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26 June, 2020

"धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले..!"

अदरा चढ़े दो दिन हो गया था। देर रात से ही तेज बारिश हो रही थी। तीन बजे भोर में बालेसर काका की नींद टूट गई। ऐसे भी वे रोज़ चार बजे उठ ही जाते थे, मवेशियों को सानी-पानी देने के लिए। लेकिन आज थोड़ा जल्दी उठने का कारण झमरकर पानी का बरसना था। कम से कम दमकल से पटवन के हजार रुपए तो बच ही गए। ऐसे ही नहीं कहा गया है कि भगवान जब खुश होते हैं तो पानी देते हैं!

काका को भोर में ही में जना जोड़ने दखिनवारी टोला जाना है। अब तो खेती में भी सौ तरह के ताम-झाम हैं। लेवाठ के लिए ट्रैक्टर की व्यवस्था करिए। फिर मजदूरों के टोला में दस बार दौर लगाइए। अइसन मौका पर तो उनका भाव गजबे बढ़ जाता है। और भाव बढ़े भी क्यों नहीं, अब सबके पास बटाई खेत है। पहले ख़ुद का धान रोपेंगे कि गिरहत का।

बिछावन पर बैठेकर वे खैनी मलते हुए सोचने लगे। पहले से ही खाद की महंगाई थी ही। अब डीजल की कीमत भी कमर तोड़ रही है। मजदूरों को बनिहारी के बदले नकदी चाहिए। इतना तक भी रहता तो कोई बात नहीं थी। बुआई के बाद फ़सल बाढ़, सुखाड़, घासकटों, ओला, नीलगाय से बच जाए, तभी खलिहान आ पाती है।

सरकार ने पैक्स के माध्यम से सरकारी रेट पर खरीद की व्यवस्था की है। मने औने-पौने दाम में जब बिचौलिया बनिया सौदा उठा लेते हैं तो सरकारी खरीदारी शुरू होती है। अब जिसको महाजन और दुकानदार का करजा सधाना होता है। कौन उतना दिन इंतजार करेगा? कई बार काका के मूड में आया कि खेतों को बटाई लगा दें। लेकिन हर बार इरादा बदल देते हैं।

नफ़ा होखे चाहे घाटा किसान के लिए खेत तो मां के समान ही है! गणेश की माई भी कहती है, "जब तक हाथ-गोड़ चल रहा है। अपने से खेती किया जाए। गाय-गोरु का चारा मिल ही जाता है। अनाज से भरे बेरही-बखारी भी दुआर की शोभा बढ़ाते हैं।"

तभी काका का ध्यान खैनी पर गया, अंगूठे से कुछ ज़्यादा ही रगड़ा गया था। उन्होंने ताल ठोका तो झांस से रधिया काकी छींकने लगी। हा छि:! हा छि:!

"का जी रउरा बुझाला कि ना अदमी के जाने ले लेहम! अधरतिया में अपने नीन नइखे लागत त दोसरो के बेचएन कइले बानी।"

इस पर काका ने दांत चियारते हुए कहा, "अधरतिया कहवां बा, तीन बज गइल हवे। रोपनिहार ला सवकेरही जाए के पड़ी।"

यह सुन काकी का चेहरा भी खिल उठा। आंखें मलते हुए भी बोलीं, "सुनी ना आजु गावा लागी त भोज खिआवे के पड़ी। दखिनवारी टोला से लवटेम त साव किहां से गरम मसाला आ पापड़ लेले आएम।"

आछा ठीक बा। तनी चाह बना द। हम मालन के खूंटा प बान्ह के आव$ तानी।"

गाय की नाद में चारा सानने के बाद उन्होंने चाय पिया। और छाता लगाकर दखिनवारी टोला के लिए निकल पड़े। टोले में घुसते ही सुखाड़ी बहु मिल गई। सांवली सूरत होने के बावजूद 50-52 वर्ष की उम्र में भी उसके चेहरा का पानी देखने के लायक था। चालू-पुर्जा और हरफनमौला इंसान थी। किसी को भी मजदूर चाहिए होता, वह जल्द सेटिंग करा देती।

शायद इसी कारण उसे सब कोई 'ठीकदार' कहकर बुलाते। काका से उसका देवर-भौजाई का रिश्ता था, सो अक़्सर हंसी-ठिठोली होती रहती। उन्हें देखते ही हाथ नचाकर बोली, "का मलिकार, एतना सुनर मवसम में मलकिनी के लगे होखे के चाही ? भोरे-भोरे केने चलल बानी रउआ?"

काका ने उससे रोपनी को लेकर बात की। छह कट्ठा खेत के लिए आठ जने तय हुए। ठीक 11 बजे सभी महिलाएं हाज़िर थीं। उन्होंने बगल के बियाराड़ से बिचड़ों को उखाड़कर गठरी बनाया और माथे पर लादकर ले आईं।

लेवाठ होते ही रोपनी शुरू होई कि पूरब से उमड़कर काली घटा छा गई। रिमझिम फुहारों के बीच बह रही ठंडी बेयार से मौसम सुहावना हो चला था। पानी में जुताई के बाद निकल रही, पांक की सोंधी खुशबू नाक में घुसते ही मदमस्त किए जा रही थी।

काका उनके साथ ही खेत में उपलाए सूखे घास को छानकर किनारे फेंक रहे थे। अचानक से सुखाड़ी बहु ने कादो उठाकर उनके बनियान पर फेंका और जबर्दस्त ठहाका छूट पड़ा।

इसी बीच सभी कोई जोर-जोर से गाने लगीं, "खेतवा में धीरे-धीरे हरवा चलइहे हरवहवा, गिरहत मिलले मुंहजोर, नये बाडे़ हरवा, नये रे हरवहवा, नये बाड़े हरवा के कोर..!"

(*गावा- चंपारण में किसान जिस दिन खेत मे धान की रोपनी शुरू करते हैं। चंदन, अक्षत और दही से पूजा-पाठकर कुछ बिचड़े रोपते हैं। जिसे 'गावा लगाना' कहते हैं। इस दिन रोपनिहारों को भोज खिलाया जाता है। हालांकि यह परंपरा अब लुप्त हो रही है।)

©श्रीकांत सौरभ


1 comment:

yashoda Agrawal said...

आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 26 जून 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!