ऑर्गेज्म यानी चरमोत्कर्ष... यह शब्द कुछ दिनों से फेसबुक पर ट्रेंड में है। और टारगेट में हैं लेखिका सह पत्रकार अणुशक्ति सिंह। हालांकि इसके अर्थ के बारे में हम यहां कोई चर्चा नहीं करेंगे। जिज्ञासा शांत करने के लिए आप गूगल से लेकर यूट्यूब तक पर सर्च कर भरपेट जानकारी ले सकते हैं। अंग्रेजी में बेहतर ढंग से परिभाषित कंटेंट मिल जाएंगे।
भारत में सेक्स जैसे मुद्दे को लेकर शुरू से ही टैबू रहा है। शुरू से मतलब सभ्यता के जन्म से। शायद हिप्पोक्रेसी में जीना हमारे जीन में शामिल है। जहां कंबल में मुंह ढककर घी पीना सनातनी परंपरा है। तभी तो हम जानबूझकर भी भूल जाते हैं या नासमझ होने का ढोंग करते हैं कि 'कामशास्त्र' जैसी कालजयी किताब के लेखक वात्स्यायन यहीं के थे।
काम व तंत्र कला को प्रदर्शित करती खजुराहो, सूर्य मंदिर, मोढ़ेरा, भोरमदेव, रणकपुर, हम्पी का विरूपक्षा मंदिर, अजंता व एलोरा की रहस्मयी मूर्तियां भी यहीं पर बनी हैं।
आज के फाइव जी दौर में जहां सूचना सबकी हथेली में है। किसी से कुछ भी छुपा नहीं रहा। लोगों को रील पर अर्धनग्न कपड़े पर फूहड़ गाने कमर मटकाती नवयौवनाओं से, रियल्टी के नाम पर टीवी सीरियल, वेब सीरीज में परोसी जा रहीं अश्लीलता से कोई आपत्ति नहीं है।
क्या इन सबसे यौनिक कुंठापन को बढ़ावा नहीं मिलता। लेकिन विरोध के बजाए जिसको जहां मौका मिलता है, फेसबुक, इंस्टाग्राम, अल्ट, उल्लू, नेटफ्लिक्स, अमेजन जैसे एप्प पर नयन सुख लेने से नहीं हिचकता।
देश में पोर्न बैन होने के बावजूद वीपीएन, प्राइवेट ब्राउजर से रियल स्कैंडल, एमएमएस, वायरल, लीक वीडियो, क्लिप देखने वालों की कमी नहीं। अंतराष्ट्रीय सर्वे में तो आ ही चुका है कि भारत में सबसे ज्यादा पोर्न देखा जाता है। लेकिन एक प्रगतिशील विचारधारा की अणु ने नारीवाद के पक्ष में ऑर्गेज्म को लेकर एक पोस्ट क्या डाला। लंगोट के पक्के 'मां भारती के सपूतों' में वैचारिक स्खलन हिलोरें मारने लगा है। जितने मुंह उतनी बातें हो रही हैं। मामला दक्षिणपंथ बनाम वामपंथ तक पहुंच गया है।
यदि उन्होंने लिख भी दिया तो इसमें अनैतिक क्या है। क्या उनका लिखना आत्ममुग्धता है। क्या उन्होंने महज पब्लिसिटी के लिए कपोल-कल्पित बातें लिखीं हैं। यदि हां तो इस पर बहस के लिए कुछ बचता नहीं। यदि नहीं तो तो कभी न कभी, किसी न किसी को इस बाबत पक्ष रखना ही था। जिन्हें उनका पोस्ट अनैतिक लग रहा है। वे बता सकते हैं कि नैतिकता का पैरामीटर क्या है।
एक तरफ हम महिला सशक्तिकरण के नाम पर उनके हिमायती होने का ढोंग करते हैं। दूसरी तरफ कोई महिला किसी गंभीर विषय पर सवाल उठाती है तो लंपटता की हद तक उसे नीचा दिखाने की ताक में पड़ जाते हैं। इस तरह की दोहरी मानसिकता से हम कब बाज आएंगे।
अणु वर्षों से मेरी फेसबुक मित्रता सूची में शामिल हैं। वे अनेक मुद्दे पर बेबाकी से बातों को रखती हैं। गाहे-बगाहे उन्हें पढ़ते रहता हूं। एफबी प्रोफाइल के मुताबिक उन्होंने माखनलाल चतुर्वेदी विवि से जनसंसचार की पढ़ाई की है। बीबीसी जैसे नामचीन संस्थान में काम कर चुकी हैं। और सबसे बड़ी बात कि सुदूरवर्ती सहरसा जैसे पिछड़े जिले से निकली हैं। ये जिला बिहार में आता है। वहीं बिहार जहां किसी समय औरतों की अनगिनत समस्याओं को उजागर करने के लिए भिखारी ठाकुर को लौंडा बनना पड़ा था।
लेकिन एक महिला की दमित भावना को कोई महिला ही व्यक्त करें वो हमें कतई मंजूर नहीं। इसीलिए हम हर उस पोस्ट पर चील-पों मचाने लगाते है जो पुरुषवादी सामंती सोच को चुनौती देता है। क्या ये सामाजिक विडंबना नहीं मानी जाएगी, जिसमें ऑर्गेज्म को चरित्रहीनता से जोड़कर देखा जा रहा है।
जबकि सर्वे के आधार पर बकौल अनु जी, 70 प्रतिशत महिलाओं में ऑर्गेज्म की कमी वाली बात मान लें। तो इसका सबसे बड़ा कारण 70 प्रतिशत पुरुषों का सेक्स को लेकर सही ज्ञान नहीं होना निकलकर आएगा। अन्यथा राजधानी दिल्ली, लखनऊ से निकले 'खानदानी शफाखाना' जैसी टेंटनुमा दुकानें मोतिहारी, बेतिया, दरभंगा तक फलते-फूलते नजर नहीं आतीं।
बजाप्ता विज्ञापन देकर जापानी तेल, सांडा तेल आदि कई प्रकार की दुर्लभ जड़ी-बूटियों के सहारे यहां छोटापन, पतलापन, टेढ़ापन, धात गिरना, शीघ्रपतन का सफलतापूर्वक इलाज घण्टों में करने का दावा किया जाता है। जबकि डिग्रीधारी सेक्स विशेषज्ञों की माने तो 99 प्रतिशत मामलों में ऐसी कोई बीमारी होती ही नहीं।
ये एक तरह का दिमागी लोचा है। अधिकांश का इलाज मनोविज्ञान के सहारे होता है। दुर्भाग्य से किसी भी स्कूल या कॉलेज में इसकी पढ़ाई नहीं होती। किशोरावस्था से लेकर शादी होने तक युवा अपनी मित्रमंडली से जो कुछ सीखते हैं। उसी को परम सत्य मान लेते हैं।
हालांकि कुछ मायनों में आज की पीढ़ी भाग्यशाली है कि सूचना पाने के लिए कई तरह के डिजिटल प्लेटफॉर्म मौजूद हैं। लेकिन सूचना और ज्ञान में फर्क होता है। ज्ञान कक्षा में, किताबों से, गुरु से मिलता है। इसकी बदौलत हम पहचान करते हैं कि मिल रही सूचना सही है या गलत। और हमारे यहां तो इस विषय का कोई चैप्टर होता नहीं।
हम उम्र के लोग भी सार्वजनिक रूप से इस सब पर चर्चा करने से बचते हैं। चर्चा करते भी हैं तो गूगल, यूट्यूब से चोरी-छुपे मिली जानकारी के आधार पर। जिसकी प्रमाणिकता पर हमेशा संशय बरकरार रहेगा ही, वैसे महानुभावों की भी कमी नहीं रहेगी, जो धूल चेहरे पर जमी होगी और हाथ आईने पर फिराते रहेंगे।
©️श्रीकांत सौरभ