मुफ्फसिल क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद दुरुह काम है. और यहां तकरीबन 90 प्रतिशत ग्रामीण पत्रकारों को दस टके पर खटना पड़ता है. वह भी सुबह से शाम तक. जबकि यही एक पेशा है जिसमें महज पैसे कमाने के लिए कोई नहीं आता, यदि अपवाद के तौर पर चंद दल्लमचियों को छोड़ दें तो. अभी भी अखबारों के जिला कार्यालय में कुछ ऐसे खबरची हैं, जिनके लिए पत्रकारिता मिशन व प्रोफेशन के बीच 'कुछ' है. इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है. जिससे समाज में इस बिरादरी की थोड़ी बहुत पूछ व विश्वसनीयता है.
हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया के नाम पर दल्लागिरी करने वाले कतिपय भांडों ने सौ- दो सौ रुपए के लिए जिस तरह से अपनी जमीर का सौदा करना शुरु कर दिया है. फिलहाल आम जनता सभी को एक ही नजर से देखने लगी है. दीगर की बात ये है कि जिस कथित सम्मान के लिए पत्रकार मरता है. यदि वह भी नहीं मिलेगा तो कोई कब तक इसे झेलेगा? आने वाले दिनों में पत्रकारों की स्थिति और भी गर्त में गिरेगी, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.
हालांकि कुछ वर्षों से मीडिया के नाम पर दल्लागिरी करने वाले कतिपय भांडों ने सौ- दो सौ रुपए के लिए जिस तरह से अपनी जमीर का सौदा करना शुरु कर दिया है. फिलहाल आम जनता सभी को एक ही नजर से देखने लगी है. दीगर की बात ये है कि जिस कथित सम्मान के लिए पत्रकार मरता है. यदि वह भी नहीं मिलेगा तो कोई कब तक इसे झेलेगा? आने वाले दिनों में पत्रकारों की स्थिति और भी गर्त में गिरेगी, इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता.