अहले सूबह ही मां पूड़ी, आलूदम की सब्जी और सेवईयां बना कर तसला में रख देतीं. मेला देखने के बाद वहां ठहरे धर्मशाले में इसे ही सब मिल बांट कर खाते. यानी धर्मशाला गेट टू गेदर का मुफीद स्पॉट था. जाने के दिन सवारी के लिए ट्रॉली को सजाया जाता. धचका ना लगे इसलिए उसपर पुआल रख गद्देदार बनाया जाता. धूप व धूल से बचाव के लिए ऊपर से बांस की फट्टियों के सहारे मंडप बना प्लास्टिक का तिरपाल फेंक दिया जाता. फिर ट्रैक्टर से ट्रॉली को जोड़ा जाता. इसी पर सभी बैठ हिलते डुलते, सरेह को निहारते, गपियाते हुए ठहाका लगाते अरेराज पहुंच जाते. बचपन की खो चुकी स्मृतियों में बहुत कुछ तो याद नहीं.
लेकिन वहां की पुरानी धर्मशाला, खुले नल से अनवरत बहते पानी से जमा कीचड़, फूल, बेलपत्र, अक्षत... पूजन सामग्री बेचते व हाथ में थाली लिए पंडे. मंदिर परिसर में मृदंग की थाप पर अजीबो गरीब समीजनुमा लिबास में नाचते गाते नेटुए, खुरदक बाजा के साथ शहनाई की गूंज, मंदिर की ओर जाने वाली चार पांच पतली गलियां, जिनमें श्रृंगार प्रसाधन, लाइचीदाना, लाल धग्गी, माला, चुनरी, लाई घुघुनी, पकौड़ी की दूकानें सजी होने के कारण मुश्किल से एक-दो आदमी के निकलने का रास्ता बचता था. अभी तक याद है. इन्हीं गलियों में मैंने लालमुनी चिरई (जिसके चोंच व कागज के छोटे पंख तो होते लाल थे. लेकिन मिट्टी का पूरा बदन काला. अभी तक समझ नहीं पाया इसका नाम लालमुनी क्यों पड़ा?) नरकट की रंगी बिरंगी पुपुही, पलास्टिक गन, रील से हीरो हीरोइन का फोटो देखने के लिए मिनी लेंस वाला बाइस्कोप, लट्टू जैसे खिलौने कई बार खरीदे थे.
मंदिर परिसर में नाचकर बाबा को खुश करता लोक नर्तक नेटुआ |
ऐसे में जबकि सावन महीने की शुरूआत है. माना जाता है कि इन दिनों जल ढारने वाले भक्तों पर बाबा की विशेष कृपा बरसती है. खासकर सोमवार या शुक्रवार को. इस बार मेरा भी अरेराज जाना हुआ, एक पत्रकार के नजरिए से स्थिति का जायजा लेने. जब उत्सुक नजरों ने पड़ताल की तो कई सारी चीजें बदली नजर आईं अपनी पुरानी जड़ों के साथ. लेकिन गुजरे अस्तित्व के साथ नयापन का घालमेल जाने क्यों मुझे रास नहीं आया. हालांकि चप्पे चप्पे पर पुलिस की सुरक्षा, मंदिर के मुख्य प्रवेश स्थल पर पर लगा बड़ा सा आयरन गेट, रौशनी के लिए लगे मॉस्क लाइट, भीतर में लगा सीसीटीवी कैमरा और मार्बल के फर्श ने सुखद एहसास भी कराया. तो बाहर में बारिश से किचाहिन टूटी फूटी सड़क, खंडहर होती धर्मशाला, पिछवाड़े स्थित तालाब में पसरी गंदगी, कूड़े कचरे के ढेर पर लोटते सूअर ने बीती यादें ताजा कर दी. ताज्जुब की बात ये है कि लोग आते हैं. कुव्यवस्था को जम कर कोसते हैं. और कीचड़ की सड़ांध से फैली बदबू के कारण नाक पर रुमाल रख निकल भी जाते हैं.
मंदिर के पिछवाड़े में पसरी गंदगी |
ऐतिहासिक पार्वती तालाब औए शिव पार्वती मंदिर |
सोमेश्वरनाथ मंदिर धार्मिक न्यास बोर्ड, पटना के अधीन है. इसके सचिव मदनमोहन नाथ तिवारी ने बताया कि ट्रस्ट की आय से मंदिर के विकास का पूरा प्रयास किया जा रहा है. जो कि दिख भी रहा है. पुरानी धर्मशाला जर्जर हालात में अतिक्रमण का शिकार है. हालांकि नई धर्मशाला भी बनकर तैयार है. बस उद्घाटन की प्रतीक्षा में है. पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह के सौजन्य से मंदिर में संगमरमर और मास्क लाइट लगाए गए हैं. उन्होंने बताया कि मंदिर के बाहर मूलभूत सुविधाएं दुरुस्त करने की जिम्मेवारी सरकार की है. गौरतलब है कि 12 जुलाई को डीएम अभय कुमार सिंह ने सावन पूजा की तैयारी को लेकर अरेराज का दौरा किया. उन्होंने मंदिर की ओर जाने वाली मुख्य सड़क के रिपेयर के लिए सहायता देने की बात कही.
ब्राह्मण नहीं लेते चढ़ावा पर गोस्वामी...
एक अनुमान के मुताबिक बिहार, झारखंड, उतर प्रदेश, नेपाल के कोने कोने से यहां हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं. ट्रस्ट को इस वर्ष दान के तौर पर करीब पचास लाख रूपए मिले हैं. सोमेश्वर नाथ मंदिर में चढ़ावे की राशि पर गिरी समुदाय का हक है. जिन्हें स्थानीय लोग गोस्वामी भी कहते हैं. हालांकि ट्रस्ट बनने के बाद मंदिर से होने वाली आय उसी के खाते में जाती है. मंदिर में एक महंथ रखने की भी परंपरा है, जो कि इसी समुदाय से बनते हैं. ब्राह्मण मंदिर का दान नहीं लेते. पंडित प्रेमचंद पांडे बताते हैं कि शास्त्र में लिखा है, सब अंश ग्राह्य है शिव अंश नहीं. इस नियम का पालन नहीं करने वाला पाप का भागी बनता है. मतलब भोले बाबा का चढ़ावा दूसरे वर्ग को लेने की मनाही है.
बाबा के दर्शन के लिए महिलाओं की लगी कतार |
मेला में सबसे आकर्षण के केंद्र होते हैं गलियों में लगी रेहड़ी दूकानें. इनमें मेक अप के पहले से लेकर तीसरे दर्जे तक के कॉस्मेटिक्स आयटम्स फेम एंड लवली (फेयर एंड लवली), विमो (विको), बोरो पाल्म (बोरो प्लस), लकमा (लक्मे) पाउडर, पैरासोना (पैराशूट) नारियल तेल, चाइनीज खिलौने, इनर वियर ब्रा, पैंटी, आर्टिफिशियल गहनें अंगूठी, गोल्डन व सिल्वर चेन, चूड़ी, लहठी आदि चीजें बिकने के लिए सजी रहती हैं. जिसके खरीदारों में महिलाओं व बच्चों की भीड़ लगी रहती है. भले ही शहरों में लोग रोजमर्रे की चीजें खरीदते वक्त ब्रांड व कीमत की तुलना करते हों. लेकिन ग्रामीण खरीदारों में नए के बजाए पुराने ब्रांड का ही क्रेज है..
वजह, देहाती कस्बों में अभी भी नाम ही बिकता है. चाहे ब्रांड के नाम पर कोई नकली माल ही क्यों ना थमा दे. इसका आसान शिकार होती हैं ग्रामीण महिलाएं. ऐसे ही एक दूकान पर बूढ़ी महिला ने फेयर एंड लवली क्रीम मांगा. तो दुकानदार ने चट से फेम एंड लवली थमा दिया. मैं नाम पढ़कर चौंका. महिला से पूछा, माई, ई क्रीमवा केकरा खाति किनले बानी. वे बोलीं, बबुआ, आवत रहनी ह त हमर पतोह कहली कि अम्मा जी मेला से फेयर लबली लेले आइल जाई. इससे पहले कि क्रीम के नाम के बाबत और कुछ और पूछता. उस दुकानदार ने सच्चाई भांप मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा. मानो पूछ रहा हो कि धंधे का टाइम क्यों खोटा कर रहे हो भाई. और मैंने वहां से रुखसत होने में ही अपनी भलाई समझी.
पवित्र पंचमुखी शिव लिंग |
इतिहास के आईने में अरेराज
वर्ष 00 में बिहार का झारखंड से अलग होने के बाद धार्मिक पर्यटन के लिहाज से सोमेश्वर धाम की लोकप्रियता और भी बढ़ गई. मोतिहारी से 30 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में तिलावे मन के समीप स्थित बाबा भोले की यह छोटी से नगरी, अनुमंडल मुख्यालय भी है. यहां से छह किलोमीटर दक्षिण में नारायणी नदी बहती है. अभी बिहार में तीन शिव धाम प्रसिद्ध हैं. जिनमें अरेराज का स्थान सबसे उपर है. इसके बाद मुजफ्फरपुर के गरीब नाथ व बक्सर, ब्रह्पुर के शंकर मंदिर आते हैं. माना जाता है कि सोमेश्वरनाथ एक कामनापरक पंचमुखी शिवलिंग हैं. जिसपर सावन महीने में कमल का फूल व गंगा जल चढ़ाने से सारी मनोकामना पूरी होती हैं.
पुराणों में भी है जिक्र
तिलावे मन के किनारे से सोमेश्वरनाथ मंदिर का दृश्य |
जबकि उगम पांडे कॉलेज, मोतिहारी में प्राचीन इतिहास व कला संस्कृति के विभागाध्यक्ष प्रदीपनाथ तिवारी बताते हैं, वर्ष 1816 ई. में भारत व नेपाल के बीच सुगौली में संधि हुई. पहले इस जगह का नाम संगौली था. और यहां से लेकर सिवान, हाजीपुर तक का क्षेत्र नेपाल में आता था. इसका लिखित इतिहास करीब एक हजार वर्ष पुराना है. इसके मुताबिक वर्ष 1000 ई. में इधर आर्य आए. तब इसे अरण्यराज के नाम से जाना जाता था. यहां से नेपाल के तराई क्षेत्रों तक जंगल ही जंगल था. श्री तिवारी बताते हैं कि मंदिर के संबंध में आधुनिक इतिहास उपलब्ध नहीं है. साक्ष्य के लिए इतिहासकारों को भी पुराणों पर ही निर्भर रहना पड़ता है.