90 का दशक भुलाए नहीं भूलता। इसी दशक में बचपन और किशोरावस्था दोनों ही बीते। तब मनोरंजन महंगा लेकिन दूध सस्ता था। संयुक्त परिवार था हमारा, पूरी तरह किसानी पर आश्रित। भले ही तब मनोरंजन के साधन न के बराबर थे। लेकिन घर में दूध, दही व घी की कमी नहीं थी।
बाबा जी दरवाजे पर दो-दो भैंस पाल रखे थे। एक दूध देना बंद कर देती तो दूसरी वाली ब्याती। ईया मिट्टी के चूल्हे पर कड़ाही में दूध खौलातीं। और पझाने लिए छोड़ देतीं। थोड़ी देर में ही उसमें मोटी छाली पड़ जाती। एक बड़े ग्लास में छाली के साथ दूध पीने को मिलता।
ईया अक्सर कहतीं, 'बाछा आ बेटा के दूध पिआवल बांव ना जाला।' ये कहने के पीछे उनकी पारंपरिक सोच थी कि दोनों ही जीव कमाने वाले होते हैं। इनसे ही गृहस्थी चलती है।
दूध निकालने के बाद सितुआ के सहारे कड़ाही में जमी मोटी खखोरी भी निकाली जाती। हम बच्चे खूब चाव से उसका लुत्फ उठाते। स्वाद की वैसी परम् अनुभूति, आज गाय के या चलानी दूध से मिलने से रही।
गोइठा की धीमी आंच पर नदिया में मीठा दही जमता। गंध इतनी सोंधी रहती कि चिउड़ा के साथ कोई भी एक-आध किलो दही गटक जाए। ईया सालों भर दही की छाली को एक बर्तन में इकठ्ठा करती रहतीं। फिर ‘रही’ से महकर 'लेउन' निकालतीं।
लेउन को आग पर खौला कर ठंडा किया जाता तो घी बन जाता। इस प्रक्रिया में कड़ाही में कथई रंग की पपड़ी जम जाती। उसे 'दाढ़' कहते। खाने में कमाल का स्वाद लगता।
दुआरे पर चारा काटने, भैंसों को खिलाने लिए एक जाना रखा गया था। उसके साथ बाबा ‘लेडीकट्टा मशीन’ से चारा काटते। इस दौरान मैं भी मशीन का हैंडल साथ पकड़कर चलाता।
यह एक तरह से जिम करने जैसा था। पूरे शरीर की कसरत हो जाती। कोई भी छह महीने लगातार मशीन चलकर चार काट ले तो सिक्स पैक एब्स बनना तय था। दोपहर में बाबा भैसों को चराने के लिए नहर की तरफ ले जाते।
मैं भी इसी फ़िराक में रहता कि वे कब भैंस लेकर निकलें। सरेह में पहुंचते ही बाबा भैंस की पीठ पर बैठा देते। वह जब चरते हुए उबड़-खाबड़ रस्ते से गुजरती। उसकी मांसल पीठ से काफी गुदगुदी होती।
भैंस की सवारी का वह रोमांच आज की स्कोर्पियो सरीखी लग्जरी गाड़ी में भी नहीं मिलेगा। एक दिन भैंस पर सवार मैं अपनी धुन में मगन था। बगल की झाड़ियों में कुछ खुरखुराने की आवाज आई।
ये सुनकर भैंस उछलते हुए भागने लगी। इसी चक्कर में पगहा से मेरा हाथ छूट गया। फिर क्या था, मैं नीचे और भैंस का अगला पैर मेरे देह पर...।
डरके मारे, अनहोनी की आशंका से आंखें बंद हो गईं। सेकेंड के सौवे हिस्से में मन में विचार आया, आज तो गया काम से।
लेकिन गनीमत था कि उसका पिछला पैर मेरे सीने पर नहीं पड़ा। वरना परलोक सिधारने में कोई हर्ज नहीं था। मामूली चोट व खरोच आने के साथ सही-सलामत बच गया। फिर तो दोनों कान पकड़ इस मटरगश्ती से तौबा ही कर ली।
©️®️श्रीकांत सौरभ
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