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28 February, 2016

बुरबक बिहारी : पिरीति आ पिरितम के Love स्टोरी

************************* (1.)

 'हेल्लो, कवन बोल रहे हैं उधर से? मिस कॉल आया है आपका मेरे नम्बर पर।' मोबाइल पर अंजान नंबर से आए मिस काल को देख फोन लगा प्रीतम ने पूछा।

'जी, सॉरी। गलती से लग गया था आप पर। ऊ त हम अपना मौसी के यहां परसा फोन लगाए थे।'

'त एमे सॉरी के कवन बात है। कबो-कबो गलती से आछा काम हो जाता है।' फोन पर उधर से लड़की की मीठी
आवाज को सुन प्रीतम ने लपेटना शुरू कर दिया।

'आछा काम मने?' लड़की ने चिहुकते हुए पूछा।

'मने का? आपसे हमारा बात करना आछा ही न है।'

'ई हमको नहीं पता, का आछा है और का बुरा? मने एकरा बाद ई नंबर पर फोन मत कीजिएगा। पापा जी का मोबाइल है। जान जाएंगे त पिटाने लगूंगी।'

'आछा, नहीं करेंगे। अपना नाम तो बता दो?'

'नाम काहे बता दे आपको? हम त आपको जानते भी नहीं।'

'एमे जानना क्या है। पिरितम नाम है हमारा। घर बहादुरपुर। बहलोलपुर हाई स्कूल से इंटर कर रहा हूं, सकेंड ईयर में।'

'अरे वाह, हम भी त ओही स्कूल से दसवां कर रहे हैं। अगिला साल मैटिक का एक्जाम है।'

'एतना बता दी त नामो बता दो ना?'

'हमर नाम पिरीति है। घर सोनगंज, बस एह से जादा नहीं बताएंगे। अब चलिए फोन रखिए। नहीं त पापा जी सुन लिए त जुलुम कर देंगे।'

'अरे वाह! आप पिरीति हम पिरितम। हमारा-आपका गांव भी अगले-बगल में है। का सन्जोग है! वइसे हम फोन रख देते हैं। ई बताओ फेरु कब बतियाओगी?'

'अब ई नहीं बता सकती कि बात होगी कि नहीं। अभिये परिचय हुआ और आप तो एकदमे लाइने मारे लगे।'

************************* (2.)

'हां, हेल्लो। के बोलत बा, कहवां से बोला तानी?'

'हम रमेस बोलत बानी खजुरिया से। ई डुमरिया लागल बा नु?'

प्रीतम ने फोन पर एक उम्रदराज महिला की आवाज भांपते हुए पैतरा बदलकर बोला। आज सात दिन बाद उसने प्रीति को फोन लगाया था। लेकिन उसकी मां रामकली देवी ने फोन रिसीव किया और सवालों की झड़ी लगा दी।

'ना ई सोनगंज लागल बा। हम पिरीति के माई बोलत बानी।'

'आछा रखीं फोन। बुझाता रांग नम्बर लागल बा।' प्रीतम ने झूठ बोला।

'के ह मां, का कहत बा?

'कवनो मरदा रहल ह खजुरिया के। कहत रहे डुमरिया लगवले बानी।' रामकली देवी ने प्रीति के पूछने पर बताया।

'आछा, तनि फोनवा देबू हमके गेम खेले के बा।' प्रीति ने उनके हाथों से फोन लपकते हुए कहा।

'हाली से खेल के दे दिहे फोनवा। तोर पापा देख लिहे त मुआ दिहे। तोरा संगे हमरो के। हर दफे मना करे ले तोरा के फोन ना देवे के। कहत रहले एह घड़ी फोने पर लड़का-लड़की बिगड़ जाता लोग।' उन्होंने फोन देते हुए हिदायत दी।

'आछा त ई ओह दिनवा आला रांग नम्बर से आइल रहल ह।' प्रीति ने चुपके से छत पर जाकर मोबाइल में नम्बर को देख बुदबुदाया और मिस काल दे दी।

'आपको बोल थे न उस दिन। यहां फोन मत करिएगा। फिर काहे किए हैं। पापा जी जान गए त घर में रहल मुश्किल कर देंगे। आप बुझ काहे नहीं रहे।' उधर से कॉल आते ही वह शरु हो गई।

'आपका आवाज बहुत नीमन लगा। ओहि से फोन किए। सुनने का मन किया आज।'

'एकर का मतलब हुआ। दुनिया में जवन लड़की के आवाज आछा लगेगा ओकरा पिछ्ही पड़ जाइएगा।'

'अरे खिसिया काहे रही हो। आपन किरिया खाके कहते हैं। जिनगी के पहिला लड़की हैं आप। जिससे बतिया रहे हैं।'

'मने हमको आपसे नहीं बतियाना। चलिए फोन रखिए।'

'आपको बात नहीं करना है तो काट दीजिए। हम नहीं रखेंगे।'

'तनि सा बतिया का लिए आपसे। आप तो पिछ्ही पड़ गए हमारे।'

'ऐसा बात नहीं है पिरीति। ई सब बोलकर हमको लजवाओ मत। आज तुम्हारा इयाद आ रहा था तो फोन कर दिए। बाकि हमारे मन में तुम्हारे लिए ऐसा-वैसा कुछो नहीं है।'

'आप समझते काहे नहीं। राजपुत हैं हम लोग। उसमें भी पापा जी बड़ी खिसियाह हैं। जान गए उनकर बेटी कवनो लड़का से बतियाती है। तो कचरवाकर फेंकवा देंगे। घर में खानदानी बन्दूक रखल है। जब गांव में केहू से झगड़ा होता है। तो बात-बात पर निकाल लेते हैं। आ हमको खून-खराबा से बड़ी डर लगता है। मैं दुनू हाथ जोड़कर निहोरा करती हूं कि एकरा बाद फोन मत कीजिएगा।'

'अब एमे जात के बात कहां से आ गया। आप राजपुत हो तो हम भी कवनो ननकी जात नहीं है। जो डेरा जाएंगे। पंडी जी हैं हम भी। आचार्य उमा शंकर त्रिवेदी को जवार में कवन नहीं जानता उनकर बेटा हैं हम।'

'पिरीति... ए पिरीतिया, कहां बाड़े रे लड़की। गोड़ में एकरा चक्कर हो गइल बा। अगिला साल मैटिक के परीक्षा बा। मने किताब के ओरी ताकतो ना बिया। तनि पापा के पानी लेआ के दे त बेटी।'

'आवत बानी मां। छत पर आइल रहनी ह कपड़ा पसारे।'

'आछा। हम फोन रख रहे हैं। बुझा रहा है पापा जी घरे आ गए। मां बोला रही है।' फोन के Recieve व Miss Call से नम्बर को डिलीट करते हुए हुए प्रीति छत से नीचे की तरफ भागी।

************************* (3.)

प्रीति के पिता रणविजय सिंह घर के ओसारे में बैठे हुए थे। तभी उनका मोबाइल बज उठा। बार-बार फोन उठाते और बिना उधर से जवाब दिए कट जाता था।

'हेल्लो, हेल्लो...!'

'का जाने कवन फोन करता? ओने से आवाजे नइखे आवत।' चौथी बार भी दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं पर उन्होंने झल्लाते हुए कहा।

बगल के कमरे में प्रीति गोल्डेन प्रकाशन का मैट्रिक परीक्षा की तैयारी वाला गेस पेपर विषयवार अलग-अलग कर स्टेपलर से पिन मार रही थी। पापा की कड़क बोली सुन अंजाने डर से उसका दिल धड़कने लगा, 'तीन दिन पहले जो फोन आया था, कहीं वहीं लड़का तो नहीं..?'

'हई देख त पिरीतिया केकर नमरवा से फोन आवता।'

'बाप रे, ई त उहे नमरवा ह। आजु मुआ दिहे पापा हमरा के।' उसने मोबाइल का नम्बर देख मन ही मन बुदबुदाया।

तभी उन्होंने प्रीति से कहा, 'आछा, तनि फोनवा चार्ज में लगा दे। केहू के फोन आवे त बोल दिहे कि घरे नइखी अबही। हम तनि सुखड़िया किहा से आवत बानी एगो पंचायत कके।'

उनके जाते ही वह छत पर गई और उस नम्बर पर मिस कॉल मार दिया। थोड़ी ही देर में फोन आ गया।

'आप काहे हाथ-गोड़ धोके हमरा पीछे पड़ गए हैं। पता है आजु पापा जी के हाथ में मोबाइल था। ई कहिए कि ऊ नहीं बुझ पाए।'

'आछा तो हम कवनो बुरबक है का! हम त आवाजे सुन के समझ गए कि केकरा लगे मोबाइल है। एहि से त खाली हेल्लो-हेल्लो कहके फोनवा काट दिए थे।'

'आप बुझते नहीं हमारे घर वाले केतना खतरनाक हैं। एक बार हमारी फुआ के साथ का हुआ था, आपको पते नहीं है। उन पर हाई स्कुल में पढ़ाई के समय एगो लड़का अइसही दीवाना था। एक दिन ऊ फुआ को चिठी दे दिया। ई बात के जानकारी जब बाबा को हुआ। तो ऊ आ पापा मिलके ओह लईका के हाथे तुड़वा दिए थे।'

'तुम अपने खानदान का नाम लेकर हमको डराती काहे हो? अब तुमको बतियाने का मन नहीं करता त ऊ दोसर बात है। एक बार खाली अपना करेजा पर हाथ रखके कह दो, तुमको हमारा आवाज आछा नहीं लगता। हम किरिया खाकर कहते हैं फोन नहीं करेंगे।'

'देखिए ऐसा बात नहीं है। आप हमारा मजबूरी समझिए। आ हमेशा किरिया खाने वाला बात काहे कहते हैं। ई बताइए फोन काहेला किए थे?'

'तुमसे एगो मन का बात कहना था। लेकिन अभी नहीं कहेंगे। मूड ऑफ़ हो गया।'

'ठीक है मत कहिए। नीचे जा रही हूं मां बुला रही है।'

'ई तो बता दो अब कब बात होगा?'


'कबो नहीं।'

'देखो, एतना किसी को तड़पाना आछा नहीं है। शाम को मिस कॉल देना एगो जरूरी बात कहना है।'

'कवन बात?'

'अभी नहीं शामे को बताएंगे।'

'आछा, समय मिलेगा तो देखेंगे।'

'देखेंगे नहीं, परोमिस करो। हम तुम्हारे मिस कॉल का इन्तजार करेंगे।'

'आछा परोमिस! करेंगे। अब फोन रखिए।'
 
************************* (4.)

जब मन में कोई चोर छुपा हो तो आदमी हर चीज को संदेह से देखता है। यहीं स्थिति प्रीति की भी हो गई थी। शाम में प्रीतम को Miss Call देने का वादा क्या किया था। उसे पल-पल मां या पापा की नजरें अपनी तरफ घूरती नजर आतीं। और उसकी नजर रह रहकर घड़ी की सुई पर टिक जाती। घर में इस वक्त कुल जमे तीन प्राणी ही थे। जबकि प्रीति का इकलौता भाई विजय पटना में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था।

इस समय आठ बज गया था। रणविजय सिंह खाना खाकर बथान पर सोने चले गए। वहीं रामकली देवी पड़ोस में शिव चर्चा सुनने जा रहे थीं।

उन्होंने प्रीति को आवाज लगाते हुए कहा, 'मन त रहल हो तोहरो के ले चले के। मने घरो के देखल त चाहि। केवाड़ी के छिटकिलि ठीक से लगा दिहे बबी। हम एक-दू घण्टा में आएम।'

'ए मां तू चल जइबू त डर लागी हमरा। मत जा।' उसने बनावटी डर दिखाते हुए कहा।

'भगवान के काम में 'ना' बोलल असुभ ह। आ केहू किहां ना जाईल जाई त उहो अपना इहां ना आई।'

'ठीक बा। मोबाइल देले जा हमराके गेम खेलेला।'

'दे तानी। बाकिर जादे पेर-पार मत करिहे ओकरा के। एने-ओने फोन कईला प पईसा काट लेत बिया कम्पनी।'
'आछा ना करेम।' उसने आश्वस्त करते हुए मोबाइल ले लिया।

मां के घर से जाते ही उसने झट से किवाड़ी बंद कर दिया। नीचे Aircel का टावर अक्सर गायब रहता। बातचीत में रुकावट ना हो इसलिए छत की सीढ़ी पर जाकर उसने प्रीतम के पास Miss Call दे दिया। अबकी छत पर नहीं गई। उसे अच्छी तरह पता था कि रात में ऊपर से आवाज दूर-दूर तक जाती है। पांच मिनट तक उधर से फोन नहीं आया तो उसने खीजते हुए लगातार तीन बार Miss Call मार दिया।

दस, पन्द्रह, बीस मिनट...। और अब पूरे आधे घण्टे बीतने को थे। कोई जवाब नहीं आया। जाने क्यों, उसे प्रीतम के ऊपर थोड़ा गुस्सा आने लगा था। उसी अनुपात में खुद के ऊपर शर्मिंदगी भी महसूस हुई। यह सोचकर कि मैं होती कौन हूं एक अंजान लड़के के फोन का इन्तजार करने वाली। तभी उसके मोबाइल का Ring Tone बज उठा। उसने Screen पर नम्बर देख बिना देरी किए उठा लिया। अचानक से उसका टेंशन उड़न छू हो गया और चेहरे का रंग गुलाबी।

'हेल्लो... सॉरी तुमको देर से फोन किए। अबगे टयूशन पढ़के आ रहे हैं। पॉकेट में मोबाइल भाईब्रेशन में था। अभिए तुम्हारा मिस कॉल देखे हैं। हमको विस्वास था तुम जरुरे मिस करोगी'। प्रीतम ने बढ़ी हुई धडकन पर काबू पा एक सांस में कह डाला।

'सवेरे कवन बात कह रहे थे मुझसे कि शाम में बताएंगे? वह सवाल करते हुए बोली।

'आछा छोडो उस बात को। ऊ त अइसही मजाक में बोले थे।'

'मजाक में मने का? एकरा मतलब तुमको कुछो नहीं कहना था हमसे। फिर मिस कॉल करे ला काहे बोले।'

'सोचते हैं कि कहीं बता दूं तो तुमको बुरा न लग जाए।'

'नहीं बुरा मानेंगे। कहिए।'

'तो फिर परोमिस करो।'

'परोमिस।'

'तुम बहुते सुन्दर हो। दुनिया के सब लड़की से बढ़कर ब्यूटीफुल हो मेरे लिए।'

'भाक, ई कवन कह दिया कि हम सुनर हैं। और हमको देखे बिना आप कईसे मान लिए कि कईसन हैं?' उसने शर्माते हुए कहा।

'अपना मन के आंख से देखे हैं और का?'

'आछा। आप तो बड़का अंतरधानी बाबा हैं।' वह मंत्रमुग्ध हो चली थी।

'एकदमे अंतरधानी हैं हम। पूछो, तुम्हारे बारे में कुछो बता सकते हैं।'

'त ई बता दीजिए अभी हम का पहने हैं?'

'ए ए ए... सलवार सुट पहनी हो।' उसने आवाज को खींचते हुए अंदाजा लगाया।

'किस रंग का है?'

'गुलाबी समीज और पियर सलवार।'

'झूठ पकड़ा गया आपका। हम तो आसमानी कलर का नाईट सुट पहने हैं।' उसकी पकड़ी गई चोरी पर वह चहकते हुए बोली।

 ************************* (5.)

लड़कियों में Common Sense कूट-कूट कर भरा होता है। जिसके सहारे वह लड़कों का झूठ आसानी से पकड़ लेती हैं। प्रीतम अपनी पकड़ी गई चोरी पर झेंप सा गया। 'अब क्या होगा?', अंजाने भय से उसका आत्मविश्वास थोड़ा डगमगाने लगा।
तभी उधर से प्रीति का की खिलखिलाती आवाज सुन उसे काफी राहत मिली। 'हां..हां...हां, चलिए अब हमसे लबरई मत बोलिएगा। हमें झूठे लोग तनिको पसंद नहीं।'

'आछा, तुम्हें बुरा लगा हो तो माफ़ कर दो। मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाना नहीं था। मने परोमिस करते हैं एकरा बाद झूठ नहीं बोलेंगे।'

'अब एमे माफ़ी मांगने का बात कहां से आ गया। दोस्ती में त ई सब चलते रहता है।'

प्रीति के मुंह से दोस्ती की बात सुन उसे भीतर तक गुदगुदी हुई। एक अंजान लड़की जिससे कभी मिला नहीं। महज एक Miss Call से इतने करीब आ जाएगी कि उसे दोस्त मानने लगे। एकबारगी उसे यकीन नहीं हो रहा था। शायद Teen Age का एहसास ही कुछ ऐसा होता है। किसी भी हिंदी Love Story फ़िल्म से ज्यादा रोमांटिक और काल्पनिक भी। हकीकत कम फ़साना ज्यादा।

'जब दोस्त मान ही ली त एगो बात पूछे?' प्रीतम ने भीतर की हलचल को चतुराई से दबा दिया और खुद को नियंत्रित करते हुए पूछा। थोड़ा-थोड़ा भावुक भी हो चला था।

'हां, पूछिए।'

'हम कईसन लगते हैं आपको?'

'फिर वहीं बात। ई त झूठे बोलना न हुआ। बिना आपसे मिले कइसे बता दें कि आप कईसन हैं।'

'अपना दिल से पूछो जवाब जरुरे मिल जाएगा। वइसे तुम्हें बता दें कि हम पूरा करिया-कलूटे हैं।'

'इसमें पूछना का है। जब आप दोस्त होइए गए तो जो भी हैं, जइसे भी हैं। मेरे लिए सबसे आछा इंसान हैं आप।'
'एतना जल्दी हम पर भरोसा हो गया तुमको?'

'देखिए, भरोसा का बात नहीं है। मां कहती है कि मरद का गुण देखा जाता है, सूरत नहीं।'

'जब तुमको एतना विश्वास हम पर होइए गया। तो हम भी वादा करते हैं। ई दोस्ती अंत-अंत तक निभाएंगे।'

'आछा, अब फोन रखिए कल बतियाएंगे। लाउड स्पीकर बन्द हो गया। बुझा रहा है शिव चरचा खत्म हो गया। मां आइए रही होगी।'

'ठीक है रखते हैं। ई बताओ कल कब बात होगी?'

'कल दस बजे हाई स्कूल जाना है। रस्ते में एगो सखी के मोबाइल से मिस कॉल करूंगी।'

'ओके Bye। गुड नाईट।'

'Same to You!'

                                                                  (भाग 8)

'हमरे खाति दुनिया में तोहरा के भेजवले बाड़े, भगवान बड़ी फुर्सत से तोहरा के बनवले बाड़े..!' जैसे ही मोबाइल की घण्टी में यह रिंग टोन बजा प्रीतम का ध्यान टेबल पर रखे फोन की ओर गया।

उसने कम्बल से निकल कर राजनीति विज्ञान के गेस को एक तरफ रखा और फोन को रिसीव किया।

'हेल्लो, कौन?'

'जी, नमस्ते। हैपी न्यू ईयर! हम पिरीति बोल रहे हैं।' उधर से कानों में मिश्री घोलने वाली आवाज सुनते ही प्रीतम का मानो यकीन नहीं हुआ। लगा पूरे देह में सनसनी फैल गई।

'सेम टू यू! पिरीति हमको विश्वास था तुम जरूरे फोन करोगी। तुमसे बतिया के हमको केतना रिलैक्स बुझा रहा है। पास में रहती त आपन करेजा चीर के देखा देते। आछा, तुम फोन रखो। हमारा जियो का सिम फिरी वाला है एने से करते हैं।'

फोन काटके प्रीतम कॉल लगाने लगा। लेकिन इधर जियो और उधर यूनिनॉर का सिम। जैसे दोनों का जन्मजात बैर हो। एक, दो, तीन, चार, पांच... दस। बार-बार उधर से कंप्यूटर वाली बहन जी 'नॉट रिचेबल' बोले जा रही थी।

'सा... चू... ई अंबनियो सभकर हाथ में फिरी सिम पहुचाके बुरबक बना दिया है। मेन मोके पर फेल हो जाता है।' प्रीतम मन ही मन झल्लाया।

ठीक पचासवे बार में फोन लगा। तो उसे राहत महसूस हुई।

'ई बताओ आजु चार जनवरी को बतिया रही हो। हम हेमा को फस्टे जनवरी को तोहरा लगे ग्रीटिंग कार्ड पहुचावे आ बात करावे ला बोले थे।'

'हेमा के मां का तबियत खराब था। एही से ओह दिन नहीं आई। आजुए आई है मिले के बहाने। उसी का नम्बर से आपसे बतिया रहे हैं। आपका ग्रीटिंग्स पढ़े हैं। का बताए, पढ़ला के बाद मने-मने केतना बेचैन हैं। रो नहीं रहे बाकि सब करम हो गया है।'

'सुनो पिरीति हमार किरिया, रोने का बात करोगी त हमहु रो देंगे। हिम्मत से काम लो हम जल्दिए कवनो ना रास्ता निकाल लेंगे मिले खाति।'

'डारलिंग, अपने दिल से नु पराया दिल का हाल बुझा जाता है। कइसे बताए आपको हम पर का बीत रहा है? जहिया से पापा जी आपसे बतिआत में मोबाइल छीने हैं। हर दमे पहरा लागल रहता है। पापा जी त दिन में केतना बेर रूम में झांकते रहते हैं। उनका चकुदारी से तंग आ गई हूं। लग रहा है जइसे उनकर बेटी केहु के संगे उड़हर जा रही है। मानते हैं आप पंडी जी है आ हम बाबू साहेब। दुनू जने के मिलन में समाज एगो लमहर दीवार है। मने पेयारे नु किए हैं आपसे, कवनो बड़का पाप थोड़े किए हैं।'

'पिरीति, दुनिया में पेयार से बड़ा कुछो नहीं है। सबसे पवित्र रिस्ता है ई, मने जालिम जमाना नहीं बुझता है इसको। आछा, ई बताओ अभी तोहर मम्मी-पापा कहां हैं?

'पापा जी पंपिंग सेट लेके गहु पटवाने गए हैं। अउरी मां दुअरा पर मकर सक्रान्ति के चिउरा के लिए धान सुखा रही है। हम त छत पर सीढ़ी आला रूम से नुका के बतिया रहे हैं।'

'ओ...हो, आ मां तोहरा साथे कइसन बिहैव करती हैं?'

'उहो कम नहीं है पापा जी से। अब तो हर दफे बानी मारते रहती है। मैटिक कर लो फिर तुम्हारा बिआह कर देंगे। एक दिन राति के बथानी पर पापा जी से बतिया भी रही थी। हम खाना लेके गए थे नुका के सुन लिए। कह रही थी 'जमाना खराब हो गइल बा। कवनो उच-नीच हो जाए। एह से नीमन बा जल्दिए इनकरा के कवनो खात-पियत घर देखके हाथ पिअर क देहल जाई।'

'त ठीके नु कहती है मां एमे बुरा क्या है? लड़की जब सज्ञान हो जाए तो बिआह कर ही देना चाहिए।' प्रीतम ने चुस्की लेते कहा।

'मारेंगे न आपको। अब आप भी जरल पर नमक छिड़क रहे हैं।' प्रीति में मीठी झिड़की दी।

'त तुम्हारा विचार क्या करने का है?' प्रीतम का सवाल था।

'एमे करना क्या है। जब हो गया त हो गया। ओखरी में मुड़ी पड़िए गया तो मोट-पातर का डर केकरा है। पापा जी के जिद्द है कि हमर बिआह दोसर जघे करेंगे। त हमहु ओही राजपूत बाप के लड़की हैं। पेयार किए हैं आपसे तो बिआह भी आपसे ही करेंगे। चाहे कुछो हो जाए।'

'देखो प्रीति खिसियाते नहीं हैं मां-बाप पर। ऊ लोग कुछो करता है। हमारे भलाई के लिए ही करता है।'

'ऊ त ठीक है बाकिर जवान बेटी को हर घड़ी ताना देना मां-बाप को शोभा देता है क्या? एक दिन त हम खींस-पित्त में कह दिए मां से। हमको अबही बिआह-उआह नहीं करना। एमए ले पढ़ाई करेंगे। आ आप लोग जादे टेंशन दीजिएगा त कुछो कर लेंगे।'

'मेरी करेजा, मरने-जीने का बात काहे करती हो। दिल धुकधुकाने लगता है। जब तुम कुछो कर लोगी त हम जिन्दे रहेंगे का। जियेंगे त एक-दोसरा के लिए आ मरेंगे भी त साथे-साथे। हम भी वचन देते हैं।'

तभी टे-टे की आवाज के साथ मोबाइल डिसकनेक्ट हो गया। प्रीतम ने मोबाइल पर टाइम देखा। आधा घण्टा हुआ था बात करते। उसने फिर फोन लगाया।

'अरे हां देखो न फोन कट गया था। जियो से लगातार आधा घण्टा से जादे नहीं बतिया सकते। एक बात कहना भूल गए थे। 29 जनवरी के हमरा दोस्त विक्रम के फुफेरा भाई के बरिआत तोहरा गांवे आ रहा है। फरवरी में हमर इंटर के एक्जाम है। मन त नहीं था आने का। मने तोहरा के देखे ला नाता-खोता जोड़के बरिआत अइबे करेंगे।'

'अरे वाह, ई त बड़का खुश खबरी सुनाए हैं। ऊ बरिआत त हमरा पट्टीदारिए में आ रहा है। फुआ लगेगी हमारी। लेकिन देखे त हइये नहीं हैं, पहचानेंगे कइसे आपको?'

'ई कवन बड़का बात है। हेमा पहचानती है न उसे बोला लेना। हम करिया कोट आ ब्लू टाई में रहेंगे। नागिन डांस करे में हमको खूबे मजा आता है। छत पर से तुम देखना। आ द्वार पूजा में त देखा-देखी होइए जाएगा।'

तभी आंगन में रामकली देवी की आने की आवाज गूंज उठी। प्रीति को लगा इससे पहले कि बातें करते पकड़े जाए। उसने मोबाइल ऑफ़ करके हेमा को थमा दिया।

'आछा त अब फोन रखते है। मां ओसारा से अंगना में आ गई है। मोबाइल से बतियाते देख ली त जुलुम हो जाएगा।'

'अइसे नहीं, पहले एगो 'किस' दे दो तब रखेंगे।' प्रीतम ने रोमांटिक मूड में कहा।

'एमे पूछना का है? सब त आपके ही नामे कर दिए है। जवन चीज लेना है ले लीजिए।'

फिर पुच... पु...च की लंबी ध्वनि के साथ बाए-बाए की आवाज गूंजी और फोन कट गया।

                                                                (भाग 9)

'सोने के कचोरवा में पीसे ली हरदिया भउजी लाहे-लाहे, हो भउजी लाहे-लाहे..!' एने प्रीति की पट्टीदारी में उसकी फुआ को भउजाई व सखी सब उबटन लगा रही थी। ओने डीजे साउंड पर बज रहे इस गाने से बहादुरपुर गांव वैवाहिक रस्म में डूब चला था। आज 29 जनवरी था यानी फुआ का बरिआत आने वाला था। लेकिन जितनी खुशी उसके चेहरे पर छलक रही थी, लग रहा था दुनिया की सबसे खुशनसीब इंसान वहीं है।

और हो भी क्यों नहीं? आज ठीक एक वर्ष बाद पहली बार उसका 'वो' आने वाला था। अजीब सी हालत हो चली थी। कभी मन में गुदगुदी उठती और चहकने लगती। फिर अगले ही पल अंजाने भय से दिल धड़कने लगता। जवाब कई सारे पर सवाल सिर्फ एक। कहीं उसने मुझे देखकर छोड़ दिया तो..?

हर पल मन में आ रहे अजीब-अजीब ख्याल से वह चिहुंक उठती। दोपहर में ही बहलोलपुर से हेमा भी उसके घर आ गई। रात के पहनावे को लेकर चर्चा होने लगी। गोदरेज की अल्मारी खुली, उसमे रखे जीन्स-टॉप, लेगिज, लहंगा शूट, सलवार शूट..।

दर्जनों कपड़े निकालकर बिछावन पर रख दिए। पहनावे को लेकर खूबे माथा-पच्ची हुई। लेकिन फाइनली हेमा का आईडिया ही काम आया। द्वार पूजा के समय जींस टॉप और रात को माड़ो में लहंगा साड़ी जो दिल्ली वाली मौसी के लड़की पिछले साल गिफ्ट में दी थी।

'हेमा एगो बात पूछे?' प्रीति ने कहा।

'हां बोलो।'

'कहीं उनको हम पसन नहीं पड़े तो?'

'कइसन बुरबक निहर बतियाती है। तुम एतना गोरी है। ऊ तोहरा सामने भले हाईट में तनी जादे हैं। मने हैं सावरे नु। तू उनकरा से बीस नहीं पच्चीस है।'

पता नहीं क्यों प्रीति को हेमा का यह जवाब जंचा नहीं। उसने तपाक से कहा, 'सुनरता लड़की में देखा जाता है। लड़का में त गुने नु देखा जाता है। ऊ भले सावर हैं, करिया-कलूट हैं। आ हम सुनर-भभुका। मने एतना विश्वास है कि हम उनकर गोड़ के धोवनो में नहीं हैं।'

'एही से न कहती हूं कि तुम उनकर पेयार में पगला गई हो।'

'हां, होइए गई हूं पागल त बोलो का करोगी एमे?'

'बड़ी जल्दी तुम खिसिया जाती है। तुमको मिलवाने के लिए हम ओतना दूर से घरे से झूठ बोल के आए है, बिआह देखे के बहाने। आ पूछ रही हो हम का करेंगे एमे? त हम जा रहे हैं वापस।'

'तुम एतना सीरियस काहे हो जाती हो दिलजानी। मने हम ई थोड़े कह रहे हैं कि उनसे मिलवाने में हमको मदद नहीं कर रही हो। मामला एतना अगाड़ी बढ़ा है ऊ तोहरे चलते हुआ है। ई एहसान हम मानते हैं।' प्रीति ने उसके मूड को भांपकर खुशामदी की।

'आछा, रहे दे। अब जादे पॉलिश मत लगा। ना त हमहु अगरा जाएंगे।'

'कवनो उपाय लगाओ हेमा कि राति के पांचों मिनट ला उनसे भेंट हो जाए। कनिया आला रूमवा राति के जब ऊ माड़ो में जाएगी त खालिए नु रहेगा। ओही में..।'

'ऊ त ठीक है मने सउसे घर पहुना आ पहुनी से भरल रहेगा। मिलवाने में हमको रिस्क बुझा रहा है, कहीं पकड़ा गए त पूरा हाला मच जाएगा।'

'हेमा, जब तोहरा जइसन सखी हमरा लगे है त रिस्क के कवन बात है। 'ऊ' माड़ो में बिआह देखे अइबे करेंगे। जइसे ही कनिया माड़ो में जाएगी। सब केहु त गीत-गवनई आ लइका-लइकी के परिछे में लागल रहेगा। मोका देख के घर में उनकरा के बोला लेना आ गेट पर खड़िया के तुम पहरा देना। एगो काम करो अबहिए फोन करो उनका लगे आ सेटिंग कर लो।'

  (भाग 10)                                                                                                                                             

'जिमी जिमी जिमी आजा आजा आजा, आजा रे मेरे पुकारे तेरा प्यार, पुकारे मेरा दिल जिमी जिमी जिमी..!' इसी गाने की धुन पर ट्रॉली पर खड़ी थिरक कर बरातियों को लुभा रही थी हॉफ कटी ड्रेस में बंगाली डांसर। और चारो तरफ बैंड-बाजे की धूम गूंज रही थी। यानी बहादुरपुर में पहुंची बारात जनवासे से बेटिहा के दरवाजे की ओर निकल चुकी थी। पीछे-पीछे लड़को की टोली मस्त होकर उछल-कूद मचाए हुए थी। मानो धान की कुटाई चल रही हो।

वैसे भी कोई कितना ही खराब काहे नहीं नाचता हो। समूह में खुद को माइकल जैक्शन ही बुझता है। नए लड़कों से तो जादा उमंग दूल्हे के मामा, मउसा व फूफा में लउक रहा था। नगिनिया डांस करते हुए सब जमीन पर ऐसे लोटा रहे थे कि नवही लोग भी उनके सामने फिंका पड़ जाए। हालांकि एमे 'हजारा' खर्च कर लिए गए 'पऊआ' का भी असर साफ़-साफ़ बुझा रहा था।

जइसे ही लड़की वाले का घर नजदीक आया फिर तो बाजा वाले के पास फरमाइशी गीतों का दौर शुरू हो गया। इस वक्त 'लॉली पॉप लागेलु' बज रहा था। नचनियों की इसी भीड़ में प्रीतम भी हाथ उठाए झूमने में मग्न था। लेकिन उसकी चोर निगाहें छत की और बेसबरी से किसी की खोज रही थीं।

'ए पिरीति देखो ना ऊ करियका सूट में जो लड़का नाच रहा है न उहे पिरितम हैं।' छत पर खड़ी होकर बारात के धूम गजर को निहार रही लड़कियों की झुंड में हेमा ने प्रीति के कानों में फुसफुसाते हुए कहा।

तभी प्रीतम व प्रीति की नजर टकराई। और मानो वक्त कुछ पल के लिए ठहर सा गया। नीली जीन्स पर उजला टॉप और कथई रंग का हाफ जैकेट। कंधे तक लटकते अधकटे खुले बालों में प्रीति को देख पहली बार में ही प्रीतम ने भांप लिया। यहीं है उसके सपनों की रानी जिसकी एक झलक पालक पाने के लिए वह महीनों से बेताब था।

'चलअ स रे सभे नीचे, दवार पूजा के मंगल गीत गावे। बरिआत दुअरा प चहुप गइल बडुए।' तेजी से सभी लड़कियां व महिलाएं व लड़किया नीचे जाने के लिए सीढ़ी की ओर भागी। एकाएक प्रीति का ध्यान उधर से हटा। उसने तिरछी नजरों से चारों ओर देखा। कहीं उसकी चोरी पकड़ी तो नहीं गई। लेकिन हेमा के अलावा कोई वहां नहीं था। वे दोनों भी नीचे उतर गईं।

चौकी पर द्वार पूजा का विद्द हो रहा था। दूल्हा अपनी अंजुरी में अक्षत वगैरह लेकर बैठ गया। नाई ठाकुर आम का पल्लो सजाने में लगे थे। और पंडी जी तेजी से मंत्र पढ़े जा रहे थे। वीडियो कैमरा के साथ लगे हैलोजन लाइट की रौशनी से दिन जैसा उजाला हो गया था। प्रीति व हेमा ठीक दूल्हे के पीछे खड़ी थी। वहीं प्रीतम भी देखनिहारों की रेलमपेल भीड़ को चीरते हुए पंडी जी के पीछे खड़िया गया।

हेमा ने धीमे से अंगुली के इशारे से प्रीति की ओर प्रीतम का धेयान आकर्षित कराया। ठीक आमने-सामने दोनों की आंखें चार हुई। और नजरों के रास्ते दिल की बात होने लगी। इधर, बाजे का एनाउंसर गा रहा था, जिसका मुझे था इंतिजार, जिसके लिए दिल था बेकरार, वो घड़ी आ गई..!

तभी महिलाएं गाली गाने लगी, 'दूल्हा के माई बनारस के रंडी, मीठा लागल खीर खइली हो दूल्हा भइले करिया...।' इस पर हेमा ने प्रीतम की ओर देखते हुए धीरे से एक आंख मारी। प्रीतम झेंप सा गया। उसे लगा मानो गाली उसी के लिए हो रही है।

इधर, हजाम ठाकुर सगुन का चाउर अक्षत के लिए में सभी विवाहितों को बांटने लगे। हालांकि चलावे के मुताबिक कुंवारे लड़के अक्षत नहीं लेते। लेकिन प्रीतम को जाने क्या सुझा उसने भी दायां हाथ बढ़ाकर मुठ्ठी में अक्षत ले लिया। जैसे ही पंडी जी ने इशारा किया सभी कोई दूल्हे के ऊपर अक्षत फेंक कर आशीष देने लगे।

इसी बीच प्रीतम ने तेजी से मुठ्ठी को उठा प्रीति को निशाना बना कर उछाला। और वह सिर से पांव तक चावल के दाने से भर गई। वह मारे शरम के सहम गई। उसक गोरे गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे। लेकिन शुक्र था खुदा का कि उतनी भीड़ में से किसी ने भी इस अप्रत्याशित वाकये पर धेयान नहीं दिया। बस इस रोमांटिक क्षण के तीन जने ही गवाह थे।

                                                                       (भाग 11)

दवार पूजा का नेग पूरा हुआ। और दूल्हा अपनी दहेजुआ स्विफ्ट डिजायर कार से जनवासे में लौट गया।

'पिरीति, जब ले जनवासे से दूल्हा माड़ो में आएगा, तब ले चलो ना ड्रेस चेंज कके आ जाते हैं।' हेमा के कहने पर दोनों सखियां तेज कदमों से घर की ओर चल दीं।

हेमा व प्रीति घरे पहुंचते ही बाथरूम में घुस गई। मुंह पर पानी डाला और लक्मे फेसवाश से चेहरे की सफाई की दोनों ने। फिर ऐनक के पास बैठकर एक दूसरे की मदद से चेहरे पर फाउंडेशन, आंखों में काजल, ओठों पर हल्के ग्रे शेड की लिपस्टिक, पलकों पर गुलाबी मस्कारा लगाया और भौह को आई लाइनर से चमकाया।

हेमा ने तो फटाफट सलवार-शूट बदलकर घर से लाई अपनी पसंदीदा मां की आसमानी रंग की सिल्क साड़ी पहन ली। लेकिन प्रीति को लहंगा साड़ी पहनने ही नहीं आ रहा था। अजीब तरह से वह साड़ी को कमर में कभी इधर से उधर तो दाएं-बाएं लपेट रही थी।

यह देखकर हेमा खिलखिलाकर हंस दी। 'अरे तुमको तो साड़ियों पहिने नहीं आ रहा। ऊ भी हमको ही सिखाना पड़ेगा। कइसे तुम ऊ लड़का के हैंडिल करेगी। ओमे त हमको बोलएबी नहीं करेगी।' उसने चुस्की ली तो प्रीति शरमा गई।

'ई देखो अइसे पहना जाता है लहंगा साड़ी, बुरबक।' हेमा ने उसे सही तरीके से पहनाया।

प्रीति ने एक बार फिर से हाथों में विको क्रीम पोतकर गालों पर मसाज किया। नाक में नथिया व कानों में झुमका पहना। और वह शीशे के पास जाकर खुद को निहारने लगी। लाल ड्रेस में क्या गजब कहर ढाह रही थी वह। बिल्कुल कनिया जैसी बुझा रही थी।

'हाय हमर पिरीति रानी, केतना सुनर लग रही हो! एक दमे परी बुझा रही हो। आजु त जुलुम कर दोगी मड़वा में। केतना लड़िका सब तोहके देखके पगला जाएगा। कास हम लड़का रहते तो तोहरे के भगा ले जाते।'

'भाक, अइसन बात नहीं है। हमारे दिल में त एके गो लइका का तस्वीर कैदे हैं। फेरु दोसरा लड़िकन पर जुलुम हो चाहे रहम, हमको का है? केहू के देखके से ओकरा के रोक नहीं नु सकते। बाकिर हमारा मन बुझ रहा है न कि हमारे देह पर केकर अधिकार है।' प्रीति का जवाब था।

'आय-हाय, पेयार के रंग में रंगा के तुम त एकदम फिलौसपरे हो गई है।'

एने जैसेे ही दूल्हे की गाड़ी दुआरे पर दोबारा पहुंची। उसको माड़ो में ले जाने के लिए लड़कियां सब मोमबतियां जलाकर, अकछत, चन्दन से भरी आरती की थाली लेकर आईं।

Engineering व MBA ग्रेजुएट, NCR के एक MNC में सेट दूल्हा हल्के पीले रंग की शेरवानी खूबे स्मार्ट लग रहा था। हालांकि बचपन से ही Convent में हुई स्कूलिंग के कारण वह गांव में बिल्कुल नहीं रहा था। अब तक उसने शहर में तो कई शादियों में भाग लिया था।

लेकिन गांव के रीति-रिवाज का अनुभव पहली बार हो रहा था उसे। थोड़ा नकचढ़ा व रिजर्व टाइप का होने के कारण असहज महसूस कर रहा था उस वक्त।

दुल्हन की मौसेरी बहन हाथों में थाली लिए आगे-आगे लड़कियों की झुण्ड की अगुआई कर रही थी। हेमा व प्रीति भी संग हो लिए।

'चलनी के चालल दूल्हा, सूपा के फटकारल हे। आ गइले बकलोल दूल्हा कहवां के बाकल हे..!' कार का फाटक खुला और दूल्हे की आरती उतारते हुए यहीं गीत गाई जाने लगी।

तभी मोमबती का गर्म मोम पिघलकर दूल्हे के पैंट पर चू गया। उसने कराहते हुए 'ओ शिट' भर कहा।

लेकिन गाने व चुहलबाजी में मगन लड़कियों ने इस पर धेयान नहीं दिया। कोई पेयार से उसके गाल को खींच रही थी तो कोई शायरी सुनाने की फरमाइश कर रही थी।

इन सबके बीच खुद को बेचारा महसूस कर रहा वह मन ही मन में सोचने लगा किस आफत में फंस गया हूं यहां? बिल्कुल गंवार की तरह मुझसे बिहैव कर रहे हैं सभी।

अचानक हेमा ने दूल्हे के गले में दोनों हाथों से अपना दुपट्टा फंसाया और धीरे से गाड़ी से बाहर उसे खींचने लगी। लेकिन अब बात बरदास्त से बाहर हो चली थी। सो गुस्से में उसे बोलना ही पड़ा।

'What the hell? I don't like such types of rude manner!'

'आय-हाय जीजा जी तो अभिए से अंगरेजी झाड़ने लगे। आगे क्या गुजरेगी दीदी पर?'

'त रउए सभन के बाबू जी नु पांव पूजाई के लिए अइसन लईका खोजे हैं। ओह बेरा नहीं बुझाया।'

यह दूल्हे के ममेरे भाई विक्रम का स्वर था। फुफेरे भाई को अकेले पड़ता देख वह साथ देने आ गया। पास में ही प्रीतम भी खड़ा था। अब जाकर वर पक्ष का पलड़ा संतुलन में आया था।

'एतना गुमान है अपना पर त तनी शायरी बोले में फरिया लीजिए ना, आटा-चाउर का भाव बुझा जाएगा। जब ले हमनी सब के हाराइएगा नहीं आप लोग। जीजा जी मड़वा में नहीं जाएंगे।' दुल्हन के सहेली आरती ने ताव दी।

'हां त एमे कम केकरा के बुझते हैं आप लोग। चलिए आपही लोग शुरू कीजिए।' विक्रम भी पूरे मूड में आ गया था।

                                                                   भाग (12)

दुआर पूजा के बाद दूल्हा के माड़ो में जाने का रस्म ही ऐसा होता हैं। वहां पर मौजूद तमाम लड़कें या लड़कियां रोमांटिक होकर शायराना मूड के हो जाते हैं। हेमा का प्रस्ताव कि पहले लड़केे पक्ष वाले शायरी शुरू करें, विक्रम को पसंद आया। और वह दिलफेंक अंदाज में शुरू हो गया।

"इश्क ने हमें बेनाम कर दिया,
हर खुशी से अंजान कर दिया,
हमने तो कभी नहीं चाहा कि
हमें भी मोहब्बत हो जाए,
लेकिन आप की एक नजर ने
हमें नीलाम कर दिया !!"

इस पर दुल्हन की चचेरी बहन काजल ने हेमा की ओर देखा। और जवाब में सुना दी...

"मुहब्बत में ना जाने कितने अफसाने बन जाते हैं,
शमां जिसको भी जलाती है वो परवाने बन जाते हैं,
कुछ हासिल करना ही इश्क कि मंजिल नही होती,
किसी को खोकर भी कुछ लोग दिवाने बन जाते है !!"

विक्रम ने पूरी अदा के साथ फिर से एक शेर दागा, मानो वह बख्शने के मिजाज में नहीं था।

"खूबसूरत क्या कह दिया उनको,
हमें छोड़ कर वो शीशे की हो गई,
तराशा नहीं था तो पत्थर जैसी थी,
जो तराश दिया तो खुदा हो गई !!"

इस चौके पर छक्का मारते हुए हेमा ने सुनाया,

नदी से किनारे छूट जाते हैं,
आसमान से तारे टूट जाते हैं,
जिन्दगी में अक्सर ऐसा होता है,
जिसे हम दिलसे चाहते हैं,
वही हमसे रूठ जाते हैं !!

अब बारी विक्रम की थी। थोड़ा यादाश्त पर जोर लगाया और...

"रब से आपकी खुशी मांगते हैं,
दुआओं में आपकी हंसी मांगते हैं,
सोचते हैं मांगे भी तो आपसे क्या मांगें
चलो उम्र भर की मोहब्बत ही मांगते हैं !!"

विक्रम की इस शायरी को सुन हेमा झेंप सी गई। मारे शर्म के उसके गाल लाल हो गए। वह काजल व प्रीति की ओर देखकर मन ही मन सोचने लगी, 'कहां फंस गई इस उलझन में, कुछ सूझ ही नहीं रहा।'

'चलिए आप लोग हार मान लिए न। बड़ी नाम सुने थे बहादुरपुर का। आप सब त गांव का नाके कटा दिए। अब लिख कर दीजिए कॉपी पर कि हार मान गए।' विक्रम ने मुस्कुराते हुए टोन मारी।

'जमुनिया के बाबू साहेब लो में एतना दम नहीं कि बहादुरपुर के हरा के चल जाए। ऊ भी हमनी के रहते हुए। हमनियो के कवनो छोटकन टोला के नहीं बबुआन के हैं। हरदी-कबड्डी बोलाके छोड़ेंगे।' यह प्रीति का स्वर था।

दरअसल कुछ महीने पहले ही वह नवरात्रा मेले से शायरी की एक किताब खरीद लाई थी। जिसके कुछ शेर उसे मुहजुबानी याद थे। अच्छा मौका था यहां सुनाने का। उसकी बातों से काजल व हेमा को काफी राहत मिली।

'प्रेमी जोड़े की किस्मत बुरी होती है,
हर जुदाई मिलन से शुरू होती है,
रिश्तों को कभी परख कर देखना,
दोस्ती हर रिश्ते से बड़ी होती है !!'

इस पंक्ति को सुनते ही हेमा उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली, 'जियो पिरीती डार्लिंग। हम सब तो तुमको चुप्पा बुझते थे। तुम तो गजबे ढाह दी, एकदमे छुपा रुस्तम निकली।'

'ई सब तोहरे संगत में नु सीखी हूं।' प्रीति को बोलते देख प्रीतम को भी ताव आ गया। उसे लगा कि इस वक्त उसने भी कुछ नहीं सुनाया तो महफ़िल में बड़ी बदनामी हो जाएगी। शुरू हो गया...

'किसी न किसी पे ऐतबार हो जाता है,
अजनबी कोई शख्स भी यार हो जाता है,
खूबियों से ही नहीं होती मोहब्बत सदा,
खामियों से भी अक्सर प्यार हो जाता है !!"

इसको सुनकर प्रीति अंदर ही अंदर से भावुक हो गई। वह इसके जवाब में एक प्यारा सा शायरी बोलना चाहती थी। लेकिन अगले ही पल दिल में ख्याल कि यह प्रेम प्रदर्शन की जगह नहीं जो मिलता-जुलता शेर सुनाकर सहमति बनाए। यह तो प्रतियोगिता है जिसमें गांव की इज्जत दांव पर थी और सामने वाले प्रतिद्वंदी। सो उसने जवाब में नहले पर दहला मारा...

प्यार करने वालों की नसीब खोटी होती है,
दिन-महीने या साल की हो, हर रात रोती है,
कभी मौका मिले तो प्रेम ग्रन्थ पढ़ लेना,
हर प्रेमी जोड़े की कहानी अधूरी होती है !!"

'वर के हाली से माड़ो में ले चली लोगन बबुनी। पंडी जी कहनी ह कि बिआह के मुहूर्त हो गइल बा।' हज्जाम ठाकुर ने जैसे यह संदेश सुनाया। सब कोई एक-दूसरे का मुंह ताकने लगा। कितना बढ़िया तकरार चल रहा था।

'इहो सरऊ के अब्बे आवे के रहल ह का?  मय रंग में भंग क देले आके ससुर...।' विक्रम प्रीतम के कानों में धीमे से फुसफुसाया।

'एही से नु माड़ो में मेहरारू सभे नउआ लोगन के गरियावेली सन, जइसन रेलिया के चाका वइसन हजमा उचाका...!' प्रीतम ने हज्जाम को सुनाते हुए कहा। लेकिन बढ़ती उम्र से कानों में आई खराबी के कारण वह नहीं सुन सका।

'चलअ स रे जीजा जी के लेके अंगना में।' सभी लड़कियां दूल्हे को लेकर चल पड़ी।

'हां, हां जाइए आप सब। मने ई मत बुझिएगा कि रिजल्ट फाइनल हो गया। बाकी-साकी मड़वो में पूरा होगा।' विक्रम ने चैलेंज देने के अंदाज में कहा तो लड़कियां सब अंगूठा दिखाते हुए हंस पड़ीं।

'हां हां, जाई लोगन ना भीतरा। कनिया के भउजाई सभे दही-हरदी लेके राउर सुआगत में खाड़ बाड़ी जा।' यह हज्जाम ठाकुर बोल रहे थे। और बोलें काहे नहीं? बरिआत में इनसे बड़ा मजाकिया कौन होता है भला? एही से त दुनु पक्ष से गारी भी सुनते हैं।

                                                                        (भाग 13)

खर-बांस से बना माड़ो रंग-बिरंगे झालर व फूल से चकमक था। और उसके नीचे दुल्हन की सहेली के साथ ही भउजाई, चाची, फुआ से लड़कर दादी भी खड़े होकर दूल्हे की अगुवानी में खड़ी थीं। लड़कियां ज्यादातर सलवार शूट में थीं।

कोई-कोई जीन्स व टॉप पहने थीं जो इनके बीच चर्चा का विषय था बना हुआ था। पीले रंग की बनारसी साड़ी में बेतिया वाली फुआ तो इतना ना गाढ़ा लाल लिपस्टिक लगाई थी। 40 वर्ष की उम्र में उनका गहरा मेक अप देखकर काजल से रहा नहीं गया।

उसने मुंह बिचकाते हुए कहा, 'फुआ तू त साफा बिजली गिराव$ तारू। देखिह$ कहीं समधी लो पसन ना कर लेवे।'

'हमरा के समधी पसन के लिहे त तोर फूफा जी के का होई?'

यह सुनकर उनकी नौवीं में पढ़ने वाली बेटी गोल्डी शरमा गई। बोलीं, 'ए मां तोहरो नु उमिर के ख्याल ना रहेला। केन$हु शुरू हो जालु।'

'त कवनो अभिए फुआ कवनो बूढा थोड़े गइल बाड़ी। ई त हमनियो प बीस बाड़ी।' हेमा का इतना कहते ही सभी कोई खिल-खिलाकर हंसने लगा।

तभी दूल्हे ने आंगन में प्रवेश किया और महिलाएं गीत गाने लगीं, 'आपन मुंहवा निरेख$ ए वर$ चननो नाहि, माई तोर पंडितवा बहू चनन ना करे जान$ ए बाबु, कतेक$ लुलुअइबू से सासु कतेक$ परे गारी..!'

परिछावन में अक्षत की बौछार से दूल्हे का पूरा शरीर भर गया। तभी एक चावल का दाना उसकी बायीं आंख में लग गया। उसने हाथ से पपनी को मसला कि लोर बह चले। माजरा समझ काजल रुमाल से उसकी आंखों को धीरे-धीरे पोछने लगी।

'आय-हाय, दीदी त अभी मड़वा में अइली ना कि जीजा जी उनके इयाद में रोवे लगले।' इस पर सभी लड़कियां एक बार फिर से हंस पड़ीं।

काजल को मजाक सूझ रहा उधर दूल्हा को हंसी के साथ गुस्सा भी आ रहा था। एक पल के लिए मन में आया कि कह दे, 'इस अकेले बच्चा का आप लोग जान लेकर ही छोड़ोगे क्या?'

लेकिन अगले ही पल घर से चलते वक्त मां, मौसी व फुआ की दी हुई हिदायत याद आ गई, 'बबुआ केतनो केहू ससुरार में कुछो करी मने जन बोलिह$ माड़ो में तोहार शिकायत हो जाई।'

थोड़ी देर में पंडी जी ने दूल्हे को आसन ग्रहण करने का आदेश दिया। उसने तिरछी नजर से मुआयना कर वस्तु स्थिति का जायजा लिया। एक पतले कम्बल पर चावल के पीले दाने से कुछ बनाया गया था जिस पर बैठना था। बगल में कलश में आम का पल्लो, खेत जोतने वाला हल, ओखर-मूसर, हवन की वेदी...।

और चारों तरफ से घेरकर बैठा लड़कियों और महिलाओं का झुंड एकटक उसे ही निहार रहा था। इस तरह के Get-Together का पहले से अनुभव ना होने वह थोड़ा झेंप गया।

घर से मिले निर्देश के मुताबिक बैठनी वाली जगह का गम्भीरता से निरीक्षण किया। कुछ गड़बड़ नहीं होने के प्रति आश्वस्त हो गया। उसने आराम से अपने लाल रंग का बिहउती चमड़े का जुत्ता खोला और बैठ गया। लेकिन ये क्या... जांघ के ऐन नीचे कोई ठोस चीज गड़ने का एहसास हुआ। और एक बार फिर जोरदार ठहाके से माहौल गुलजार हो उठा।

दरअसल सालियों ने चतुराई से उसका जुत्ता नीचे लगा दिया था। बिआह के समय माड़ो में नकचढ़े दूल्हे को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है।

'ॐ मंगलम भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्षः... मंत्र का उच्चारण कर पंडी जी ने प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। उम्रदराज महिलाएं बरामदे में नीचे ही समूह में एक जगह बैठकर गवनई में व्यस्त थीं। जबकि लड़किया सब दूल्हे के पीछे कुर्सी लगाकर बैठ गईं। उन्हें तो चुहलबाजी और शरारत सूझ रही थी। कनिया वाले रूम के पास दो कुर्सी रखी थीं। हेमा ना आंखों से इशारा किया तो प्रीतम व विक्रम वहीं बैठ गए।

थोड़ी ही देर में विक्रम को लगा कि मुंह में कुछ लभेरा गया। अरे यह तो लड़की की मामी थी हाथ में हल्दी मिलाया दही लिए। प्रीतम तो झटके से खड़ा हो गया था। लेकिन शर्ट के बाजू में लग ही गया।

'का मामी जी, रउरा अकेले काहे बानी? ऊ सभे का करेगी? जे आपको बुढौती में एतना मेहनत करना पड़ रहा है। उनको भेजिए ना।' विक्रम ने रुमाल से बाएं ओर के आंख व गाल को पोछते हुए लड़कियों की तरफ इशारा किया।

तो नई बिआह कर आई पट्टीदारी की सरहज ने चस्की ली, 'जा ए साले खाए के रहल ह त मंगनी ह काहे ना जे दही के नदिये में मुंह लगा देनी ह!'

'अब अइसनो जन कहीं। हमनी के चोरा-नुका के ना खानी स$। प्रेम से ना मिले त बरिआई छिनहु के हाल जाने ली जा।' प्रीतम ने विक्रम का पक्ष लिया।

'कनिया दान के बेरा हो गइल बा। लइकी के बोलाई सभे।' पंडी जी ने आवाज लगाई।

                                                                भाग - 14

 हई लीं बबुआ, कनिया के आवे से पहिले खाड़ होखे मरदानी पहिन लीं।' हज्जाम ठाकुर ने दूल्हे को धोती सौपते हुए कहा।

उसने पीली धोती को तह लगाकर लपेट रहे हज्जाम की ओर ऐसे देखा मानो वह दूसरे ग्रह से आया प्राणी हो। मन ही मन कहा, अब ये क्या बला है?'

'अरे ये इतना लंबा है। मुझे नहीं आता ये सब पहनना। नहीं पहनूंगा, ऐसे ही ठीक हूं।'

'बबुआ ई मरजाद आ सगुन ह। बिना पहिनले विद्द कइसे पूरा होई? रउआ खड़ा रही हम लपेटे के सीखा देत बानी।'

वह बेचारा चुपचाप खड़ा हो गया। और धोती को लुंगी की तरह लपेट कर फूल पैंट निकाल दिया। लेकिन पीछे मुड़कर देखा तो उसका जुत्ता गायब था।

'अरे मेरा शू क्या हुआ?'

'ऊ त नहीं मिलेगा जीजा जी। अब नेग दीजिएगा तभिये भेटाएगा।' काजल ने अंगूठा दिखाते हुए कहा।
तभी लम्बी घूंघट काढ़े दुल्हन का आगमन हुआ माड़ो में। हेमा उसे लेकर आई थी। दूल्हा मन मानकर वहीं पर बैठ गया।

इधर, प्रीति ने हेमा की ओर देखा तो उसने इशारे से कुछ कहा। वह दुल्हन वाले कमरे में चली गई। हालांकि कमरे में उस वक्त कोई नहीं था लेकिन अंजाने भय से उसका कलेजा धड़कने लगा। कहीं हमारी चोरी पकड़ी गई तो...

माड़ो में वर-वधू के बैठते एक साथ बैठेते ही सभी की नजरें उस तरफ ही तल्लीन हो गई। पंडी जी के मंत्रोच्चारण से लग्नमय दृश्य बन गया। जबकि महिलाएं गीत गाने में विभोर हो चली थीं।

हेमा बेहद होशियारी से दुल्हन वाले कमरे के गेट पर पहरेदार की तरह खड़ी हो गई। कि कोई शक नहीं करे। पास में विक्रम व प्रीतम भी बैठे थे।

'प्रीतम जी आप भीतर जाइए, पांव रंगाई का रस्म होगा।' उसने धीरे से कहा तो वह चुपके से उठकर कमरे के अंदर चला गया।

सीएफएल की दूधिया रौशनी में रेड कलर की लहंगा साड़ी पहने पलंग पर बैठी प्रीति गजब की खूबसूरत दिख रही थी। और थोड़ा Matured भी। लग ही नहीं रहा था का मैट्रिक की छात्रा है। वैसे भी साड़ी में लड़कियां असमय ही उम्र से ज्यादा व गम्भीर दिखने लगती हैं।

हाथ में लिए लक्मे की ग्रे रंग वाला नेल पॉलिश के ढक्कन को खोल रही थी। प्रीतम को देखते ही वह शर्माकर बगल झांकने लगी।

'का हम पसन्द नहीं तुमको जो देखकर मुंह चोरा रही हो?' प्रीतम उसके करीब जाकर पलंग बैठते ही बोला।
'भाक, अइसा बात नहीं है। आपको देखकर करेजा धुकधुकाए लगा। आ मन में गुदगुदी उठ रहा है।'

'तो ई बात है। हमको तो कुछ और ही बुझाया...'

'का बुझाया?'

'अब रहने दो दिल का बात दिले में रहे त आछा है।'

'ठीक है राखिए बात दिल में। आ दाहिना हाथ दीजिए। रंगना है। नहीं तो बतियाए में ही टाइम बीत जाएगा।'

'आ हम नहीं रंगवाएं त का करोगी?' प्रीतम ने भाव बनाया।

'ई आपका मरजी है हम कवन जबरदस्ती थोड़े बोल रहे हैं।' प्रीति ने बनावटी नाराजगी जताई।

इसपर प्रीतम ने उसका बायां हाथ अपनी कलाई में जकड़ लिया। लेकिन यह क्या वह तो कांपने लगी और हाथ भी मानो तवे सा गर्म हो गया।

'अरे, तुम कांप काहे रही हो। हम कवनो भूत हैं का?

'कापेंगे नहीं तो और का होगा। एगो अंजान लड़की दोसरा लड़का के संगे बैठी है। कोई देख ले ई हाल में तो क्या होगा?

'ओहो, तो ई बात है।'

'और का? आप भूत तो नहीं मने जादूगर तो हइए हैं। जादू से हमारा दिल चोरा लिए हैं।'

'इहे बात तो हम तुमको भी कह सकते हैं। अकेले मुझे ही दोषी काहे बना रही हो?'

'उ त हइए हैं। आग त दूनो ओर बराबर लगा है।' प्रीति उसके हाथों का अंगूठा रंगते हुए बोली।

'पिरीति एगो बात बोलें?'

'हां बोलिए।'

'तुम एतना ना सुंदर दिख रही हो कि का बताए। हमको तो सपना में भी नहीं एहसास था कि एतना जल्दी
मुलाकात होगा।'

'सब देवी माई के किरपा है। नवरात्र में हम उनसे भखौती माने थे। देवी माई आपसे मुलाकात करा दे तो खोइछा भरेंगे।'

'चलो, माता रानी ने तुम्हें सुन लिया। आ एही बहाने हम लोग मिल भी लिए।'

'आछा ई बताओ हम तुमको कइसन लग रहे हैं?' प्रीतम ने एक और सवाल छोड़ते हुए बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया।

'आप बार-बार ई बात पूछकर हमको शर्मिंदा काहे करते हैं। हम तो पहिलही कह दिए हैं आपसे। आप कइसनो हैं मेरे लिए तो भगवान है, जो मेरे में दिल में बस गए हैं।' प्रीति ने उसकी दसवीं अंगुली को रंगते हुए कहा।

'ओह, तो एतना विश्वास करती हो हम पर कि भगवाने बना ली हो। आ मैं ई बात पर खरा नहीं उतरा और तुमको छोड़ दिया तो..?'

'करेंगे का, एक चिटकी जहर खाकर परान दे देंगे। आउर का।'

'राम-राम, शुभ-शुभ बोलो। मैं तो मजाक कर रहा था।'
 
'लेकिन हमको मजाक में भी छोड़े-छाड़े आला बात तनिको पसन्द नहीं है। आगे ई सब मत बोलिएगा। हम तो तय कर लिए जिएंगे तो आपके लिए और मरेंगे भी..।
आगे जारी...

(नोट- ©® भदेस (भोजपुरी+हिन्दी) भाषा में लिखी मेरी लम्बी काल्पनिक प्रेम कहानी पिरीति आ पिरितम के Love स्टोरी' टुकड़े-टुकड़े में आगे भी जारी है। शेष भाग पढ़ने के लिए आप पोस्ट के हैश टैग या मेरे ब्लॉग www.meghvani.blogspot.in पर क्लिक कर सकते हैं। बिना रचनाकार का नाम लिए इसका कॉपी-पेस्ट कर शेयर करना निंदनीय अपराध होगा।)

(सोशल साइट्स से जुड़ी लाखों की भीड़ में पढ़ने वाले कम और लिखने वाले ज्यादा हैं। लेकिन चीज अच्छी हो तो जरूर पसंद की जाती है। भदेस भाषा में लिखी मेरी लंबी प्रेम कहानी 'बुरबक बिहारी' टुकड़े-टुकड़े में आगे भी जारी...)

17 July, 2014

N.H. 28 की वो मिडनाइट हसीनाएं और मेरा सफर

ये लड़की सुनो, साहब के साथ जाएगी क्या? उस सुनसान अंधेरी रात में सड़क के किनारे अचानक से एक आभासी छाया को देख ड्राइवर ने गाड़ी धीमी कर दी. और यही शब्द उसकी ओर देखते हुए उसने कहा था. हालांकि उस घुप अंधियारे में कुछ सूझ तो नहीं रहा था. कुछ देर के अंतराल पर गाडियां आतीं भी तो तेज रफ्तार में, जो सेकेंडों में आंखों से ओझल हो जातीं. मैंने गौर फरमाया कि वह जींस, टी शर्ट के लिबास में कोई युवती थी. जिसने काले दुपट्टे से मुंह ढक रखा था. ड्राइवर की आवाज सुनते ही थोड़ा बगल में हटके उसने विपरीत दिशा में मुंह कर ली. तभी हाथ में टार्च लिए एक नाटा सा मोटा आदमी हमारे करीब आया.
मॉडल फोटो 
उसने ड्राइवर को पहचानते ही कहा, का भैया, रोजी रोटी का समय है. और आप मसखरी कर रहे हैं. अरे ना हो. मजाक नहीं कर रहे हैं. ये पत्रकार साहब है इनको टंच माल चाहिए. बोले क्या रेट लोगे? ड्राइवर की बात सुनते ही वह आदमी थोड़ा अकबका गया. फिर सामान्य होकर कहा, गाड़ी में ही या होटल में जाना है. उसने कहा, दोनों का रेट बताओ. गाड़ी के पांच सौ और होटल में हजार रूपए, वह भी एक घंटे के लिए. ड्राइवर कुछ जवाब देता इसके पहले मैंने उसे चिकोटी काटते हुए फुसफुसाया, ये कहां फंसा दिए यार! चलो यहां से. तो उसने झटके से गाड़ी तेज कर दी. 

दरअसल पिछले दिनों एक काम को लेकर पटना जाना हुआ था. लौटने में रात हो गई. मुजफ्फरपुर तक बस से आया उस वक्त 12 बज रहे थे. पता चला यह बस मोतिहारी के लिए भोर में खुलेगी. मैं नीचे उतर टहलने लगा कि एक सज्जन ने बताया. भोर तक काहे इंतजार कीजिएगा, बैरिया गोलंबर चले जाइए. वहीँ से अखबार ढोने वाली कोई गाड़ी मिल जाएगी. मैं गोलंबर पहुंचा ही था कि एक पिक अप वाला मोतिहारी मोतिहारी चिल्ला रहा था. मैंने देखा गाड़ी के पिछले सीट पर अखबार का बंडल रखा हुआ था. सो थोड़ा सा असमंजस में पूछा, भाई बैठना कहां होगा. उसने कहा कि आगे की सीट पर मेरे बाजू में. मैं ने अपनी जगह पकड़ ली तो मेरे बैठेते ही उसने हवा की गति से गाड़ी तेज कर दी.

थोड़ी ही देर में चिकनी सपाट एनएच पर गाड़ी सरपट भागने लगी. शहर पीछे छूट गया. खेत खलिहान के साए में बहुत दूर दूर पर थोड़ी रौशनी नजर आ जाती. अपनी वाचाल आदत के कारण मैं समूह में चुप नहीं रह सकता, ना ही यात्रा के दौरान नींद ही आती है. क्योंकि बोरियत महसूस होती है. सो टाइम पास के इरादे से ड्राइवर से उसका नाम, पता व पढ़ाई के बारे में पूछा. उसने कोई तिवारी करके नाम बताया. बोला, यहीं पास के गांव का रहने वाला हूं. आठवीं तक पढ़ा हूं. घर पर पत्नी व मां हैं, दो बच्चे भी. 

और आप?, उसने मेरी तरफ देखते कहा. मोतिहारी के एक छोटे से गांव से हूं. वही पर रहकर पत्रकारिता करता हूं. मेरा जवाब सुनकर उसने कहा, आप पत्रकार लोग तो खूबे पैसा कमाते हैं. नाम भी रहता है. मेरे भी एक चचेरे भाई भोपाल में पत्रकार हैं. घर से गए तो कुछो नहीं था उनके पास. लेकिन अब सुनता हूं वहीँ पर जमीन खरीद मकान बना लिए हैं. मिनिस्टर लोग के पास उठते बैठते हैं. उसकी बात को बीच में ही काटते हुए मैं बोला, नहीं, यार. मैं तो शौकिया ये काम करता हूं. और जीविका के लिए मेरा पेशा दूसरा है. ये सब चल ही रहा था कि उपर वाला वाकया हो गया. मोतीपुर के आस पास कोई जगह थी वह. जहां बगल में ही लाइन होटल था.

घड़ी देखी, रात के डेढ़ बज रहे थे. मैंने आश्चर्य भरी नजरों से तिवारी को ओर देखते हुए कहा, क्या माजरा है ये? इतनी रात को कहीं भी गाड़ी रोक देते हो, डर नहीं लगता. आए दिन अखबार में पढ़ते रहता हूं. एनएच पर ड्राइवर की हत्या कर गाड़ी की लूट. तो उसने छूटते ही कहा, आप भी कइसन बात करते है. डर काहे और किससे लगेगा. हम भी इसी माटी के जीव हैं. दस बरिस से चला रहे हैं गाड़ी इस रूट में. है किसी को मजाल की हाथ भी दे दे. वइसे भी आपको हम कवनो शरीफ बुझाते हैं. अपने जमाना में एक नंबर के लफुआ थे. समझ लीजिए कि सूरजभान सिंह, राजन तिवारी आ मुन्ना शुक्ला पाकिटे में था सब. ई कहिए कि घरवाला सब बियाह कर दिया. आ पत्नी ने हमको कसम लगा दिया. जे इस लाइन में आना पड़ा. मैंने भांप लिया कि तिवारी कुछ ज्यादा ही फेंक रहा है. वैसे भी कम पढ़े लिखे लोग गजब के मौलिक, आत्मविश्वासी होते हैं और व्यवहारिक भी. लेकिन पढ़े लिखे कथित सभ्य जनों की तरह अपनी हर जायज नाजायज भावनाओं को चतुराई से छुपाने की कला में माहिर नहीं होते.


मॉडल फोटो
मैंने बातों को यू टर्न देते हुए पूछा, कौन थे वे लोग? रंडी थी साहब, बंगाल की. आर्केस्ट्रा का सीजन खत्म हो गया है. अब रात में यही सब करके कमाती हैं, छिनाल..! अच्छा ये बात है, मैंने हामी भरी. वो तो सड़क पर खड़ी शो पीस थी साहब. खजाना तो अंदर होटल में मिल जाएगा. जैसा चाहिए वैसा आइटम. इसी दौरान तिवारी ने जानकारी दी कि गोपालगंज से लेकर मुजफ्फरपुर तक ऐसे दर्जनों लाइन होटल हैं. जहां रात में धड़ल्ले से जिस्म का कारोबार होता है. उसने बताया, पहले इस धंधे में केवल वैसी महिलाएं रहती थीं. जो गरीब व लाचार विधवा थीं. जिसका पति शराबी या बाहर कमाने चला गया हो. इनके सबसे बड़े ग्राहक होते थे, ट्रक ड्राइवर. लेकिन जब से ये बंगाली लडकियां आईं इनकी पूछ घट गई. अब तो कम उम्र की देहाती लड़कियां भी इस पेशे में लाई जा रही हैं. और इनके रईसजादे कद्रदान भी बढ़े हैं. आखिरकार उम्दा रहन सहन, महंगे दाम के मोबाइल और फैशनदार कपड़े की चाहत जो ना करवाए.
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मैंने चुस्की लेते कहा, इसका मतलब तुमने भी उनकी सेवा ली है. वह तुनकते बोला, का भईया, हम आपको अइसने आदमी लगते है. दिन भर शहर में गाड़ी चलाना. और रात में अखबार ढोने की ड्यूटी से मिजाज थक जाता है. इसलिए रास्ते में इनसे ठिठोली कर जी बहला लेता हूं. मैंने पूछा, तो हाईवे पुलिस गश्ती में क्या करती है. उसने कहा, सर पुलिस ही तो सब करवा रही है. वे चाह दें तो एक दिन में खेला बंद हो जाएगा. बातें करते करते हम अपने शहर की सीमा में कब प्रवेश कर गए, पता ही न चला. और भी बातें होतीं लेकिन हमारी मंजिल आ गई. मैंने मोतिहारी में उतर उससे विदा ली. और मन ही मन सोचते हुए चल दिया कि बचपन में मां अक्सर कहां करती थीं, 'राति के लईकन के अकेले सड़क प न घूमे के चाही. काहे कि ओही बेरा ‘निशाचर’ घूमेले सन जवन पकड़ के भाग जाले सन.' तो... इस लिहाज से आधुनिक जमाने में ये हाईवे गर्ल भी एक प्रकार की ‘निशाचर’ ही हुई. जिनके शिकार केवल 'बड़े' होते हैं. है कि नहीं.

उतर बिहार में तेजी से बढ़ रहे एचआईवी पीड़ित

पल भर का मजा और जीवन भर की सजा. हजारों ट्रक ड्राइवर पर आज यहीं पंक्ति सटीक साबित हो रही है. मुजफ्फरपुर समेत 12 जिलों में एचआईवी पॉजीटिव तेजी से बढ़ रहे हैं. नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल ऑर्गेनाइजेशन) की जानकारी के बाद यह सच सामने आया है. मुजफ्फरपुर, मोतिहारी, वैशाली, सीतामढ़ी, बेगूसराय, पटना, सारण, मधुबनी, दरभंगा, गोपालगंज, सीवान में एड्स पीड़ित तेजी से बढ़े हैं. नाको ने सभी को हाई रिस्क जोन के रूप में घोषित किया है. दूसरी ओर सूबे में पिछले दो साल से 65 हजार एचआईवी पीड़ितों का इलाज चल रहा है. दस हजार से अधिक एआरटी दवा पर हैं, जिनकी कभी भी मौत हो सकती है. जानकार बताते हैं कि कुल एचआईवी पीड़ितों में 90 प्रतिशत को यह बिमारी असुरक्षित यौन संबंधों से हुई है. इनमें 60 प्रतिशत पीड़ित ट्रक ड्राइवर हैं. इनमें अधिकांश को यह बीमारी प्रवास के दौरान रेड लाइट एरिया में या फिर हाईवे पर असुरक्षित सेक्स के दौरान हुई है. एचआईवी पीड़ित घर में भी पत्नी से यौन संबंध स्थापित कर उन्हें बीमारी की सौगात दे देते हैं.

13 July, 2014

अरेराज : देखो बबुआ, ई है सोमेश्वर धाम!

जाने वह कौन सी घड़ी और... क्या खासियत लगी होगी इस जगह में. जब देवों के देव महादेव ने यहां बसने का फैसला किया होगा. आज दुनिया इसे अरेराज के सोमेश्वर धाम के नाम से जानती है. जहां सालों भर बोल बम के जयकारे से आस्था की बूंदें छलकते रहती हैं. पड़ोसी होने के कारण बचपन से ही यहां आना जाना लगा रहता है. वो जमाना भी कुछ और ही था. जब उन दिनों मां, भाइयों, पट्टीदारी की बहनें, भौजाइयों, चाचियों, दादियों के संग वर्ष में एक दो बार यहां घूम ही आता था. बहाने कई होते थे, शादी के बाद किसी का माथ लगाना हो, मां या दादी की भखौती में खोइच भरना, किसी बच्चे के छठियार में बाल कटाना या मुंडन कराना, या फिर नए वाहन की पूजा कराना हो. लेकिन मेरे जैसे हमउम्र बच्चों के लिए इन सब बातों से इतर ज्यादा उत्साह मेला देखने को लेकर था. हमारे लिए अरेराज का मेला जाने का मतलब मौज मस्ती, सैर सपाटे से था. जिस दिन मेला जाना रहता उससे पहली वाली रात को नींद ही नहीं आती. करवटें बदलते रहते कि कितनी जल्दी भोर हो जाए.


ट्रॉली की सवारी, धर्मशाले का भोज और अतीत की यादें 



अहले सूबह ही मां पूड़ी, आलूदम की सब्जी और सेवईयां बना कर तसला में रख देतीं. मेला देखने के बाद वहां ठहरे धर्मशाले में इसे ही सब मिल बांट कर खाते. यानी धर्मशाला गेट टू गेदर का मुफीद स्पॉट था. जाने के दिन सवारी के लिए ट्रॉली को सजाया जाता. धचका ना लगे इसलिए उसपर पुआल रख गद्देदार बनाया जाता. धूप व धूल से बचाव के लिए ऊपर से बांस की फट्टियों के सहारे मंडप बना प्लास्टिक का तिरपाल फेंक दिया जाता. फिर ट्रैक्टर से ट्रॉली को जोड़ा जाता. इसी पर सभी बैठ हिलते डुलते, सरेह को निहारते, गपियाते हुए ठहाका लगाते अरेराज पहुंच जाते. बचपन की खो चुकी स्मृतियों में बहुत कुछ तो याद नहीं.

लेकिन वहां की पुरानी धर्मशाला, खुले नल से अनवरत बहते पानी से जमा कीचड़, फूल, बेलपत्र, अक्षत... पूजन सामग्री बेचते व हाथ में थाली लिए पंडे. मंदिर परिसर में मृदंग की थाप पर अजीबो गरीब समीजनुमा लिबास में नाचते गाते नेटुए, खुरदक बाजा के साथ शहनाई की गूंज, मंदिर की ओर जाने वाली चार पांच पतली गलियां, जिनमें श्रृंगार प्रसाधन, लाइचीदाना, लाल धग्गी, माला, चुनरी, लाई घुघुनी, पकौड़ी की दूकानें सजी होने के कारण मुश्किल से एक-दो आदमी के निकलने का रास्ता बचता था. अभी तक याद है. इन्हीं गलियों में मैंने लालमुनी चिरई (जिसके चोंच व कागज के छोटे पंख तो होते लाल थे. लेकिन मिट्टी का पूरा बदन काला. अभी तक समझ नहीं पाया इसका नाम लालमुनी क्यों पड़ा?) नरकट की रंगी बिरंगी पुपुही, पलास्टिक गन, रील से हीरो हीरोइन का फोटो देखने के लिए मिनी लेंस वाला बाइस्कोप, लट्टू जैसे खिलौने कई बार खरीदे थे.

मंदिर परिसर में  नाचकर बाबा को खुश करता लोक नर्तक नेटुआ
समय के साथ बदलाव तो है लेकिन खटकती है कुव्यवस्था 

ऐसे में जबकि सावन महीने की शुरूआत है. माना जाता है कि इन दिनों जल ढारने वाले भक्तों पर बाबा की विशेष कृपा बरसती है. खासकर सोमवार या शुक्रवार को. इस बार मेरा भी अरेराज जाना हुआ, एक पत्रकार के नजरिए से स्थिति का जायजा लेने. जब उत्सुक नजरों ने पड़ताल की तो कई सारी चीजें बदली नजर आईं अपनी पुरानी जड़ों के साथ. लेकिन गुजरे अस्तित्व के साथ नयापन का घालमेल जाने क्यों मुझे रास नहीं आया. हालांकि चप्पे चप्पे पर पुलिस की सुरक्षा, मंदिर के मुख्य प्रवेश स्थल पर पर लगा बड़ा सा आयरन गेट, रौशनी के लिए लगे मॉस्क लाइट, भीतर में लगा सीसीटीवी कैमरा और मार्बल के फर्श ने सुखद एहसास भी कराया. तो बाहर में बारिश से किचाहिन टूटी फूटी सड़क, खंडहर होती धर्मशाला, पिछवाड़े स्थित तालाब में पसरी गंदगी, कूड़े कचरे के ढेर पर लोटते सूअर ने बीती यादें ताजा कर दी. ताज्जुब की बात ये है कि लोग आते हैं. कुव्यवस्था को जम कर कोसते हैं. और कीचड़ की सड़ांध से फैली बदबू के कारण नाक पर रुमाल रख निकल भी जाते हैं. 


मंदिर के पिछवाड़े में पसरी गंदगी
ऐतिहासिक पार्वती तालाब का पक्कीकरण हुआ है. लेकिन उसका गंदा जल आने वाले को मुंह चिढ़ाते नजर आता है. एक श्रद्धालु मुकेश कुमार बताते हैं कि लापरवाही इतनी है कि मंदिर के गर्भ गृह में भी अजीब तरह की दुर्गन्ध आती है. इसलिए कि सफाई का रूटीन सही नहीं है. व्यवसायी नरेश ठाकुर कहते हैं कि ई गोविंदगंज है साहेब, उसमे भी अरेराज धाम. इहां कुछो नहीं होने वाला. जमाने से चलता आ रहा है सब, अइसही चलते रहेगा. वहीँ मंदिर परिसर में पूजा की थाल लिए पंडे आपकी बिना मर्जी के कब लाल रंग का टीका-तिलक लगा दक्षिणा के लिए हाथ खड़े कर दे. कहना मुश्किल है. इससे भी बाहर से आए पर्यटकों को काफी कोफ़्त महसूस होती है. यह सब देखने के बाद कचोटते मन से यह सोचने को भी विवश हुआ कि ऐतिहासिक पर्यटन स्थलों के प्रति इतनी संवेदनहीनता या उदासीनता क्यों है.


ऐतिहासिक पार्वती तालाब औए शिव पार्वती मंदिर
कहते हैं ट्रस्ट के सचिव

सोमेश्वरनाथ मंदिर धार्मिक न्यास बोर्ड, पटना के अधीन है. इसके सचिव मदनमोहन नाथ तिवारी ने बताया कि ट्रस्ट की आय से मंदिर के विकास का पूरा प्रयास किया जा रहा है. जो कि दिख भी रहा है. पुरानी धर्मशाला जर्जर हालात में अतिक्रमण का शिकार है. हालांकि नई धर्मशाला भी बनकर तैयार है. बस उद्घाटन की प्रतीक्षा में है. पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉ. अखिलेश प्रसाद सिंह के सौजन्य से मंदिर में संगमरमर और मास्क लाइट लगाए गए हैं. उन्होंने बताया कि मंदिर के बाहर मूलभूत सुविधाएं दुरुस्त करने की जिम्मेवारी सरकार की है. गौरतलब है कि 12 जुलाई को डीएम अभय कुमार सिंह ने सावन पूजा की तैयारी को लेकर अरेराज का दौरा किया. उन्होंने मंदिर की ओर जाने वाली मुख्य सड़क के रिपेयर के लिए सहायता देने की बात कही.

ब्राह्मण नहीं लेते चढ़ावा पर गोस्वामी...

एक अनुमान के मुताबिक बिहार, झारखंड, उतर प्रदेश, नेपाल के कोने कोने से यहां हर वर्ष लाखों श्रद्धालु आते हैं. ट्रस्ट को इस वर्ष दान के तौर पर करीब पचास लाख रूपए मिले हैं. सोमेश्वर नाथ मंदिर में चढ़ावे की राशि पर गिरी समुदाय का हक है. जिन्हें स्थानीय लोग गोस्वामी भी कहते हैं. हालांकि ट्रस्ट बनने के बाद मंदिर से होने वाली आय उसी के खाते में जाती है. मंदिर में एक महंथ रखने की भी परंपरा है, जो कि इसी समुदाय से बनते हैं. ब्राह्मण मंदिर का दान नहीं लेते. पंडित प्रेमचंद पांडे बताते हैं कि शास्त्र में लिखा है, सब अंश ग्राह्य है शिव अंश नहीं. इस नियम का पालन नहीं करने वाला पाप का भागी बनता है. मतलब भोले बाबा का चढ़ावा दूसरे वर्ग को लेने की मनाही है.


बाबा के दर्शन के लिए महिलाओं की लगी कतार
लकमा पाउडर से लेकर फेम एंड लवली का फंडा

मेला में सबसे आकर्षण के केंद्र होते हैं गलियों में लगी रेहड़ी दूकानें. इनमें मेक अप के पहले से लेकर तीसरे दर्जे तक के कॉस्मेटिक्स आयटम्स फेम एंड लवली (फेयर एंड लवली), विमो (विको), बोरो पाल्म (बोरो प्लस), लकमा (लक्मे) पाउडर, पैरासोना (पैराशूट) नारियल तेल, चाइनीज खिलौने, इनर वियर ब्रा, पैंटी, आर्टिफिशियल गहनें अंगूठी, गोल्डन व सिल्वर चेन, चूड़ी, लहठी आदि चीजें बिकने के लिए सजी रहती हैं. जिसके खरीदारों में महिलाओं व बच्चों की भीड़ लगी रहती है. भले ही शहरों में लोग रोजमर्रे की चीजें खरीदते वक्त ब्रांड व कीमत की तुलना करते हों. लेकिन ग्रामीण खरीदारों में नए के बजाए पुराने ब्रांड का ही क्रेज है..

वजह, देहाती कस्बों में अभी भी नाम ही बिकता है. चाहे ब्रांड के नाम पर कोई नकली माल ही क्यों ना थमा दे. इसका आसान शिकार होती हैं ग्रामीण महिलाएं. ऐसे ही एक दूकान पर बूढ़ी महिला ने फेयर एंड लवली क्रीम मांगा. तो दुकानदार ने चट से फेम एंड लवली थमा दिया. मैं नाम पढ़कर चौंका. महिला से पूछा, माई, ई क्रीमवा केकरा खाति किनले बानी. वे बोलीं, बबुआ, आवत रहनी ह त हमर पतोह कहली कि अम्मा जी मेला से फेयर लबली लेले आइल जाई. इससे पहले कि क्रीम के नाम के बाबत और कुछ और पूछता. उस दुकानदार ने सच्चाई भांप मुझे खा जाने वाली नजरों से घूरा. मानो पूछ रहा हो कि धंधे का टाइम क्यों खोटा कर रहे हो भाई. और मैंने वहां से रुखसत होने में ही अपनी भलाई समझी.
पवित्र पंचमुखी शिव लिंग

इतिहास के आईने में अरेराज

वर्ष 00 में बिहार का झारखंड से अलग होने के बाद धार्मिक पर्यटन के लिहाज से सोमेश्वर धाम की लोकप्रियता और भी बढ़ गई. मोतिहारी से 30 किलोमीटर दक्षिण पश्चिम में तिलावे मन के समीप स्थित बाबा भोले की यह छोटी से नगरी, अनुमंडल मुख्यालय भी है. यहां से छह किलोमीटर दक्षिण में नारायणी नदी बहती है. अभी बिहार में तीन शिव धाम प्रसिद्ध हैं. जिनमें अरेराज का स्थान सबसे उपर है. इसके बाद मुजफ्फरपुर के गरीब नाथ व बक्सर, ब्रह्पुर के शंकर मंदिर आते हैं. माना जाता है कि सोमेश्वरनाथ एक कामनापरक पंचमुखी शिवलिंग हैं. जिसपर सावन महीने में कमल का फूल व गंगा जल चढ़ाने से सारी मनोकामना पूरी होती हैं.

पुराणों में भी है जिक्र


तिलावे मन के किनारे  से सोमेश्वरनाथ मंदिर का दृश्य
मंदिर का जिक्र स्कंद, पदम व बाराह पुराण में भी है. त्रेता युग में अपनी पत्नी सीता के साथ विवाह कर जनकपुर से अयोध्या लौटने के क्रम भगवान राम ने यहां पूजा की थी. इसी कारण, हर वर्ष जनकपुर में अगहन पंचमी को आयोजित होने वाले राम विवाह में अयोध्यवाशी भाग लेते हैं. और लौटते वक्त अरेराज मंदिर में जल जरूर चढ़ाते हैं. वर्ष 1983 में प्रसिद्ध साहित्यकार सच्चितानंद वात्स्यायन (अज्ञेय) व शंकर दयाल सिंह की खोजी टीम आई थी. उन्होंने भी इस तथ्य की पुष्टि की. रोटक व्रत कथा के मुताबिक, द्वापर में अज्ञातवास के दौरान राजा युधिष्ठिर ने अपने भाइयों व पत्नी द्रौपदी के साथ यहां पूजा की थी.

जबकि उगम पांडे कॉलेज, मोतिहारी में प्राचीन इतिहास व कला संस्कृति के विभागाध्यक्ष प्रदीपनाथ तिवारी बताते हैं, वर्ष 1816 ई. में भारत व नेपाल के बीच सुगौली में संधि हुई. पहले इस जगह का नाम संगौली था. और यहां से लेकर सिवान, हाजीपुर तक का क्षेत्र नेपाल में आता था. इसका लिखित इतिहास करीब एक हजार वर्ष पुराना है. इसके मुताबिक वर्ष 1000 ई. में इधर आर्य आए. तब इसे अरण्यराज के नाम से जाना जाता था. यहां से नेपाल के तराई क्षेत्रों तक जंगल ही जंगल था. श्री तिवारी बताते हैं कि मंदिर के संबंध में आधुनिक इतिहास उपलब्ध नहीं है. साक्ष्य के लिए इतिहासकारों को भी पुराणों पर ही निर्भर रहना पड़ता है.


24 March, 2014

NDTV वाले रविश के गांव से श्रीकांत सौरभ की रिपोर्ट

बिहार के पूर्वी चंपारण जिले के मुख्यालय मोतिहारी से 36 किमी दक्षिण-पश्चिम में बसी है एक छोटी सी पंचायत, पिपरा. गंडक (नारायणी) नदी के बांध से सटे कछार में बसा यह गांव, प्राकृतिक दृश्यों के लिहाज से बिहार के मैदानी इलाके में स्थित किसी भी गांव से ख़ूबसूरत और उसी के अनुरुप पिछड़ा भी है. पर खांटी भोजपुरी परिवेश यहां के रग रग में चलायमान है. विश्व प्रसिद्द सोमेश्वर नाथ मंदिर, बाबा भोले की नगरी अरेराज अनुमंडल मुख्यालय से महज आठ किलोमीटर किमी की दूरी पर स्थित यह पंचायत अंतिम छोर पर है. क्योंकि यहां के बाद गंडक (नारायणी) नदी का दियारा शुरू हो जाता है. फिर नदी के उस पार गोपालगंज जिला. करीब 12 हजार की आबादी वाली इस पंचायत में तीन राजस्व गांव पड़ते हैं, पिपरा, गुरहा व जितवारपुर. इनमें बात अगर जितवारपुर की करें तो, यह जग़ह इस मायने में खास है कि यहां NDTV के संपादक व वरीय पत्रकार रविश कुमार का पुश्तैनी घर है.

यह सही है कि जब कोई आदमी अपने कर्मों से लोकप्रिय होकर ग्लोबल पर्सनालिटी बन जाता है. तो उसे किसी विशेष गांव, धर्म, जाति या काल में बांध कर नहीं देखा जा सकता. लेकिन जैसा कि खुद रविश अपने ब्लॉग ‘कस्बा’ में अक्सर गांव के ‘बाबू जी’, ‘मां’, ‘बाग-बगीचे’, ‘खलिहान’, ‘बरहम बाबा’, ‘पोखर’, ‘छठी माई’, ‘नारायणी नदी’, ‘गौरैया’ आदि का जिक्र करते रहते हैं. क्योंकि यह शाश्वत सत्य है कि दुनिया के किसी भी कोने में चले जाइए. मातृभूमि में बचपन के बिताए कुछ सुनहरे पल भुलाए भी कहां भूलते हैं. बल्कि स्मृतियों में जीवित रहते है ‘नौस्टेलेजिया’ बनकर. और जब कभी मन में भावनाओं का शैलाब उमड़ता है. फ्लैश बैक में गोता लगाते हुए बीते दिनों की यादें ताजा हो जाती हैं.

कुछ समय पहले रविश ने अपने ‘ब्लॉग’ में लिखा था कि उनके गांव में बिजली आ गयी है. इसको लेकर ग्रामीणों में किस तरह का उत्साह है? उनकी ज़िंदगी में बिजली आने के बाद किस तरह का बदलाव आया है? स्थानीय मीडिया इस खबर का कवरेज जरूर करें. लेकिन ऐसा नहीं होना था सो नहीं हुआ. कस्बाई पत्रकारिता में इसके कारण तो बहुत सारे हैं, पर उल्लेख करना मैं उचित नहीं समझता. इसलिए कि मैं भी इसी समाज का रहनिहार हूं और पानी में रहकर मगर से..! खैर, मेरे गांव से जितवारपुर की दूरी मात्र 20 किमी है. पिछले दिनों वहीँ पर एक रिश्तेदारी में जाने का प्रोग्राम बना. सोचा, रविश तो पूरे देश की रिपोर्ट बनाते हैं. क्यों नहीं उनके गांव की ही एक छोटी सी रिपोर्ट बनाने की गुस्ताखी कर ली जाए, अपनी नवसिखुआ शैली में. आखिर एक ही गांव-ज्वार के होने के नाते कुछ अपना भी कर्तव्य तो बनता ही है.

प्रकृति के साए में नजर आया विकास


अरेराज से दक्षिण दिशा की तरफ जा रहे स्टेट हाइवे 74 को पकड़ जैसे ही चार किमी आगे बढ़े. भेलानारी पुल के समीप से एक पक्की सड़क पश्चिम की ओर निकलती दिखी. एक राहगीर से पूछा, पता चला यहीं से जितवारपुर पहुंचा जा सकता है. किसी काली नागिन से इठलाती बल खाती 12 फीट की चिकनी सड़क. और सड़क के दोनों ओर खेतों में नजर आ रही गेहूं की बाली, हरी भरी मकई, कटती ईख, पक्की सरसो व दलहन की फसलें. बहुत कुछ कह रही थी. यह की गंडक से हर वर्ष आनेवाली बाढ़ अपने साथ त्रासदी तो लाती है. लेकिन बाढ़ के साथ बहकर आई गाद वाली मिट्टी इतनी उर्वर होती है कि अगली फसल से क्षति की भरपाई हो जाती है. हालांकि किसी किसी जगह चंवर में जमा पानी इस बात का आभास भी करा रहा था कि फ्लड एरिया है. तो यह देख खुशी भी हुई. एक समय जिस कच्ची सड़क से गुजरने से पहले लोग सौ बार सोचते थे. खासकर बरसात के दिनों में तो बंद ही रहती होगी. आज उसपर चकाचक सड़क बनी हुई है.

हालांकि कहीं कहीं थोड़ी दूरी के उबड़ खाबड़ रास्ते भी मिले. जो पुराने हालात की गवाही दे रहे थे. इस कारण ना चाहते हुए भी बाइक में ब्रेक लगाना पड़ता. ठीक टीवी पर चल रही किसी बढ़िया फिल्म के बीच बीच में आ रहे विज्ञापन की तरह. कुछ वैसा ही महसूस हो रहा था. थोड़ी दूर आगे ही एक जगह सड़क के दोनों किनारे खड़े घने बांसों की हरियाली दूर से ही मन मोह रही थी. यहीं नहीं दोनों ओर से बांस झुककर मंडप की आकृति में सड़क के उपर पसरे थे. मानो खुद प्रकृति ने बाहर से आनेवाले अतिथियों के स्वागत में इसे सजाया हो. ख्याल आया, कम से कम एक फोटो तो बनता ही है, सो खींच लिया. आगे बढ़ने पर एक घासवाहिन मिली सिर पर घास की गठरी लादे हुए. उससे गांव का रास्ता पूछा. तो बताई, दो दिशा से जा सकते हैं. एक गांव के पूरब से है जो कि सीधे बांध तक जाता है. दूसरा पश्चिम में सेंटर चौक से मेन गांव में. तय हुआ अभी पहले वाले रास्ते से चलते हैं. लौटते समय दूसरे रास्ते से आएंगे.

बांध पर के बरहम बाबा और किनारे का पोखरा


थोड़ी देर में ही हम गंडक के बांध पर पहुंच गए. पक्की सड़क वहीँ तक थी और उपर में ईट का खरंजा. बांध पर चौमुहान था जहां तीन पीपल के पेड़ खड़े थे अगुआनी के लिए. और किनारे ही पोखरा में कुछ लोग भैंसों को नहला रहा थे. सामने से गंजी पहने एक जनाब हाथ में डिबिया लिए आते दिखे. मुद्रा बता रहा था कि दिशा मैदान से आ रहे हैं. पूछने पर नाम हसमत अंसारी बताए. बोले, ई गांव का बरह्म बाबा चौक है. समझ लीजिए गांव का पूर्वी सिवान. बियाह का परिछावन, लईका सब का खेलकूद आ बूढ़-पुरनिया का घुमाई फिराई सब इहवे होता है. यहां से गांव के चारो दिशा में जा सकते हैं. बोले, जब मेन रोड नहीं बना था बरसात में बांध ही रास्ता था. मैंने पूछा, आपके गांव में बिजली आई है? उन्होंने कहा हां, आई तो है लेकिन हमारे घर नहीं रहती. काहे कि मीटर नहीं लगा है न.


तभी मैंने पूछा, आप रविश कुमार का घर बता सकते हैं? कौन रविश?, यह उनका जवाब था. पत्रकार साहब का, मैंने जोर देकर कहा. उन्होंने कहा, ई तो नहीं जानते हैं. लेकिन मेरे एक पड़ोसी दिल्ली में बड़का पत्रकार हैं. उहें के प्रयास से इहां लाइन आया है. उनका नाम नहीं बता सकता. बचपने से कमाई के लिए कश्मीर रहता हूं. कभी कभी छुट्टी में आना होता है. इसीलिए बहुत कुछ इयाद नहीं रहता. मैं उसकी बातों को सुन अचकचाया और बुदबुदाया, अरे भाई पड़ोसी होकर भी आपने रविश का नाम नहीं सुना. तो उन्होंने कहा, घरे चलिए ना, उहें बाबूजी से पूछ लीजिएगा आ बिजली वाला ट्रांसफार्मरो देख लीजिएगा.

रविश के घर तक ही है बिजली का ट्रांसफार्मर

रविश के पैतृक घर के पास खड़ा ट्रांसफ़ॉर्मर

पड़ोसी राजा मियां
हमलोग बांध से उतारकर उनके पीछे मुख्य सड़क पकड़कर पश्चिम की ओर बढ़े. थोड़ी दूरी पर ही एक बड़े मकान की बाउंड्री के आगे लगे ट्रांसफार्मर के पास ठहर गए. तभी एक उम्रदराज मौलाना आते दिखे. ये हसमत के पिता राजा मियां थे. उन्होंने बताया, जी इहे रविश पांडे यानी पत्रकार रविश कुमार का घर है. आ सामने वाला हमारा घर है. गांव के नाता से ऊ (रविश) मेरे बाबा लगते हैं. चार भाई हैं. पटना में भी मकान है. साल भर में कोई ना कोई अइबे करता है. अबकी छठ पूजा में रविश काका भी आए थे. सब लोग कहे आप एतना बड़का साहेब हैं. गांव में और जगहे लाइन है. मनिस्टर से कहके इहां भी बिजली मंगा दीजिए. आ उनकरे प्रयास है कि इहों बिजली आ गई. मैंने पूछा, आपके घर में बिजली है? जवाब मिला, कनेक्शन के लिए आवेदन दिए हैं. मिलेगा तभिए जलाएंगे, चोराके नहीं.
पड़ोसी ऋषिदेव मिश्रा

पास में ही एक अधेड़ साईकल से उतर हमें सुनने लगे. चेहरे से लगा कुछ कहने के लिए उतावले हैं. उनकी ओर मुखातिब हुआ. नाम ऋषिदेव मिश्रा बताए. बोले, आप जहवां खड़े हैं. इहे हमर घर है. पत्रकार है त जाकर अखबार में लिखिए ना कनेक्शन लेवे में बहुते लफड़ा है. चार बेर अरेराज ऑफिस में कनेक्शन के आवेदन के लिए गए. कभी कोई नहीं रहता है तो कभी कोई. आप ही बताइए, ‘नया बियाह हुआ हो तो बथानी पर सुते के केकरा मन करता है.’ बोलते बोलते वे तमतमाने भी लगे और उनका आक्रोश बातों से झलकने लगा. का कीजिएगा प्रशासने सब भ्रष्ट है. ई हाल है कि गांव में दस घर में कनेक्शन है आ पच्चीसों आदमी टोका फंसा कर (चोरी छुपे) इस्तेमाल कर रहे हैं. हम त कसम खाए हैं बिना मीटर नहीं जलाएंगे.

इसी बीच बगल में खड़ा एक लड़का कहने लगा, सर लाइनों तो चार पांचे घंटा रहता है, उहो दिन में. रात में अइबे नहीं करता है. का फायदा एह बिजली से कि किरकेट आ सीरियलो नहीं देख पाते हैं. कुछ बढ़े तो मोड़ पर महेद्र राय मिले. बिजली के बाबत बताए, सर बांध के किनारे दोनों ओर केतना लोग बसे हैं. उहां तक तो पोल नहीं गया है. रविश बाबा के घरे तक ट्रांसफोर्मर है. आप बताइए एतना दूर तार कइसे खीँच कर ले जाएंगे. यानी बिजली नहीं थी तो कोई बात नहीं थी. अब आ गई है तो भी घर में अंधेरा रहे और पड़ोसियों के यहां बल्ब जले, टीवी चले. या फिर बिजली नियमित नहीं रहे. ये किसी को बर्दाश्त नहीं.

पहले था जंगल राज अब शांति

बांध पर खड़े ग्रामीण. चलो एक फोटो हो जाए, यहीं कहते हुए.
बांध के दक्षिण तरफ किनारे पर भी लोग बसे हैं. इधर की तरफ बांध से सटे बांस, बगीचे और खेतों की हरियाली थोड़ी बहुत है. लेकिन दूर दूर तक केवल खरही के झुरमुट और रेतीले मैदान दिखाई पड़ते हैं. क्योंकि इसके बाद रेतीली जमीन और नदी की धारा है. बांध पर टहलते हुए तपस्या भगत मिले. विधि व्यवस्था के बाबत पूछा तो बताने लगे, दस साल पहले लालटेन के जमाने में पूरी तरह जंगल राज था. दिनदहाड़े कब कौन कहां चाकू, गोली, बम या छिनतई का शिकार हो जाए. कहना मुश्किल था. दियर के एक खास जाति का लोग सब एतना जियान करता था कि एने के लोग अपना रेता वाला खेत में ककरी, लालमी आ खीरा रोपना छोड़ दिए थे. डकैतों के डर से कोई खरही काटने भी नहीं जाता था. शाम के सात बजे ही घरों में ताले लग जाते थे. रात भर जाग के बिहान होता था. ना मालूम कब कवना घरे डकैती हो जाए. फिर उन्होंने एक गहरी सांस लेते हुए कहा, पर अब शांति है. 

त्रासदी है बाढ़ पर पलायन से आई खुशहाली

बगल में ही वरीय सामाजिक कार्यकर्ता जगन्नाथ सिंह का घर है. इन्हें स्थानीय लोग प्यार से ‘नेता जी’ से संबोधन करते हैं. उन्होंने बताया, पिपरा पंचायत में 16 वार्ड और आठ हजार मतदाता हैं. मुख्य सड़क तो पक्की हो गई है पर गलियां अभी भी कच्ची हैं. एक उप स्वाथ्य केंद्र है जहां कभी कभी नर्स नजर आ जाती है. सरकारी प्रारंभिक व मध्य विद्दालय हैं. लेकिन अधिकांश लोग अपने बच्चों को शहर में रहकर कान्वेंट में पढ़ा रहे हैं. उन्होंने बताया, बांध के दक्षिण नदी वाले दिशा में ग्रामीणों की हजारों एकड़ जमीन बाढ़ के कारण परती (वीरान) रहती है. पर उतर साइड में थोड़े बहुत उपजाउ खेत हैं. गांव की पच्चास प्रतिशत आबादी का पलायन है. यहां के निवासी काफी कर्मठ व जीवट प्रवृति के हैं. इसी कारण जहां भी जाएं अपनी कामयाबी का झंडा गाड़ लेते हैं. 

वे बताते हैं, गांव के लोग मोतिहारी, बेतिया, पटना, मुंबई, दिल्ली, असम, गुजरात से लेकर अरब, दुबई और अमेरिका आदि जगहों तक पसरे हैं. बाहरी पैसा आने से हर घर में खुशहाली है. अधिकांश घरों में कोई ना कोई सरकारी नौकरी में है. यहां ब्राह्मण, भूमिहार, यादव, मुस्लिम, गिरी, दलित, महादलित, कुर्मी सभी जातियों के लोग हैं. लेकिन आपस में सदभावना है और एकता भी. आपको बता दें कि अरेराज अनुमंडल के तहत गंडक किनारे दो प्रखंड आते हैं, गोविंदगंज और संग्रामपुर. और मोतिहारी शहर में 60 प्रतिशत डॉक्टर, इंजीनियर, शिक्षाविद्, पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, राजनेता, ठेकेदार या व्यवसायी इन्हीं जगहों से हैं. मतलब जिला मुख्यालय में भी इनका ही वर्चस्व है.

चौक पर बिक रही एफएमसीजी उत्पाद


प्लान के मुताबिक लौटते वक्त हम पिपरा सेंटर चौक की ओर से निकले. यहां भी चौमुहान रास्ता दिखा. एक छोटा सा चौक, सड़क से सटे एक सैलून, एक झोपड़ीनुमा चाय की दुकान, पान की गुमटी व एक परचून की दुकान जैसा मिशलेनियस स्टोर भी दिखे. इस स्टोर में मोबाइल चार्ज, रिचार्ज. तम्बाकू, भुजिया, नमकीन, बिस्किट, मैगी, ब्रेड, कुरकुरे, ठंडें की बोतलें आदि चीजें बिकने के लिए रखी थीं. वहीँ पर हरिनाथ शुक्ल जी खड़े होकर एक छोटे रोते बच्चे को कोरा में थामे चुप करा रहे थे. बोले, पोता हैं ‘कुरकुरा’ खरीदने का जिद कर रहा था. इसलिए चौक पर लाया. खरीद दिया तो अब कह रहा है, स्प्राईट चाही. बताइए ई कोई बात हुआ, ठंडा गरमी का सीजन है. ठंढ़वा पियेगा त लोल नहीं बढ़ जाएगा.

(यह रिपोर्ट ग्रामीणों से भोजपुरी में बातचीत पर आधारित है. कंटेंट को पाठ्यपरक बनाने के लिए बातों को भदेस में तब्दील किया गया है.)

14 March, 2014

यहां भोजपुरी बोलने पर मिलता है सम्मान

“इतिहास हमें सिखाता है कि किसी देश को बर्बाद करना है तो सबसे पहले वहां की मातृभाषा को नष्ट कर दो. शायद जर्मनी, चीन, फ्रांस व जापान के लोग इस हकीकत से अच्छी तरह वाकिफ थे. इसलिए उन्होंने अपनी मातृभाषा को मरने नहीं दिया. मातृभाषा का मतलब महज कुछ शब्द भर नहीं, यह हमारी पहचान, हमारा अभिमान और हमारी एकता का प्रतीक है. सही भी है कोई भी इंसान अपनी सभ्यता व संस्कृति को नजरंदाज कर एक अच्छा लेखक या कलाकार नहीं बन सकता.” विदेशी अस्पताल की गैलरी में एक कोने पर सूचना बॉक्स में चिपकाए गए इस कतरन को पढ़ नजरें उस ओर ठहर गई. उपरोक्त चंद पंक्तियां लेबनान की कवयित्री व सामाजिक कार्यकर्ता सुजैन टोलहॉक के स्तम्भ से ली गई है, जो 12 जनवरी वर्ष 14 को ‘हिन्दुस्तान’ अखबार के संपादकीय पृष्ठ पर छपा था.

नेपाल के तराई शहर वीरगंज से कुछ ही दूरी स्थित परवानीपुर के केडिया आंखा अस्पताल में मां की आंखों के इलाज के लिए पिछले दिनों जाना हुआ. इस पार बिहार का सीमाई कस्बा रक्सौल और उसपार वीरगंज. अस्पताल में जब भाषाई संवेदनशीलता से रूबरू हुआ तो जिज्ञासु मन में सहज ही जानने की इच्छा प्रबल हुई. कि बिहार या भारत में किसी भी सार्वजनिक जगह पर ऐसा कुछ चिपकाया देखने को नहीं मिलता. सिवाए सरकारी टाइप दफ्तरों में हिंदी में लिखे स्लोगन के, जो कि एक विज्ञापन से ज्यादा नहीं जान पड़ते. मसलन ‘हिंदी हमारी राष्ट्र भाषा है’, ‘हिंदी में काम करना हमारा नैतिक कर्तव्य है’, ‘हिंद है हम वतन है हिंदोस्ता हमारा’ आदि आदि. ताज्जुब की बात है ये स्लोगन किसी अन्दुरुनी प्रेरणा से नहीं बल्कि महज खानापूर्ति के लिए लिखे गए हैं. क्योंकि ऐसा सरकारी आदेश है. वरना पूरे भारत में कथित राष्ट्र भाषा हिंदी की क्या दुर्गति है यह किसी से छुपी नहीं. खैर, मै विषय की तरफ लौटना चाहुंगा.

मैंने इस बाबत कुछ जानने के इरादे से बगल में खड़े अस्पताल के सहायक कम्पाउण्डर राम तपस्या यादव से पूछा, ‘यादव जी.’

उन्होंने विनम्रता से कहा, ‘हुजूर?’ (नेपाल में किसी को संबोधन के तौर पर ‘सर’ या ‘महाशय’ की जगह, जैसा कि भारत में बोला जाता है, ‘हुजूर’ ही कहा जाता है.)

उनकी सवालिया नजरों को ताड़ मैंने बॉक्स की तरफ इशारा कर कहा, ‘ये अखबार का कटिंग यहां क्यों चिपकाया गया है?’

पहले तो वे अचकचाकर मुझे घूरने लगे कि ये क्या पूछ रहा हूं. लेकिन फिर माजरा को समझ उन्होंने कहा, ‘बै महाराज, बुझाता रऊआ बेलायत से आइल बानी. हिंदिए में त लिखल बा पढ़के समझ ली.’ 


उन्होंने भोजपुरी में इतना ही कह मुझे टरकाना चाहा पर मैंने सफाई दी, ‘जी समझ में त आवता बाकिर हम जानल चाहा तानी ई इहवां चिपकावल काहे बा?’
तो उन्होंने कहा, ‘हम त अस्पताल के छोटहन स्टाफ बानी. लेकिन हमरा जहां ले बुझाता ई उपर वाला (मुख्य प्रशासक) सभे सटवइले बाड़न. आपन मातृभासा के प्रचार करेला.’

‘प्रचार मतलब?’, मैंने अंजान बन पूछा.

'देखी इहवां नेपाल के राष्ट्र भाषा नेपाली ह आ हमनी के घरेया भासा भोजपुरी. आ ई दुनू भासा में इहवां बतियावला प रऊआ जादा आदर मिली. समझनी कि ना?'

यादव की बात सुन दिल को थोड़ी तसल्ली मिली क्योंकि मैं खुद झिझक के मारे हिंदी में बतिया रहा था. और उनके जवाब की पुष्टि भी हो गई, जब मैंने अस्पताल के चिकित्सकों से भोजपुरी में बात की. सभी ने काफी शालीनता से मुझे सुना, जवाब दिया. ना कोई बनावटीपन, ना ऐठ, ना तो कोई पूर्वाग्रह ना ही भेदभाव, जैसा कि उतर भारत के शहरों में क्षेत्रीय जुबान में बात करने पर एक प्रकार की मानसिक हीनता से गुजरना पड़ता है. अस्पताल की प्रतीक्षा गैलरी में भी माइक से भोजपुरी में ही मरीजों को आवश्यक जानकारी दी जा रही थी. हालांकि परिसर में मैंने एक चीज पर गौर किया की यहां आए 90 फीसदी मरीज बिहार व यूपी के मोतिहारी, बेतिया, बगहा, गोपालगंज, छपरा, सिवान, आरा, पटना व महराजगंज, गोरखपुर, कुशीनगर आदि जगहों के दिखे. जो कि खांटी भोजपुरी क्षेत्र है. यानी भोजपुरी में सहज संवाद का एक खास कारण इस भाषा का यहां मार्केट वैल्यू होना भी है.

वीरगंज में दिखा भोजपुरी का पहला दैनिक अखबार


वीरगंज स्थित घंटाघर चौराहा यानी शहर का चर्चित स्थल, जहां से बाजार जाने के लिए कई गलियां निकलती हैं. यही कोने पर पत्र-पत्रिकाओं की एक छोटी सी अस्थायी दुकान दिखी. जहां काउंटर पर हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण, प्रभात खबर (सभी मोतिहारी संस्करण) के साथ तमाम हिंदी, अंग्रेजी व नेपाली पत्र-पत्रिकाएं बिकने के लिए सजी थीं. तभी इसी कतार में ‘भोजपुरी पाती’ नामक दैनिक पर आंखें रूक गई. उठाकर पड़ताल की तो पाया दो पृष्ठों के इस श्वेत-श्याम अखबार में तराई क्षेत्र की दैनिक खबरें छपी हैं. मैंने बिना देरी किए वेंडर से अखबार का दाम पूछा. जवाब मिला, नेपाली पांच रूपये यानी तीन रुपये भारतीय. हालांकि कंटेंट के हिसाब से मूल्य कुछ ज्यादा लगा. लेकिन भोजपुरी में पढ़ने का मोह नहीं छोड़ पाया. सो उसे खरीद लिया.

घर आकर अखबार को पलटा तो उम्मीद के मुताबिक ही छपी सामग्री सतही लगी. इसमें भोजपुरी को लेकर किए जा रहे संघर्ष के अलावा कुछ भी खास नजर नहीं आया. अखबार के कार्यालय का पता वीरगंज ही छपा था. जबकि अंतिम पृष्ठ पर रक्सौल, बिहार के संवाददाता लटपट ब्रजेश का नाम और उनका मोबाइल नंबर विज्ञापन की तरह एक बैनर में प्रकाशित था. अधिक जानकारी के लिए उनको फोन मिलाया. तो बतकही का सिलसिला चल पड़ा और कब एक घंटा निकल गया पता ही नहीं चला.

कई सारी चीजों पर चर्चा हुई जिसका जिक्र फिर कभी करूंगा. लेकिन मेरे जैसे नवही व गवही मातृभाषा प्रेमी की संतुष्टि के लिए इतनी ही जानकारी काफी थी कि पूरे तराई क्षेत्र में इस दैनिक की प्रसार संख्या 10 हजार के करीब है. मुंह से तो न सही पर दिल से एक अनकही दुआं भी निकली, चलो कोई तो है जिसकी बदौलत भोजपुरी भाषा की पटरी खिंच रही है. (एक पत्रकार, कवि, लेखक व भोजपुरी एक्टिविस्ट लटपट ब्रजेश के लंबे संघर्षों की दास्तान जल्द ही साक्षात्कार के तौर पर इस ब्लॉग में प्रस्तुत करूंगा.)

दर्जनों नेपाली एफएम पर बह रही भोजपुरिया बयार

“ई गढ़ी माई एफएम ह, तनी देर में रउआ तराई क्षेत्र के समाचार सुनेम.”, “बनल रही हमनी के संगे जाई मत कही. काहेकि संस्कृति एफएम सुनावे जा रहल बा कल्पना के आवाज में पूर्वी गीत.” जी हां, कुछ इसी तरह के उद्गारों के साथ नेपाल के तराई कस्बों में करीब दो दर्जन एफएम गुलजार हैं. बिहार व नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्रों वीरगंज, कलैया, गौर, ढेंग, बैरगीनिया, जनकपुर, विराट नगर आदि में संचालित इन एफएम केन्द्रों से भोजपुरी, नेपाली, मैथिली में मनोरंजक कार्यक्रम, समाचार व गाने दिन भर प्रसारित होते रहते हैं. जिनके श्रोताओं में बिहार में मोतिहारी, सीतामढ़ी, बेतिया, शिवहर, बगहा, मधुबनी के रहनिहार भी शामिल हैं.

नेपाल में कुकुरमुते की तरह इनके फैले होने की खास वजह यहां भारत की तरह एफएम लाइसेंस लेने की प्रक्रिया का पेचिदा नहीं होना भी है. और कोई भी तीन से पांच लाख भारतीय रुपये में इसे शुरू कर सकता है. इनका कवरेज क्षेत्र 30-70 किमी तक है. हालांकि कंटेंट के मामले में भारतीय एफएम की गुणवता से तुलना करना बेईमानी सरीखा होगा. हां, इतना जरूर है कि बिहारी विज्ञापनों से हो रही अकूत कमाई से इन सबकी पाव बारह है.

पहले नहीं था भोजपुरी को लेकर इतना क्रेज

आज से 30 साल पहले नेपाल में भोजपुरी भाषी को नीची नजरों से देखा जाता था. हर जगह नेपाली बोलने का चलन चरम पर था. यह कहना है भोजपुरी बौद्धिक विकास मंच के संस्थापक लटपट ब्रजेश का. वे रक्सौल से ही सटे जटियाही गांव के निवासी हैं जो फिलहाल शहर के कौडिहार चौक के पास रहकर करीब 30 वर्षों से मधेसियों के बीच भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए संघर्ष कर रहें. इन्होंने भारतीय होते हुए भी काठमांडू में 15 देशों को लेकर आयोजित ‘विश्व भोजपुरी सम्मलेन’ में नेपाल की ओर से प्रतिनिधित्व किया हैं.

वे बताते हैं कि बचपन में जब अपने ननिहाल नेपाल के एक गांव में जाता था. तो ग्रामीणों की भाषा भोजपुरी देख बेहद खुशी मिलती. जब थोड़ा बड़ा हुआ और समझदारी आई तो नेपाल में भोजपुरी को लेकर किए जा रहे भेदभाव, खासकर वहां के मूल निवासियों (पहाड़ी लोगों) का भाषाई आधार पर मधेसियों के साथ दोयम व्यवहार मन को काफी कचोटता था. इस भाषा में अखबार व साहित्य गढ़ना तो दूर की बात थी. भोजपुरी बोलने का मतलब खुद को पिछड़ा होना साबित करना था. जबकि यहां का बाजार व कारोबार पूरी तरह भोजपुरी भाषियों पर ही केंद्रित है.

आगे उन्होंने बताया कि भोजपुरी वैसी समृद्ध भाषा है जिसमें स्वाभिमान, ओज, आग्रह, विनम्रता, मिठास के साथ ही दबंगता भी कूट कूट कर भरा है. इस रसिक बोली में इतनी क्षमता भी है कि किसी भी गैर भाषी जनों को खुद में समाहित कर सकती है. ब्रजेश बताते हैं कि आज आप इस तराई शहर में जो कुछ भी देख रहे हैं. यह एक लंबे संघर्ष का परिणाम है.



नेपाल के परवानीपुर में स्थित केडिया आंखा अस्पताल

                                     
नोटिफिकेशन बॉक्स में चिपकी स्तंभ की कतरन

वीरगंज स्थित शहर की ह्रदय स्थली घंटा घर चौराहा

नेपाल से प्रकाशित भोजपुरी दैनिक

26 February, 2014

इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है

मुफ्फसिल क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद दुरुह काम है. और यहां तकरीबन 90 प्रतिशत ग्रामीण पत्रकारों को दस टके पर खटना पड़ता है. वह भी सुबह से शाम तक. जबकि यही एक पेशा है जिसमें महज पैसे कमाने के लिए कोई नहीं आता, यदि अपवाद के तौर पर चंद दल्लमचियों को छोड़ दें तो. अभी भी अखबारों के जिला कार्यालय में कुछ ऐसे खबरची हैं, जिनके लिए पत्रकारिता मिशन व प्रोफेशन के बीच 'कुछ' है. इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है. जिससे समाज में इस बिरादरी की थोड़ी बहुत पूछ व विश्वसनीयता है.

हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया के नाम पर दल्लागिरी करने वाले कतिपय भांडों ने सौ- दो सौ रुपए के लिए जिस तरह से अपनी जमीर का सौदा करना शुरु कर दिया है. फिलहाल आम जनता सभी को एक ही नजर से देखने लगी है. दीगर की बात ये है कि जिस कथित सम्मान के लिए पत्रकार मरता है. यदि वह भी नहीं मिलेगा तो कोई कब तक इसे झेलेगा? आने वाले दिनों में पत्रकारों की स्थिति और भी गर्त में गिरेगी, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.

"...घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला"

कल एक शादी समारोह में खाना बनाने वाले कैटरर्स को आपस में बंगाली में बतियाते देख नजरें उनपर ठहर गई. स्थानीय हलुवाई टीम का एक भोजपुरी भाषी क्षेत्र में इस कदर दूसरी भाषा में बातें करने को लेकर उनके बारे में जानने की जिज्ञासा हुई. वजह यह भी रही कि वे जितनी सहजता से बांगला बोल रहे थे, भोजपुरी भी उतनी आसानी से. पूछने पर पता चला वे बेतिया के लालसरैया गांव से हैं. उनके पूर्वज कई दशक पहले बांग्लादेश से बतौर शरणार्थी (रिफ्यूजी) बिहार आए तो यही पर बस गए. जहां उनकी अच्छी खासी आबादी हैं. मैंने पूछा, 'तोहनी के आपन देश छूटला एतना दिन बीत गइल. बाकिर बांगला बोलल ना भुलाइल.'

तो एक ने कहा, बंगाली हमनी के माई-बाबू जी के भाषा ह, घर के भी. आ भोजपुरी चंपारण के. हमनी के अपना समाज में घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला. एही से अपना में बांगला में बतिआनी सन. उसका भोजपुरी में जवाब सुन मुझे बेहद सुकून मिला. महान हैं ये लोग जिनका वतन छूटे इतने वर्ष बीत गए. फिर भी इन्होंने पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी भाषा व संस्कृति सहेज कर रखी है. और एक हम हैं जो जरा सी शहरी हवा लगी नहीं की आपस में ही हिंदी और अंग्रेजी की टंगड़ी मारना शुरू कर देते है. साथ ही मुझे तरस आया उन कथित बुद्धिजीवियों व संगठन वालों पर जो मोतिहारी व बेतिया (चंपारण) को मैथिली भाषी क्षेत्र बता इसे अलग मिथिला राज्य में शामिल करने की मांग कर रहे हैं. हां, भोजपुरी भाषा के आधार पर पूर्वांचल राज्य में इन जिलों को शामिल करने की मांग बहस का उम्दा विषय जरूर है. (अंतराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस पर विशेष)

सौजन्य से, तराई भोजपुरी मंच

18 February, 2014

अब कलम नहीं चलाते ब्यूरो चीफ

एक जमाना था जब अखबारों के जिला संस्करण नहीं होकर प्रादेशिक पन्ने छपते थे. जिला कार्यालय में ब्यूरो चीफ की अच्छी खासी धाक रहती थी. अखबार के चर्चित संवाददाताओं की गरिमा निराली थी. उनकी धारदार लेखनी के कायल स्थानीय विधायक, मंत्री से लेकर एसपी व डीएम तक रहते. स्थिति यह थी कि ये हुक्मरान चिरौरी के लिए खुद कार्यालयों का साप्ताहिक या पाक्षिक दौरा लगाते थे. तब न आज की तरह इंटरनेट, कंप्यूटर, डिजिटल कैमरे व मोबाइल जैसी हाइटेक सुविधाएं थीं. ना ही रंग बिरंगे पन्ने बनते थे.

संवाददाता सूचना प्रेषित करने के लिए पूरी तरह फैक्स, तार या डाक पर निर्भर थे. और पूरे जिले में अखबार का 2 हजार प्रसारण भी काफी माना जाता. लेकिन उस वक्त श्वेत श्याम अखबार के पीले पन्ने में छपी खबर का जो रुतबा था. उसे शब्दों में व्यक्त करना मुमकिन नहीं. भ्रष्टाचार की एक खबर से सरकारी कर्मी का तबादला हो जाता. तो अवैध कारोबारी सलाखों की भीतर रहते. लेकिन वर्ष 00 के बाद जब जिले में अखबारों के मोडेम कार्यालय खुलने शुरु हुए. ब्यूरो चीफ की जगह कार्यालय प्रभारी रखे जाने लगे. क्षेत्रीय खबरों का दायरा जिले भर में ही सिमट कर रह गया. और वर्ष 14 में, अखबारों का स्तर गिरते गिरते उस दौर में पहुंच चुका है. कि भले ही जिले में अखबारों का प्रसारण हजारों में है.

लेकिन आकर्षक कलेवर में रंगीन छपाई वाले पन्नों की हालत परचे पोस्टर से ज्यादा की नहीं रह गई. लगभग सभी बैनरों के प्रबंधन का ही सख्त आदेश है कि विवादित यानी हार्ड खबरों की रिपोर्टिंग फूंक फूंक कर करनी है. भले ही खबर छूट जाए लेकिन बिना पूरा तथ्य के खबर नहीं छापनी है. स्पष्ट कहे तो फिलहाल लाइफ स्टाइल व पीआरओ शीप पत्रकारिता का चलन है. जहां कार्यालय प्रभारी की हैसियत महज प्रबंधक की है. जिसे अपने बैनर का प्रसारण बढ़ाने व उसके लिए विग्यापन जुटाने की मानसिक जद्दोजहद से ही फुर्सत नहीं. बचा समय स्टिंगरों से प्लानिंग की हुई खबरें संग्रह करवा यूनिट में भिजवाने में ही गुजर जाता है. फिर वह खबर क्या खाक लिख पाएगा?

भाषा सुधार नहीं सूचना के लिए पढ़ें अखबार

भले ही अन्य निजी संस्थानों में तमाम डिग्रियां होने के बावजूद स्किल टेस्ट लेकर ही भर्ती करने का प्रावधान है. लेकिन मीडिया में दक्षता जांच कर पत्रकार रखने की परिपाटी लगभग खत्म सी हो चुकी है. जबकि 90 के दशक के अंतिम वर्ष तक अखबारी जगत में परीक्षा लेकर रखने का चलन था. वे चाहे ग्रामीण संवाद सूत्र हों या सिटी रिपोर्टर. खासकर उनसे भाषाई शुद्धता व सामान्य जानकारी की अपेक्षा तो जरुर की जाती थी. मुझे याद है वर्ष 05 में जब मैं पटना में लेखन की एबीसी सीख रहा था.

श्रीकांत प्रत्यूष ने अपने अखबार नवबिहार के लिए बिस्कोमान भवन के नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के दफ्तर हाल में संवाददाताओं की नियुक्ति के लिए टेस्ट आयोजित किया था. जिसमें मैं भी शरीक हुआ. यहीं पर मैंने जाना कि अंग्रेजी शासन में श्री कृष्ण सिंह बिहार के प्रथम प्रधानमंत्री चुने गए थे. हालांकि इस टेस्ट में मेरा चयन न हो सका. लेकिन महज खानापूर्ति के लिए सतही स्तर पर ही सही, एक क्षेत्रीय अखबार की यह बहाली प्रक्रिया मुझे अच्छी लगी. अब प्रिंट में काम करने के लिए देवनागरी की समझ, 4 सी लिपिका में टाइपिंग व ज्यादा से ज्यादा हुआ क्वार्क एक्सप्रेस में पेजिनेशन की कला प्रवेश की शर्तें हैं.

जबकि नौकरी बचाने व प्रोन्नति के लिए संपादक स्तर पर तगड़ी पहुंच व सेटिंग भी निहायत अनिवार्य है. ऐसे में अखबार के लिए विग्यापन जुटाने व उससे बचे खाली पन्नों को डेडलाइन की भीतर भरने की कठिन झंझावातों के बीच व्यकारण के लिहाज से भाषाई शुद्धता की बात करना बेइमानी सरीखा है. एक यूनिटकर्मी की माने तो काम की अधिकता व समय पकड़ने की हड़बड़ी में बमुश्किल शीर्षक सुधारने का वक्त मिल पाता है. स्थिति ये है कि किसी भी हिंदी अखबार के मुख्य पृष्ठ का गंभीरता से अवलोकन कर लीजिए दर्जनों खामियां जरा निकल आएंगी. तर्क यह भी है कि आज का पाठक भाषा सुधारने के लिए नहीं सूचना पाने के लिए अखबार पढ़ता है.

मेरी वीरगंज (नेपाल) यात्रा - 1

जब भी रक्सौल आता हूं, जाने क्यों नास्टलेजिक हो जाता हूं. इस पार भारत व उस पार नेपाल का वीरगंज शहर. इस बार मां की आंखों के इलाज के लिए परवानीपुर (नेपाल) आया हूं. लकिन रक्सौल में ही एक रिश्तेदार के यहां ठहरना हुआ है. सीमा पर बसा यह अनुमंडलीय शहर दूसरों की नजर में भले ही अंतराष्ट्रीय कस्बाई बाजार से ज्यादा मायने नहीं रखता हो. लेकिन एक पत्रकार व लेखक के तौर पर मेरी भावुक आंखें यहां 'कुछ' और ही तलाशती हैं. तो जेहन में कई तरह के विचार कुलांचे मारने लगते हैं.

हालांकि मेरे गांव कनछेदवा से रक्सौल की दूरी महज 40 किमी है. सो साल में एक दो बार जरुर आना होता है. लेकिन पूरे 11 वर्ष बाद उस पार वीरगंज जाना हुआ. जाहिर सी बात है इतने समय के अंतराल में कई सारी चीजें बदली हैं. कंक्रीटों के जंगल के बीच व्यस्त सड़क पर ट्रक, आटो व घोड़ा गाड़ी की कतारें लंबी हुई हैं. तो भागमभाग के बीच जाम में फंसा पूरा शहर धूल व धुआं के गर्द गुबार में उनींदा अंघिआया मालूम होता है. लेकिन नहीं बदला है तो टांगे वालों का खांटी भोजपुरी बोलने का वह जमीनी अंदाज.

यहां के आम लोगों में भोजपुरिया ठसक के साथ एक खास तरह का आत्मीय लगाव बरबस ही मन मोह लेता है. साथ ही गजब के अपनापन का अहसास होता है. बचपन से सुनते आया हूं यह अरबपतियों का शहर है. धनकुबेरों की अनगिनत सूची में यहां का पान बेचने वाला भी करोड़पति है. शायद यहां संचालित कई तरह के गोरखधंधे से यह अफवाह फैली हुई है. मसलन चरस, गांजा, हेरोइन, जाली नोट, आर्म्स, कंप्यूटर पार्ट्स, सोना, खाद, अनाज की तस्करी से लेकर रुपये की खरीद बिक्री तक. पर इतना तो तय है कि यहां पोस्टिंग के लिए हर सरकारी कर्मी तरसता है.

चाहे वह पुलिस, कस्टम, राजदूत हो या प्रखंड के अधिकारी. सुनने में तो यह भी आता है कि यहां तैनाती के लिए उंची बोली लगती है. यहीं नहीं दो नंबर की कमाई करने वालों की भीड़ हर रविवार को वीरगंज के बीयर बार व होटलों में अय्याशी के लिए उमड़ पड़ती है. वही शाम ढले शराब, श्बाब व कवाब से लेकर जुए के लिए कैसिनो की महफिल सज जाती है. इतना होने के बावजूद भी दोनों तरफ के लोगों में गजब की सरलता, सहजता व मौलिता हैं. नेपाली व भारतीय रुपए का मिला जुला चलन. भोजपुरी, हिंदी व नेपाली किसी भाषा में बात कर लीजिए, इसको लेकर कोई दुराग्रह, पूर्वाग्रह या बनावटीपन नहीं. जारी...