अखबार में बतौर स्टिंगर कुछ अच्छा लिख कर
बाईलाइन खबर छपवाने की सनक. यानी कि ऐसी बीमारी जिसका इलाज बेहद महंगा है, जबकि तरीका उतना ही घटिया. खासकर कस्बाई
क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हो तब. भगवान ना करें किसी को छपास का रोग
लगे. वरना शीशी में करुआ तेल लेके हर वक्त हथेलियों को मालिश के लिए तैयार
रखना होगा. इस पर भी छपने की गारंटी नहीं रहती. क्योंकि 'हर शाख पर
उल्लू...' वाली कहावत सुने हैं ना.
और अख़बार के मुफसिल मॉडेम केन्द्रों की बात ही न पूछिए. यहाँ तो अच्छी से अच्छी खबरों को भी बेदर्दी से काट-छांट कर लगाने या एकदम से दबाने की ओछी परम्परा तो दशकों से चली आ रही है. हाँ कभी-कभी उदार प्रवृति के सरोकारी सोच वाले प्रभारी भी आते हैं. जो आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए आपकी लेखनी को जगह देते हैं. लेकिन इनके जाते ही स्थिति जस की तस हो जाती है.
वैसे धंधा चमकाने के लिहाज से खबरची का लेबल बूरा नहीं है. लेकिन टिकाऊ बने रहने के लिए रचनात्मकता को मारना ही पड़ता है. वरना ज्यादा लिखा-पढ़ी की, तो कई सारे साथी कलमची भी विकेट गिराने की हद तक दुश्मन बन जाते हैं. यह बात मैंने निजी अनुभव के आधार पर कही है. इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं.
और अख़बार के मुफसिल मॉडेम केन्द्रों की बात ही न पूछिए. यहाँ तो अच्छी से अच्छी खबरों को भी बेदर्दी से काट-छांट कर लगाने या एकदम से दबाने की ओछी परम्परा तो दशकों से चली आ रही है. हाँ कभी-कभी उदार प्रवृति के सरोकारी सोच वाले प्रभारी भी आते हैं. जो आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए आपकी लेखनी को जगह देते हैं. लेकिन इनके जाते ही स्थिति जस की तस हो जाती है.
वैसे धंधा चमकाने के लिहाज से खबरची का लेबल बूरा नहीं है. लेकिन टिकाऊ बने रहने के लिए रचनात्मकता को मारना ही पड़ता है. वरना ज्यादा लिखा-पढ़ी की, तो कई सारे साथी कलमची भी विकेट गिराने की हद तक दुश्मन बन जाते हैं. यह बात मैंने निजी अनुभव के आधार पर कही है. इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं.
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