरों की रिपोर्टिंग फूंक फूंक कर करनी है. भले ही खबर छूट जाए लेकिन बिना पूरा तथ्य के खबर नहीं छापनी है. स्पष्ट कहे तो फिलहाल लाइफ स्टाइल व पीआरओ शीप पत्रकारिता का चलन है. जहां कार्यालय प्रभारी की हैसियत महज प्रबंधक की है. जिसे अपने बैनर का प्रसारण बढ़ाने व उसके लिए विग्यापन जुटाने की मानसिक जद्दोजहद से ही फुर्सत नहीं. बचा समय स्टिंगरों से प्लानिंग की हुई खबरें संग्रह करवा यूनिट में भिजवाने में ही गुजर जाता है. फिर वह खबर क्या खाक लिख पाएगा?

भाषा सुधार नहीं सूचना के लिए पढ़ें अखबार

भले ही अन्य निजी संस्थानों में तमाम डिग्रियां होने के बावजूद स्किल टेस्ट लेकर ही भर्ती करने का प्रावधान है. लेकिन मीडिया में दक्षता जांच कर पत्रकार रखने की परिपाटी लगभग खत्म सी हो चुकी है. जबकि 90 के दशक के अंतिम वर्ष तक अखबारी जगत में परीक्षा लेकर रखने का चलन था. वे चाहे ग्रामीण संवाद सूत्र हों या सिटी रिपोर्टर. खासकर उनसे भाषाई शुद्धता व सामान्य जानकारी की अपेक्षा तो जरुर की जाती थी. मुझे याद है वर्ष 05 में जब मैं पटना में लेखन की एबीसी सीख रहा था.

श्रीकांत प्रत्यूष ने अपने अखबार नवबिहार के लिए बिस्कोमान भवन के नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दफ्तर हाल में संवाददाताओं की नियुक्ति के लिए टेस्ट आयोजित किया था. जिसमें मैं भी शरीक हुआ. यहीं पर मैंने जाना कि अंग्रेजी शासन में श्री कृष्ण सिंह बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री चुने गए थे. हालांकि इस टेस्ट में मेरा चयन न हो सका. लेकिन महज खानापूर्ति के लिए सतही स्तर पर ही सही, एक क्षेत्रीय अखबार की यह बहाली प्रक्रिया मुझे अच्छी लगी. अब प्रिंट में काम करने के लिए देवनागरी की समझ, 4 सी लिपिका में टाइपिंग व ज्यादा से ज्यादा हुआ क्वार्क एक्सप्रेस में पेजिनेशन की कला प्रवेश की शर्तें हैं.

जबकि नौकरी बचाने व प्रोन्नति के लिए संपादक स्तर पर तगड़ी पहुंच व सेटिंग भी निहायत अनिवार्य है. ऐसे में अखबार के लिए विग्यापन जुटाने व उससे बचे खाली पन्नों को डेडलाइन की भीतर भरने की कठिन झंझावातों के बीच व्यकारण के लिहाज से भाषाई शुद्धता की बात करना बेइमानी सरीखा है. एक यूनिटकर्मी की माने तो काम की अधिकता व समय पकड़ने की हड़बड़ी में बमुश्किल शीर्षक सुधारने का वक्त मिल पाता है. स्थिति ये है कि किसी भी हिंदी अखबार के मुख्य पृष्ठ का गंभीरता से अवलोकन कर लीजिए दर्जनों खामियां जरा निकल आएंगी. तर्क यह भी है कि आज का पाठक भाषा सुधारने के लिए नहीं सूचना पाने के लिए अखबार पढ़ता है.

मेरी वीरगंज (नेपाल) यात्रा - 1

जब भी रक्सौल आता हूं, जाने क्यों नास्टलेजिक हो जाता हूं. इस पार भारत व उस पार नेपाल का वीरगंज शहर. इस बार मां की आंखों के इलाज के लिए परवानीपुर (नेपाल) आया हूं. लकिन रक्सौल में ही एक रिश्तेदार के यहां ठहरना हुआ है. सीमा पर बसा यह अनुमंडलीय शहर दूसरों की नजर में भले ही अंतराष्ट्रीय कस्बाई बाजार से ज्यादा मायने नहीं रखता हो. लेकिन एक पत्रकार व लेखक के तौर पर मेरी भावुक आंखें यहां 'कुछ' और ही तलाशती हैं. तो जेहन में कई तरह के विचार कुलांचे मारने लगते हैं.

हालांकि मेरे गांव कनछेदवा से रक्सौल की दूरी महज 40 किमी है. सो साल में एक दो बार जरुर आना होता है. लेकिन पूरे 11 वर्ष बाद उस पार वीरगंज जाना हुआ. जाहिर सी बात है इतने समय के अंतराल में कई सारी चीजें बदली हैं. कंक्रीटों के जंगल के बीच व्यस्त सड़क पर ट्रक, आटो व घोड़ा गाड़ी की कतारें लंबी हुई हैं. तो भागमभाग के बीच जाम में फंसा पूरा शहर धूल व धुआं के गर्द गुबार में उनींदा अंघिआया मालूम होता है. लेकिन नहीं बदला है तो टांगे वालों का खांटी भोजपुरी बोलने का वह जमीनी अंदाज.

यहां के आम लोगों में भोजपुरिया ठसक के साथ एक खास तरह का आत्मीय लगाव बरबस ही मन मोह लेता है. साथ ही गजब के अपनापन का अहसास होता है. बचपन से सुनते आया हूं यह अरबपतियों का शहर है. धनकुबेरों की अनगिनत सूची में यहां का पान बेचने वाला भी करोड़पति है. शायद यहां संचालित कई तरह के गोरखधंधे से यह अफवाह फैली हुई है. मसलन चरस, गांजा, हेरोइन, जाली नोट, आर्म्स, कंप्यूटर पार्ट्स, सोना, खाद, अनाज की तस्करी से लेकर रुपये की खरीद बिक्री तक. पर इतना तो तय है कि यहां पोस्टिंग के लिए हर सरकारी कर्मी तरसता है.

चाहे वह पुलिस, कस्टम, राजदूत हो या प्रखंड के अधिकारी. सुनने में तो यह भी आता है कि यहां तैनाती के लिए उंची बोली लगती है. यहीं नहीं दो नंबर की कमाई करने वालों की भीड़ हर रविवार को वीरगंज के बीयर बार व होटलों में अय्याशी के लिए उमड़ पड़ती है. वही शाम ढले शराब, श्बाब व कवाब से लेकर जुए के लिए कैसिनो की महफिल सज जाती है. इतना होने के बावजूद भी दोनों तरफ के लोगों में गजब की सरलता, सहजता व मौलिता हैं. नेपाली व भारतीय रुपए का मिला जुला चलन. भोजपुरी, हिंदी व नेपाली किसी भाषा में बात कर लीजिए, इसको लेकर कोई दुराग्रह, पूर्वाग्रह या बनावटीपन नहीं. जारी...

18 September, 2013

बिहार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय और पटना प्रवास से जुड़ी मेरी यादें

किसी भी पद के लिए चयन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसकी गरिमा को बचाए रखना. और यह तभी मुमकिन है जब उस पद पर किसी योग्य व्यक्ति को चुना जाए. 'बिहार भोजपुरी अकादमी' भी एक मर्यादित संस्था है. जिसका जुड़ाव या यूं कहें कि सरोकार करीब 20 करोड़ भोजपुरी भाषियों से है. पिछले दिनों अकादमी के अध्यक्ष बक्सर निवासी रविकांत दूबे ने लखनऊ की अवधी-भोजपुरी गायिका मालिनी अवस्थी को संस्था का ब्रांड एम्बेसडर क्या बनाया. अच्छे-खासे विवादों में घिर गए. चौतरफा आलोचनाओं में घिरे रविकांत दूबे का कार्यकाल तीन वर्ष पूरा होते ही पद छोड़ना पड़ा. फिलहाल इनकी जगह जदयू के सक्रिय युवा कार्यकर्ता चंद्रभूषण राय को अध्यक्ष चुना गया है. इस बारे में मैं और कुछ लिखूं यहां स्पष्ट करना चाहुंगा. 

मैं खुद भोजपुरी भाषी इलाके मोतिहारी से हूं. मेरा ननिहाल व ससुराल पश्चिमी चंपारण (बेतिया) है. इसी कारण भोजपुरी मेरे रग-रग में रची बसी है. भोजपुरी से इस कदर लगाव है कि मैं किसी से तब तक हिंदी में बात नहीं करता. जब तक इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ ना हो जाऊं. कि सामने वाला बंदा भोजपुरी नहीं समझ सकता. हालांकि अपनी इस आदत के कारण कई बार शर्मिन्दा भी हुआ हूं. क्योंकि यह जानते हुए कि अगला भोजपुरी जानते हुए भी मुझे हिंदी में जवाब दे रहा है. काफी ग्लानि महसूस होती. पर गुजरते वक्त और भोजपुरिया सुद्दिजनों की संगत में इतना परिपक्व जरूर हो गया हूं. कि अब किसी से भी पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी मातृभाषा में बात करता हूं. इस हद तक कि सामने वाला खुद मजबूर होकर भोजपुरी में बात करने लगे. सही भी है जब मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका आदि जगहों पर कई वर्षों पहले जाकर बस गए लोग अपनी भाषा नहीं भूले. तो मैं क्यों ना इस पर गर्व करूं. 

कुछ चीजों को बताने के लिए गुजरे अतीत की जिक्र यहां अवश्य करना चाहुंगा. वर्ष 2002-10 तक अकादमिक पढ़ाई के लिए अपने पटना प्रवास के दौरान वर्ष 05 में पत्रकारिता से जुड़ा. वह भी हिंदुस्तान, पटना के फीचर डेस्क से एक फीचर लेखक के तौर पर. इस दौरान महेन्द्रू के बाजार समिति में रहते हुए छपरा, आरा, सासाराम, कैमूर, बक्सर, बलिया व बनारस आदि भोजपुरी क्षेत्रों के लड़कों से संगत हुई. फिर तो जब भी चंडाल चौकड़ी बैठती जमकर भोजपुरी में बहस चलती. साथ ही निर्गुण, दू गोला, सोहर, पूर्वी से लेकर लोकगीत तक गाए जाते. इन्हीं के शागिर्द में ठेठ भोजपुरी बोलना भी सीख गया. यह बात भी जेहन में अच्छी तरह समझ में आ गई कि गंगा के पार वाले उत्तरी इलाके सारण, चंपारण, दक्षिण में शाहाबाद और यूपी के पूर्वाचल वाली भोजपुरी में क्या विविधता है? 

तब हिंदुस्तान के फीचर संपादक व पत्रकारीय गुरु श्री अवधेश प्रीत से भोजपुरी में अभिवादन करते हुए 'गोड लागअ तानी' कहता तो वे ठठाकर हंसते. इसलिए की मुझे पता था वह भी गाजीपुर से हैं और भोजपुरी पर उनकी अच्छी पकड़ है. इसी दरम्यान पटना में रह रहे बलिया निवासी पत्रकार व रंगकर्मी हरिवंश तिवारी से मुलाकात हुई. उनका बोरिंग रोड में 'भिखारी ठाकुर स्कूल ऑफ़ ड्रामा' नामक संस्थान संचलित था. उनसे भी महेंद्र मिश्र व भिखारी ठाकुर की रचनाओं के बारे में बहुत-कुछ जानने को मिला. वर्ष 07 में भोजपुरी.कॉम वेबसाइट व इसके मॉडरेटर सुधीर कुमार से रू-ब-रू हुआ. निश्चय ही उन दिनों यह भोजपुरी का पहला समर्पित व चर्चित पोर्टल था. भोजपुरी गायक व अभिनेता मनोज तिवारी पर नीदरलैंड सरकार द्वारा जारी डाक टिकट के फर्जीवाड़े के खुलासे व ऑनलाइन छठ पूजा के प्रसाद वितरण के कारण यह वेबसाइट काफी सुर्ख़ियों में था. बाद के दिनों में इसी पोर्टल पर रविकांत दूबे के बारे में छपी कई तरह की नकारात्मक खबरों से वाकिफ हुआ. और धीरे-धीरे आम लोग भी उनके काले-कारनामे को जानने लगे. यहां तक की श्री दूबे के गृह शहर बक्सर में भी उनका विरोध हुआ. 
Chandrabhushan Rai
चंद्रभूषण राय

ये तो हुई रविकांत दूबे की बात. जहां तक वर्तमान अध्यक्ष चंद्रभूषण राय के बारे में मेरी जानकारी है. मैं उनसे पटना के राजेंद्र नगर स्थित विपिन पतंजलि के ‘नव जीवन योग’ केंद्र में अक्सर मिलते रहता था. पर यह मुलाकात औपचारिक ही होती थी. योग गुरू विपिन जी ने ही मुझसे उनका परिचय एक कर्मठ जदयू नेता व श्रीश्री रविशंकर के शिष्य के तौर पर करवाया था. लंबा कद, गोरे चेहरे पर बेमेल चिरकुटिया दाढ़ी पर रोबीला व्यक्तित्व और आरा के होने के कारण भोजपुरी भाषी, यहीं पहचान थी उनकी. शायद कुंवारे भी रहे होंगे. तब राय जी बगल के सैदपुर छात्रावास में रहते थे. एक हीरो हौंडा डबल एस बाइक भी रखे हुए थे घूमने के लिए. कुछ वर्ष पहले ही नितीश कुमार सत्ता में आए थे. हालांकि राय जी को कोई जिम्मेवार पद उस वक्त तक पार्टी ने नहीं दिया था. लेकिन पार्टी के सत्ता पक्ष में होने की बात ही और होती है. इसी कारण वे भी काफी व्यस्त हो गए. बाद के दिनों में विपिन जी दिल्ली चले गए. और मैं मोतिहारी चला आया.              

आज सुबह अपने परिचित व तहलका के पत्रकार निराला के फेसबुक वाल पार चंद्रभूषण राय के बारे में पढ़ा. कि उन्हें रविकांत दूबे के बाद भोजपुरी अकादमी का अध्यक्ष चुना गया है. मैंने फोन कर उन्हें बधाई दी. और पुराने दिनों के मुलाकात का हवाला दिया तो वे पहचान भी गए. खैर, अब मैं मूल मुद्दे पे आना चाहुंगा. श्री राय के अध्यक्ष पद पर चयन होते ही सोशल साइट्स पर उनके बारे में कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गई है. एक जागरूक लोकतंत्र में ऐसी चर्चाओं का होना स्वाभाविक भी है. वैसे भी पूर्व अध्यक्ष श्री दूबे की ओछी हरकतों से खार खाए बुद्दिजीवियों में कई तरह की चिंताओं का होना भी जायज है. ऐसे में यह बड़ी चुनौती है चंद्रभूषण राय के लिए कि पद के गलैमर में ना उलझ ग्रास रूट पर भोजपुरी की उत्थान की दिशा में क्या कर पाते हैं? 

चाहे भोजपुरी को संविधान की अष्टम अनुसूची में जगह दिलाने की बात हो, भोजपुरी फिल्मों व गानों में में अश्लीलता पर रोक लगाने या बिहार में भोजपुरी फिल्म स्टूडियो खुलवाने की पहल हो. करने के लिए बहुत कुछ है अकादमी के पास. इसके लिए इस समाज के अनुभवी व योग्य व्यक्तियों से परामर्श लेना पड़े तो उन्हें गुरेज नहीं करना होगा. खुद को एक बेहतर प्रशासक साबित करने के लिए एक मिशन के तौर पर काम करना होगा उनको. वरना पावर की चकाचौंध में मदमस्त होकर पद के दोहन करने वाले का हश्र क्या होता है? यह हर कोई जानता है.

इंटरनेट ने लगाया 'छपास रोग' पर मरहम

'छपास' की बीमारी बेहद ख़राब होती है. जिस किसी को यह रोग एक बार लग जाए. ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता. प्रायः यह पत्रकारों व लेखकों में पाया जाता है. एक जमाना था वह भी जब अपना लिखा छपवाने के लिए संपादक की कितनी चिरौरी व तेल मालिश करनी पड़ती थी. विभिन्न अख़बारों या पत्रिकाओं के दफ्तर का चक्कर लगाते-लगते जूते घिस जाते थे. क्योंकि बिना इन साहित्यिक मठाधीशों की चरण वंदना किए कुछ भी छपवा पाना नामुमकिन था. ये बात और है कि उसपर भी छपने की गारंटी नहीं रहती थी. लेखकों की सौ में 60 रचनाएं कूड़ेदान में फेंक दी जाती थीं.

इस छपने-छपवाने के चक्कर में जाने कितनी अबलाओं का चारित्रिक पतन हुआ होगा. कितने संपादक देवदास बन किसी पारो के फेरे में बदनाम हुए होंगे. और समझौता नहीं कर पाने के कारण कितनी नवोदिताएं लेखिका बनते-बनते रह गई होंगी. पुरूषों कि तो बात ही न पूछिए जनाब. एक दौर वह भी था जब किसी पुरूष का नामी अखबार या पत्रिका में छपने के लिए कम-से-कम संपादक का करीबी या प्रशासनिक अधिकारी होना अनिवार्य शर्त होती थी. जो लोग महज एक दशक पहले से इस क्षेत्र में हैं. इस तरह के खट्टे-मीट्ठे तमाम अनुभव से जरूर रू-ब-रू हुए होंगे. वो तो लाख-लाख शुक्र है सोशल साइट्स व इंटरनेट का, जिसके आने के बाद लेखकों व कवियों के सपनों को नई उड़ान मिली है.

अब किसी को भी अपना लिखा छपवाने के लिए किसी प्रतिष्ठित संपादक कि सहमति जरूरी नहीं रही. यह मिथक भी टूटा कि प्रतिभा दबाई जा सकती है. इसीलिए आज हर कोई लेखक है, पत्रकार है व कवि भी. खुद के ब्लॉग पर लिखिए, फेसबुक पर लिखिए या दूसरे के वेब पोर्टल पर. आपके कंटेंट में दम है तो कुछ ही घंटे में आपका लिखा सैकड़ों जगह छपा मिल जाएगा. तारीफ़ या आलोचना भी हाथोंहाथ मिल जाती है. दीगर कि बात यह है कि अखबार व पत्रिकाएं यहीं से रचना चुराने, यूं कहिए कि साभार लेकर छापने को मुहताज हैं.

14 September, 2013

मशहूर पत्रकार निराला उर्फ़ बिदेशिया जब मेरे गांव आए

Bidesia Rang
निराला
पत्रकारिता तो सभी करते हैं पर इसे जीता कोई-कोई ही है. एक ऐसे ही बिहारी पत्रकार हैं निराला जो कि पत्रिका तहलका,पटना से जुड़े हैं. इनकी खासियत यह है कि ये अच्छा कलमची व खबरची होने के साथ ही भोजपुरी एक्टिविस्ट भी हैं. साथ ही घुमक्कड़ स्वभाव के, अव्वल दर्जे के साहित्यिक पढ़ाकू व सरोकारी भी. किसी ज़माने में रंगमंच के माहिर खिलाड़ी रहे निराला फिलहाल फेसबुक पर Bidesia Rang के नाम से सक्रिय हैं. इनका पैतृक घर तो सासाराम है. लेकिन पले-बढ़े ननिहाल औरंगाबाद के एक गांव में. बीएचयू से पढ़ाई के बाद इन्होंने मिशन के तौर पर पत्रकारिता की शुरूआत की. 

पहले प्रभात खबर और अब तहलका, जहां गए इन्होंने प्रतिभा की छाप छोड़ी. ग्रास रूट पत्रकारिता के पक्ष में जितनी इनकी दीवानगी है. उतना ही भोजपुरी भाषा व संस्कृति के प्रति भी पैशनेट हैं. और... सबसे बड़ी बात यह कि एक बार जो निराला से मिल ले इनका फैन जरूर हो जाता है. एक खबर की तलाश में निराला पिछले वर्ष 12 में  मेरे गांव कनछेदवा भी आ चुके हैं. मेरे चाचा प्रभात समाजसेवी हैं और जेपी आंदोलन के साक्षी रहे हैं. उन्हीं के बुलावे पर वे आए थे. उन्हें यह जानकर हैरानी हुई कि इस छोटे से गांव में विनोबा भावे, कुलदीप नैयर से लेकर प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा भी आ चुके हैं. जब मैंने उन्हें कहा कि महत्वपूर्ण आगंतुकों की इस सूची भी अब आप भी शामिल हो चुके हैं. तो वे मुस्कुराए बिना न रह सके. बस इतना ही कहा, भाई मैं इन महानुभावों की तुलना में अभी नौसिखुआ ही हूं 

हिंदी दिवस पर अमेरिका से मिश्रा जी का यह फोन

आज 14 सितम्बर है, बोले तो हिंदी दिवस. सुबह में ही अमेरिका के बोस्टन शहर में रहने वाले एनआरआई सुधाकर मिश्रा का फोन आया. बोले, मेरा नंबर उनको इंटरनेट से मिला. भोर के 2 बजे (अमेरिकी समय शाम 4.30 बजे) से ही प्रयास कर रह थे, बात करने के लिए. लेकिन फोन लगा सुबह 8.30 बजे (अमेरिकी समय रात 11 बजे). हिंदी के प्रति मेरे प्रेम ने उन्हें मुझसे बात करने को प्रेरित किया. 56 वर्षीय मिश्रा जी ने बताया कि वे मूल रूप से बनारस के निवासी हैं. दिल्ली में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार में पत्रकारिता भी किया है. 

फिलहाल बोस्टन में अपनी बेटी के पास रहकर बतौर क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट मानसिक रोगियों का इलाज करते हैं. अभी भी मातृभाषा हिंदी के प्रति मोह बरक़रार है. भले ही अमेरिकी लोगों से अंग्रेजी में मजबूरन बातें करते हैं. लेकिन उनका दिल हर घड़ी हिंदी के लिए धड़कता है. हिंदी के विकास को लेकर उनसे तक़रीबन 20 मिनट चर्चा हुई. भारतीय साहित्य का मठाधीसों के कारण बेड़ा गर्क होने से लेकर हिंदी उत्थान के लिए एक क्लब बनाने तक. उनकी बातों से परदेश प्रवास की पीड़ा भी झलक रही थी. कहा, यार कुछ वर्ष यूरोप भी रहा हूं, और अब अमेरिका में हूं. बेहद खोखले देश हैं ये सारे. भारत जैसी रूमानियत व बेफिक्री और कहां मिलेगी. 

फिर, आगे भी बात करते रहने व जनवरी में बनारस में मुलाकात होने का आश्वासन दे उन्होंने फोन रखा. मुझे भी उनसे बात कर काफी ख़ुशी मिली. यह सोचने को विवश भी हुआ कि एक हम लोग हैं जो हिंदी को ठुकरा अंग्रेजी के आगे नत मस्तक हुए जा रहे हैं. तो दूसरी तरफ मिश्रा जी जैसे हजारों प्रवासी भी हैं. जो लंदन, शिकागो, मेलबोर्न, बोस्टन, पेरिस आदि जगहों पर रहते हुए भी हिंदी का अस्तित्व बचाने के लिए उसे सहेज कर रखे हैं.

16 April, 2013

...तो क्यों नहीं साहित्यिक पंडों की लेखन शैली का भाषाई श्राद्ध करा दें?

रचनात्मक लेखन की कश्ती पर सवार हिंदी के युवा साहित्यकारो, जरा ध्यान दीजिए... 
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साथियों, चाहे क्षेत्र कला का हो या... साहित्य का, बाजार में बिकता कंटेंट ही है. कुछ नयेपन की तलाश में कब कौन सी रचना खरीदार के दिल को छू जाए, कौन सा कंटेंट हिट हो जाए, कहना मुश्किल है! लेकिन अहम सवाल यह है कि हिंदी पर आधारित फिल्मों, न्यूज़ चैनलों, अखबारों व गीतों की मांग चरम पर है. फिर, अंग्रेजी की तुलना में हिंदी साहित्य क्यों पिछड़ जाता है? क्या वजह है कि हिंदी भाषी लेखक भी अंग्रेजी में खिलंदड़े तरीके से लिखकर 'बेस्ट सेलर' का ख़िताब पा लेता है. एक सफल किताब से अंग्रेजी लेखक करोड़ों रूपए बटोर लेता है. जबकि कई सारी प्रतिभाएं हिंदी में उम्दा लिखते हुए भी फांका-कस्सी करने को मजबूर हैं. अपना सब कुछ न्योछावर करने के बावजूद भी अपेक्षित सफलता नहीं मिलती देख, उनकी सृजन क्षमता असमय दम तोड़ देती है. हालात ऐसे बन गए है, मानो हिंदी में छपे उपन्यास या कहानी पढ़ना पाठकों की मजबूरी है. जबकि अंग्रेजी की किताबें चाहे उनका कंटेंट उच्छ्रंख्ल ही क्यों ना हो, उन्हें पढ़ना युवाओं के बीच 'पैशन' या 'स्टेटस सिम्बल' बन गया है.


मेरे एक मित्र प्रबंधन में स्नातक कर गुड़गांव के एक प्रतिष्ठित बहुराष्ट्रीय कंपनी में कार्यरत हैं. मैं उनके घर जब भी जाता हूं, वे बड़ी शान से अंग्रेजी के 'बेस्ट सेलर' उपन्यासों को दिखाते हैं. 'ये देखो- सलमान रश्दी का 'मिडनाइटस चिल्ड्रेन', चेतन भगत का 'टू स्टेट्स', 'वन नाईट एट कॉल सेंटर', रोबिन शर्मा का 'द मौंक हू सेल हिज फेरारी'. ... अरे हां, ये वाला तो दिखाया ही नहीं अमीश त्रिपाठी का 'वायुपुत्राज', हाल ही में आया है. क्या लिखता है बनारस का यह बंदा, मैं तो इसका फैन ही हो गया हूं.' मैंने पूछा- 'यार, एक बात बताओ हिंदी भाषी लोग भी अंग्रेजी साहित्य में ही मनोरंजन क्यों ढूंढते हैं. जबकि हिंदी लेखकों की इतनी सारी बेजोड़ किताबें बाजार में हैं कि पूरी जिंदगी में भी कोई उन्हें नहीं पढ़ पाए.'

तो उसने छूटते ही कहा- 'भाई, सच कहूं तो मैं अंग्रेजी के नए-नए शब्दों की जानकारी के लिए इस तरह की पुस्तके पढ़ता हूं. क्योंकि जिस दफ्तर में हूं, वहां के सहकर्मियों पर प्रभाव जमाने के लिए जान-बूझकर अंग्रेजी झाड़नी पड़ती है. ' फिर उसने जो कुछ बताया वह निश्चय ही गहन मंथन का विषय बनता है. कहा- 'जहां तक मैं समझता हूं, तीन कारणों से हिंदी प्रदेश के लोग अंग्रेजी की किताबें पढ़ते हैं. पहले वाले वे हैं जिन्हें अंग्रेजी की अच्छी समझ है, और खुद को एलिट दिखाने व बेड रूम की शोभा बढ़ाने के लिए ऐसी किताबे खरीदते हैं. दूसरा, वे जो मेडिकल, इंजीनियरिंग, प्रबंधन व अन्य तकनीकी विषयों के छात्र हैं. और अंग्रेजी भाषा सीखने, इस पर पकड़ बनाने के लिए पढ़ते है. तीसरा, वैसे लोग जिन्हें ना ठीक से हिंदी ही समझ में आती है ताकि साहित्य का रस्वादन कर सकें, ना ही अंग्रेजी.' कहना चाहूंगा कि तीसरी तरह की पाठकों की संख्या सबसे ज्यादा है, जो महज दिखावे के लिए पढ़ते हैं.
  
इसके बावजूद भी चंद ऐसे सवाल हैं, जो हर हिंदी भाषी के जेहन में खटकते रहते है- क्या हिंदी में कंटेंट की कमी है, जिससे कि किताबें बाजार में जगह नहीं बना पातीं? या प्रकाशन संस्थानों की उदासीनता व लेखकों के शोषण करने की गंदी लॉबी आदि इसके जिम्मेवार हैं? जिसके तहत नई प्रतिभाओं को घुसने नहीं दिया जाता या उनकी रोयल्टी मार ली जाती है. या फिर साहित्य के मठाधीशों ने विद्वता का लबादा ओढ़ लेखन की भाषा को इतना क्लिष्ट व जटिल बना दिया है, जोकि आम पाठकों के पल्ले नहीं पड़ती. हो सकता इन सभी कारणों के साथ कुछ और भी दुश्वारियां इस राह में हों. कितना आश्चर्य होता यह जानकर कि चाईनीज भाषा में लिखने वाले उपन्यासकार को विश्व का सबसे प्रतिष्ठित 'नोवल पुरस्कार' मिल जाता है. ...और कुछ दुःख भी कि विश्व की तीसरी बड़ी भाषा के रखवैया हम 50 करोड़ हिंदी वाले अभी तक उपेक्षित हैं.

क्या अब वह समय नहीं आ गया है, कि चिड़ियों, परियों, देश की कथा आदि छद्दं नामों से साहित्यिक उड़ान भर रहे, माकानाका की खोल में छुपे इन पंडों की लेखन शैली का भाषाई श्राद्ध करा दिया जाए? हिंदी लेखन में अरसे से चली आ रही भाषाई आडम्बर को दूर करने की दिशा में कोई ठोस कदम उठाई जाए? साथ ही इसे एक नया आयाम देते हुए कंटेंट को इतना सुगम व मनोरंजक बनाया जाए कि सबके जेहन में आसानी से रच-बस जाए? कुछ इस तरह कि विश्व के किसी भी कोने में रह रहा हिंदी भाषी युवक किताब को देखते ही लपक ले. जब अंग्रेजी में यह फंडा चल निकला है तो हिंदी में इसका प्रयोग क्यों नहीं हो? आखिर हम नए ज़माने के कलमची हैं और 'जेन एम' के लिए लिख रहे हैं.

आज के ग्लोबल दौर में पहनावा, खान-पान, बोल-चाल, कहें तो सब कुछ कॉकटेल हो चला है. तो फिर हम क्यों बाबा आदम के समय वाले थीम व भाषा को ढोएं. इतिहास की थोड़ी सी भी जानकारी रखने वाले इस तथ्य से अच्छी तरह मुखातिब होंगे कि जब भारत में 'बौद्द धर्म' का व्यापक प्रभुत्व बढ़ने लगा तो ब्राह्मणों ने हिन्दू धर्म का अस्तित्व बचाए रखने के लिए इसको बेहद सरल बना दिया. क्योंकि तब वक्त की यही मांग थी. इससे एक बड़ी सीख यह मिलती है कि समय के साथ जो नहीं बदलते वे गुमनामी की अथाह गर्त में खो जाते हैं.

एक बात पर गौर फ़रमाएंगे कि हिंदी लेखन को सरल बनाने की वकालत करने का मेरा मतलब भाषा के सस्तेपन नहीं, बल्कि नएपन से हैं. हिंदी साहित्य को कुछ ऐसा कंटेंट दें जो रोचकता की चाशनी में डूबे होने के साथ-साथ जमीन से भी जुड़ा हो. निरंतर प्रयास करने व नवीनता लाने से ही किसी चीज का ग्लैमर बढ़ता है. सूचना तकनीकी के तौर पर इन्टरनेट व सोशल साइट्स देवनागरी के लिए 'भागीरथी वरदान हैं.' जिनकी बदौलत आनेवाला वक्त हिंदी का ही होगा, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. वह दिन भी दूर नहीं जब पूरे संसार में हिंदी का डंका बजेगा. ...और हम इसके साक्षी बनेंगे.

14 April, 2013

यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!

जब मैंने होश संभाला 5 साल की उम्र रही होगी, सन 88 का वर्ष था. वह दौर जब उदारीकरण की सुगबुगाहट में उनींदा भारत ‘इंडिया’ बनने की और अग्रसर था. यानी ‘भारत’ व ‘शाइनिंग इंडिया’ के बीच का वक्त. तब मनोरंजन के तौर पर लोगों के पास सीमित विकल्प थे. भले ही जिला मुख्यालय या बड़े शहरों में में रहने वाले सिनेमा घरों में बड़े परदे पर फिल्मों का लुत्फ़ उठाते, लेकिन गांवों में थियेटर, सर्कस, लौंडा नाच व मेरठ के लुग्दी उपन्यास का बोलबाला था. कुछ शौक़ीन लोग प्रदीप, आज अखबार व सारिका, धर्मयुग, कादंबनी, सरिता, मनोहर कहानियां, माया, इंडिया टुडे, मायापुरी जैसी पत्रिकाएं मंगाया करते. बच्चों में नंदन, चंदा मामा, लोटपोट, बालहंस व कॉमिक्स की धूम थी (इसकी जिक्र यादें (4) में). 

हां, इतना जरूर था कि कंप्यूटर व संचार क्रांति के आ जाने से गांवों में भी इक्के-दुक्के कुलीन घरों में टेलीफ़ोन की पैठ हो चुकी थी. यहां 18 इंच वाला सनमाईका का ‘श्वेत-श्याम टेलीविजन’ व ‘यूएचएफ’ एंटीना जिसके पास होता, वह आला दर्जे का समझा जाता. जो कि बिजली नहीं रहने पर बैट्री से भी चलता था.मेरे गांव में वर्ष 84 में ही बिजली आ गई थी. पर सनमाईका ब्रांड टीवी बाद के दिनों में घर में आया. मैं जब इसे देखने-समझने लायक हुआ तब ‘काका जी कहिन’, डॉ. राही मासूम राजा के उपन्यास पर आधारित ‘नीम का पेड़’, ‘द सोर्ड ऑफ़ टीपू सुल्तान’, ‘तलाश’, ‘व्योमकेश बक्षी’ जैसे धारावाहिक सबकी जुबान पर थे. 

उन्हीं दिनों नेपाल के दूरदर्शन ने ‘रामायण’ का प्रसारण शुरू किया. चूंकि मेरा गांव नेपाल की सीमा से नजदीक है. सो यहां का एंटीना भी इस चैनल को  साफ़-साफ़ पकड़ता. दिन में राष्ट्रीय चैनल की तस्वीर की गुणवता काफी घटिया रहती. लेकिन नेपाली चैनल की गुणवता उम्दा होने बावजूद इस पर हिंदी का एक मात्र यहीं कार्यक्रम आता. ‘रामायण’ देखने के लिए एंटीना को उतर दिशा में यानी नेपाल की तरफ घुमाना पड़ता. हर सप्ताह सोमवार की शाम 7 बजे नेपाल से ‘महाभारत’ का प्रसारण होता. बिजली गुल होने पर कार्यक्रम बाधित ना हो, इसके लिए बाजार से बैट्री चार्ज करा लाकर रखी  जाती. लोगों की संख्या बढ़ने से कमरा छोटा पड़ने लगा तो टीवी ओसारे पर रखा जाने लगा. 

इस कालजयी धारावाहिक की महिमा कुछ ऐसी फैली कि इसे देखने के लिए करीब 5 किलोमीटर दूर के गांव से भी लोग मेरे दरवाजे पर आने लगे. इस कारण टीवी दरवाजे से बाहर दुआरे पर आ गया. एक बड़ा सा तिड़पाल बिछाया जाता और पूरा दुआर दर्शकों से भर जाता. महिलाओं को आगे की पंक्ति में बिठाया जाता. इस दौरान श्रद्धा व भक्ति के आगोश में लोगों की अलौकिक एकता देखते ही बनती. वे नत-मस्तक होकर टीवी देखने में लीन हो जाते. धारावाहिक में  पात्रों का इतना सजीव चित्रण था कि दोनों हाथ जोड़े कुछ महिलाएं, कभी-कभी भावुक दृश्यों को देख भाव-विह्वल हो आंखों से आंसू भी टपकाने लगतीं. 

गांव में मवेशी पालना किसानों का अनिवार्य कर्तव्य माना जाता है. दादा ने भी दरवाजे पर दो-दो भैंस पाल रखे थे. इस लिहाज से कि एक दूध देना बंद कर देती तो दूसरी वाली ब्याती. इस तरह घर में दूध, दही व घी भरपूर मात्रा में मिलते. दादी मिट्टी के चूल्हे पर कड़ाही में दूध खौला कर पझाने लिए छोड़ देतीं. थोड़ी देर बाद ही उसमें मोटी छाली पड़ जाती. फिर एक बड़े ग्लास में छाली के साथ दूध भरके मुझे पीने को मिलता. उपले की मद्दिम आंच पर नदिया (हांड़ी) में मीठा दही जमाने की कला कोई दादी से सीखे. क्या सोंधी गंध रहती थी, अकेले ही चूड़े के साथ कोई भी एक-आध किलो दही गटक जाए! दादी सालों भर दही से निकलने वाली छाली को एक बर्तन में इकठ्ठा करती रहतीं. फिर ‘रही’ से मथकर उसमें से मक्खन निकालतीं. मक्खन को जब चूल्हे की आग पर खौला कर ठंडा किया जाता तो घी बन जाता. मक्खन गर्म करने के दौरान कड़ाही में पपड़ी जम जाती, जिसे हमलोग दाढ़ कहते. कमाल का स्वाद रहता इसका, घर के सारे बच्चे चटखारे लेकर खाते. 

दादी पुराने ख्यालात की महिला थीं, सो लड़कियों से ज्यादा लड़कों के प्रति अनुराग रखतीं. वह अक्सर कहां करतीं- ‘गाय के बछड़े व घर के बेटों को दूध पिलाना कभी भी नागा नहीं गुजरता.’ दरअसल इसके पीछे दादी की पारंपरिक सोच थी कि उक्त दोनों ही जीव कमाने वाले होते हैं, जिससे कि गृहस्थी चलती है. दादा ने चारा काटने, भैंसों को खिलाने व अन्य घरेलू कामों के लिए एक नौकर भी रखा था. लेकिन वे नौकर की बजाय खुद पर ज्यादा भरोसा करते थे. कभी-कभार अपने हाथों से ‘लेडीकट्टा मशीन’ से चारा काटने लगते और मैं डोंगे में पुआल व घास लगाता. मैं भी आंशिक रूप से मशीन चलाने में दादा का हाथ बंटा देता. मशीन क्या था बोले तो एक तरह से देहाती जिमखाना, जिस चलाते हुए शरीर का व्यायाम भी हो जाता. 

दोपहर के बाद दादा भैसों को चराने के लिए नहर की तरफ ले जाते. वह कहते कि पशुओं को भी सरेह की सैर कराना जरूरी है. इसी बहाने भैंसे घूम-फिर कर लेती हैं व इन्हें खाने को ताजा घास भी मिल जाती है. जिसका सकारात्मक असर इनकी सेहत व दूध पर भी पड़ता है. मैं भी इसी फ़िराक में रहता कि कब दादा भैंस चराने निकले और मैं पीछे-पीछे हो लूं. मां को यह फूटे आंखों नहीं सुहाता था कि मैं गंवार लड़कों जैसा आंवारा घूमता फिरूं. इस बात पर गाहे-बगाहे मुझे डांट-फटकार तो कभी पिटाई भी मिल जाती. लेकिन वो कहते हैं ना कि- ‘जहां चाह होती है, वहां राह भी.’, आखिर मैं कहां मानने वाला था. 

एक आम देहाती बच्चे की तरह मुझे भी दादा से बेहद लगाव था. दूसरे, मैं चाहे लाख गलतियां कर लूं दादा अक्सर मेरी तरफदारी करने से बाज नहीं आते थे. मैं जैसे ही घर से भाग सरेह में पहुंचता, दादा मुझे भैंस के पीठ पर बैठा देते. भैस जब चरते हुए उबड़-खाबड़ रस्ते से गुजरती तो उसकी मांसल पीठ पर बैठे हुए काफी गुदगुदी होती. उस सुखद अनुभव को कलम से बयां करना नामुमकिन है. लिहाजा भैस की सवारी का यहीं तो आनंद था, जिसका लोभ संवार पाना मेरे लिए कठिन काम था. 

पर यह विडंबन ही है कि प्रकृति से किसी की ख़ुशी ज्यादा दिनों तक नहीं देखी जाती. कुछ ऐसा ही बुरा मेरे साथ भी हुआ. एक दिन भैंस पर सवार मैं अपनी धुन में मगन था कि उसे बगल की झाड़ियों में कुछ खुरखुराने की आवाज सुनाई दी. अब मुई भैस ने आंव न देखा ताव और उछलते हुए भागने लगी. इसी चक्कर में उसके पगहा से मेरा हाथ छूट गया. मैं नीचे और भैंस का अगला पैर मेरे बदन पर. वो तो गनीमत था कि उसका पिछला पैर मेरे सीने पर नहीं पड़ा, वरना परलोक सिधारने में कोई हर्ज नहीं था. मामूली चोट व खरोच आने के साथ सही-सलामत बच गया, यहीं सोच भगवान को लाख-लाख बधाईयां दी. फिर तो दोनों कान पकड़ इस मटरगश्ती से तौबा ही कर ली. 

समय अपनी रफ़्तार में भागता रहा. और वर्ष 90 में ‘महाभारत’ धारावाहिक शुरू हुआ. तब तक देहात के भी अधिकांश घरों में टीवी आ चुका था. लेकिन रंगीन टीवी का ग्लैमर सबके सिर पर चढ़ा हुआ था, कई तरह की बातें सुनने को मिलतीं-  ‘क्या मजा आता है देखने में, सब कुछ असली दीखता है, साफ-साफ व रंगीन.’ मेरे पड़ोस के दादा  पुराने जमींदार थे ...और काफी रईसाना मिजाज था उनका. वे जिंदगी को ऐशो-आराम से जीने में यकीन करते मतलब- ‘क्या लेकर आए हो, और क्या लेकर जाओगे.’ यह बात अलग थी कि ठाट-बाट को बरक़रार रखने में उनकी अच्छी-खासी जमीन बिक चुकी थी. सच बोलूं तो... उनकी माली हालत कुछ हद तक प्रेमचंद की ‘पर्दा’ कहानी वाली हो चली थी. 

उनके दो बेटे थे पर वे दोनों से अलग रहते. पत्नी से बेहद प्यार था उनको और इसी प्यार का वास्ता देकर ओनिडा कंपनी का कलर टीवी घर लाए. पूरे गांव में यह खबर फ़ैल गई. क्योंकि उस समय रंगीन टीवी खरीदना सबके वश की बात नहीं थी. पूरे 20 हजार रूपए खर्च करने पड़ते थे. मैं भी हमउम्र बच्चों के साथ रविवार को उनके घर ‘रामायण’ देखने चला जाता. एक दिन जाने क्या बात हुई कि वे दर्शकों की भीड़ से बेहद खफ़ा हो गए. बड़बड़ाते हुए बोलने लगे- ‘टीवी मैंने अपनी बीवी के लिए ख़रीदा है ना कि गांववालों के लिए.’ फिर उन्होंने बाबा आदम के जमाने की कठैया बंदूक निकाली और ऐसे ही चला दिए. हालांकि गोली भरवी थी और एक  कुत्तिया को जा लगी, बेचारी मौके पर ही बेमौत मारी गई. हम लोग तो वहां से ऐसे भागे कि घर आकर ही रुके.  

वर्ष 92 में डिश एंटीना की पहुंच से केबल चैनलों ने भी अंगड़ाई लेनी शुरू कर दी. वीसीपी, वीसीआर, फ्रीज, वाशिंग मशीन आदि का वजूद महज शहरों तक ही सीमित था. गांव में लोग इन्हें विलासिता की चीजे समझा जाता. तब दूरदर्शन पर हर शनिवार व रविवार को फिल्में आती थीं, इसलिए हम लोगों को बेसब्री से इस दिन का इंतजार रहता. शादी-ब्याह या अन्य शुभ आयोजनों में मनोरंजन के तौर पर नई फिल्में देखने के लिए वीसीपी व रंगीन टीवी भाड़े पर लाया जाता. जारी...

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यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!


07 April, 2013

यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!


यादाश्त पर जोर दूं तो 90 का शुरूआती दशक था वह. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था पड़ोस के ही प्राथमिक विद्दालय में, नाम- राजकीय कन्या प्राथमिक विद्दालय, बथानी टोला, कनछेदवा. बोले तो- ईट की दीवार खप्पड़े की छत वाली दो कमरे की ईमारत, बाहर में छोटा सा बरामदा, पर फर्श पर प्लास्टर नहीं था. इन्हीं कमरों में 1-5वीं तक की कक्षाएं चलती थीं. जहां मैं पड़ोस के बच्चों के साथ किसी दिन बोझिल तो कभी उत्साही क़दमों से गपियाते हुए स्कूल जाता.  

चूंकि जमीन पर बैठ कर पढ़ना होता, इसलिए सब अपने साथ प्लास्टिक या चट्टी का बोरा लाते. कक्षा में पहुंचते ही पहले हम-पहले हमकी तर्ज पर बोरा से जगह छेंकने के क्रम में जबर्दस्त हुड़दंग मचती थी. आगे की पंक्ति में बैठने की जगह जिसे मिल गई, वह खुद को नसीब वाला समझता. 

हर कक्षा में मॉनिटरके साथ एक सफाईमंत्री भी होता था. सबसे तेज छात्र को यह जिम्मेवारी सौंपी जाती. मॉनिटर अपनी कक्षा के छात्रों की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रधान शिक्षक को करता. उसका रौब कुछ ऐसा था कि कक्षा के अन्य बच्चे उससे भय खाते. क्या पता? कब किस की शिकायत झूठी ही सही प्रधानाध्यापक से कर दे...और बदले में पिटाई मिले या फिर मुर्गाबना दिए जाए. इसी कारण मॉनिटर से मिलजुल कर रहने में ही सबकी भलाई थी. भले ही वह लाख गलतियां कर ले, उसकी खोज-खबर नहीं ली जाती

यानी पद की आड़ में नजायज भी जायज था. कहा गया है कि बचपन का दौर मासूमियत भरा होता है, जिसमें दुनियावी छल-प्रपंच के लिए कोई जगह नहीं होती. पर मॉनिटर का अन्य हमउम्र बच्चों के साथ व्यवहार की साइकोलोजी पर गौर करें तो इससे कुछ और बात ही उजागर होगी. मुझे तो लगता है कि राजनीति कूटनीति की शुरूआत सबसे पहले प्राइमरी स्कूल से ही होती है.  

रही सफाई मंत्री की बात तो वह बच्चों से स्कूल का मैदान साफ करवाता. उसके बाद सभी छात्र कतार में खड़े हो दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना...या मां शारदे कहां तू वीणा बजा...का गान करते हुए प्रार्थन करते. फिर कक्षा शुरू हो जाती. जो बच्चे प्रार्थना के बाद स्कूल पहूंचते उन्हें दंड स्वरूप मुर्गाबनना पड़ता

यह कहने से गुरेज नहीं कि मैंने भी यह अमानवीय सजा कई बार झेली! अमानवीय इसलिए कि उम्र भले ही कम हो, पर हमउम्र के बीच  इम्प्रेशन खराब होने का डर किसे नहीं होता? खुले मैदान में करीब आधे घंटे तक उकडू बैठ घुटनों के नीचे से हाथ लाकर कान पकड़े रहना, सबके बस का रोग नहीं था. कनपट्टी गरमाने के साथ पूरा बदन पसीने से तर-बतर होता ही, आंखों के आगे भी अंधेरा छाने लगता. कमर पीठ का ना सहने योग्य दर्द अलग से. ...उसपर छुट्टी के बाद संग के बच्चों का चवनियां मुश्की के साथ चिढ़ाना जले पर नमक सरीखा लगता. 

स्कूल में सोम, मंगल, बुध गुरुवार के दिन काफी बोरियत भरे लगते. शुक्रवार को यह सोच सुकून मिलता कि शनिवार को आधे दिन ही पढ़ाई होगी. फिर रविवार को तो साप्ताहिक बंदी से बल्ले-बल्ले यानी फुल टूश मस्ती रहती ही. गर्मी के मौसम की तुलना में सर्दी का दिन प्यारा लगता. क्योंकि इस मौसम में कड़ाके की ठंड पड़ती. दिन भी बेहद छोटे होते, इसलिए भरपूर छुट्टी रहती.  

उन दिनों अभिभावक तीसरी कक्षा के बच्चे को ही लिखने के लिए कॉपी कलम देते थे, क्योंकि हैण्ड राइटिंग बिगड़ने का डर रहता. सो, दूसरी तक के  सारे बच्चे जामा के पॉकेट में खल्ली (खड़िया) रखते, जो कि मोटहिया स्लेटपर लिखने के काम आता. हालांकि खल्ली की तुलना में पेंसिल ज्यादा चलता और...लिखावट भी अच्छी होती. लेकिन महंगा होने के चलते इसका प्रयोग कम बच्चे ही कर पाते. अन्य बच्चे कहीं पेंसिल चुरा ना लें, इसका भी डर अलग से रहता.  

स्लेट का लिखा मिटाने के लिए यूं तो पानी से भिंगोए गए थर्मोकोल या सुत्ती कपड़े के टुकड़े काफी थे, पर इनसे स्लेट पर चिकनाई पैदा हो जाती. और लिखते वक्त खल्ली या पेंसिल फिसलने लगते. सो, स्लेट को गाढ़ा काला करने के लिए काफी जतन करनी पड़ती. इसके लिए भेंगरइया (भृंगराज) की हरी पत्तियां इस्तेमाल में लाते, जो कहीं भी सड़क किनारे मिल जाती. उसे देखते ही खोंटने के लिए बच्चे लपक पड़ते. इन पत्तियों का रस निचोड़कर स्लेट पर उड़ेला जाता. फिर नदिया के पनिया नदिये में जो, हमर स्लेटवा सुखवले जोका छंद पढ़ते हुए स्लेट को हवा में हिला सुखाया जाता.  

जाने क्यों इस मोटहिया स्लेटसे सौतिया डाहसी बनी रहती? एक दिन मैं और मेरे चचेरे भाई सुधांशु स्कूल चले जा रहे थे. ये जिक्र करते हुए कि कैसे इस मुए स्लेट से पीछा छूटे. अभी कुछ तय हो, तभी एक मैसी ट्रैक्टर आता दिख पड़ा. हमने आंखों ही आंखों में इशारा किया बिना पल भर समय गंवाए दोनों ने स्लेट को उसके पहिया के नीचे रख दिया. अब उस मोटहिया स्लेटकी कचूमर देखने लायक थी.  

मन में किसी भारी बोझ के उतरने का एहसास हुआ, लेकिन दिमाग के एक कोने में अंजाना भय भी सांप की तरह कुंडली मारे फुंफकार रहा था. खैर, घर लौटने का पुख्ता बहाना हमारे पास था. घर आए तो वहीं हुआ जिसका अंदेशा था. यहां किसी ने हमारी बातों पर विश्वास ही नहीं किया...हमारी चोरी सरे आम पकड़ी गई. सबका यही कहना था कि जब दुर्घटना हुई रहती तो हम बाल-बाल कैसे बच गए? ना कोई खरोच ना ही जख्म फिर सब कुछ स्लेट पर ही क्यों गुजरा 

और...इतनी बेरहमी से हमारी धुलाई की गई कि पूछिए मत. जाने कितनी छड़ी शरीर पर ही टूट गई! पिता जी तो गुस्से में आकर मेरी किताबें छीन लिए. कहा- आज से पढ़ाई बंद, अब खेती-बाड़ी देखो. कहना चाहूंगा कि काफी मिन्नतों के बाद ही पढ़ाई की अनुमति मिली. 

स्कूल में शारीरिक शिक्षा के तौर पर सप्ताह में कुछ दिन खेल एक दिन कला विषय की घंटी रहती. लंगड़ी-बिच्छी’, ‘सही-टिका’, ‘आईस-पाईस’, लुका-छिपी’, ‘दुलदुल घोड़ाया कबड्डी’...कितने सारे खेल गिनाऊ. मुझे तो आईस-पाईस लुका-छिपी जैसे अहिंसक खेल ही अच्छे लगते. क्योंकि लंगड़ी-बिच्छी में पैर पर टंगड़ी मारनेकी कला से मैं अंजान था. उलटे बचाव करने में ही खुद के पैर चोटिल हो जाते

बाद में कबड्डी खेलने का भी शौक चर्राया. पर एक दिन खेलने के दौरान विपक्ष के गोल में धरा गया. फिर तो हल्दी-कबड्डीबोलवाने के लिए लड़कों ने इतने जोर से कनपट्टी की मालिश की कि महीनों तक वह हिस्सा लाल रहा. उसके बाद तो इस लंपट खेल से तौबा ही कर ली

वहीं कला की घंटी में संगीत का क्लास लगता. जिसमें सारे बच्चे बारी-बारी से खड़े होकर गाना सुनाते. उस वक्त में हिट फ़िल्मी गीत साजन मेरा उस पार है... मैं नागिन तू सपेरा...सबके होठों पर रहतें. मेरी बारी आती तो इसी में कोई एक तुकबंदी अंदाज में सुना देता बिल्कुल कविता की तरह. दूसरी कक्षा में वर्ष भर बस यहीं गाने गाता रहा. आगे की कक्षा में पढ़ने वाली बड़ी उम्र की लड़कियों को गाते हुए सुनना सुखद एहसास था. 

रोजाना स्कूल में अंतिम घंटी गिनती-पहाड़ा की होती थी. इस दौरान सभी बच्चे खड़े हो जोर-जोर से सैया निनानवे अंठानवे संतानवे... एक्का-एक दो दूनी चार...का कोरस आलाप (सामूहिक गान) करतें. क्या मनभावन दृश्य बनता तब, शब्द उच्चारण की जुबानी कसरत से इतर सबकी नजरें घंटी की तरफ जमी रहतीं! कब छुट्टी की घंटी बजे और सबसे पहले अपना बस्ता-बोरा समेट कक्षा से भागें, मानो जेल से छुटे हों.

उस वक्त स्कूल में दो शिक्षक थे. एक रमेश सर दूसरी, गांव की ही देवी जी’, जो प्रधानाध्यापिका भी थीं. रमेश सर यानी श्री रमेश प्रसाद श्रीवास्तव करीब 28 किलोमीटर दूर अरेराज के टिकुलिया से रोजाना साइकिल चला स्कूल आते थे. जबकि देवी जीउर्फ़ श्रीमती राजमति देवी गांव की ही थीं. रमेश सर, कभी-कभी इन्हीं के दरवाजे पर ठहर जाते.  

क्योंकि तब गांव में शिक्षकों को बेहद सम्मान मिलता था. जैसे ही कोई शिक्षक तबादले से यहां आया कि अपने घर ठहराने के लिए लोगों में होड़ मच जाती. दरअसल इसके मूल में उनका स्वार्थ भी निहित रहता. चूंकि गांव में रहने के लिए जगह की कमी होती नहीं, दूसरा यह भी लालच रहता कि माट...साब कम से कम घर के बच्चों को मुफ्त में पढ़ा ही देंगे. बदले में दो वक्त की रोटी खाएंगे और क्या, समाज में इज्जत तो बढ़ जाएगी

रमेश सर बेहद गंभीर शांत तबियत के जीव थे. किसी बच्चे की शैतानी पर खूब गुस्साते तो दो-चार सटकी(छड़ी) लगा देते. दरवाजे पर जाकर घरवालों से भी शिकायत करते, ‘आपका लड़का बदमाशी करने लगा है. ध्यान दीजिए वरना बिगड़ जाएगा.हां, वह बच्चों पर प्यार भी खूब लुटाते थे. जबकि देवी जी ठीक उनके विपरीत स्वभाव वाली महिला थीं, मोटी-तगड़ी, दबंग प्रवृति की थोड़ी गुस्सैल भी. कहने को वह कुल जमे 4 बच्चों की मां थीं पर ममता उनमें कभी दिखी नहीं.  

महिला होकर भी अपने जमाने की मिडिल पास थीं, सो इसपर उनका गुमान स्वाभाविक था. बचपन में हुई किसी बीमारी की वजह से लंगड़ाते हुए चलतीं, हाथ में अक्सर बांस की छड़ी लेकर. क्या मजाल कि कोई छात्र गलती करते हुए पकड़ा जाए और मोहतरमा वगैर सटकिआए (पिटे) उसे छोड़ दें. क्षमा शब्द तो उनके शब्दकोश में था ही नहीं. जब कभी सामने नजर जातीं तो बिना कोई गलती किए ही हमारी घिग्घी बंध जाती. जाने कब किसी बात पर नाराज हो हथेली पर छड़ी बरसाने लगें

इसी आपा-धापी में तीसरी कक्षा में पहुंच गया. भगवान का शुक्र था  मोटहिया स्लेट से पीछा छूटा. पिताजी वैशाली प्रकाशन की सादी कॉपियां खरीद लाए. नसीहत मिली कि पहले नीली स्याही में सरकंडे की कलम डुबोकर रोजाना चार-पांच पन्ने से लिखने का अभ्यास करो, हैंड राइटिंग सुधारने के लिए. फिर निबही या रीफिल वाली कलम मिलेगी

दस पैसे में नीली स्याही का सैशे आता था जिसे फाड़कर दवात में घोला जाता. तब रेडीमेड चेलपार्क स्याहीकी  भी पूरी धूम थी. लेकिन शौक़ीन पैसे वाले घरों में ही यह खरीदी जाती. जिसमें मैं शामिल नहीं था. कुछ महीने बाद लिंक रीफिल वाली कलम मुझे मिल गई, क्योंकि निबही वार्लिटीकलम आउट डेटेड हो चली थी. हालांकि उससे अक्षर में काफी निखार आता, लेकिन जब विकल्प  मौजूद था तो बार-बार स्याही भरने की जहमत कौन उठाता भला. अब लिखते वक्त हाथ थोड़ा सध गया था, पर सरकंडे की कलम में स्याही पोत रोजाना एक पन्ना लिखने का अभ्यास आगे की कक्षाओं में भी जारी रहा. 

उन दिनों मिशनरी स्कूलों का काफी क्रेज था. और आज की तरह कुकुरमुते समान हर गली-मोहल्ले में इनका बोर्ड टंगे नहीं मिलता था. यह खबर जोर-शोर से फैली कि गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर हरसिद्धि बाजार पर के आर मिशन स्कूलखुल रहा है. फिर तो सारे अभिभावकों में अपने बच्चे का नामांकन कराने की होड़ मच गई. चर्चा यह भी थी कि बेतिया के प्रतिष्ठित के आर स्कूल की शाखा है. यहां के सभी शिक्षक क्रिश्चन हैं जो अंग्रेजी माध्यम से नर्सरी-पांचवी तक के छात्रों को पढ़ाएंगे. बच्चों को अभिवादन के तौर पर पांव छूने या प्रणाम की बजाय गुड मोर्निंग’, ‘गुड इवनिंग गुड नाईटकहने का चलन सिखाया जाता है

जाहिर सी बात है, जब अंग्रेजीदां बनना है तो देहात की गंवार परंपरा को तिलांजलि  देनी ही होगी. किताब से लेकर बातचीत भी अंग्रेजी में..., कैंपस में तो हिंदी बोलने पर सख्त पाबंदी है. मानो स्कूल ना होकर कोई औषधालय हो जहां बच्चों को कोई घुट्टी पिला दी जाएगी. और सभी दनादन अंग्रेजी झाड़ने वाले विलायतीबाबू बन जाएंगे

पिता जी भी एडमिशन फॉर्म लाए. पता चला कि नामांकन टेस्ट के आधार पर होगा. सरकारी स्कूल में तीसरी के छात्र को वहां पहली कक्षा में जगह मिलेगी. क्योंकि कोर्स की सारी किताबे नर्सरी से ही अंग्रेजी में है. इसलिए बुनियाद सुधारने के लिए यह जरूरी है. हालांकि पिता जी ने प्राचार्य को दूसरी कक्षा में मेरा नाम लिखाने के लिए राजी कर लिया. पिता जी ने बताया कि स्कूल के लिए अलग ड्रेस कोड लागू है. जिसे बिना पहने वहां इंट्री नहीं मिल सकती

सोम से शुक्रवार तक खाकी हाफ पैंट उजला शर्ट, जबकि शनिवार को लाल रंग वाले पैंट के साथ ग्रे शर्ट पहनना है. गले में नीले रंग की टाई पर स्कूल का बैच कंधे पर बैग लटकाना होगा. मैं तो कई रात तक ये सब सोच-सोचके सो नहीं सका कि नए ड्रेस में टाई लटकाए स्कूल जाते वक्त कैसा दिखुंगा? कहीं अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाया तो स्कूल से नाम ही कट जाए. बालपन की सोच भी काफी हैरत अंगेज होती है. बिल्कुल किसी फिक्सउपन्यास की तरह काल्पनिक हकीकत से परे, जो कभी रोमांचक बन गुदगुदाती है तो डराती भी. 

लेकिन यहां तो होनी को कुछ और ही मंजूर था. पिता जी ने जाने किन कारणों से कांवेंट में भेजने का इरादा बदल दिया. जबकि साथ के कई बच्चों के अभिभावकों ने उनका नाम वहां लिखवा दिया. वे नए ड्रेस में लकदक पीठ पर बैग लटकाए स्कूल जाने लगें. मैं उन्हें देख इसी बात पर इत्मीनान कर लेता कि मिशन स्कूलमें पढ़ना अपने किस्मत में ही नहीं लिखा. और वे बच्चे मुझे वहीं फटे-पुराने कपड़े में देख चिढ़ा कर कहते, ‘वो देखो सैंट बोरिस का छात्र जा रहा है! 

दरअसल प्लास्टिक के  बोरा में बीटीसी की किताबें लपेट बस्ता बनाया जाता और स्कूल में उसी बोरा को बिछा बैठा भी जाता था. इसी कारण गांवों में सरकारी विद्दालय को सैंट बोरिसके उपनाम से संबोधित कर माखौल  उड़ाया जाता. लेकिन जो सपाट नहीं चले शायद उसी का नाम जिंदगी है, जिसमें हमेशा उतार-चढ़ाव आना अनिवार्य शर्त है. महज दो साल बाद ही यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई कि के आर मिशनवाले भाग गए. वजह यह संस्थान फर्जी था, बेतिया वाला नहीं. सुनकर दिल को बेहद तसल्ली मिली. साथ ही पिता जी की दूरदृष्टि भरी सोच पर इतराया भी, जिसकी बदौलत कम-से-कम हम तो ठगाने से बच गए थे!  जारी...

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देवनागरी का ज्ञान ही मेरे जीवन की बड़ी कमाई!
यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!