हिन्दी दिवस के बहाने इसकी दुर्दशा पर विधवा विलाप करने वाले, उधार की जुबान बोलने व खिचड़ी संस्कृति जीने वाले। भाषाई गुलामी के शिकार हम नकलची पुरबिये। काश अपनी मातृभाषा भोजपुरी, अवधी, ब्रज, बज्जिका, अंगिका, मगही, बुंदेलखंडी आदि के लिए भी एकजुट होकर आवाज उठाए रहते, तो कबके भाषाई हीनता से उपर उठ गए होते। लेकिन अपनी भाषा, संस्कृति, पहचान, अस्मिता के हक में संघर्ष करें, हमारे में वो स्वाभिमान है ही कहां।
हमें सीखना चाहिए दक्षिण भारत वालों से जो हमसे कई वर्ष आगे हैं। सिनेमा, साहित्य, कला, संस्कृति और आर्थिक स्तर पर भी। वे तो कभी अपनी मातृभाषा मलयालम, कन्नड़, तमिल, तेलगु, उड़िया का तिरस्कार कर हिन्दी का रोना नहीं रोते। और जब उनकी मातृभाषा पर मजबूत पकड़ है तो इसी आत्मविश्वास के सहारे अंग्रेजी में भी आगे रहेंगे ही।
लेकिन उनसे सीखना तो उल्टे दक्षिण भारत वालों को ही हम अक्सर हिन्दी सीखने-पढ़ने की नसीहत देते नजर आते हैं। आखिर चाहते क्या हैं हम। जिस तरह हमने मातृभाषा का त्याग कर हिन्दी का भार उठा-उठाकर अपनी लुटिया डुबाई। दक्षिण वाले भी उसी राह पर चलें।
वाह भाई वाह! कितने बुरबक हैं हम 'गोबर पट्टी' माफ करें हिन्दी पट्टी वाले और पतनशील भी। इतना भी भेजा में नहीं सोच पाते कि कोई पिछड़ा ही किसी विकसित की नकल करता है, विकसित पिछड़े की नहीं। वैसे भी हम जैसे मूढ़ लोगों से आशा ही क्या की जा सकती है, जिन्हें अपनी मातृभाषा को ही बोली कहने में जरा भी शर्म नहीं आती।
@श्रीकांत सौरभ