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07 April, 2013

यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!


यादाश्त पर जोर दूं तो 90 का शुरूआती दशक था वह. तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था पड़ोस के ही प्राथमिक विद्दालय में, नाम- राजकीय कन्या प्राथमिक विद्दालय, बथानी टोला, कनछेदवा. बोले तो- ईट की दीवार खप्पड़े की छत वाली दो कमरे की ईमारत, बाहर में छोटा सा बरामदा, पर फर्श पर प्लास्टर नहीं था. इन्हीं कमरों में 1-5वीं तक की कक्षाएं चलती थीं. जहां मैं पड़ोस के बच्चों के साथ किसी दिन बोझिल तो कभी उत्साही क़दमों से गपियाते हुए स्कूल जाता.  

चूंकि जमीन पर बैठ कर पढ़ना होता, इसलिए सब अपने साथ प्लास्टिक या चट्टी का बोरा लाते. कक्षा में पहुंचते ही पहले हम-पहले हमकी तर्ज पर बोरा से जगह छेंकने के क्रम में जबर्दस्त हुड़दंग मचती थी. आगे की पंक्ति में बैठने की जगह जिसे मिल गई, वह खुद को नसीब वाला समझता. 

हर कक्षा में मॉनिटरके साथ एक सफाईमंत्री भी होता था. सबसे तेज छात्र को यह जिम्मेवारी सौंपी जाती. मॉनिटर अपनी कक्षा के छात्रों की गतिविधियों की रिपोर्ट प्रधान शिक्षक को करता. उसका रौब कुछ ऐसा था कि कक्षा के अन्य बच्चे उससे भय खाते. क्या पता? कब किस की शिकायत झूठी ही सही प्रधानाध्यापक से कर दे...और बदले में पिटाई मिले या फिर मुर्गाबना दिए जाए. इसी कारण मॉनिटर से मिलजुल कर रहने में ही सबकी भलाई थी. भले ही वह लाख गलतियां कर ले, उसकी खोज-खबर नहीं ली जाती

यानी पद की आड़ में नजायज भी जायज था. कहा गया है कि बचपन का दौर मासूमियत भरा होता है, जिसमें दुनियावी छल-प्रपंच के लिए कोई जगह नहीं होती. पर मॉनिटर का अन्य हमउम्र बच्चों के साथ व्यवहार की साइकोलोजी पर गौर करें तो इससे कुछ और बात ही उजागर होगी. मुझे तो लगता है कि राजनीति कूटनीति की शुरूआत सबसे पहले प्राइमरी स्कूल से ही होती है.  

रही सफाई मंत्री की बात तो वह बच्चों से स्कूल का मैदान साफ करवाता. उसके बाद सभी छात्र कतार में खड़े हो दया कर दान भक्ति का हमें परमात्मा देना...या मां शारदे कहां तू वीणा बजा...का गान करते हुए प्रार्थन करते. फिर कक्षा शुरू हो जाती. जो बच्चे प्रार्थना के बाद स्कूल पहूंचते उन्हें दंड स्वरूप मुर्गाबनना पड़ता

यह कहने से गुरेज नहीं कि मैंने भी यह अमानवीय सजा कई बार झेली! अमानवीय इसलिए कि उम्र भले ही कम हो, पर हमउम्र के बीच  इम्प्रेशन खराब होने का डर किसे नहीं होता? खुले मैदान में करीब आधे घंटे तक उकडू बैठ घुटनों के नीचे से हाथ लाकर कान पकड़े रहना, सबके बस का रोग नहीं था. कनपट्टी गरमाने के साथ पूरा बदन पसीने से तर-बतर होता ही, आंखों के आगे भी अंधेरा छाने लगता. कमर पीठ का ना सहने योग्य दर्द अलग से. ...उसपर छुट्टी के बाद संग के बच्चों का चवनियां मुश्की के साथ चिढ़ाना जले पर नमक सरीखा लगता. 

स्कूल में सोम, मंगल, बुध गुरुवार के दिन काफी बोरियत भरे लगते. शुक्रवार को यह सोच सुकून मिलता कि शनिवार को आधे दिन ही पढ़ाई होगी. फिर रविवार को तो साप्ताहिक बंदी से बल्ले-बल्ले यानी फुल टूश मस्ती रहती ही. गर्मी के मौसम की तुलना में सर्दी का दिन प्यारा लगता. क्योंकि इस मौसम में कड़ाके की ठंड पड़ती. दिन भी बेहद छोटे होते, इसलिए भरपूर छुट्टी रहती.  

उन दिनों अभिभावक तीसरी कक्षा के बच्चे को ही लिखने के लिए कॉपी कलम देते थे, क्योंकि हैण्ड राइटिंग बिगड़ने का डर रहता. सो, दूसरी तक के  सारे बच्चे जामा के पॉकेट में खल्ली (खड़िया) रखते, जो कि मोटहिया स्लेटपर लिखने के काम आता. हालांकि खल्ली की तुलना में पेंसिल ज्यादा चलता और...लिखावट भी अच्छी होती. लेकिन महंगा होने के चलते इसका प्रयोग कम बच्चे ही कर पाते. अन्य बच्चे कहीं पेंसिल चुरा ना लें, इसका भी डर अलग से रहता.  

स्लेट का लिखा मिटाने के लिए यूं तो पानी से भिंगोए गए थर्मोकोल या सुत्ती कपड़े के टुकड़े काफी थे, पर इनसे स्लेट पर चिकनाई पैदा हो जाती. और लिखते वक्त खल्ली या पेंसिल फिसलने लगते. सो, स्लेट को गाढ़ा काला करने के लिए काफी जतन करनी पड़ती. इसके लिए भेंगरइया (भृंगराज) की हरी पत्तियां इस्तेमाल में लाते, जो कहीं भी सड़क किनारे मिल जाती. उसे देखते ही खोंटने के लिए बच्चे लपक पड़ते. इन पत्तियों का रस निचोड़कर स्लेट पर उड़ेला जाता. फिर नदिया के पनिया नदिये में जो, हमर स्लेटवा सुखवले जोका छंद पढ़ते हुए स्लेट को हवा में हिला सुखाया जाता.  

जाने क्यों इस मोटहिया स्लेटसे सौतिया डाहसी बनी रहती? एक दिन मैं और मेरे चचेरे भाई सुधांशु स्कूल चले जा रहे थे. ये जिक्र करते हुए कि कैसे इस मुए स्लेट से पीछा छूटे. अभी कुछ तय हो, तभी एक मैसी ट्रैक्टर आता दिख पड़ा. हमने आंखों ही आंखों में इशारा किया बिना पल भर समय गंवाए दोनों ने स्लेट को उसके पहिया के नीचे रख दिया. अब उस मोटहिया स्लेटकी कचूमर देखने लायक थी.  

मन में किसी भारी बोझ के उतरने का एहसास हुआ, लेकिन दिमाग के एक कोने में अंजाना भय भी सांप की तरह कुंडली मारे फुंफकार रहा था. खैर, घर लौटने का पुख्ता बहाना हमारे पास था. घर आए तो वहीं हुआ जिसका अंदेशा था. यहां किसी ने हमारी बातों पर विश्वास ही नहीं किया...हमारी चोरी सरे आम पकड़ी गई. सबका यही कहना था कि जब दुर्घटना हुई रहती तो हम बाल-बाल कैसे बच गए? ना कोई खरोच ना ही जख्म फिर सब कुछ स्लेट पर ही क्यों गुजरा 

और...इतनी बेरहमी से हमारी धुलाई की गई कि पूछिए मत. जाने कितनी छड़ी शरीर पर ही टूट गई! पिता जी तो गुस्से में आकर मेरी किताबें छीन लिए. कहा- आज से पढ़ाई बंद, अब खेती-बाड़ी देखो. कहना चाहूंगा कि काफी मिन्नतों के बाद ही पढ़ाई की अनुमति मिली. 

स्कूल में शारीरिक शिक्षा के तौर पर सप्ताह में कुछ दिन खेल एक दिन कला विषय की घंटी रहती. लंगड़ी-बिच्छी’, ‘सही-टिका’, ‘आईस-पाईस’, लुका-छिपी’, ‘दुलदुल घोड़ाया कबड्डी’...कितने सारे खेल गिनाऊ. मुझे तो आईस-पाईस लुका-छिपी जैसे अहिंसक खेल ही अच्छे लगते. क्योंकि लंगड़ी-बिच्छी में पैर पर टंगड़ी मारनेकी कला से मैं अंजान था. उलटे बचाव करने में ही खुद के पैर चोटिल हो जाते

बाद में कबड्डी खेलने का भी शौक चर्राया. पर एक दिन खेलने के दौरान विपक्ष के गोल में धरा गया. फिर तो हल्दी-कबड्डीबोलवाने के लिए लड़कों ने इतने जोर से कनपट्टी की मालिश की कि महीनों तक वह हिस्सा लाल रहा. उसके बाद तो इस लंपट खेल से तौबा ही कर ली

वहीं कला की घंटी में संगीत का क्लास लगता. जिसमें सारे बच्चे बारी-बारी से खड़े होकर गाना सुनाते. उस वक्त में हिट फ़िल्मी गीत साजन मेरा उस पार है... मैं नागिन तू सपेरा...सबके होठों पर रहतें. मेरी बारी आती तो इसी में कोई एक तुकबंदी अंदाज में सुना देता बिल्कुल कविता की तरह. दूसरी कक्षा में वर्ष भर बस यहीं गाने गाता रहा. आगे की कक्षा में पढ़ने वाली बड़ी उम्र की लड़कियों को गाते हुए सुनना सुखद एहसास था. 

रोजाना स्कूल में अंतिम घंटी गिनती-पहाड़ा की होती थी. इस दौरान सभी बच्चे खड़े हो जोर-जोर से सैया निनानवे अंठानवे संतानवे... एक्का-एक दो दूनी चार...का कोरस आलाप (सामूहिक गान) करतें. क्या मनभावन दृश्य बनता तब, शब्द उच्चारण की जुबानी कसरत से इतर सबकी नजरें घंटी की तरफ जमी रहतीं! कब छुट्टी की घंटी बजे और सबसे पहले अपना बस्ता-बोरा समेट कक्षा से भागें, मानो जेल से छुटे हों.

उस वक्त स्कूल में दो शिक्षक थे. एक रमेश सर दूसरी, गांव की ही देवी जी’, जो प्रधानाध्यापिका भी थीं. रमेश सर यानी श्री रमेश प्रसाद श्रीवास्तव करीब 28 किलोमीटर दूर अरेराज के टिकुलिया से रोजाना साइकिल चला स्कूल आते थे. जबकि देवी जीउर्फ़ श्रीमती राजमति देवी गांव की ही थीं. रमेश सर, कभी-कभी इन्हीं के दरवाजे पर ठहर जाते.  

क्योंकि तब गांव में शिक्षकों को बेहद सम्मान मिलता था. जैसे ही कोई शिक्षक तबादले से यहां आया कि अपने घर ठहराने के लिए लोगों में होड़ मच जाती. दरअसल इसके मूल में उनका स्वार्थ भी निहित रहता. चूंकि गांव में रहने के लिए जगह की कमी होती नहीं, दूसरा यह भी लालच रहता कि माट...साब कम से कम घर के बच्चों को मुफ्त में पढ़ा ही देंगे. बदले में दो वक्त की रोटी खाएंगे और क्या, समाज में इज्जत तो बढ़ जाएगी

रमेश सर बेहद गंभीर शांत तबियत के जीव थे. किसी बच्चे की शैतानी पर खूब गुस्साते तो दो-चार सटकी(छड़ी) लगा देते. दरवाजे पर जाकर घरवालों से भी शिकायत करते, ‘आपका लड़का बदमाशी करने लगा है. ध्यान दीजिए वरना बिगड़ जाएगा.हां, वह बच्चों पर प्यार भी खूब लुटाते थे. जबकि देवी जी ठीक उनके विपरीत स्वभाव वाली महिला थीं, मोटी-तगड़ी, दबंग प्रवृति की थोड़ी गुस्सैल भी. कहने को वह कुल जमे 4 बच्चों की मां थीं पर ममता उनमें कभी दिखी नहीं.  

महिला होकर भी अपने जमाने की मिडिल पास थीं, सो इसपर उनका गुमान स्वाभाविक था. बचपन में हुई किसी बीमारी की वजह से लंगड़ाते हुए चलतीं, हाथ में अक्सर बांस की छड़ी लेकर. क्या मजाल कि कोई छात्र गलती करते हुए पकड़ा जाए और मोहतरमा वगैर सटकिआए (पिटे) उसे छोड़ दें. क्षमा शब्द तो उनके शब्दकोश में था ही नहीं. जब कभी सामने नजर जातीं तो बिना कोई गलती किए ही हमारी घिग्घी बंध जाती. जाने कब किसी बात पर नाराज हो हथेली पर छड़ी बरसाने लगें

इसी आपा-धापी में तीसरी कक्षा में पहुंच गया. भगवान का शुक्र था  मोटहिया स्लेट से पीछा छूटा. पिताजी वैशाली प्रकाशन की सादी कॉपियां खरीद लाए. नसीहत मिली कि पहले नीली स्याही में सरकंडे की कलम डुबोकर रोजाना चार-पांच पन्ने से लिखने का अभ्यास करो, हैंड राइटिंग सुधारने के लिए. फिर निबही या रीफिल वाली कलम मिलेगी

दस पैसे में नीली स्याही का सैशे आता था जिसे फाड़कर दवात में घोला जाता. तब रेडीमेड चेलपार्क स्याहीकी  भी पूरी धूम थी. लेकिन शौक़ीन पैसे वाले घरों में ही यह खरीदी जाती. जिसमें मैं शामिल नहीं था. कुछ महीने बाद लिंक रीफिल वाली कलम मुझे मिल गई, क्योंकि निबही वार्लिटीकलम आउट डेटेड हो चली थी. हालांकि उससे अक्षर में काफी निखार आता, लेकिन जब विकल्प  मौजूद था तो बार-बार स्याही भरने की जहमत कौन उठाता भला. अब लिखते वक्त हाथ थोड़ा सध गया था, पर सरकंडे की कलम में स्याही पोत रोजाना एक पन्ना लिखने का अभ्यास आगे की कक्षाओं में भी जारी रहा. 

उन दिनों मिशनरी स्कूलों का काफी क्रेज था. और आज की तरह कुकुरमुते समान हर गली-मोहल्ले में इनका बोर्ड टंगे नहीं मिलता था. यह खबर जोर-शोर से फैली कि गांव से करीब 3 किलोमीटर दूर हरसिद्धि बाजार पर के आर मिशन स्कूलखुल रहा है. फिर तो सारे अभिभावकों में अपने बच्चे का नामांकन कराने की होड़ मच गई. चर्चा यह भी थी कि बेतिया के प्रतिष्ठित के आर स्कूल की शाखा है. यहां के सभी शिक्षक क्रिश्चन हैं जो अंग्रेजी माध्यम से नर्सरी-पांचवी तक के छात्रों को पढ़ाएंगे. बच्चों को अभिवादन के तौर पर पांव छूने या प्रणाम की बजाय गुड मोर्निंग’, ‘गुड इवनिंग गुड नाईटकहने का चलन सिखाया जाता है

जाहिर सी बात है, जब अंग्रेजीदां बनना है तो देहात की गंवार परंपरा को तिलांजलि  देनी ही होगी. किताब से लेकर बातचीत भी अंग्रेजी में..., कैंपस में तो हिंदी बोलने पर सख्त पाबंदी है. मानो स्कूल ना होकर कोई औषधालय हो जहां बच्चों को कोई घुट्टी पिला दी जाएगी. और सभी दनादन अंग्रेजी झाड़ने वाले विलायतीबाबू बन जाएंगे

पिता जी भी एडमिशन फॉर्म लाए. पता चला कि नामांकन टेस्ट के आधार पर होगा. सरकारी स्कूल में तीसरी के छात्र को वहां पहली कक्षा में जगह मिलेगी. क्योंकि कोर्स की सारी किताबे नर्सरी से ही अंग्रेजी में है. इसलिए बुनियाद सुधारने के लिए यह जरूरी है. हालांकि पिता जी ने प्राचार्य को दूसरी कक्षा में मेरा नाम लिखाने के लिए राजी कर लिया. पिता जी ने बताया कि स्कूल के लिए अलग ड्रेस कोड लागू है. जिसे बिना पहने वहां इंट्री नहीं मिल सकती

सोम से शुक्रवार तक खाकी हाफ पैंट उजला शर्ट, जबकि शनिवार को लाल रंग वाले पैंट के साथ ग्रे शर्ट पहनना है. गले में नीले रंग की टाई पर स्कूल का बैच कंधे पर बैग लटकाना होगा. मैं तो कई रात तक ये सब सोच-सोचके सो नहीं सका कि नए ड्रेस में टाई लटकाए स्कूल जाते वक्त कैसा दिखुंगा? कहीं अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाया तो स्कूल से नाम ही कट जाए. बालपन की सोच भी काफी हैरत अंगेज होती है. बिल्कुल किसी फिक्सउपन्यास की तरह काल्पनिक हकीकत से परे, जो कभी रोमांचक बन गुदगुदाती है तो डराती भी. 

लेकिन यहां तो होनी को कुछ और ही मंजूर था. पिता जी ने जाने किन कारणों से कांवेंट में भेजने का इरादा बदल दिया. जबकि साथ के कई बच्चों के अभिभावकों ने उनका नाम वहां लिखवा दिया. वे नए ड्रेस में लकदक पीठ पर बैग लटकाए स्कूल जाने लगें. मैं उन्हें देख इसी बात पर इत्मीनान कर लेता कि मिशन स्कूलमें पढ़ना अपने किस्मत में ही नहीं लिखा. और वे बच्चे मुझे वहीं फटे-पुराने कपड़े में देख चिढ़ा कर कहते, ‘वो देखो सैंट बोरिस का छात्र जा रहा है! 

दरअसल प्लास्टिक के  बोरा में बीटीसी की किताबें लपेट बस्ता बनाया जाता और स्कूल में उसी बोरा को बिछा बैठा भी जाता था. इसी कारण गांवों में सरकारी विद्दालय को सैंट बोरिसके उपनाम से संबोधित कर माखौल  उड़ाया जाता. लेकिन जो सपाट नहीं चले शायद उसी का नाम जिंदगी है, जिसमें हमेशा उतार-चढ़ाव आना अनिवार्य शर्त है. महज दो साल बाद ही यह खबर जंगल में आग की तरह फ़ैल गई कि के आर मिशनवाले भाग गए. वजह यह संस्थान फर्जी था, बेतिया वाला नहीं. सुनकर दिल को बेहद तसल्ली मिली. साथ ही पिता जी की दूरदृष्टि भरी सोच पर इतराया भी, जिसकी बदौलत कम-से-कम हम तो ठगाने से बच गए थे!  जारी...

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देवनागरी का ज्ञान ही मेरे जीवन की बड़ी कमाई!
यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!

31 March, 2013

यादें (1): देवनागरी का ज्ञान ही मेरे जीवन की बड़ी कमाई!


अतीत की यादें अक्सर हमारी स्मृति को कुरेदती हैं. और... गुजरी जिंदगी में कुछ पल ऐसे भी होते हैं, जिन्हें हम चाहकर भी नहीं भूल सकते! किसी के भी जीवन में तीन अवस्थाएं बेहद खास होती हैं- बचपन, जवानी व बुढ़ापा. मैंने इनमें दो पड़ाव को, कुछ अपनी मर्जी से और कुछ जबरिया जी ही लिया है. इसलिए इनसे जुड़े किस्से का होना भी स्वाभाविक है. सही है कि जीवन कोई व्यवसाय नहीं, जिसके हर पल का हिसाब लिया जाए. लेकिन एक लेखक के तौर पर भावनाओं की पड़ताल कर, उसे लच्छेदार शब्दों में तब्दील करने की आदत सी हो चली है. सो, ना चाहने के बावजूद भी भावुक मन फ़्लैश बैक में चला ही जाता है. शुरुआत बीते बचपन से करना चाहूंगा.

छुटपन से ही दादा का यह कथन सुनते हुए बड़ा हुआ, ‘खेलोगे-कूदोगे तो होखोगे खराब, पढ़ोगे-लिखोगे तो बनोगे नवाब!’ दादा यानी आम ग्रामीण की तरह पूरे खेतिहर, स्वभाव से कर्मठ व जमीन से जुड़े एक इंसान. 20 बीघे जमीन जोतने वाले किसान थे वह. सो खेतों वाले झगड़े-फसाद में मुकदमा लड़ने को लेकर पूरे गाँव में उनकी कोई सानी नहीं थी. दूर-दराज के गरीब-गुरबे व मजदूर टाइप के लोग उनसे जमीनी विवाद से संबंधित कानूनी मशविरा लेने आते रहते थे. हालांकि मेरे दादा स्व. रामरीत सिंह किताबी जानकारी के मामले में अनपढ़ थे. लेकिन दुनियादारी के मामले में काफी व्यावहारिक व सुलझे हुए थे. कुछ इस तरह कि डिग्री वाले सज्जन भी सामने पानी भरने लगें. 

चाणक्य की इस नीति पर उनका अटूट भरोसा था, ‘राजा बनने से अच्छा है, दूसरे को राज-पाट दिलाओ.’ उनके दादा राम अवतार सिंह देश की आजादी के बाद से ही 33 वर्षों तक कनछेदवा पंचायत का मुखिया रहते हुए स्वर्ग सिधार गए. जब ग्रामीणों ने दादा को मुखिया (ग्राम प्रधान) पद संभालने का प्रस्ताव दिया, तो उन्होंने सिरे से इसे ख़ारिज कर दिया. चूंकि उस वक्त मुखिया पद का चुनाव मतदान से नहीं होकर प्रत्यक्ष तरीके से होता था. उन्होंने अन्य व्यक्ति को समर्थन देकर मुखिया बनवा दिया.

अधेड़पन की बेला में दादा को गांव की ही रात्रि पाठशाला में हिंदी भाषा का अक्षर ज्ञान मिला था. इसलिए अपना हस्ताक्षर तो करते ही थे, अख़बार व धार्मिक किताबों में छपे शब्दों की धर-पकड़ कर, उनका पाठ भी कभी-कभार कर लेते थे. मुझे वो दिन अभी भी याद हैं, जब बाबा मोतिहारी स्थित कचहरी से मुक़दमे की तारीख कर लौटते. कचहरी के वकीलों की कमाई व हकीमों के ठाट-बाट का वर्णन करते अघाते नहीं थे. शायद यह रात्रि पाठशाला में मिले ‘अक्षर ज्ञान’ का ही असर था कि दादा शिक्षा को लेकर बेहद संजीदा रहते थे, कम-से-कम मुझे तो ऐसा ही लगता है. 

दादा मुझे अच्छी पढ़ाई कर अफसर बनने की सलाह देते थे. उनका मानना था कि कड़ी मेहनत के बाद किसी भी महकमे में कोई बड़ा पद मिल जाएगा. तो फिर शेष जिंदगी रौब-रुआब व मजे से गुजरेगी. इस मायने में पिता जी जो कि अब इस दुनिया में नहीं हैं, तो उनसे भी बीस थे. दिल से नरम व स्वभाव से बेहद कड़क मिजाज वाले आदमी थे, पेशे से ठेकेदार. कद व चेहरा भी बिल्कुल अमिताभ बच्चन की तरह, पर थे बेहद स्मार्ट व दबंग व्यक्तित्व वाले. अक्सर ठेकेदारी के लिए टेंडर भरने जिला मुख्यालय जाना-आना व इंजीनियरों के साथ उनका उठना-बैठना लगा रहता था.

पिता जी जब देर रात घर लौटते तो प्रायः मां को सुनाकर कर कहते, यद्दपि उनका इशारा मेरी तरफ होता था. ‘अजी सुनती हो जी, फलाने एसई साहब के लड़के ने आईआईटी का एंट्रेंस निकाल लिया है!’ तो कभी किसी जेई साहब के लड़के की बीपीएससी पास कर एसडीओ बनने की बात कहते थे. मैं उस वक्त गांव के ‘सैंट बोरिस विद्दालय’ (इसकी जिक्र यादें (2) में करूंगा) में पांचवी का छात्र था. पिताजी की आए-दिन दी जाने वाली नसीहतें सुन-सुनकर कोफ़्त महसूस करता था. आखिर क्यों, गांव में रहने वाले एक अदने बच्चे की तुलना शहरी लड़कों से करते हैं? 

कहां बिजली के उजाले में रहकर अंग्रेजी कांवेंट में पढ़ने वाले वे बच्चे. और कहां प्राइमरी स्कूल में प्लास्टिक के बोरे पर बैठ देवनागरी लिपि में पढ़ने वाला यह नीचट देहाती, जो दुअरा पर ‘भुकभुकिया लालटेन’ की धूमिल रौशनी में देर रात गए बीटीसी की किताबों में उलझे हुए मच्छर मारते रहता. पता नहीं, क्यों जलन होने लगी थी, इन सब बातों से? लेकिन पिता जी का खौफ जेहन में इस कदर भरा हुआ था कि क्या मजाल हम मुंह से बगावत के एक शब्द भी निकाल सके. क्योंकि ये उम्र ही ऐसी होती है, जब डांट-फटकार से ज्यादा पिटाई का डर लगता है. मन ही मन घुटने व कोसने के अलावा चारा भी क्या था. 

इसके बावजूद सच कहूं तो अपना अकादमिक सत्र बेहद ही ख़राब रहा. जाने क्यों, स्कूल के समय से ही इन कोर्स की किताबों से उबकाई आती रही है? इसी कारण ज्यादा सीरियसली पढ़ाई नहीं की कभी. बस किसी तरह स्नातक कर लिया, वह भी ताक-झांक करके. कुछ तक़दीर की भी मेहरबानी रही. 

वरना 28 साल की उम्र बीतने को है. बंदे को ये बात अभी तक समझ में नहीं आई कि इतने दिनों तक फिजूल में स्कूल व कॉलेज की पढ़ाई में वक्त क्यों जाया किया? मैं तो देवनागरी ज्ञान यानी हिंदी की सतही जानकारी को ही जीवन की अमूल्य उपलब्धि मानता हूं. यहीं मेरी सबसे बड़ी कमाई भी है. बाकि जो भी पढ़ा महज क्लास पास करने के लिए. वह भी उस समाज के लोक-लाज के भय से जहां पला-बढ़ा, जिसका दबाव अभी भी झेल रहा हूं. यह कि पढ़-लिख कर जो सरकारी चाकरी पकड़ ले, चाहे वह चपरासी की नौकरी ही क्यों ना हो. बोले तो वही दुनिया में सबसे बड़ा ‘तीस मार खां’ है. जारी...

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यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!



13 March, 2013

काश, फगुआ का वो दौर फिर से लौट आता!


"नीक लागे धोती, नीक लागे कुरता, नीक लागे गउवा जवरिया हो, नीक लागे मरद भोजपुरिया सखी, नीक लागे मरद भोजपुरिया..!" इस लोकप्रिय भोजपुरी गीत में खांटी देहाती अंदाज में होली की ठिठोली रची-बसी है. बसंती बयार से आई फागुन की धमक, हर साल कुछ नयेपन का एहसास लेकर आती है. फिर क्या बच्चे, क्या जवान व क्या बूढ़े. सभी के उपर इसका भरपूर असर पड़ता है. भले ही संवेदना व्यक्त करने की खातिर कोई अपनी भावनाओं को शब्दों का रूप नहीं दे पाए. 

लेकिन इतना तो तय है कि सबके मन में अजब सी मस्ती छाई व दिल में गुदगुदी होती रहती है. बिना कुछ किए ही मिजाज हर पल अलसाये व बौराए रहता है, कभी-कभी रोमांटिक भी हो जाता है. वहीँ माह के अंत में होली के बहाने कहीं ना कहीं प्रकृति भी हमें सीख देती है, कि आपने भादो की बरसात झेली है तो बसंत का भी लुत्फ़ उठाइए. . ठीक वैसे ही जैसे जीवन में दुःख है तो सुख भी आता है.
    
खासकर भोजपुरी के गढ़ माने जाने वाले आरा, मोतिहारी, छपरा, सिवान, बेतिया, बक्सर, गाजीपुर, बलिया, देवरिया, कुशीनगर आदि क्षेत्रों में फागुन की सतरंगी छटा की तो बात ही निराली है. पूर्वी चंपारण के एक छोटे से गाँव कनछेदवा में बिताई बचपन की होली को याद कर नास्टैलजिक हो जाता हूँ. खट्टी-मीठी यादों के बीच वो खुशनुमा पल आज भी जेहन में कैद हैं.  

होली के कुछ दिन पहले से ही दोस्तों के संग मिलकर, दूसरो को रंगने की कवायद शुरू हो जाती थी. लेकिन क्लास में तो अकेले ही सबको तंग किए रहता. तब सातवीं में पढ़ता था. दोस्तों को बिना बताए रंग लगाने के लिए नयी-नयी तरकीबें निकालते रहता. उस समय दस पैसे में रंग की पुड़िया आती थी. मैं रोजाना लाल या हरे रंग की आठ-दस पुड़िया लेकर बेंच पर बैठता. 

एक बेंच पर तक़रीबन पांच लड़के बैठते थे. मैं चुपके से पुड़िया फाड़ बारी-बारी से सबके सिर के पीछे से हाथ ले जाकर उनके बालों पर इसे झाड़ देता था. कल होके जब वे स्नान करते तो उनका पूरा बदन ही रंगीन हो जाता. और देखने वाला हँसे बिना नहीं रह पाता कि सामने वाले को किसी ने मामू बना दिया है. पकड़ में नहीं आए इसलिए हर दिन बेंच बदल अपनी कारामात चालू रखता. शरारतों के दौरान कभी-कभी भेद खुलने पर बात पीटने-पिटाने तक पहुँच जाती थी. पर अगले ही दिन सभी लड़के गिले-शिकवे भूला एक हो जाते, जैसे कुछ हुआ ही ना हो. 

होली के रोज शाम में गाँव के बड़े-बूढ़े व युवाओं की टोली ढोल-मंजीरे लेके फगुआ गीत गाते सभी के दरवाजे पर पहुँचती. “पनिया लाले लाल ये गऊरा तोहरो के रंगेब” की तान हो या फिर ”वृन्दावन कृष्ण खेले होली वृन्दावन” की आलाप, हुड़दंग के साथ बसंती कोरस में सुरों की महफ़िल सज जाती. सबके माथे पर लगे अबीर-गुलाल से चढ़ी खुमारी कुछ यूँ मदहोश करती कि बदहवास थप्पड़ बजाते हुए हर कोई झूमने को मजबूर हो जाता. 

इसी दौरान गृह स्वामी प्लेट में बादाम, नारियल, किशमिश व छुहारा सत्कार के तौर पर लाकर देता. जिसे हम पॉकेट में रख लेते. फिर घर पर मौजूद बराबर या छोटी उम्र वालों के माथे व बड़ों के पाँव पर अबीर स्पर्श कराते थे. और “सदा आनंद रहे ये द्वारे” गाते हुए दूसरे दरवाजे की ओर रूख करते. 

खैर, ये तो रही गुजरे जमाने की बात. अभी की बात करें तो आज भी गाँव वैसे ही है, थोड़े-बहुत बदलाव के साथ. पर भौतिकतावाद की आंधी ने देहात में एक नयी सभ्यता को जन्म दिया है. जहाँ भाईचारे, भोलेपन, आपसी सौहार्द, व रहन-सहन की मौलिकता पर इर्ष्या, स्वार्थीपन, मक्कारी व बनावटीपन का बदनुमा धब्बा लग चुका है. 

रोजी-रोटी व बेहतर जीवन के लिए गाँव से शहरों की तरफ बेहिसाब पलायन, पंचायत चुनाव की गंदी राजनीति व आधुनिक बनने की होड़ ने ग्रामीणों से बहुत कुछ छीन भी लिया है. उनके लिए होली महज खाओ-पियो व ऐश करो वाला त्यौहार रह गया है. सड़क पर दारू के नशे में बहक गाली-गलौज करती युवकों की टोली कुछ अलग ही नजारा प्रस्तुत करती है. वहीँ भले मानस इस दिन घर में ही दुबकना पसंद करते है. 

रही बात फगुआ गीत की तो इसे गाने वाली पूरानी पीढ़ी या तो गुजर गई या उसकी राह पर है. मोबाइल से भोजपुरी के अश्लील गाने सुनने वाले नवही को गली-गली घूमकर फगुआ गाने में शर्म लगती है. उनकी नज़रों में यह परम्परा आउटडेटेड हो चली है. अब अबीर व रंग लगाने का सरोकारी दौर भी नहीं रहा. वर्षों से चली आ रही इस परंपरा को भी निजी हित साधने के तौर पर ढोया जा रहा है. क्योंकि यह संस्कार नहीं दिखावा बन गया है.
  

18 January, 2013

सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है

दो लफ्जों की है अपनी कहानी, या तो मोहब्बत या है जवानी. जवानी यानी जीवन का वह खूबसूरत दौर. जब हर युवा की चाहत होती है, किसी को अपना बना लेने की. या फिर किसी के दिल में बस जाने की. भले ही आज मेरी शादी के दो वर्ष गुजर गए. पर आज भी मुझे गर्व है कि एक वक्त मैंने भी किसी से प्या...किया था. ये अलग बात है कि कुछ समय बाद एक खुशनुमा मुकाम पे पहुँच, मैंने उससे ब्रेक अप कर लिया. इस गाने के तर्ज़ पर कि 'प्यार को प्यार ही रहने दो, इसे रिश्ते का इलज़ाम ना दो.' 

 ये तो रहा उस उम्र का एहसास जिसमें कुछ हकीकत है, कुछ फ़साना. एक कोरी कल्पना, मृगतृष्णा व अनबूझी बेचैनी सी जेहन में समाई रहती है. ख्यालों में जीना और हर घड़ी किसी का इंतजार. एक ऐसी तलाश जो कभी पूरी ही ना हुई. उम्र के एक खास मोड़ पे अधिकांश लोगों का पाला इससे कभी ना कभी पड़ता ही है. लेकिन आज एक विवाहित के तौर पर इतना तो आत्मविश्वास के साथ कह ही सकता हूँ. कि सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है. और समर्पण भी. 

जाने क्यों लोगों में यह धारणा आम है कि शादी का लड्डू जो खाए वो भी पछताए, जो ना खाए वो भी. क्योंकि शादी दो जोड़ों का मिलन भर नहीं है. ना ही दो प्राणियों का रिश्ते में बंध जाना. यह पूरी तरह से दर्शन, अध्यात्म, व संस्कार है. इसकी गहराई जीवन के अंतिम पड़ाव  में समझ में आती है. यानी नितांत अकेलेपन की वह बेला, जब सबसे ज्यादा किसी के साथ की जरूरत होती है. मैं तो कहूँगा कि बिना शादी हर स्त्री-पुरुष का जीवन अधुरा है. इस तथ्य से आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है. बशर्ते आप शादी-शुदा हों.

17 January, 2013

रूकती सांसे सांसें... थमते नब्ज... और झूठा दिलासा

जिंदगी तो बेवफा है... एक दिन ठुकराएगी, मौत दिलरूबा है यारों संग लेके जाएगी...! मौत यानी जिंदगी का सबसे भयावह क्षण. खासकर अल्प आयु में किसी अपने के जाने की कल्पना से ही लोग सिहर जाते हैं. इसकी संवेदना व गहराई वही समझ सकता है, जिसके सामने उसका करीबी या परिजन गुजरा हो.

...और जिसने इस नाजुक पल को जिया हो. क्या...ह्रदय विदारक दृश्य होता है वह! जब जिंदगी से जद्दोजहद कर रहा कोई अपना घड़ी दर घड़ी मौत के आगोश में जाने को बेताब हो.

अधखुले मुंह... रूकती साँसे...थमते नब्ज...शून्य में पथराई आँखें. जिंदगी है कि साथ नहीं छोड़ना चाहती. और मौत साथ ले जाने को बेताब. समीप बैठे परिजनों का दिल भी अनहोनी की आशंका से बैठा जाता है. आशा-निराशा के जबरदस्त उधेड़बुन में फंसे सभी एक-दूसरे को देते कोरी संतावना.

इस बेबसी व लाचारी के बीच एक झूठा दिलासा भी कि...कुछ नहीं हुआ है. सब ठीक हो जाएगा. फिर इसी रस्साकशी में आत्मा शरीर का साथ छोड़ जाती है. मचती है ख़ामोशी को चीरती अपनों की चीख-पुकार. कुछ दिल से रोते हुए व कुछ समाज को दिखाने के लिए. कुछ न चाहते हुए भी गमगीन माहौल की वजह से आंसू ढलका ही देते है. क्योंकि यह सनातनी परम्परा है. 

16 January, 2013

धंधा चमकाने को लेबल बूरा नहीं है!

अखबार में बतौर स्टिंगर कुछ अच्छा लिख कर बाईलाइन खबर छपवाने की सनक. यानी कि ऐसी बीमारी जिसका इलाज बेहद महंगा है, जबकि तरीका उतना ही घटिया. खासकर कस्बाई क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हो तब. भगवान ना करें किसी को छपास का रोग लगे. वरना शीशी में करुआ तेल लेके हर वक्त हथेलियों को मालिश के लिए तैयार रखना होगा. इस पर भी छपने की गारंटी नहीं रहती. क्योंकि 'हर शाख पर उल्लू...' वाली कहावत सुने हैं ना. 

और अख़बार के मुफसिल मॉडेम केन्द्रों की बात ही न पूछिए. यहाँ तो अच्छी से अच्छी खबरों को भी बेदर्दी से काट-छांट कर लगाने या एकदम से दबाने की ओछी परम्परा तो दशकों से चली आ रही है. हाँ कभी-कभी उदार प्रवृति के सरोकारी सोच वाले प्रभारी भी आते हैं. जो आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए आपकी लेखनी को जगह देते हैं. लेकिन इनके जाते ही स्थिति जस की तस हो जाती है. 

वैसे धंधा चमकाने के लिहाज से खबरची का लेबल बूरा नहीं है. लेकिन टिकाऊ बने रहने के लिए रचनात्मकता को मारना ही पड़ता है. वरना ज्यादा लिखा-पढ़ी की, तो कई सारे साथी कलमची भी विकेट गिराने की हद तक दुश्मन बन जाते हैं. यह बात मैंने निजी अनुभव के आधार पर कही है. इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं.