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21 February, 2020

LOVE स्टोरी - अधूरी चाहत

"मने एकदमे भुचड़ हैं आप! हम बोल रहे हैं कि ई टुटलका धरमशाला की पीछे जो जामुन का पेड़ है। उसकी तरफ़ देखिए। और आप हैं कि एने-ओने देखे जा रहे हैं।" मोबाइल से बात करते हुए जैसे ही लड़की ने हाथों को उठाकर इशारा किया। उजले कुर्ता-पजामा वाले लड़के से उसकी आंखें चार हुईं।

रणवीर कपूर स्टाइल की दाढ़ी में गजब का हैंडसम लुक था। इधर लड़का देखते ही रह गया उसे। क्या झक्कास लग रही थी! पांच फीट तीन इंच का कद। सांवलापन से कुछ उपर, गोरा नहीं लेकिन पानीदार चेहरा! तीखे नैन नक्श! कंधे तक कटे बाल, लाल रंग के शूट पर छींटदार दुपट्टा, पैरों में पाटियाला जुत्ती! कानों में पहने छोटे-छोटे ईयर रिंग्स!

जाने क्यों? समय थम सा गया, और दोनों की धड़कनें तेज हो गईं। लड़के का मन हुआ कि दौड़कर जाएं, और उसे अपनी बांहों में भर लें। लेकिन उसके साथ आई एक और लड़की को देखकर उसने यह रूमानी ख़्याल त्याग दिया।

आज शिवधाम में ग़ज़ब की भीड़ उमड़ी थी। जहां देखिए उत्सवी नज़ारा झलक रहा था। मंदिर में पुरुष-महिलाएं कतार में खड़े होकर शिव लिंग पर जल चढ़ाने की जद्दोजहद में थे। मालूम होता था सभी एक-दूसरे को धकियाते हुए निकलना चाह रहे हैं। कहीं भी तिल रखने भर की जगह नहीं बची थी। अटैची से निकालकर पहनी हुई नई सिंथेटिक साड़ी में महिलाओं का उत्साह चरम पर था। उनके माथे पर लगे तेल, सिंदूर की चिरपरिचित गंध नथुने से टकराते हुए जेहन तक पहुंच रही थी।

यहां से सीधे लौटकर वे मेले में सजी परचून की दुकानों पर जमघट लगाए हुई थीं। टिकुली के पत्ते, सिंदूर का गद्दी, आलता, रंग-बिरंगी चूड़ियां, कृत्रिम गहने, बच्चों के खिलौने। फेम एंड लभली, मिको, लकमा, दादर आंवला (फेयर एंड लवली, विको, लक्मे, डाबर आंवला नहीं) के क्रीम, तेल, पाउडर आदि से लेकर प्रसाद वाला लायचीदाना (मकुदाना) तक बिक रहे थे।

लड़की ने दादी को देखा। एक दुकानदार से लहठी की खरीदारी को लेकर मोलजोल कर रही थीं। "का बबुआ सुनत बाड़$। सौ रुपया लगा द ना भाव।"

उसने व्यस्तता दिखाते हुए कहा, "अम्मा जी, एक दाम दु सौ लगा देले बानी। अब पइसा नइखे त फ्री में ले जाई। मने ए से कम भाव में परता ना पड़ी। ना त अगिला दोकान देख लिहीं।"

लड़की ने भांप लिया कि दादी अब एक घण्टा से पहले फुर्सत पाने वाली नहीं हैं। "दादी जी, रउआ एहिजा रहेम। तनि हम दोकानवा से टेड्डी लेके आवत बानी।" इतना कह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना उसने सहेली का हाथ पकड़ा, और वहां से मंदिर के गेट की ओर से पुरानी धर्मशाला की ओर निकल गई।

"तु जा और वो धरमशाला का कमरा है न। वहीं बैठकर बतिया ले अपने राजा बाबू से। तब तक मैं इधर रहकर चौकीदारी करती हूं।" उसकी सलाह पर लड़की शर्माते हुए उधर चली दी। साथ में लड़का भी हो लिया।

आप पढ़ रहे हैं प्रेम कहानी - "अधूरी चाहत"

जजर्र धर्मशाला के कमरे में पहुंचकर उसने चेहरे पर हाथ रखना चाहा। लेकिन लड़की ने मुंह फेर लिया। "जाईए आपसे बात नहीं करेंगे।"

लड़के ने पूछने के लिहाज़ से कहा, "अब क्या हो गया जो नखरे दिखा रही हो? थोड़ी देर पहले तो मिलने के लिए बेचैन थी। लगातार मिस कॉल मारे जा रही थी।"

"वादा किए थे छाया दीदी की शादी में मिलेंगे। फिर आए क्यों नहीं उस रात?"

"ओहो, तो ये बात है। शायद तुम्हें याद नहीं। कहा था मैंने कि बीएससी पार्ट वन का प्रैक्टिकल चल रहा है। कोशिश करेंगे आने के लिए। लेकिन मोतिहारी से नहीं आ सका। सॉरी!"

"नहीं आए, ठीक है कोई नहीं। उस दिन तो बता तो देना चाहिए था।"

"तुम्हारा मोबाइल छीना गया है। फिर बताता कैसे? और आज किसके मोबाइल से बतिया रही थी? पहले कभी बताया नहीं?"

"सखी के फोन से लगाया था। दो महीने बाद उनकी भी शादी है। नहीं चाहती कि मोबाइल नबंर का परचार हो।"

"अच्छा, छोड़ो ये सब। देखो तो तुम्हारा लिए क्या लाया हूं?", लड़के ने एक लाल रंग का बड़ा सा रोंयादार टेडी बियर उसे थमाया।

"वाओ, कितना प्यारा लग रहा है! मेरा फेवरिट कलर है।" अब लड़की शिक़वा शिकायत भूल चुकी थी। उसकी चेहरे की मुस्कान और चमक दोनों ही बढ़ चली थीं।

"प्यारा है, लेकिन तुमसे ज्यादा नहीं!" कहते हुए लड़के ने उसे सीने से लगाया। उसके बालों से आ रही क्लिनिक प्लस शैंपू की भीनी भीनी खुशबू अपनी सी लगी। उसने लड़की के पलकों और माथा को एक-एक कर चुमा।

इस बार लड़की के तन-मन में अजीब सी गुदगुदी हुई। अपनी भावनाओं को छुपाती हुई बोली, "झूठ नहीं बोलिए। सब कहते हैं करिया कलूटे हैं हम।"

"ख़बरदार जो और कुछ अपने बारे में कहा तुमने। काले होंगे तुम्हारे दुश्मन।"

"इतना प्यार करते हैं हमसे।" लड़की का जवाब सुनकर उसने आंखों में आंखें डालकर कहा, "बहुत ज्यादा। मन करता है बस तुम्हें देखता ही रहूं। घण्टे, दिन, महीने, साल..!"

"बस बस, अब रहने भी दीजिए। कुछ ज़्यादा नहीं लग रहा, फिल्मों की तरह?"

यह सुन लड़के ने कहा, "विश्वास नहीं तो परमिशन दो। अभी तुमको भगा ले जाउंगा। सबकी नजरों से दूर।"

"अच्छा, कहीं लभेरिया तो नहीं हो गया आपको?" लड़की ने चुस्की ली।

कहानी आगे भी जारी है, थोड़ा इंतजार करिए...



©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

15 February, 2020

नियोजित शिक्षकों की कहानी - 'हड़ताल'

"मित्रो, इस कुम्भकर्णी सरकार की ईट से ईट बजा देंगे हम लोग। वेतनमान भीख नहीं, हमारा अधिकार है। और हम इसे लेकर रहेंगे!", यह कहते हुए जैसे ही टीईटी शिक्षक संघ के जिला अध्यक्ष नेता रामायण ठाकुर ने शिक्षक एकता के नारे लगाए। वहां पर उपस्थित शिक्षकों की तालियों की गड़गड़ाहट तेज हो गई।

उनका जोश दुगुना हो चला था। उन्होंने कहा, "अब मैं सम्मानित विद्वान शिक्षक दयाशंकर जी को संबोधित करने के लिए आमंत्रित करना चाहूंगा। भाई इकोनॉमिक्स में पीजी हैं। नेट भी निकाल लिए हैं। और शिक्षा जगत की लेटेस्ट जानकारी इनके पास पूरे डाटा के साथ रहती है।"

वेतनमान को लेकर बिहार में शिक्षकों की हड़ताल की तैयारी चल रही थी। महज़ कुछ ही दिन रह गए थे। करीब डेढ़ दर्जन संगठन एक साथ आ गए थे। वहीं कुछ संगठन अलग तिथि से हड़ताल करने के मूड में थे। लेकिन सबकी बस यहीं मांग थी, ‘उन्हें वेतन वृद्धि नहीं राज्यकर्मी का दर्जा दिया जाए।‘ इसके बावजूद गुटबंदी जारी थी। यहीं कारण था कि टीईटी शिक्षकों का समूह अलग बैठक कर चर्चा कर रहे थे। प्रतापपुर प्रखंड मुख्यालय स्थित बीआरसी में भी इसी की मंत्रणा चल रही थी।

संबोधन सुनकर दयाशंकर मास्साब खड़े हो गए। सजने-संवरने के शौकीन आदमी ठहरे, अविवाहित थे शायद इसलिए। करीने से संवारी गई लट वाली जुल्फ़ी में हमेशा क्योकार्पिन तेल चुपड़ी रहती। मालूम होता था कि तेल चुकर चेहरे पर लुढ़क जाएगा। कुर्ता-पजामा के उपर चढ़ी बंडी में उनका दुबला-पतला शरीर, मानो देश में पसरे कुपोषण का अर्थशास्त्र सीखा रहा था। जबर्दस्त पढ़ाकू थे अखबार का। इतना कि एक बार जब खोलते। पहले पन्ने पर अखबार के नाम के साथ राष्ट्रीय, प्रादेशिक, स्थानीय, संपादकीय, खेल, अंतर्राष्ट्रीय खबरों तक पहुंच जाते। और अंतिम पन्ने में नीचे छपे प्रेस और संपादक का नाम पढ़कर ही ख़त्म करते। सोशल साइट यूनिवर्सिटी के सस्ते ज्ञान से उन्हें आपत्ति रहती थी।

वहां से थोड़ी दूर एक कोने में जाकर मुंह में खाए पान को उन्होंने पीक के साथ थूक दिया। और लौटकर चिरपरिचित शैली में पूछा, "क्या आप बता सकते हैं? पूरे भारत में सबसे कम सैलरी कहां के टीईटी शिक्षकों को मिलती है?

"जी, बिहार में।", सुरेश दास ने कहा।

"बिल्कुल सही कहा आपने। लेकिन ऐसा क्यों है, कोई बताएगा?" जब उन्हें कहीं से जवाब मिलता नहीं दिखा। तो बोले, "दरअसल पूरे देश में बिहार एकमात्र राज्य है जो अपनी जीडीपी का साढ़े पांच प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है। लेकिन यह खर्च शिक्षकों के वेतन नहीं ट्रेनिंग और अन्य मदों में होता है।"

"आरटीई यानी शिक्षा अधिकार अधिनियम लगभग पूरी दुनिया में लागू है। हमारे यहां अक्सर आरटीई का हवाला देकर शिक्षकों के कर्तव्यबोध बताते हुए हड़काया जाता है। लेकिन उसी आरटीई में यह भी नियम है कि गैर टीईटी पास, अप्रशिक्षित या बिना वेतनमान के शिक्षक नहीं रखना है।", यह शिक्षक अशीषनाथ का स्वर था।

इस पर सुरेश दास ने समर्थन करते हुए कहा, "लेकिन हमारे बिहार में होता इसके उलटा है। वर्ष 15 में हड़ताल के बाद सरकार ने चाइनीज सेवा शर्त बनाकर आधा-अधूरा वेतनमान दिया। जिसका खामियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं।"

"वहीं तो मैं बता रहा था। इस साजिश की शुरुआत वर्ष तीन और पांच में ही 'कागज दिखाओ नौकरी पाओ' वाली नियोजन नीति के साथ की थी। हमारे सीएम साहब की मंशा साफ थी कि 15 सौ रुपए मासिक के मेहनताना पर शायद ही योग्य आदमी शिक्षक बनना चाहे। मजबूरी में कुछ योग्य शिक्षक आ भी गए तो विरोध नहीं जता सकेंगे। अयोग्य की संख्या ज्यादा रहेगी इसलिए।" अशीषनाथ ने कहा।

बीच में ही रहमान अली ने कहा, "सरकार अपने मंसूबे में कामयाब भी रही। एक समय था इन शिक्षकों को नियमित वाले छूत के समान समझते थे। नियोजितों ने कई बार हड़ताल, आंदोलन किया। लेकिन हर बार सरकार ने उनकी आवाज़ दबा दी। कुछ अपनी करनी रही। और कुछ ग्रामीणों में ऐसी धारणा भी बना दी गई। फर्जी कागज़ पर बहाल हैं। अयोग्य हैं। पढ़ाते नहीं। ये इतने के ही लायक हैं। पढ़ाना है नहीं, वेतन चाहिए पूरा। आदि आदि।"

"और उसी का नतीज़ा हम भी आज भुगत रहे हैं। यदि सरकार ने बिना एंट्रेंस या उचित कागज़ जांच कराए नियोजन किया। इसमें हमारी क्या गलती है? यह कहां का वसूल है कि कुछ लोगों के चलते सभी को वाज़िब हक़ से वंचित रखा जाए। आज लाखों पढ़े-लिखे युवक सड़क पर हैं। उनको उचित वेतनमान देकर बहाली करनी की महती जिम्मेवारी भी सरकार की ही है।", अबकी राबिया ने सवाल उठाया।

सुरेश दास बोले, "इसमें हमारी गलती नहीं, सरकार की चाल रही है। 70 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे आज भी सरकारी स्कूलों में ही ककहरा का 'क' या अल्फाबेट का 'ए' सीखते हैं। सरकार ने शुरू से ही कम वेतन में शिक्षकों को रखा। और वोट बैंक के लिए अन्य लुभावने योजनाओं में पैसे लुटाए गए। मक़सद अभिभावकों को खुश रखना था। वैसे भी योग्य शिक्षक तमाम तरह की तरह गैर शैक्षणिक योजनाओं एमडीएम, बीएलओ, जनगणना, सर्वे में नहीं उलझाए जाएं। कम सैलरी देकर उन्हें हीनता से ग्रसित नहीं बनाया जाए। और वे स्कूल में ईमानदारी से पढ़ाने लगे। तो पढ़-लिखकर गरीब के बच्चे अधिकार नहीं मांगने लगेंगे।"

"लेकिन ये तो लोकतांत्रिक मूल्यों का सरासर हनन है। हमारे संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई है, शोषणकारी नहीं। जहां राज्य सरकार कितना भी निजी क्षेत्र को बढ़ावा दें। सरकारी संस्थानों और कर्मियों को हर हाल में प्राथमिकता देनी है। इसमें शिक्षा का स्थान सबसे उपर है।", ये बात चंदन झा ने कही।

उन्होंने वहां बैठे अन्य लोगों की ओर एक नजर डाली। लगा कि सभी उनको चाव से सुन रहे हैं। बोले, "भले ही सरकार ने मुख्य मुद्दे से भटकाकर आम जनता के बीच हमारी छवि धूमिल की है। लेकिन कहना चाहूंगा आप सबसे। पड़ोस, गांव का लोग मज़ाक उड़ाते हैं न हमारा। कल उनके भी बच्चे जब हाथों में कई तरह की डिग्रियां लिए धक्के खाएंगे तो आटा-चावल का भाव समझ में आ जाएगा।"

दयाशंकर की मुख मुद्रा अब गंभीर दिखने लगी थी। उन्होंने हाथों से इशारा किया तो सभी चुप हो गए। बोले, "सरकार ने यह क्रम वर्ष 10 तक जारी रखा। और लाखों शिक्षकों की बहाली कर ली। उस बाद हम टीईटी शिक्षकों की बारी आई। सरकार की मिलीभगत से एक तो मीडिया ने पहले ही शिक्षकों की छवि खराब कर डाली थी। उस पर नेतागिरी के फेरे में सुप्रीम कोर्ट में भी हम अपना पक्ष सही तरह से नहीं रख पाए।"

"लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पैराग्राफ 78 में तो स्पष्ट निदेश दिया है टीईटी शिक्षकों के लिए?", अशीषनाथ ने कहा।

"आशीष सर, ध्यान दीजिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है निर्देश नहीं। राज्य सरकार चाहे तो हम टीईटी शिक्षकों को वेतनमान देने पर विचार कर सकती है। लेकिन सरकार यह सुझाव मानने से रही। उसे शैक्षणिक गुणवत्ता या योग्य शिक्षकों से क्या मतलब बनता है? यहां तो वोट बैंक की राजनीति है। और संख्या में हम एक तिहाई हैं। हम लोगों को राज्यकर्मी का दर्जा देने से जितना फायदा होगा। उससे ज्यादा सरकार को वोट का नुकसान।"

"इसका मतलब हुआ सभी को एक साथ हड़ताल पर रहने में ही भलाई है? लेकिन कुछ टीईटी और माध्यमिक शिक्षक संघ बाद के दिनों में हड़ताल पर जाने के पक्ष में क्यों हैं?", राबिया ने पूछा।

इसके जवाब में संघ के जिलाध्यक्ष रामायण ठाकुर ने कहा, "यदि सरकार हमारे संवैधानिक हकों को नहीं देती। तो उसी संविधान में हमे विरोध जताने का अधिकार भी दिया है। 'संघे शक्ति कलियुगे सुने हैं न?' समय के मुताबिक उचित निर्णय तो यहीं रहेगा। हम सभी मिलकर एकता दिखाएं। और एक साथ हड़ताल पर चलें। वैसे जिनको इसी बहाने राजनीति चमकानी है। उनकी बात और है।"

"वो तो ठीक है। लेकिन इस बात की क्या गारंटी है वर्ष 15 की तरह इस बार फिर हमारे साथ धोखा नहीं हो?", सुरेश दास ने असमंजस में सवाल उठाया।

तो उन्होंने कहा, "इस बार बजाप्ते सभी मुख्य संघों की लिखित समन्वय समिति बनी है। ऐसे में कोई नकारात्मक राजनीति कर बदनाम नहीं होना चाहेगा। सोशल साइट्स, व्हाट्सएप्प ने हम सबको बेहद सशक्त बनाया है। हर पल की सूचना मिल जाती है। इसलिए एक या दो नेता के चलते हड़ताल का टूटना नामुमकिन है।"

उनके इतना कहते ही उपस्थित शिक्षकों ने एक स्वर में हामी भरी। एक बार फिर से अभियान गीत गाया सबने। सादे कागज पर प्रस्ताव पास कर घोषणा हुई। और अगले सप्ताह के पहले दिन से ही हड़ताल पर जाने के निर्णय के साथ बैठक समाप्त कर दी गई।


©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

11 February, 2020

विद्या कसम है तुमको, ये 'लभ लेटर' जरूर पढ़ना

प्यारी सैंकी ,

आज नौ फरवरी है। हिंदी के लास्ट परीक्षा के साथ हमारा आईएससी का एक्जाम बीत गया। अंगरेजी आ केमेस्ट्री तनि कमजोर गया है। मने चिंता की बात नहीं है। प्रैक्टिकल का नंबर बढ़ाने के लिए कॉलेज से मैनेज कर लिए हैं। मम्मी भी गांव के तीन पेड़ियां वाले जीन बाबा की भखौती भाखी है। हमारे लिए आछा नम्बर से पास करना, जीवन-मरण का सवाल है। पापा जी बोल दिए हैं कि रिजल्ट में फस्ट डिवीजन से कम लाया। तो मामा जी के संगे लुधियाना कम्बल फैक्ट्री में भेज देंगे, काम सीखे।

फिलहाल तुमको बहुत मिस कर रहा हूं। चिट्ठी भेजने का नहीं, तुमसे बतियाने का मूड था। लेकिन बतियाए कैसे? जबसे तुम्हारा मोबाइल छिनाया है, बात भी तो नहीं हुई। मने दोसर उपाय का है। वैसे दिल का हाल लिखकर बताने में जो मजा है। उतना फोन पर बतियाने में नहीं। कल कइसहु तुम्हारे पास हेमवा से चिट्ठी भेज देंगे। तनी जादा लिखा गया है। रिक्वेस्ट है, पूरा पढ़ना। एक सांस में नहीं त थोड़ा-थोड़ा करके।

याद करो। ठीक तीन बरिस पहिले पकड़ी बाजार पर गोलू सर के कोचिंग में हमलोग मिले थे। मैटिक परीक्षा के तैयारी के लिए नया-नया एडमिशन हुआ था। सर हाई स्कूल में साइंस के नामी टीचर थे। लेकिन 'नाम' का प्रयोग स्कूल की पढ़ाई से जादा अपना 'दोकान' चमकाने में करते थे। गजबे भीड़ जुटती थी। दू कोस के एरिया में जेतना भी मैटिक का छात्र था। सब इहे कहता था कि उनके पास एक बार जेकर नाम लिखा गया। ओकर पास होना तय है।

कोचिंग हॉल में 25 गो बरेंच रखा था। एक बैच में 100 विद्यार्थी पढ़ते। अगिला पांच बरेंच लड़की सब के लिए रिजर्व। सर के बारे में चरचा थी। मैथ, केमेस्ट्री, फिजिक्स तीनों विषय पर बराबर पकड़ रखते हैं। बोर्ड पर लिखते तो सभी कोई अपनी कॉपी पर एकदम रचकर लिख लेते। समझ में आए या नहीं। वो खुदे कहते थे कि साइंस समझे वाला चीज है, रटे वाला नहीं। क्लास के बाद नोट्स के फोटो कॉपी लेवे खातिर अइसन हल्ला मचता। जइसे तकिया के नीचे रखकर कोई सुत जाएगा। तो भी फस्ट डिवीजन मिल जाएगा एक्जाम में।

हम तो एक बरिस में 30-40 क्लास अटेंड किए होंगे। एतना दिन में किताब का कवनो चैप्टर माथा में पूरी घुसा कि नहीं। याद नहीं। मने लड़की सबको अगिला बरेंच पर बैठाने का राज, हमको जरूर बुझा गया। बोर्ड का एक्जाम हुआ। मैथ में कम आए तीन नम्बर से हम फस्ट डिवीजन लाते-लाते रह गया। तब केतना हंगामा मचा था घर में। पापा जी तो पूरा फायर हुए थे सुनकर। एतना कि आपन बाटा के पुरनका संडक चप्पल हमरा देहे पर तोड़ दिए। पढ़ाई छोड़ावे के मूड में थे। लेकिन मम्मी के निहोरा कइला के बाद मान गए। ओकरा बाद हम आईएससी करने शहर चले गए।



शहर के कोचिंग में भी उहे हाल है। हर साल गांव से हजारों बच्चा पहुंचते हैं। यहां पढ़ाई के नाम पर भरपूर लुटाई है। अलग-अलग नाम से सैकड़ों 'गोलू सर' करोड़पति हो गए हैं। 95 परसेंट पढ़निहार भले चपरासिया ना बने। मने सरकारी कम्पीटिशन निकाले के पूरा गारंटी लेते हैं। लमहर दुरभाग है बिहार का। सरकारी स्कूल में पढ़ाई तो कहिया से रामभरोसे है। मातृभाषा भोजपुरी के बदले बचपन से हमनी के हिन्दी में साइंस का कोरामिन दिया जाता रहा है। नतीजा का हुआ, भोजपुरी बिगड़ी। हिंदी भी गड़बड़ा गई। और अंगरेजी तो जिनगी भर सीखना ही है। अब तो भगवाने मालिक हैं हिंदी मेडियम वालों का।

अरे हम भी केतना बुरबक है? का अटपट लिखे जा रहे हैं। मेन बात पर आते हैं। तुमको पता है पिछले साल दो बार घर आया था। होली के दिन ललुआ के संगे अपाची से तुम्हारे गांव गए थे। तुम बरामदा में खड़ी दिखी थी। मने हमको चिन्ह नहीं पाई। रमपुरवा वाला 'छुछेर' सब एतना ना हरिहरका रंग पोत दिया। हमको एकदमे बानर बना दिया था।

दूसरी बार, तुम्हारे छठ घाट पर गए थे। सिरसोपता के आगे चउका-मउका बैठे हुए गुलाबी सलवार शूट में केतना सुनर लग रही थी। मन हुआ कि सेल्फी खींच ले नुका कर। मने मुस्टंडे लड़के मुझ अजनबी को कटाह नजर से घूर रहे थे। एहि से उहां से चलते बने। मने इस बार वादा है। बहुत जल्दी तुमसे मिलकर रहेंगे, चाहे कुछो हो जाए। दिन और समय तय कर तुम लौटती चिट्ठी में बता देना। अब बहुत हो गया रखते हैं।

चलते चलते बस एतने कहेंगे, आई लभ यू मेरी करेजा!

तुम्हारे जवाब के इंतिजार में,

तुम्हारा अपना,

सोनू

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस लघु व्यंग्य कहानी के पात्र, जगह पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

08 February, 2020

लघु कहानी - मन की बात

पत्नी - "ए जी, सुनते हैं पमी के पापा! भेलेन्टाइन डे नियरा गया है। उस दिन फिलिम दिखाने ले चलिएगा न 'सिनेपोलिस' में?"

ऑफिस के लिए तैयार होते पति - "तुम भी न एकदमे सठिया गई हो। छव बरिस हो गया बियाह हुए। बाल-बच्चेदार हो गई। मने..!"

पत्नी - "त का बूढ़ा गए हैं हमलोग?"

पति - "अब अपने बारे में कह सकता हूं। तुमको कुछ कहने का अवकात हमको कहां? नहीं तो भेलेन्टाइन में देरी है। अभिए 'बेलन टाइट' करने लगोगी।"

पत्नी - "जादे बहाना मत बनाइए। मैरेज से पहिले फोनवा पर कहते थे। करेजा, जानू, जानेमन तुम्हारे लिए ई करेंगे, ऊ करेंगे। मने आज ले मन तरसते रह गया। कहियो त होटल, रेस्टोरेंट ले चलेंगे। हाथ में हाथ मिलाकर बतियाएंगे, सीरियल में जइसन होता है।"

पति - "वहीं तो हम भी कह रहे हैं कि बियाह से पहले तुम्हारे देह से रेकसोना बॉडी स्प्रे महकता था। अब आटा, तेल, मसाले की गंध आती है। सब दिन एकही समान थोड़े रहता है।"

पत्नी - "त का करे? घर के साफ-सफ़ाई, खाना बनाना छोड़ दे। आ दिन भर सेंट लगाके सुतल रहे, बोलिए? मने इसके लिए तो नोकर रखना होगा न?"

पति - "वो तो हम हैं कि बक्सर के हेठार (दियरा) से सीधे तुमको राजधानी पटना लाए। ना त केतना अगुआ आगे-पीछे कर रहे थे।"

पत्नी - "हम कवनो फ्री में आए हैं का? पूरे 10 लाख कैश गिने थे बाबूजी। हमसे बढ़िया त सखी है। पांचे लाख में सेट हो गई थी। गुड़गांव में हसबैंड के साथ रहती है। शादी उसके लिए केतना लकी रहा! 25 हजारे कमाने वाला पति बाद में एमबीए कर लिया। आज लाख रुपए महीने में कमा रहा। अपना फ्लैट, अपनी गाड़ी है। व्हाट्सएप्प पर पिक भेजते रहती है। मॉल में खरीदारी करने, रेस्टोरेंट में पिज्जा, बर्गर खाने, मल्टीप्लेक्स में फिलिम देखने का।

पति - "ई बात तो अब अगुआ न बताएंगे कि काहे हमरा से बियाह कराए? ऊ सब पापा जी से कहे थे। लड़की गांव में रहती है। मने बक्सर कॉलेज से बीए में पढ़ रही है। का गांव, का देहात, कवनो माहौल में रखिएगा। वहीं सेट कर जाएगी। ये भी बताए थे कि लड़की तनी सांवर है। पटना जइसन शहर में बिजली बत्ती के अंजोरा रहेगी त गोरा जाएगी।"

पत्नी - "उहे अगुवा तो हमारे बाबू जी से कहे थे कि लड़का पटना सचिवालय में सेटल है। अभी नोकरी टेम्परोरी है मने आगे चलकर परमानेंट हो जाएगा। आपकी बेटी राज करेगी। हूं..! इहे 'राज' लिखा था हमारे किसमत में!"

पति - "तुमको और कोई टाइम नहीं मिलता है, बहस के लिए। जब निकलना होता है, तभी शुरू हो जाती हो। घड़ी में देखो, साढ़े आठ हो गया है। नौ बजे के बाद पहुंचा तो हाजिरी कटा समझों।"

पत्नी - "अब त कहबे करेंगे। जवाब नहीं सूझता है तो कोई न कोई बहाना कके निकल जाते है। रात को नींद ही लगती है। दिन में फुरसत नहीं है। संडे को इयार दोस्त से मिलने निकल जाते हैं। तो हमसे बतियाने का मोका कब है?"

पति - "देखो, तुम सब बुझते हुए भी बच्चों वाली बात करती हो। सचिवालय में नोकरी है लेकिन ठेका वाली। पहले 15 मिलता था। अब 25 हजार हो गया है। वो तो कुछ उपरवार हो जाता है। नहीं तो घर से खरचा मंगाना पड़ता। मेरे जैसे हजारों लोग इसी तरह से सरकारी के नाम पर खट रहे हैं। सबको आशा है कि एक न एक दिन वेतनमान मिल जाएगा। अब पमी भी चार साल की ही गई। अप्रैल में नाम लिखवाना है। फिजूलखर्ची से काम कैसे चलेगा, तुम्हीं बताओ?"

पत्नी - "बात बनाना कोई आपसे सीखे। हम कवनो नहीं समझते घर की स्थिति। मने एगो फिलिम दिखाने का बात मुंह से का कह दिए। आप लगे परवचन सुनाने। अरे कवनो हम जाइए रहे थे का? खाली हां, कर देते तो मन खुश हो जाता। पति हैं आप। दिल के बात आपसे नहीं कहेंगे तो का दोसर मरद को सुनाएंगे! अब आप ऑफिस जाइए। कहीं सांचो के लेट नहीं हो जाए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। लेकिन एक सीख है, उन अभिभावकों के लिए। जो यह सोच कर बेटी की शादी करते हैं कि 'सरकारी' नौकरी वाला 'दूल्हा' खुश रखेगा उनकी लाडली को। शादी के मामले में 'लड़का' या 'लड़की' किसी भी पक्ष या अगुआ को वस्तु स्थिति नहीं छुपानी चाहिए। और पति-पत्नी भी यह बात अच्छी तरह से समझ लें, शादीशुदा ज़िंदगी कोई सीरियल नहीं। जिसमें हर पल मौजमस्ती, सिनेमा, फैशन, प्रपंच दिखते रहता है। यह एक जिम्मेवारी है और हर हाल में सामंजस्य बनाकर चलना होता है।)


लघु प्रेम कहानी - वैलेंटाइन वीक

मोबाइल पर चंदू : "हैलो, चिंकी।"

चिंकी : "हां, हैपी रोज डे!

चंदू : "अरे वाह, सेम टू यू! विश करने के लिए पहिले हम फोन किए। आ उल्टे तुम्ही..! लेकिन तुम कैसे जानती हो?"

चिंकी : तो का हम नहीं जानते हैं? आजु कवन फेस्टिबल है!"

चंदू : "फेस्टिबल?"

चिंकी : "और क्या? भले आप इंटर करे मोतिहारी चले गए। आ हम गांव में रहते हैं। एकर मतलब ई नहीं हुआ कि हमको कुछो नहीं पता।"

अंजान बनते हुए चंदू ने पूछा : आछा। तो क्या जानती हो?"

चिंकी : "परसों सैंकी दीदी मिली थी मटकोरा में। वो बताई थी हमको।"

चंदू : "अब ये 'सैंकी दीदी' कौन है?"

चिंकी : "अरे बताया तो था। चंदन चाचा की बेटी पूनम दीदी के बारे में। उन्हें घर में प्यार से सब 'सैंकी' कहते हैं। कितनी जल्दी भूल जाते हैं आप? वो मुजफ्फरपुर से बीसीए कर रही हैं। पट्टीदारी में बियाह है तो आई हैं।"



चंदू : "ओहो! याद आ गया। हम तो भूलिए गए थे। वैसे और क्या कह रह थी दीदी?"

चिंकी : "और का? बता रही थी कि आज के दिन बॉयफ्रेंड अपने लभर को गुलाब का फूल देकर परपोज करता है।"

चंदू : "गुलाब का फूल देता है कि परपोज करता है?"

चिंकी : "जाइए हम बात नहीं करेंगे। आप तो हमको एकदमे बुरबक समझ लिए हैं। पत्रकार जैसा कोसचन पर कोसचन कर रहे हैं।

चंदू : "हाय मेरी जान, मेरी करेजा! तुम तो बुरा मान गई। सॉरी, सॉरी!"

चिंकी : "नहीं, बुरा काहे मानेंगे? जेतना जानते थे, उतना बता दिए। आपके जैसा हम यहां, कवनो एंडोरायड मोबाइल थोड़े रखे हैं। जो फेसबुक आ व्हाट्सएप्प से सब बात जान जाएंगे। बोलिए।"

चंदू : "यही तो बता रहा था मैं। लेकिन जानना चाह रहा था कि मेरी डार्लिंग कितना जानती है?"

चिंकी : "आछा तो ये बात है। बाबू साहब मेरा इम्तिहान ले रहे थे। कोई बात नहीं। हमको भी इस साल मैटिक पास कर जाने दीजिए। एक बार शहर पहुंच गए। फिर पूछिएगा हमसे।"

चंदू : "इसीलिए तो तुमसे दिल का सब बात शेयर करता हूं। तुमको बता दूं कि आज से वेलेंटाइन वीक शुरू हो गया है। पूरे एक सप्ताह चलेगा। पहला दिन रोज़ डे, दूसरे दिन प्रपोज़ डे, तीसरे दिन चॉकलेट डे, चौथे दिन टेडी डे, पांचवें दिन प्रॉमिस डे, छठे दिन हग डे, सातवें दिन किस डे। और अंतिम दिन वैलेंटाइन्स डे।"

चिंकी : "बाप रे..! एतना तो हम जानते ही नहीं थे।"

चंदू : "जानेमन, एहि से तो बता दिया तुमको। अब बोलो?"

चिंकी : "खैर, छोड़िए। ये बताइए कि आपका आईएससी का एक्जाम कइसन जा रहा है?"

चंदू : "अभिए तो मैथ का पेपर देकर लौटे हैं। केमेस्ट्री का थिउरी थोड़ा गड़बड़ाया है। मने प्रैक्टिकल से मेक अप हो जाएगा। हिंदी का पेपर बाकी है। सोमवार को लास्ट है। तुम अपना सुनाओ?"

चिंकी : "आप जानते ही हैं। साइंस तो हमारा फेवरिट सब्जेक्ट है। आर्ट और अंगरेजी में तनिका कमजोर हैं। लेकिन गेस पेपर रट रहे हैं। इनमें पास तो कर ही जाएंगे।"

चंदू : "चलो ठीक है। तुम्हारा सेंटर तो अरेराज पड़ा है न?"

चिंकी : "हे भगवान इहो भूल गए है। आप भी न। रक्सौल में सेंटर पड़ा है। और 17 से परीक्षा है। बूझ गए न।"

चंदू : "चलो, टेंशन की कोई बात नहीं है। तब ले हमारा एक्जाम तो बीत ही जाएगा। आएंगे तुम्हारे सेंटर पर सोनुआ के संगे। उसके भइया की शादी में दहेजुआ पल्सर मिला है। 30 का एभरेज देता है। खरचा के डरे कोई चलाता ही नहीं। हमने तेल डलवाने के नाम पर सेटिंग कर लिया है, परीक्षा भर के लिए।"

चिंकी : "ठीक है रखिए अब। बाद में बतियाते हैं। कोई बाहर से दरवाजा ठुकठुका रहा है।"

चंदू : "ऐसे नहीं। पहले एगो 'किस्सी' दे दो तब काटेंगे फोन।"

चिंकी : "इसमें मांगने की क्या जरूरत है। सब आपका ही है। ले लीजिए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

06 February, 2020

'क्या वाकई में बसंत सबको एक समान महसूस होता है?'

सरेह में दूर-दूर तक फैले खेतों में लहलहाते गेहूं के हरे-पौधे! उनके बीच में उगे पीले-पीले सरसों के फूल! आंखों को ग़ज़ब का सुकून दे रहे हैं। यूं कहें कि प्रेम आंनद बरसते महसूस हो रहा है। दिल को जवां करती फ़फ़नाकर बहती पछुआ ब्यार! तन के साथ मन को भी झुमाते हुए सिहरा रही है! माना कि ऋतुराज बसंत की जवानी उफ़ान पर है। क्या कवि, क्या साहित्यकार? सभी इसकी मादकता में मंत्रमुग्ध हुए जा रहे हैं। फ़ेसबुक से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं तक, काव्य रस या गद्द रूप में महीने भर इसका ही गुणगान होगा।

लेकिन इसी रूमानी मौसम में, हमारे मुंह में निकल आए छाले। ओठ पर पड़े फोफले के फटने से बना घाव! जिस पर ना चाहते हुए भी, जीभ का चले जाना। बार-बार सुखी पपड़ी कुरेदकर घाव को ताज़ा कर देती है। 10 दिन तो हो ही गए इसे झेलते। इस पर भी क्या किसी लेखक की नजरें इनायत हो रही है? सड़क से गुज़रते हुए, रास्ते में आठ वर्ष की अनपढ़ झुनिया दिख गई। रोज़ की तरह दुआरे पर गोबर से चिपरी पाथ रही थी। आज तक उसने स्कूल का मुंह नहीं देखा।


थोड़ी दूर पर ही किशोरियों की झुंड आइस-पाइस खेल रही थी। खेत के मेंड पर उनकी बकरियां चर रही थीं। वहीं पर गेंहू के खेत में फुलाए सरसों के बीच बैठी हुई काकी दिखीं। वो दुबककर बथुआ का साग खोंट रही थीं। फटी-पुरानी चादर ओढ़े हुए, ठंड से सिर और कान को बचाने के एवज़ में पीठ को उघाड़ की हुई थी। क्या है कि बढ़ती उम्र के साथ, जाड़ का भी एहसास बढ़ जाता है न! कुछ और आगे बढ़े तो हीरामन काका पटवन के बाद फसलों में खाद छीट रहे थे। हमेशा के तरह निर्विकार मुद्रा में अपने काम में लीन लगे।

बचपन से देखते आ रहा हूं उनको। जब से होश संभाला मैंने। उन्हें खुलकर हंसते या बोलते नहीं देखा। मौन रहते हैं, स्थिर प्रज्ञता की हद तक! लेकिन सालों भर खेतों में खटते रहते हैं। दो बेटों को पढ़ाकर नौकरी में सेट करा दिए। एक बेटी थी, उसके भी हाथ पीले कर दिए। चुपचाप दो बीघे ज़मीन भी लिखा लिए। सब कहते हैं, काका मनहूस लेकिन भाग्यशाली आदमी हैं। इसके बाद मन में सोच उठती है। क्या इन सभी को भी 'बसंत' महसूस होता होगा, मेरी और आपकी तरह? या फिर यह रचनात्मक लोगों की वैचारिक विलासिता भर है?

©️®️श्रीकांत सौरभ