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18 September, 2013

इंटरनेट ने लगाया 'छपास रोग' पर मरहम

'छपास' की बीमारी बेहद ख़राब होती है. जिस किसी को यह रोग एक बार लग जाए. ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता. प्रायः यह पत्रकारों व लेखकों में पाया जाता है. एक जमाना था वह भी जब अपना लिखा छपवाने के लिए संपादक की कितनी चिरौरी व तेल मालिश करनी पड़ती थी. विभिन्न अख़बारों या पत्रिकाओं के दफ्तर का चक्कर लगाते-लगते जूते घिस जाते थे. क्योंकि बिना इन साहित्यिक मठाधीशों की चरण वंदना किए कुछ भी छपवा पाना नामुमकिन था. ये बात और है कि उसपर भी छपने की गारंटी नहीं रहती थी. लेखकों की सौ में 60 रचनाएं कूड़ेदान में फेंक दी जाती थीं.

इस छपने-छपवाने के चक्कर में जाने कितनी अबलाओं का चारित्रिक पतन हुआ होगा. कितने संपादक देवदास बन किसी पारो के फेरे में बदनाम हुए होंगे. और समझौता नहीं कर पाने के कारण कितनी नवोदिताएं लेखिका बनते-बनते रह गई होंगी. पुरूषों कि तो बात ही न पूछिए जनाब. एक दौर वह भी था जब किसी पुरूष का नामी अखबार या पत्रिका में छपने के लिए कम-से-कम संपादक का करीबी या प्रशासनिक अधिकारी होना अनिवार्य शर्त होती थी. जो लोग महज एक दशक पहले से इस क्षेत्र में हैं. इस तरह के खट्टे-मीट्ठे तमाम अनुभव से जरूर रू-ब-रू हुए होंगे. वो तो लाख-लाख शुक्र है सोशल साइट्स व इंटरनेट का, जिसके आने के बाद लेखकों व कवियों के सपनों को नई उड़ान मिली है.

अब किसी को भी अपना लिखा छपवाने के लिए किसी प्रतिष्ठित संपादक कि सहमति जरूरी नहीं रही. यह मिथक भी टूटा कि प्रतिभा दबाई जा सकती है. इसीलिए आज हर कोई लेखक है, पत्रकार है व कवि भी. खुद के ब्लॉग पर लिखिए, फेसबुक पर लिखिए या दूसरे के वेब पोर्टल पर. आपके कंटेंट में दम है तो कुछ ही घंटे में आपका लिखा सैकड़ों जगह छपा मिल जाएगा. तारीफ़ या आलोचना भी हाथोंहाथ मिल जाती है. दीगर कि बात यह है कि अखबार व पत्रिकाएं यहीं से रचना चुराने, यूं कहिए कि साभार लेकर छापने को मुहताज हैं.

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