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01 January, 2019

पान बेंचने वाले इस पंडित जी के संघर्ष की दास्तान सुन, आप भी रह जाएंगे हैरान

मोतिहारी। मजबूरी का नाम भले ही महात्मा गांधी हों या ना हों। लेकिन संघर्ष का दूसरा नाम शर्मा जी जरूर हो सकते हैं। एक रोज रिपोर्टिंग को लेकर घूमते समय इनसे हरसिद्धि के भादा पुल के पास मुलाकात हो गई। औपचारिक बातचीत में इन्होंने जो आपबीती सुनाई, लगा उसकी खबर जरूर बननी चाहिए।

ओल्हा मेहता टोला पंचायत के ओल्हा निवासी 51 वर्षीय हरिनारायण शर्मा वर्ष 1986 के कॉमर्स स्नातक (बीकॉम) हैं। वे बताते हुए जैसे फ्लैश बैक में चले जाते हैं। कहते हैं कि वर्ष 79 की बात है। तब चन्द्रगोखुला हाई स्कूल, मच्छरगांवा में नौंवी में पढ़ रहा था। कुछ वर्षों पहले ही पिता रामचंद्र ठाकुर का निधन हो चुका था। मां-बाप का इकलौता पुत्र था और घर की आर्थिक स्थित बेहद ही दयनीय थी।

उस वक्त पूर्वी चंपारण के डीएम बेग जूलियस थे। एक जान-पहचान वाले के माध्यम से कलेक्ट्रेट में 18 रूपए के एडहॉक (दैनिक भुगतान) पर चपरासी की नौकरी पकड़ ली। मेरी तरह कुछ और भी लोग थे वहां। कोर्ट से सम्मन-वारंट पहुंचाना होता था। रोजाना स्कूल की हाजिरी लगाने के आधे समय के बाद मोतिहारी चला जाता। बस या कोई सवारी नहीं मिलती तो कई बार पैदल ही जाना होता।

बताते हैं कि कहने को रोजाना की मजदूरी मिलनी थी। लेकिन मिलता एक नया रुपया किसी को नहीं था। हां इतना जरूर था कि लोगों से ही कुछ खर्च मिल जाते। इस बेगारी के पीछे एक उम्मीद थी कि आगे चलकर नियमित हो जाएंगे। लेकिन सरकारी नौकरी भाग्य में शायद नहीं लिखी थी। वर्ष 80 में डीएम राजकुमार सिंह आए तो हम सबकी छंटनी हो गई।

वे अपने रौ में बोले जा रहे थे, वर्ष 81 में अच्छे नम्बरों से मैट्रिक पास किया। आगे की पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे। बाहर जाकर नौकरी करना ही एकमात्र चारा था। तभी पड़ोसी गांव दामोवृति के वकील हरिकिशोर वर्मा ने मनोबल बढ़ाया। बोले कि हम लोग भले ही चंदा मांगेंगे लेकिन तुम पढ़ाई जारी रखो। सभी के सहयोग से उत्तराखण्ड (तब उत्तरप्रदेश) के तिहड़ी गढ़वाल (अब उत्तरकाशी) स्थित राजकीय इंटर कॉलेज, चिन्याली शॉट में आइकॉम में नाम लिखवाया।

एक वर्ष बाद ही फिर आर्थिक संकट आड़े आने लगा। ऐसे में, दो ही उपाए बचे थे, या तो पढ़ाई छोड़ दो नहीं तो काम करो। इसी बीच एक परिचित ने सुझाव दिया कि पढ़ाई का खर्च निकालने के छुट्टी के दौरान काम करो। उस समय स्कूल में परीक्षा के बाद व सर्दी के समय लंबी छुट्टी मिलती। उसी दौरान ट्रेन पकड़ पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर स्थित सीमेंट फैक्ट्री में चला जाता। वहां सीमेंट से भरे बोरे के लोडिंग-अनलोडिंग का काम था। काम भले ही मजदूरी का था। लेकिन अच्छी मेहनताना मिलने से खर्च निकल जाते।

समय अपनी रफ्तार में बीतता रहा। हमारे इंटर स्कूल को डिग्री कॉलेज का दर्जा मिल गया। वर्ष 86 में यहीं से बीकॉम की डिग्री लेकर नौकरी के लिए दिल्ली चला गया। कुछ दिन इधर-उधर हाथ-पांव मारे। उस वक्त नोएडा में टी सीरीज की गिनती एक नामी कंपनी में होती थी। इसमें हजारों लोग कार्यरत थे। वर्ष 87 में मुझे भी यहां स्टोर कीपर की नौकरी मिल गई। बीकॉम होने के कारण एकाउंटिंग की जानकारी थी। सो, लेखापाल का काम करने लगा। सैलरी भी बढ़ गई।

कहते हैं, वर्ष 92 में कंपनी में कंप्यूटर लग गया। वहीं पर ट्रेनर के माध्यम से कंप्यूटर ऑपरेट करना सीखा। तब एकाउंट का काम एक्सेल सॉफ्टवेयर पर होता था। हालांकि आज की तरह उसमें फीचर नहीं होते थे। सीमित सुविधा थी।

हरसिद्धि के भादा पुल के पास पान विक्रेता


जहां अधिकांश लोग कंप्यूटर चलाने के नाम से ही डर जाते थे। मैं कुछ ही दिन में इसमें कुशल हो गया। वर्ष 10 में सेवा अवधि 23 वर्ष पूरी हो गई। और कंपनी की नीति के मुताबिक मैंने स्वैच्छनिक सेवानिवृति (वीआरएस) ले ली।

फिर वे गांव लौट आए। लेकिन बैठकर खाना उन्हें मंजूर नहीं था। पीएफ के पैसे से एक ऑटो खरीदकर चलाने लगे। और गृहस्थी की गाड़ी खिंचती रही। तीन बीघा जमीन है पास में। 58 वर्ष की उम्र होते ही नियम के मुताबिक उन्हें पेंशन भी मिलने लगेगा।

कहते हैं, बढ़ती उम्र का असर शारीरिक ऊर्जा पर भी पड़ता है। इस लिहाज से उन्होंने ऑटो चलाना छोड़ दिया। और कुछ महीने पहले ही पान की दुकान खोले हैं।

चलते-चलेते परिवार के बारे में जब मैंने पूछा। तो कवयित्री महादेवी देवी प्रसाद वर्मा की कविता की चंद पक्तियां सुनाते हुए बोले, अरे यह बताना तो भूल ही गया था। घर में पत्नी उर्मिला देवी है। एक बेटा विवेक कुमार है। वह बीकॉम पार्ट पार्ट वन का छात्र है।

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