पिछले एक सप्ताह से मौसम खराब था, इस कदर कि खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था। और आज तो हद हो गई थी, सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। कोसों तक सरेह में पहले से ही लबालब पानी भर गया था। इलाके में आए दिन किसी न किसी के डूबने की सूचना अखबारों में छपी रहतीं। लेकिन बच्चे मछली मारने या नहाने का मोह नहीं छोड़ पा रहे थे।
इधर नदी के मुख्य बांध टूटने की आशंका को सुनकर झबुआ पंचायत के निवासियों में दहशत भर गई थी। दो हजार की आबादी वाले इस गांव में किसानों और मजदूरों की बहुलता थी। हालांकि गांव के अमीर लोगों का सुबह से ही शहर में स्थित डेरे पर या रिश्तेदारों के यहां पलायन जारी था। ख़ासकर महिलाएं व बच्चे बाहर भेजे जा रहे थे। वहीं दो मंजिले घरवाले उपर में शरण लेने के लिए तैयारी कर लिए थे। राशन, पीने का पानी, गैस चूल्हा, बखारी के अनाज आदि सब स्टॉक कर लिए गए।
लेकिन जिनकी फुस की झोपड़ियां थीं, उनमें से अधिकांश में सामने दुविधा की स्थिति हो चली थी। क्या करें क्या न करें? जलावन, राशन, बकरियां, मवेशियां लेकर कैसे जाएं? ख़ुद तो कुछ भी खाकर जी लेंगे। लेकिन मवेशियों का चारा कहां से आएगा? किसी को बखारी के गेंहू और मक्का बेंचकर महाजन के कर्ज चुकाने थे। तो किसी को बेटी की शादी के लिए जोगाकर रखे गए पुराने धान को बचाने की चिंता खाए जा रही थी।
इसी उधेड़बन में अधेड़ रिखिया देवी मड़ई के नीचे प्लास्टिक बांधकर ओरियानी ठीक कर रही थी। कई वर्षों से छानी की मरम्मत नहीं होने के कारण खर-पतवार सड़ चुके थे। घर में इस समय कोई था भी नहीं। बेटी की शादी पिछले वर्ष ही कर चुकी थी। पति और दोनों बेटे केरल के ऑयल मिल में कमाने गए थे। इसी साल होली में आए थे तो तय हुआ था। हर हाल में बैशाख में घर की नींव पड़ जाएगी। लेकिन कोरोना के कारण लॉकडाउन में उधर ही फंस गए।
तभी पट्टीदारी की पोती ने आकर पूछा, "का आजी, इहवां से चले के नइखे। चारु ओर हाला बा राति के बान्ह टूट जाई।"
"ना रे बुचिया अब कहवां जाइल जाई। हर साल त इहे खेला बा। बिगु के पापा से फोनवा प बात भइल ह। कहले ह आजु भर देख लेवे के। तोहनी के का प्रोग्राम बा?"
"हमनी के त मामा किहां जात बानी स। गाड़ी आ गइल बा। पापा जी मालन के लेके बान्ह प चल जइहे। उहे सिरकी तनाई।"
"आछा! हमहु खाए पिए वाला सामान मचानी प रख देले बानी। ई ना कह$ तिनु बकरियां पहिलही बेंचके हटा देले बानी। आजु मचाने पर हमहु सुतेम।"
इधर बांध पर अचानक से एक जगह रिसाव होने लगा। ग्रामीणों के साथ ही प्रशासन के लोग तमाम इंतजाम में जुटे थे। सीमेंट के बोरे और पत्थर फेंके जाते लेकिन तेज़ धार में विलीन हो जाते। फ़फ़नाकर बहती नदी को देखकर सबके रोंगटे खड़े हो जाते। सारे उपाय व्यर्थ थे और कटाव बढ़ता जा रहा था। ठीक रात के डेढ़ बजे बांध टूट चला। जबर्दस्त शोरगुल मचा। सभी कोई आंखें मूंदे हाथ जोड़कर भगवान को गुहारने लगे। उनकी जुबान पर बस यहीं अरदास थी, "हे गंगा मईया हमनी प रहम करी।"
सुबह होते-होते बांध के उत्तर वाला क्षेत्र पांच किलोमीटर तक पूरा डूब चुका था। झोपड़ियों की बात कौन कहे एक तल्ला मकान तक डूब गए थे। कुछ ढह भी गए थे। जिधर नज़रें जातीं बस पानी ही पानी! इक्के-दुक्के गाय, भैंस और बकरियों के मृत शरीर भी उपलाते दिख रहे थे। इसे देख लोगों का कलेजा फटा जा रहा था। बाढ़ में महज़ घर, अनाज और पालतू मवेशी ही नहीं। जाने कितने लोगों के अरमान और सपनें बह गए थे। पूरी गृहस्थी बर्बाद हो चली थी। जिसे संवरने में अब शायद वर्षों लग जाएं।
नेताद्वय, मीडियाकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का आना जारी था। सत्ता पक्ष के लोग इसके लिए नेपाल-चीन की मिलीभगत और भारी बारिश को जिम्मेवार ठहरा रहे थे। वहीं विपक्षी इसका पूरा ठीकरा सरकार पर फोड़ रहे थे। यह सवाल उठाते हुए कि क्षतिग्रस्त बांध की वर्षों से मरम्मत क्यों नहीं की गई? बांध की रखवाली के लिए चौकीदारों की बहाली क्यों नहीं की गई? यह जानते हुए भी कि हर वर्ष बाढ़ आना यहां की नियति है, प्रशासन ने समुचित तैयारी क्यों नहीं की? आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी था।
कुछ उत्साही युवक चुड़ा-मीठा बांटने में व्यस्त दिख रहे थे। हालांकि बाढ़ पीड़ितों की मदद में आए सभी किसी में एक बात सामान्य थी। कोई ठेहुने भर पानी में खड़े होकर तो कोई नाव पर बैठे हुए मोबाइल से फ़ोटो जरूर खिंचाता। मानो फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप्प पर सेल्फी डालने का होड़ लगा हुआ था। वहीं प्रशासनिक अधिकारी और संवेदक पूरे मन से आपदा को अवसर के रूप में भुनाने का तिकड़म भिड़ा रहे थे।
गांव का शिव मंदिर सबसे ऊंची जगह पर था। उसी के अहाते में लंगर शुरू कर दिया गया। यहां सुबह और शाम पीड़ितों की जमकर भीड़ उमड़ती। पेट की भूख यह तय करने में असफल थी कि पनटिटोर दाल और पनछुहर सब्जी का स्वाद कैसा है? ना ही मोटे चावल से बने भात की अज़ीब सी बास नथुने में प्रवेश कर पाती थी। और दिन होता तो कितने को उबकाई आने लगती। लेकिन फ़िलहाल तो हर कोई निवाले को बस उदर में ठूंसे जा रहा था।
आख़िरकार आदमी के एक वोट की कीमत इससे ज़्यादा हो भी क्या सकती थी? सत्ताधारी भी तो अच्छी तरह से समझते हैं कि जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। जो थोड़े से राशन और कुछ हजार रुपए अनुदान की लालच में सबकुछ भूल जाती है। बांध टूटे दूसरा दिन हो चला था। डूबे हुए मवेशियों के शव और अनाज सड़कर बदबू उठाने लगे थे।
एनडीआरफ की टीम मोटर बोट से घूम-घूमकर बचाव अभियान में लगी थी। कहीं-कहीं पेड़ों या घर की छतों पर फंसे लोग मिल जाते। इसी दौरान टीम को दूर सरेह में कोई आकृति उतराती दिखी। वे बोट को क़रीब ले गए। वो एक महिला का शव था। जिसकी कमर में स्टील की छोटी सी पेटी बंधी थी। मालूम पड़ता था पेटी को कमर में बांधकर सोते हुए बाढ़ की चपेट में आ गई होगी। शव को उठाकर वोट पर लाद दिया गया। और बांध के किनारे वाली सड़क के पास लाकर उतारा गया।
एक वृद्ध ने उसकी पहचान की। अचरज़ से बोल पड़े, 'अरे ई त सुकई महतो के जनाना रिखिया हिय$! हे भगवान बहुते जिद्दी रहे। केतना समझावल गइल मने घरे से ना निकलल।"
कुछ देर में ही पेटी का ताला तोड़कर खोला गया। उसमें सिन्होरा, दो हजार रुपए, बेटे और पति का फ़ोटो रखा था। यह देख वहां उपस्थित महिलाओं और पुरुषों की आंखें नम हो गईं। क्योंकि मरकर भी वह सुहाग की अंतिम निशानी बचाने में सफल रही थी।
©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)
इधर नदी के मुख्य बांध टूटने की आशंका को सुनकर झबुआ पंचायत के निवासियों में दहशत भर गई थी। दो हजार की आबादी वाले इस गांव में किसानों और मजदूरों की बहुलता थी। हालांकि गांव के अमीर लोगों का सुबह से ही शहर में स्थित डेरे पर या रिश्तेदारों के यहां पलायन जारी था। ख़ासकर महिलाएं व बच्चे बाहर भेजे जा रहे थे। वहीं दो मंजिले घरवाले उपर में शरण लेने के लिए तैयारी कर लिए थे। राशन, पीने का पानी, गैस चूल्हा, बखारी के अनाज आदि सब स्टॉक कर लिए गए।
लेकिन जिनकी फुस की झोपड़ियां थीं, उनमें से अधिकांश में सामने दुविधा की स्थिति हो चली थी। क्या करें क्या न करें? जलावन, राशन, बकरियां, मवेशियां लेकर कैसे जाएं? ख़ुद तो कुछ भी खाकर जी लेंगे। लेकिन मवेशियों का चारा कहां से आएगा? किसी को बखारी के गेंहू और मक्का बेंचकर महाजन के कर्ज चुकाने थे। तो किसी को बेटी की शादी के लिए जोगाकर रखे गए पुराने धान को बचाने की चिंता खाए जा रही थी।
इसी उधेड़बन में अधेड़ रिखिया देवी मड़ई के नीचे प्लास्टिक बांधकर ओरियानी ठीक कर रही थी। कई वर्षों से छानी की मरम्मत नहीं होने के कारण खर-पतवार सड़ चुके थे। घर में इस समय कोई था भी नहीं। बेटी की शादी पिछले वर्ष ही कर चुकी थी। पति और दोनों बेटे केरल के ऑयल मिल में कमाने गए थे। इसी साल होली में आए थे तो तय हुआ था। हर हाल में बैशाख में घर की नींव पड़ जाएगी। लेकिन कोरोना के कारण लॉकडाउन में उधर ही फंस गए।
तभी पट्टीदारी की पोती ने आकर पूछा, "का आजी, इहवां से चले के नइखे। चारु ओर हाला बा राति के बान्ह टूट जाई।"
"ना रे बुचिया अब कहवां जाइल जाई। हर साल त इहे खेला बा। बिगु के पापा से फोनवा प बात भइल ह। कहले ह आजु भर देख लेवे के। तोहनी के का प्रोग्राम बा?"
"हमनी के त मामा किहां जात बानी स। गाड़ी आ गइल बा। पापा जी मालन के लेके बान्ह प चल जइहे। उहे सिरकी तनाई।"
"आछा! हमहु खाए पिए वाला सामान मचानी प रख देले बानी। ई ना कह$ तिनु बकरियां पहिलही बेंचके हटा देले बानी। आजु मचाने पर हमहु सुतेम।"
इधर बांध पर अचानक से एक जगह रिसाव होने लगा। ग्रामीणों के साथ ही प्रशासन के लोग तमाम इंतजाम में जुटे थे। सीमेंट के बोरे और पत्थर फेंके जाते लेकिन तेज़ धार में विलीन हो जाते। फ़फ़नाकर बहती नदी को देखकर सबके रोंगटे खड़े हो जाते। सारे उपाय व्यर्थ थे और कटाव बढ़ता जा रहा था। ठीक रात के डेढ़ बजे बांध टूट चला। जबर्दस्त शोरगुल मचा। सभी कोई आंखें मूंदे हाथ जोड़कर भगवान को गुहारने लगे। उनकी जुबान पर बस यहीं अरदास थी, "हे गंगा मईया हमनी प रहम करी।"
सुबह होते-होते बांध के उत्तर वाला क्षेत्र पांच किलोमीटर तक पूरा डूब चुका था। झोपड़ियों की बात कौन कहे एक तल्ला मकान तक डूब गए थे। कुछ ढह भी गए थे। जिधर नज़रें जातीं बस पानी ही पानी! इक्के-दुक्के गाय, भैंस और बकरियों के मृत शरीर भी उपलाते दिख रहे थे। इसे देख लोगों का कलेजा फटा जा रहा था। बाढ़ में महज़ घर, अनाज और पालतू मवेशी ही नहीं। जाने कितने लोगों के अरमान और सपनें बह गए थे। पूरी गृहस्थी बर्बाद हो चली थी। जिसे संवरने में अब शायद वर्षों लग जाएं।
नेताद्वय, मीडियाकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का आना जारी था। सत्ता पक्ष के लोग इसके लिए नेपाल-चीन की मिलीभगत और भारी बारिश को जिम्मेवार ठहरा रहे थे। वहीं विपक्षी इसका पूरा ठीकरा सरकार पर फोड़ रहे थे। यह सवाल उठाते हुए कि क्षतिग्रस्त बांध की वर्षों से मरम्मत क्यों नहीं की गई? बांध की रखवाली के लिए चौकीदारों की बहाली क्यों नहीं की गई? यह जानते हुए भी कि हर वर्ष बाढ़ आना यहां की नियति है, प्रशासन ने समुचित तैयारी क्यों नहीं की? आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी था।
कुछ उत्साही युवक चुड़ा-मीठा बांटने में व्यस्त दिख रहे थे। हालांकि बाढ़ पीड़ितों की मदद में आए सभी किसी में एक बात सामान्य थी। कोई ठेहुने भर पानी में खड़े होकर तो कोई नाव पर बैठे हुए मोबाइल से फ़ोटो जरूर खिंचाता। मानो फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप्प पर सेल्फी डालने का होड़ लगा हुआ था। वहीं प्रशासनिक अधिकारी और संवेदक पूरे मन से आपदा को अवसर के रूप में भुनाने का तिकड़म भिड़ा रहे थे।
गांव का शिव मंदिर सबसे ऊंची जगह पर था। उसी के अहाते में लंगर शुरू कर दिया गया। यहां सुबह और शाम पीड़ितों की जमकर भीड़ उमड़ती। पेट की भूख यह तय करने में असफल थी कि पनटिटोर दाल और पनछुहर सब्जी का स्वाद कैसा है? ना ही मोटे चावल से बने भात की अज़ीब सी बास नथुने में प्रवेश कर पाती थी। और दिन होता तो कितने को उबकाई आने लगती। लेकिन फ़िलहाल तो हर कोई निवाले को बस उदर में ठूंसे जा रहा था।
आख़िरकार आदमी के एक वोट की कीमत इससे ज़्यादा हो भी क्या सकती थी? सत्ताधारी भी तो अच्छी तरह से समझते हैं कि जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। जो थोड़े से राशन और कुछ हजार रुपए अनुदान की लालच में सबकुछ भूल जाती है। बांध टूटे दूसरा दिन हो चला था। डूबे हुए मवेशियों के शव और अनाज सड़कर बदबू उठाने लगे थे।
एनडीआरफ की टीम मोटर बोट से घूम-घूमकर बचाव अभियान में लगी थी। कहीं-कहीं पेड़ों या घर की छतों पर फंसे लोग मिल जाते। इसी दौरान टीम को दूर सरेह में कोई आकृति उतराती दिखी। वे बोट को क़रीब ले गए। वो एक महिला का शव था। जिसकी कमर में स्टील की छोटी सी पेटी बंधी थी। मालूम पड़ता था पेटी को कमर में बांधकर सोते हुए बाढ़ की चपेट में आ गई होगी। शव को उठाकर वोट पर लाद दिया गया। और बांध के किनारे वाली सड़क के पास लाकर उतारा गया।
एक वृद्ध ने उसकी पहचान की। अचरज़ से बोल पड़े, 'अरे ई त सुकई महतो के जनाना रिखिया हिय$! हे भगवान बहुते जिद्दी रहे। केतना समझावल गइल मने घरे से ना निकलल।"
कुछ देर में ही पेटी का ताला तोड़कर खोला गया। उसमें सिन्होरा, दो हजार रुपए, बेटे और पति का फ़ोटो रखा था। यह देख वहां उपस्थित महिलाओं और पुरुषों की आंखें नम हो गईं। क्योंकि मरकर भी वह सुहाग की अंतिम निशानी बचाने में सफल रही थी।
©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)
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