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21 February, 2020

LOVE स्टोरी - अधूरी चाहत

"मने एकदमे भुचड़ हैं आप! हम बोल रहे हैं कि ई टुटलका धरमशाला की पीछे जो जामुन का पेड़ है। उसकी तरफ़ देखिए। और आप हैं कि एने-ओने देखे जा रहे हैं।" मोबाइल से बात करते हुए जैसे ही लड़की ने हाथों को उठाकर इशारा किया। उजले कुर्ता-पजामा वाले लड़के से उसकी आंखें चार हुईं।

रणवीर कपूर स्टाइल की दाढ़ी में गजब का हैंडसम लुक था। इधर लड़का देखते ही रह गया उसे। क्या झक्कास लग रही थी! पांच फीट तीन इंच का कद। सांवलापन से कुछ उपर, गोरा नहीं लेकिन पानीदार चेहरा! तीखे नैन नक्श! कंधे तक कटे बाल, लाल रंग के शूट पर छींटदार दुपट्टा, पैरों में पाटियाला जुत्ती! कानों में पहने छोटे-छोटे ईयर रिंग्स!

जाने क्यों? समय थम सा गया, और दोनों की धड़कनें तेज हो गईं। लड़के का मन हुआ कि दौड़कर जाएं, और उसे अपनी बांहों में भर लें। लेकिन उसके साथ आई एक और लड़की को देखकर उसने यह रूमानी ख़्याल त्याग दिया।

आज शिवधाम में ग़ज़ब की भीड़ उमड़ी थी। जहां देखिए उत्सवी नज़ारा झलक रहा था। मंदिर में पुरुष-महिलाएं कतार में खड़े होकर शिव लिंग पर जल चढ़ाने की जद्दोजहद में थे। मालूम होता था सभी एक-दूसरे को धकियाते हुए निकलना चाह रहे हैं। कहीं भी तिल रखने भर की जगह नहीं बची थी। अटैची से निकालकर पहनी हुई नई सिंथेटिक साड़ी में महिलाओं का उत्साह चरम पर था। उनके माथे पर लगे तेल, सिंदूर की चिरपरिचित गंध नथुने से टकराते हुए जेहन तक पहुंच रही थी।

यहां से सीधे लौटकर वे मेले में सजी परचून की दुकानों पर जमघट लगाए हुई थीं। टिकुली के पत्ते, सिंदूर का गद्दी, आलता, रंग-बिरंगी चूड़ियां, कृत्रिम गहने, बच्चों के खिलौने। फेम एंड लभली, मिको, लकमा, दादर आंवला (फेयर एंड लवली, विको, लक्मे, डाबर आंवला नहीं) के क्रीम, तेल, पाउडर आदि से लेकर प्रसाद वाला लायचीदाना (मकुदाना) तक बिक रहे थे।

लड़की ने दादी को देखा। एक दुकानदार से लहठी की खरीदारी को लेकर मोलजोल कर रही थीं। "का बबुआ सुनत बाड़$। सौ रुपया लगा द ना भाव।"

उसने व्यस्तता दिखाते हुए कहा, "अम्मा जी, एक दाम दु सौ लगा देले बानी। अब पइसा नइखे त फ्री में ले जाई। मने ए से कम भाव में परता ना पड़ी। ना त अगिला दोकान देख लिहीं।"

लड़की ने भांप लिया कि दादी अब एक घण्टा से पहले फुर्सत पाने वाली नहीं हैं। "दादी जी, रउआ एहिजा रहेम। तनि हम दोकानवा से टेड्डी लेके आवत बानी।" इतना कह जवाब की प्रतीक्षा किए बिना उसने सहेली का हाथ पकड़ा, और वहां से मंदिर के गेट की ओर से पुरानी धर्मशाला की ओर निकल गई।

"तु जा और वो धरमशाला का कमरा है न। वहीं बैठकर बतिया ले अपने राजा बाबू से। तब तक मैं इधर रहकर चौकीदारी करती हूं।" उसकी सलाह पर लड़की शर्माते हुए उधर चली दी। साथ में लड़का भी हो लिया।

आप पढ़ रहे हैं प्रेम कहानी - "अधूरी चाहत"

जजर्र धर्मशाला के कमरे में पहुंचकर उसने चेहरे पर हाथ रखना चाहा। लेकिन लड़की ने मुंह फेर लिया। "जाईए आपसे बात नहीं करेंगे।"

लड़के ने पूछने के लिहाज़ से कहा, "अब क्या हो गया जो नखरे दिखा रही हो? थोड़ी देर पहले तो मिलने के लिए बेचैन थी। लगातार मिस कॉल मारे जा रही थी।"

"वादा किए थे छाया दीदी की शादी में मिलेंगे। फिर आए क्यों नहीं उस रात?"

"ओहो, तो ये बात है। शायद तुम्हें याद नहीं। कहा था मैंने कि बीएससी पार्ट वन का प्रैक्टिकल चल रहा है। कोशिश करेंगे आने के लिए। लेकिन मोतिहारी से नहीं आ सका। सॉरी!"

"नहीं आए, ठीक है कोई नहीं। उस दिन तो बता तो देना चाहिए था।"

"तुम्हारा मोबाइल छीना गया है। फिर बताता कैसे? और आज किसके मोबाइल से बतिया रही थी? पहले कभी बताया नहीं?"

"सखी के फोन से लगाया था। दो महीने बाद उनकी भी शादी है। नहीं चाहती कि मोबाइल नबंर का परचार हो।"

"अच्छा, छोड़ो ये सब। देखो तो तुम्हारा लिए क्या लाया हूं?", लड़के ने एक लाल रंग का बड़ा सा रोंयादार टेडी बियर उसे थमाया।

"वाओ, कितना प्यारा लग रहा है! मेरा फेवरिट कलर है।" अब लड़की शिक़वा शिकायत भूल चुकी थी। उसकी चेहरे की मुस्कान और चमक दोनों ही बढ़ चली थीं।

"प्यारा है, लेकिन तुमसे ज्यादा नहीं!" कहते हुए लड़के ने उसे सीने से लगाया। उसके बालों से आ रही क्लिनिक प्लस शैंपू की भीनी भीनी खुशबू अपनी सी लगी। उसने लड़की के पलकों और माथा को एक-एक कर चुमा।

इस बार लड़की के तन-मन में अजीब सी गुदगुदी हुई। अपनी भावनाओं को छुपाती हुई बोली, "झूठ नहीं बोलिए। सब कहते हैं करिया कलूटे हैं हम।"

"ख़बरदार जो और कुछ अपने बारे में कहा तुमने। काले होंगे तुम्हारे दुश्मन।"

"इतना प्यार करते हैं हमसे।" लड़की का जवाब सुनकर उसने आंखों में आंखें डालकर कहा, "बहुत ज्यादा। मन करता है बस तुम्हें देखता ही रहूं। घण्टे, दिन, महीने, साल..!"

"बस बस, अब रहने भी दीजिए। कुछ ज़्यादा नहीं लग रहा, फिल्मों की तरह?"

यह सुन लड़के ने कहा, "विश्वास नहीं तो परमिशन दो। अभी तुमको भगा ले जाउंगा। सबकी नजरों से दूर।"

"अच्छा, कहीं लभेरिया तो नहीं हो गया आपको?" लड़की ने चुस्की ली।

कहानी आगे भी जारी है, थोड़ा इंतजार करिए...



©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

15 February, 2020

नियोजित शिक्षकों की कहानी - 'हड़ताल'

"मित्रो, इस कुम्भकर्णी सरकार की ईट से ईट बजा देंगे हम लोग। वेतनमान भीख नहीं, हमारा अधिकार है। और हम इसे लेकर रहेंगे!", यह कहते हुए जैसे ही टीईटी शिक्षक संघ के जिला अध्यक्ष नेता रामायण ठाकुर ने शिक्षक एकता के नारे लगाए। वहां पर उपस्थित शिक्षकों की तालियों की गड़गड़ाहट तेज हो गई।

उनका जोश दुगुना हो चला था। उन्होंने कहा, "अब मैं सम्मानित विद्वान शिक्षक दयाशंकर जी को संबोधित करने के लिए आमंत्रित करना चाहूंगा। भाई इकोनॉमिक्स में पीजी हैं। नेट भी निकाल लिए हैं। और शिक्षा जगत की लेटेस्ट जानकारी इनके पास पूरे डाटा के साथ रहती है।"

वेतनमान को लेकर बिहार में शिक्षकों की हड़ताल की तैयारी चल रही थी। महज़ कुछ ही दिन रह गए थे। करीब डेढ़ दर्जन संगठन एक साथ आ गए थे। वहीं कुछ संगठन अलग तिथि से हड़ताल करने के मूड में थे। लेकिन सबकी बस यहीं मांग थी, ‘उन्हें वेतन वृद्धि नहीं राज्यकर्मी का दर्जा दिया जाए।‘ इसके बावजूद गुटबंदी जारी थी। यहीं कारण था कि टीईटी शिक्षकों का समूह अलग बैठक कर चर्चा कर रहे थे। प्रतापपुर प्रखंड मुख्यालय स्थित बीआरसी में भी इसी की मंत्रणा चल रही थी।

संबोधन सुनकर दयाशंकर मास्साब खड़े हो गए। सजने-संवरने के शौकीन आदमी ठहरे, अविवाहित थे शायद इसलिए। करीने से संवारी गई लट वाली जुल्फ़ी में हमेशा क्योकार्पिन तेल चुपड़ी रहती। मालूम होता था कि तेल चुकर चेहरे पर लुढ़क जाएगा। कुर्ता-पजामा के उपर चढ़ी बंडी में उनका दुबला-पतला शरीर, मानो देश में पसरे कुपोषण का अर्थशास्त्र सीखा रहा था। जबर्दस्त पढ़ाकू थे अखबार का। इतना कि एक बार जब खोलते। पहले पन्ने पर अखबार के नाम के साथ राष्ट्रीय, प्रादेशिक, स्थानीय, संपादकीय, खेल, अंतर्राष्ट्रीय खबरों तक पहुंच जाते। और अंतिम पन्ने में नीचे छपे प्रेस और संपादक का नाम पढ़कर ही ख़त्म करते। सोशल साइट यूनिवर्सिटी के सस्ते ज्ञान से उन्हें आपत्ति रहती थी।

वहां से थोड़ी दूर एक कोने में जाकर मुंह में खाए पान को उन्होंने पीक के साथ थूक दिया। और लौटकर चिरपरिचित शैली में पूछा, "क्या आप बता सकते हैं? पूरे भारत में सबसे कम सैलरी कहां के टीईटी शिक्षकों को मिलती है?

"जी, बिहार में।", सुरेश दास ने कहा।

"बिल्कुल सही कहा आपने। लेकिन ऐसा क्यों है, कोई बताएगा?" जब उन्हें कहीं से जवाब मिलता नहीं दिखा। तो बोले, "दरअसल पूरे देश में बिहार एकमात्र राज्य है जो अपनी जीडीपी का साढ़े पांच प्रतिशत शिक्षा पर खर्च करता है। लेकिन यह खर्च शिक्षकों के वेतन नहीं ट्रेनिंग और अन्य मदों में होता है।"

"आरटीई यानी शिक्षा अधिकार अधिनियम लगभग पूरी दुनिया में लागू है। हमारे यहां अक्सर आरटीई का हवाला देकर शिक्षकों के कर्तव्यबोध बताते हुए हड़काया जाता है। लेकिन उसी आरटीई में यह भी नियम है कि गैर टीईटी पास, अप्रशिक्षित या बिना वेतनमान के शिक्षक नहीं रखना है।", यह शिक्षक अशीषनाथ का स्वर था।

इस पर सुरेश दास ने समर्थन करते हुए कहा, "लेकिन हमारे बिहार में होता इसके उलटा है। वर्ष 15 में हड़ताल के बाद सरकार ने चाइनीज सेवा शर्त बनाकर आधा-अधूरा वेतनमान दिया। जिसका खामियाज़ा हम आज तक भुगत रहे हैं।"

"वहीं तो मैं बता रहा था। इस साजिश की शुरुआत वर्ष तीन और पांच में ही 'कागज दिखाओ नौकरी पाओ' वाली नियोजन नीति के साथ की थी। हमारे सीएम साहब की मंशा साफ थी कि 15 सौ रुपए मासिक के मेहनताना पर शायद ही योग्य आदमी शिक्षक बनना चाहे। मजबूरी में कुछ योग्य शिक्षक आ भी गए तो विरोध नहीं जता सकेंगे। अयोग्य की संख्या ज्यादा रहेगी इसलिए।" अशीषनाथ ने कहा।

बीच में ही रहमान अली ने कहा, "सरकार अपने मंसूबे में कामयाब भी रही। एक समय था इन शिक्षकों को नियमित वाले छूत के समान समझते थे। नियोजितों ने कई बार हड़ताल, आंदोलन किया। लेकिन हर बार सरकार ने उनकी आवाज़ दबा दी। कुछ अपनी करनी रही। और कुछ ग्रामीणों में ऐसी धारणा भी बना दी गई। फर्जी कागज़ पर बहाल हैं। अयोग्य हैं। पढ़ाते नहीं। ये इतने के ही लायक हैं। पढ़ाना है नहीं, वेतन चाहिए पूरा। आदि आदि।"

"और उसी का नतीज़ा हम भी आज भुगत रहे हैं। यदि सरकार ने बिना एंट्रेंस या उचित कागज़ जांच कराए नियोजन किया। इसमें हमारी क्या गलती है? यह कहां का वसूल है कि कुछ लोगों के चलते सभी को वाज़िब हक़ से वंचित रखा जाए। आज लाखों पढ़े-लिखे युवक सड़क पर हैं। उनको उचित वेतनमान देकर बहाली करनी की महती जिम्मेवारी भी सरकार की ही है।", अबकी राबिया ने सवाल उठाया।

सुरेश दास बोले, "इसमें हमारी गलती नहीं, सरकार की चाल रही है। 70 प्रतिशत ग्रामीण बच्चे आज भी सरकारी स्कूलों में ही ककहरा का 'क' या अल्फाबेट का 'ए' सीखते हैं। सरकार ने शुरू से ही कम वेतन में शिक्षकों को रखा। और वोट बैंक के लिए अन्य लुभावने योजनाओं में पैसे लुटाए गए। मक़सद अभिभावकों को खुश रखना था। वैसे भी योग्य शिक्षक तमाम तरह की तरह गैर शैक्षणिक योजनाओं एमडीएम, बीएलओ, जनगणना, सर्वे में नहीं उलझाए जाएं। कम सैलरी देकर उन्हें हीनता से ग्रसित नहीं बनाया जाए। और वे स्कूल में ईमानदारी से पढ़ाने लगे। तो पढ़-लिखकर गरीब के बच्चे अधिकार नहीं मांगने लगेंगे।"

"लेकिन ये तो लोकतांत्रिक मूल्यों का सरासर हनन है। हमारे संविधान में लोक कल्याणकारी राज्य की कल्पना की गई है, शोषणकारी नहीं। जहां राज्य सरकार कितना भी निजी क्षेत्र को बढ़ावा दें। सरकारी संस्थानों और कर्मियों को हर हाल में प्राथमिकता देनी है। इसमें शिक्षा का स्थान सबसे उपर है।", ये बात चंदन झा ने कही।

उन्होंने वहां बैठे अन्य लोगों की ओर एक नजर डाली। लगा कि सभी उनको चाव से सुन रहे हैं। बोले, "भले ही सरकार ने मुख्य मुद्दे से भटकाकर आम जनता के बीच हमारी छवि धूमिल की है। लेकिन कहना चाहूंगा आप सबसे। पड़ोस, गांव का लोग मज़ाक उड़ाते हैं न हमारा। कल उनके भी बच्चे जब हाथों में कई तरह की डिग्रियां लिए धक्के खाएंगे तो आटा-चावल का भाव समझ में आ जाएगा।"

दयाशंकर की मुख मुद्रा अब गंभीर दिखने लगी थी। उन्होंने हाथों से इशारा किया तो सभी चुप हो गए। बोले, "सरकार ने यह क्रम वर्ष 10 तक जारी रखा। और लाखों शिक्षकों की बहाली कर ली। उस बाद हम टीईटी शिक्षकों की बारी आई। सरकार की मिलीभगत से एक तो मीडिया ने पहले ही शिक्षकों की छवि खराब कर डाली थी। उस पर नेतागिरी के फेरे में सुप्रीम कोर्ट में भी हम अपना पक्ष सही तरह से नहीं रख पाए।"

"लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने पैराग्राफ 78 में तो स्पष्ट निदेश दिया है टीईटी शिक्षकों के लिए?", अशीषनाथ ने कहा।

"आशीष सर, ध्यान दीजिए। सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है निर्देश नहीं। राज्य सरकार चाहे तो हम टीईटी शिक्षकों को वेतनमान देने पर विचार कर सकती है। लेकिन सरकार यह सुझाव मानने से रही। उसे शैक्षणिक गुणवत्ता या योग्य शिक्षकों से क्या मतलब बनता है? यहां तो वोट बैंक की राजनीति है। और संख्या में हम एक तिहाई हैं। हम लोगों को राज्यकर्मी का दर्जा देने से जितना फायदा होगा। उससे ज्यादा सरकार को वोट का नुकसान।"

"इसका मतलब हुआ सभी को एक साथ हड़ताल पर रहने में ही भलाई है? लेकिन कुछ टीईटी और माध्यमिक शिक्षक संघ बाद के दिनों में हड़ताल पर जाने के पक्ष में क्यों हैं?", राबिया ने पूछा।

इसके जवाब में संघ के जिलाध्यक्ष रामायण ठाकुर ने कहा, "यदि सरकार हमारे संवैधानिक हकों को नहीं देती। तो उसी संविधान में हमे विरोध जताने का अधिकार भी दिया है। 'संघे शक्ति कलियुगे सुने हैं न?' समय के मुताबिक उचित निर्णय तो यहीं रहेगा। हम सभी मिलकर एकता दिखाएं। और एक साथ हड़ताल पर चलें। वैसे जिनको इसी बहाने राजनीति चमकानी है। उनकी बात और है।"

"वो तो ठीक है। लेकिन इस बात की क्या गारंटी है वर्ष 15 की तरह इस बार फिर हमारे साथ धोखा नहीं हो?", सुरेश दास ने असमंजस में सवाल उठाया।

तो उन्होंने कहा, "इस बार बजाप्ते सभी मुख्य संघों की लिखित समन्वय समिति बनी है। ऐसे में कोई नकारात्मक राजनीति कर बदनाम नहीं होना चाहेगा। सोशल साइट्स, व्हाट्सएप्प ने हम सबको बेहद सशक्त बनाया है। हर पल की सूचना मिल जाती है। इसलिए एक या दो नेता के चलते हड़ताल का टूटना नामुमकिन है।"

उनके इतना कहते ही उपस्थित शिक्षकों ने एक स्वर में हामी भरी। एक बार फिर से अभियान गीत गाया सबने। सादे कागज पर प्रस्ताव पास कर घोषणा हुई। और अगले सप्ताह के पहले दिन से ही हड़ताल पर जाने के निर्णय के साथ बैठक समाप्त कर दी गई।


©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसमें प्रयुक्त किसी जगह या प्रसंग की समानता संयोग मात्र कही जाएगी। इसके लिखने का एक मात्र उधेश्य मनोरंजन है।)

11 February, 2020

विद्या कसम है तुमको, ये 'लभ लेटर' जरूर पढ़ना

प्यारी सैंकी ,

आज नौ फरवरी है। हिंदी के लास्ट परीक्षा के साथ हमारा आईएससी का एक्जाम बीत गया। अंगरेजी आ केमेस्ट्री तनि कमजोर गया है। मने चिंता की बात नहीं है। प्रैक्टिकल का नंबर बढ़ाने के लिए कॉलेज से मैनेज कर लिए हैं। मम्मी भी गांव के तीन पेड़ियां वाले जीन बाबा की भखौती भाखी है। हमारे लिए आछा नम्बर से पास करना, जीवन-मरण का सवाल है। पापा जी बोल दिए हैं कि रिजल्ट में फस्ट डिवीजन से कम लाया। तो मामा जी के संगे लुधियाना कम्बल फैक्ट्री में भेज देंगे, काम सीखे।

फिलहाल तुमको बहुत मिस कर रहा हूं। चिट्ठी भेजने का नहीं, तुमसे बतियाने का मूड था। लेकिन बतियाए कैसे? जबसे तुम्हारा मोबाइल छिनाया है, बात भी तो नहीं हुई। मने दोसर उपाय का है। वैसे दिल का हाल लिखकर बताने में जो मजा है। उतना फोन पर बतियाने में नहीं। कल कइसहु तुम्हारे पास हेमवा से चिट्ठी भेज देंगे। तनी जादा लिखा गया है। रिक्वेस्ट है, पूरा पढ़ना। एक सांस में नहीं त थोड़ा-थोड़ा करके।

याद करो। ठीक तीन बरिस पहिले पकड़ी बाजार पर गोलू सर के कोचिंग में हमलोग मिले थे। मैटिक परीक्षा के तैयारी के लिए नया-नया एडमिशन हुआ था। सर हाई स्कूल में साइंस के नामी टीचर थे। लेकिन 'नाम' का प्रयोग स्कूल की पढ़ाई से जादा अपना 'दोकान' चमकाने में करते थे। गजबे भीड़ जुटती थी। दू कोस के एरिया में जेतना भी मैटिक का छात्र था। सब इहे कहता था कि उनके पास एक बार जेकर नाम लिखा गया। ओकर पास होना तय है।

कोचिंग हॉल में 25 गो बरेंच रखा था। एक बैच में 100 विद्यार्थी पढ़ते। अगिला पांच बरेंच लड़की सब के लिए रिजर्व। सर के बारे में चरचा थी। मैथ, केमेस्ट्री, फिजिक्स तीनों विषय पर बराबर पकड़ रखते हैं। बोर्ड पर लिखते तो सभी कोई अपनी कॉपी पर एकदम रचकर लिख लेते। समझ में आए या नहीं। वो खुदे कहते थे कि साइंस समझे वाला चीज है, रटे वाला नहीं। क्लास के बाद नोट्स के फोटो कॉपी लेवे खातिर अइसन हल्ला मचता। जइसे तकिया के नीचे रखकर कोई सुत जाएगा। तो भी फस्ट डिवीजन मिल जाएगा एक्जाम में।

हम तो एक बरिस में 30-40 क्लास अटेंड किए होंगे। एतना दिन में किताब का कवनो चैप्टर माथा में पूरी घुसा कि नहीं। याद नहीं। मने लड़की सबको अगिला बरेंच पर बैठाने का राज, हमको जरूर बुझा गया। बोर्ड का एक्जाम हुआ। मैथ में कम आए तीन नम्बर से हम फस्ट डिवीजन लाते-लाते रह गया। तब केतना हंगामा मचा था घर में। पापा जी तो पूरा फायर हुए थे सुनकर। एतना कि आपन बाटा के पुरनका संडक चप्पल हमरा देहे पर तोड़ दिए। पढ़ाई छोड़ावे के मूड में थे। लेकिन मम्मी के निहोरा कइला के बाद मान गए। ओकरा बाद हम आईएससी करने शहर चले गए।



शहर के कोचिंग में भी उहे हाल है। हर साल गांव से हजारों बच्चा पहुंचते हैं। यहां पढ़ाई के नाम पर भरपूर लुटाई है। अलग-अलग नाम से सैकड़ों 'गोलू सर' करोड़पति हो गए हैं। 95 परसेंट पढ़निहार भले चपरासिया ना बने। मने सरकारी कम्पीटिशन निकाले के पूरा गारंटी लेते हैं। लमहर दुरभाग है बिहार का। सरकारी स्कूल में पढ़ाई तो कहिया से रामभरोसे है। मातृभाषा भोजपुरी के बदले बचपन से हमनी के हिन्दी में साइंस का कोरामिन दिया जाता रहा है। नतीजा का हुआ, भोजपुरी बिगड़ी। हिंदी भी गड़बड़ा गई। और अंगरेजी तो जिनगी भर सीखना ही है। अब तो भगवाने मालिक हैं हिंदी मेडियम वालों का।

अरे हम भी केतना बुरबक है? का अटपट लिखे जा रहे हैं। मेन बात पर आते हैं। तुमको पता है पिछले साल दो बार घर आया था। होली के दिन ललुआ के संगे अपाची से तुम्हारे गांव गए थे। तुम बरामदा में खड़ी दिखी थी। मने हमको चिन्ह नहीं पाई। रमपुरवा वाला 'छुछेर' सब एतना ना हरिहरका रंग पोत दिया। हमको एकदमे बानर बना दिया था।

दूसरी बार, तुम्हारे छठ घाट पर गए थे। सिरसोपता के आगे चउका-मउका बैठे हुए गुलाबी सलवार शूट में केतना सुनर लग रही थी। मन हुआ कि सेल्फी खींच ले नुका कर। मने मुस्टंडे लड़के मुझ अजनबी को कटाह नजर से घूर रहे थे। एहि से उहां से चलते बने। मने इस बार वादा है। बहुत जल्दी तुमसे मिलकर रहेंगे, चाहे कुछो हो जाए। दिन और समय तय कर तुम लौटती चिट्ठी में बता देना। अब बहुत हो गया रखते हैं।

चलते चलते बस एतने कहेंगे, आई लभ यू मेरी करेजा!

तुम्हारे जवाब के इंतिजार में,

तुम्हारा अपना,

सोनू

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस लघु व्यंग्य कहानी के पात्र, जगह पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

08 February, 2020

लघु कहानी - मन की बात

पत्नी - "ए जी, सुनते हैं पमी के पापा! भेलेन्टाइन डे नियरा गया है। उस दिन फिलिम दिखाने ले चलिएगा न 'सिनेपोलिस' में?"

ऑफिस के लिए तैयार होते पति - "तुम भी न एकदमे सठिया गई हो। छव बरिस हो गया बियाह हुए। बाल-बच्चेदार हो गई। मने..!"

पत्नी - "त का बूढ़ा गए हैं हमलोग?"

पति - "अब अपने बारे में कह सकता हूं। तुमको कुछ कहने का अवकात हमको कहां? नहीं तो भेलेन्टाइन में देरी है। अभिए 'बेलन टाइट' करने लगोगी।"

पत्नी - "जादे बहाना मत बनाइए। मैरेज से पहिले फोनवा पर कहते थे। करेजा, जानू, जानेमन तुम्हारे लिए ई करेंगे, ऊ करेंगे। मने आज ले मन तरसते रह गया। कहियो त होटल, रेस्टोरेंट ले चलेंगे। हाथ में हाथ मिलाकर बतियाएंगे, सीरियल में जइसन होता है।"

पति - "वहीं तो हम भी कह रहे हैं कि बियाह से पहले तुम्हारे देह से रेकसोना बॉडी स्प्रे महकता था। अब आटा, तेल, मसाले की गंध आती है। सब दिन एकही समान थोड़े रहता है।"

पत्नी - "त का करे? घर के साफ-सफ़ाई, खाना बनाना छोड़ दे। आ दिन भर सेंट लगाके सुतल रहे, बोलिए? मने इसके लिए तो नोकर रखना होगा न?"

पति - "वो तो हम हैं कि बक्सर के हेठार (दियरा) से सीधे तुमको राजधानी पटना लाए। ना त केतना अगुआ आगे-पीछे कर रहे थे।"

पत्नी - "हम कवनो फ्री में आए हैं का? पूरे 10 लाख कैश गिने थे बाबूजी। हमसे बढ़िया त सखी है। पांचे लाख में सेट हो गई थी। गुड़गांव में हसबैंड के साथ रहती है। शादी उसके लिए केतना लकी रहा! 25 हजारे कमाने वाला पति बाद में एमबीए कर लिया। आज लाख रुपए महीने में कमा रहा। अपना फ्लैट, अपनी गाड़ी है। व्हाट्सएप्प पर पिक भेजते रहती है। मॉल में खरीदारी करने, रेस्टोरेंट में पिज्जा, बर्गर खाने, मल्टीप्लेक्स में फिलिम देखने का।

पति - "ई बात तो अब अगुआ न बताएंगे कि काहे हमरा से बियाह कराए? ऊ सब पापा जी से कहे थे। लड़की गांव में रहती है। मने बक्सर कॉलेज से बीए में पढ़ रही है। का गांव, का देहात, कवनो माहौल में रखिएगा। वहीं सेट कर जाएगी। ये भी बताए थे कि लड़की तनी सांवर है। पटना जइसन शहर में बिजली बत्ती के अंजोरा रहेगी त गोरा जाएगी।"

पत्नी - "उहे अगुवा तो हमारे बाबू जी से कहे थे कि लड़का पटना सचिवालय में सेटल है। अभी नोकरी टेम्परोरी है मने आगे चलकर परमानेंट हो जाएगा। आपकी बेटी राज करेगी। हूं..! इहे 'राज' लिखा था हमारे किसमत में!"

पति - "तुमको और कोई टाइम नहीं मिलता है, बहस के लिए। जब निकलना होता है, तभी शुरू हो जाती हो। घड़ी में देखो, साढ़े आठ हो गया है। नौ बजे के बाद पहुंचा तो हाजिरी कटा समझों।"

पत्नी - "अब त कहबे करेंगे। जवाब नहीं सूझता है तो कोई न कोई बहाना कके निकल जाते है। रात को नींद ही लगती है। दिन में फुरसत नहीं है। संडे को इयार दोस्त से मिलने निकल जाते हैं। तो हमसे बतियाने का मोका कब है?"

पति - "देखो, तुम सब बुझते हुए भी बच्चों वाली बात करती हो। सचिवालय में नोकरी है लेकिन ठेका वाली। पहले 15 मिलता था। अब 25 हजार हो गया है। वो तो कुछ उपरवार हो जाता है। नहीं तो घर से खरचा मंगाना पड़ता। मेरे जैसे हजारों लोग इसी तरह से सरकारी के नाम पर खट रहे हैं। सबको आशा है कि एक न एक दिन वेतनमान मिल जाएगा। अब पमी भी चार साल की ही गई। अप्रैल में नाम लिखवाना है। फिजूलखर्ची से काम कैसे चलेगा, तुम्हीं बताओ?"

पत्नी - "बात बनाना कोई आपसे सीखे। हम कवनो नहीं समझते घर की स्थिति। मने एगो फिलिम दिखाने का बात मुंह से का कह दिए। आप लगे परवचन सुनाने। अरे कवनो हम जाइए रहे थे का? खाली हां, कर देते तो मन खुश हो जाता। पति हैं आप। दिल के बात आपसे नहीं कहेंगे तो का दोसर मरद को सुनाएंगे! अब आप ऑफिस जाइए। कहीं सांचो के लेट नहीं हो जाए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी पूरी तरह से काल्पनिक है। लेकिन एक सीख है, उन अभिभावकों के लिए। जो यह सोच कर बेटी की शादी करते हैं कि 'सरकारी' नौकरी वाला 'दूल्हा' खुश रखेगा उनकी लाडली को। शादी के मामले में 'लड़का' या 'लड़की' किसी भी पक्ष या अगुआ को वस्तु स्थिति नहीं छुपानी चाहिए। और पति-पत्नी भी यह बात अच्छी तरह से समझ लें, शादीशुदा ज़िंदगी कोई सीरियल नहीं। जिसमें हर पल मौजमस्ती, सिनेमा, फैशन, प्रपंच दिखते रहता है। यह एक जिम्मेवारी है और हर हाल में सामंजस्य बनाकर चलना होता है।)


लघु प्रेम कहानी - वैलेंटाइन वीक

मोबाइल पर चंदू : "हैलो, चिंकी।"

चिंकी : "हां, हैपी रोज डे!

चंदू : "अरे वाह, सेम टू यू! विश करने के लिए पहिले हम फोन किए। आ उल्टे तुम्ही..! लेकिन तुम कैसे जानती हो?"

चिंकी : तो का हम नहीं जानते हैं? आजु कवन फेस्टिबल है!"

चंदू : "फेस्टिबल?"

चिंकी : "और क्या? भले आप इंटर करे मोतिहारी चले गए। आ हम गांव में रहते हैं। एकर मतलब ई नहीं हुआ कि हमको कुछो नहीं पता।"

अंजान बनते हुए चंदू ने पूछा : आछा। तो क्या जानती हो?"

चिंकी : "परसों सैंकी दीदी मिली थी मटकोरा में। वो बताई थी हमको।"

चंदू : "अब ये 'सैंकी दीदी' कौन है?"

चिंकी : "अरे बताया तो था। चंदन चाचा की बेटी पूनम दीदी के बारे में। उन्हें घर में प्यार से सब 'सैंकी' कहते हैं। कितनी जल्दी भूल जाते हैं आप? वो मुजफ्फरपुर से बीसीए कर रही हैं। पट्टीदारी में बियाह है तो आई हैं।"



चंदू : "ओहो! याद आ गया। हम तो भूलिए गए थे। वैसे और क्या कह रह थी दीदी?"

चिंकी : "और का? बता रही थी कि आज के दिन बॉयफ्रेंड अपने लभर को गुलाब का फूल देकर परपोज करता है।"

चंदू : "गुलाब का फूल देता है कि परपोज करता है?"

चिंकी : "जाइए हम बात नहीं करेंगे। आप तो हमको एकदमे बुरबक समझ लिए हैं। पत्रकार जैसा कोसचन पर कोसचन कर रहे हैं।

चंदू : "हाय मेरी जान, मेरी करेजा! तुम तो बुरा मान गई। सॉरी, सॉरी!"

चिंकी : "नहीं, बुरा काहे मानेंगे? जेतना जानते थे, उतना बता दिए। आपके जैसा हम यहां, कवनो एंडोरायड मोबाइल थोड़े रखे हैं। जो फेसबुक आ व्हाट्सएप्प से सब बात जान जाएंगे। बोलिए।"

चंदू : "यही तो बता रहा था मैं। लेकिन जानना चाह रहा था कि मेरी डार्लिंग कितना जानती है?"

चिंकी : "आछा तो ये बात है। बाबू साहब मेरा इम्तिहान ले रहे थे। कोई बात नहीं। हमको भी इस साल मैटिक पास कर जाने दीजिए। एक बार शहर पहुंच गए। फिर पूछिएगा हमसे।"

चंदू : "इसीलिए तो तुमसे दिल का सब बात शेयर करता हूं। तुमको बता दूं कि आज से वेलेंटाइन वीक शुरू हो गया है। पूरे एक सप्ताह चलेगा। पहला दिन रोज़ डे, दूसरे दिन प्रपोज़ डे, तीसरे दिन चॉकलेट डे, चौथे दिन टेडी डे, पांचवें दिन प्रॉमिस डे, छठे दिन हग डे, सातवें दिन किस डे। और अंतिम दिन वैलेंटाइन्स डे।"

चिंकी : "बाप रे..! एतना तो हम जानते ही नहीं थे।"

चंदू : "जानेमन, एहि से तो बता दिया तुमको। अब बोलो?"

चिंकी : "खैर, छोड़िए। ये बताइए कि आपका आईएससी का एक्जाम कइसन जा रहा है?"

चंदू : "अभिए तो मैथ का पेपर देकर लौटे हैं। केमेस्ट्री का थिउरी थोड़ा गड़बड़ाया है। मने प्रैक्टिकल से मेक अप हो जाएगा। हिंदी का पेपर बाकी है। सोमवार को लास्ट है। तुम अपना सुनाओ?"

चिंकी : "आप जानते ही हैं। साइंस तो हमारा फेवरिट सब्जेक्ट है। आर्ट और अंगरेजी में तनिका कमजोर हैं। लेकिन गेस पेपर रट रहे हैं। इनमें पास तो कर ही जाएंगे।"

चंदू : "चलो ठीक है। तुम्हारा सेंटर तो अरेराज पड़ा है न?"

चिंकी : "हे भगवान इहो भूल गए है। आप भी न। रक्सौल में सेंटर पड़ा है। और 17 से परीक्षा है। बूझ गए न।"

चंदू : "चलो, टेंशन की कोई बात नहीं है। तब ले हमारा एक्जाम तो बीत ही जाएगा। आएंगे तुम्हारे सेंटर पर सोनुआ के संगे। उसके भइया की शादी में दहेजुआ पल्सर मिला है। 30 का एभरेज देता है। खरचा के डरे कोई चलाता ही नहीं। हमने तेल डलवाने के नाम पर सेटिंग कर लिया है, परीक्षा भर के लिए।"

चिंकी : "ठीक है रखिए अब। बाद में बतियाते हैं। कोई बाहर से दरवाजा ठुकठुका रहा है।"

चंदू : "ऐसे नहीं। पहले एगो 'किस्सी' दे दो तब काटेंगे फोन।"

चिंकी : "इसमें मांगने की क्या जरूरत है। सब आपका ही है। ले लीजिए!"

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - इस कहानी के पात्र पूरी तरह से काल्पनिक हैं। इसे सिर्फ मनोरंजन, मनोरंजन और मनोरंजन के लिए लिखा गया है।)

06 February, 2020

'क्या वाकई में बसंत सबको एक समान महसूस होता है?'

सरेह में दूर-दूर तक फैले खेतों में लहलहाते गेहूं के हरे-पौधे! उनके बीच में उगे पीले-पीले सरसों के फूल! आंखों को ग़ज़ब का सुकून दे रहे हैं। यूं कहें कि प्रेम आंनद बरसते महसूस हो रहा है। दिल को जवां करती फ़फ़नाकर बहती पछुआ ब्यार! तन के साथ मन को भी झुमाते हुए सिहरा रही है! माना कि ऋतुराज बसंत की जवानी उफ़ान पर है। क्या कवि, क्या साहित्यकार? सभी इसकी मादकता में मंत्रमुग्ध हुए जा रहे हैं। फ़ेसबुक से लेकर तमाम पत्र-पत्रिकाओं तक, काव्य रस या गद्द रूप में महीने भर इसका ही गुणगान होगा।

लेकिन इसी रूमानी मौसम में, हमारे मुंह में निकल आए छाले। ओठ पर पड़े फोफले के फटने से बना घाव! जिस पर ना चाहते हुए भी, जीभ का चले जाना। बार-बार सुखी पपड़ी कुरेदकर घाव को ताज़ा कर देती है। 10 दिन तो हो ही गए इसे झेलते। इस पर भी क्या किसी लेखक की नजरें इनायत हो रही है? सड़क से गुज़रते हुए, रास्ते में आठ वर्ष की अनपढ़ झुनिया दिख गई। रोज़ की तरह दुआरे पर गोबर से चिपरी पाथ रही थी। आज तक उसने स्कूल का मुंह नहीं देखा।


थोड़ी दूर पर ही किशोरियों की झुंड आइस-पाइस खेल रही थी। खेत के मेंड पर उनकी बकरियां चर रही थीं। वहीं पर गेंहू के खेत में फुलाए सरसों के बीच बैठी हुई काकी दिखीं। वो दुबककर बथुआ का साग खोंट रही थीं। फटी-पुरानी चादर ओढ़े हुए, ठंड से सिर और कान को बचाने के एवज़ में पीठ को उघाड़ की हुई थी। क्या है कि बढ़ती उम्र के साथ, जाड़ का भी एहसास बढ़ जाता है न! कुछ और आगे बढ़े तो हीरामन काका पटवन के बाद फसलों में खाद छीट रहे थे। हमेशा के तरह निर्विकार मुद्रा में अपने काम में लीन लगे।

बचपन से देखते आ रहा हूं उनको। जब से होश संभाला मैंने। उन्हें खुलकर हंसते या बोलते नहीं देखा। मौन रहते हैं, स्थिर प्रज्ञता की हद तक! लेकिन सालों भर खेतों में खटते रहते हैं। दो बेटों को पढ़ाकर नौकरी में सेट करा दिए। एक बेटी थी, उसके भी हाथ पीले कर दिए। चुपचाप दो बीघे ज़मीन भी लिखा लिए। सब कहते हैं, काका मनहूस लेकिन भाग्यशाली आदमी हैं। इसके बाद मन में सोच उठती है। क्या इन सभी को भी 'बसंत' महसूस होता होगा, मेरी और आपकी तरह? या फिर यह रचनात्मक लोगों की वैचारिक विलासिता भर है?

©️®️श्रीकांत सौरभ

15 January, 2020

लंबी कहानी : छेनीपुर का विनु

भाग -1

राजाराम पहाड़ की घाटियों के बीच बसा एक छोटा सा गांव, छेनीपुर। 'मधुआ' विधानसभा में आता है। शहर की सभ्यता से कोसों दूर। जिधर भी नज़र दौड़ाओ। उंचे, लंबे पहाड़, जिन पर कंटीली झार-झंखाड़ से लेकर छोटे-बड़े पेड़ ही पेड़ दिखते हैं। यहां के निवासियों का आम पेशा है, जंगल से शहद निकालकर, फल तोड़कर, मछली पकड़कर नज़दीक के बाजार में पहुंचाना। या फिर केंदू पत्ता चुनकर बीड़ी कंपनी के एजेंट से बेंचना।

आज इस गांव में ‘नेता जी’ आने वाले हैं। विधानसभा चुनाव में कुछ ही दिन तो बाकी रह गया है। इसको लेकर आए दिन नेताद्वय का दौरा लगा ही रहता है। यहां के वार्ड सदस्य खेदन महतो नौंवी कक्षा पास हैं। वार्ड में अपनी हमउम्र के लोगों में सबसे ज्यादा पढ़े-लिखे। थोड़ा-बहुत कानूनी मामलों के जानकार, चतुर और चालाक भी। पंचायती करने में गांव भर में उनकी कोई सानी नहीं।

शायद इसीलिए ग्रामीणों में उनका काफ़ी सम्मान है। केंदू पत्ते के ठेकेदार से साठगांठ कर उन्होंने आर्थिक स्तर भी उंचा कर लिया था। उन्हीं के बथान पर छोटा सा सामियाना टंगा है। बगल में मुर्गों के पंख छीले जा रहे हैं। जिसे देखने के लिए बच्चों की टोली चारों ओर से घेरे हुए थी।

उधर, युवकों व बूढ़ों में इस बात की जम कर चर्चा थी, कि वार्ड सदस्य के यहां मुर्गे का मांस और महुआ मीठा वाले दारू की व्यवस्था है। चुनाव को लेकर उनकी ही बिरादरी के पूर्व विधायक दिनेश्वर महतो जनसम्पर्क करने आ रहे हैं (इलाके में समर्थक उनको 'नेता जी' कहकर  संबोधित करते थे)। इस बार भी वे मधुआ विस से किसान मजदूर एकता पार्टी से प्रत्याशी बने हैं। और रूलिंग पार्टी राष्ट्र निर्माण दल के पदासीन विधायक बाबूराम मंडल को कड़ी टक्कर दे रहे हैं।

नेता जी के आने में कुछ ही पल शेष थे। लोगों का हुजूम जुटना शुरू हो गया। महिलाएं भी समूह में पहुंच रही थीं। पार्टी निर्देश के मुताबिक़ उन्हें आगे की कुर्सियों पर बैठाया जा रहा था।  लाउडस्पीकर से देशभक्ति गाना 'ऐ मेरे वतन के लोगों तुम ख़ूब लगा लो...' 10 बार से ज्यादा बज चुका था। भाषण के लिए मंच सजकर तैयार था। तभी अध्यक्ष प्रभुनाथ ने माइक में बोलना शुरू कर दिया। कृप्या आप लोग स्थान ग्रहण कर लीजिए। कुछ ही देर में प्रत्याशी महोदय हमारे बीच हाज़िर होंगे।

ठीक पांच मिनट के बाद सड़क पर धूल उड़ाती गाड़ियों का काफिला वहां पहुंचा। स्कोर्पियो से उतरते ही दिनेश्वर महतो ने लोगों का अभिवादन हाथ जोड़कर किया। खेदन महतो ने हाथ में पकड़ा हुआ माला उनके गले में डाल दिया। वे नेता जी के कानों में कुछ फुसफुसाते हुए एक तरफ़ ले गए।

"नेता जी, कल रात 'लाल सलाम' वाले आए थे। हमेशा की तरह ग्रामीणों से वोट बहिष्कार करने की बात कर रहे थे। 'छोटका' घरे आया है। उसने ऐसा समझाया कि आख़िरकार उन सभी को सन्तुष्ट होकर जाना ही पड़ा।"

"कौन छोटका?", उन्होंने सकपकाकर पूछा।

"अरे हजूर, छोटका नहीं समझे। हमारा बेटा, विनायक। राजधानी में रहकर तेजनारायण यूनिवर्सिटी से राजनीति विज्ञान में एमए कर रहा है। अब तो देश-दुनिया की इतनी बड़ी-बड़ी बातें कर लेता है। मुझे कुछ समझ में आती हैं, कुछ नहीं।"

"ओहो, क्षमा करें महतो जी। मैं तो भूल ही गया था। याद आया, हम सब उसे प्यार से 'विनु' बुलाते थे न! वह देश के इतने बड़े कॉलेज में पढ़ रहा है! आपने बताया भी नहीं?"

"सरकार, मौका कब मिला कि आपको बताता। पिछले चुनाव के बाद दूसरी बार तो आपसे मिल ही रहा हूं।"

"ठीक है, लोग हमारा इंतज़ार कर रहे हैं। भाषण के बाद उससे मिल लेता हूं।"

मंच के पास नेता जी के पहुंचते ही 'जिंदाबाद, जिंदाबाद' के नारे से माहौल गुंजायमान हो उठा।

"अब हमारे माननीय नेता जी सभा को संबोधित करेंगे।", अध्यक्षीय संबोधन के बाद प्रभुनाथ ने उन्हें माइक थमा दिया। पहले से उपस्थित अन्य पंचायतों के कार्यकर्ता भाषण पूरा कर चुके थे। नेता जी ने औपचारिक संबोधन के बाद क्षेत्र के मुद्दे उछालने शुरू कर दिए।

"आदरणीय भाइयो, बहने, माताए, अभिभावकगण, जल, जंगल, पहाड़ और ज़मीन से हमारा नाता सदियों का है। ये ही हमारे घर, जीविका के आधार हैं, हमारी संस्कृति भी। लेकिन राज्य सरकार पूंजीपतियों के हाथों इसका सौदा कर हमें उजाड़ना चाह रही है। गांव की सड़कों की स्थिति देख ही रहे हैं। बीच घने जंगल में जहां कोई जरूरत नहीं थी। वहां हजारों की संख्या में पेड़ काटकर चौड़ी सड़क बनाई जा रही है। इससे जंगल की शांति भंग हो रही है। शोरगुल से परेशान जंगली जानवर या तो सड़कों पर कुचलकर असमय मौत का शिकार हो रहे हैं। नहीं तो भागकर बस्ती में आ जा रहे हैं।"

अचानक वृद्ध सुकट महतो बीच में ही खड़े होकर कहने लगे, "कितने जमाने के बाद बिजली का तार आया भी, तो आपूर्ति का कोई निश्चित समय नहीं रहता। ना तो शुद्ध पानी की व्यवस्था हुई है। ना ही बीमारों के इलाज के लिए नज़दीक में कोई अस्पताल बन पाया है।" वे कुछ और कहते कि कार्यकर्ताओं ने उन्हें चुप होकर बैठने का इशारा किया।

वहीं नेता जी ने उन वृद्ध की भावनाओं का ख़्याल रखते हुए उनकी हां में हां मिलाया। फिर लोगों से पूछा, "क्या यहां के सरकारी स्कूल में पढ़ाई होती है?

"नहीं।" एक साथ कई लोगों की आवाज़ आई।

तभी सरपंच गेनालाल खड़े हो गए। बोले, "स्कूल में 200 बच्चों के बीच महज़ एक ही शिक्षक हैं। उनका पूरा दिन एमडीएम का सामान जुटाने, बनवाने और खिलाने में ही बीत जाता है। अन्य दिनों में विभागीय बैठक के नाम पर 'मास्साब' ग़ायब ही रहते हैं। आप ही बताइए, रसोइयों के भरोसे क्या ख़ाक पढ़ाई होगी।"

"जी, सरपंच साहब। बिल्कुल मैं भी वहीं कहने वाला था। दरअसल यह सरकार शिक्षा विरोधी है। अबकी बार इसे उखाड़ फेंकना है।" नेता जी बोलते-बोलते पूरे रौ में आ गए थे।

"सर, अभी तक गांव के कई लोगों को वृद्धा पेंशन, इंदिरा आवास, राशन कार्ड नहीं मिला। ब्लॉक कार्यालय से जिला मुख्यालय तक दौड़ लगाते-लगाते थक चुकी हूं।" यह पंचायत की मुखिया महुआ देवी का स्वर था।

"मुखिया जी। मैं आपकी बातों से सौ प्रतिशत सहमत हूं। सिटिंग विधायक जी को लगता है, यह क्षेत्र मेरे कुनबे के लोगों का है। इसीलिए तो पांच वर्षों में इधर विकास के नाम पर ढेला भर नहीं खर्च किए। भाइयो, जो कुछ भी यहां दिख रहा है। वह मेरे कार्यकाल का ही किया धरा है।"

पूरे घण्टे भर बाद नेता जी का भाषण ख़त्म हुआ। उन्होंने लोगों से अपील की, "आग्रह है। कृप्या आप सब भोजन करने के बाद ही यहां से जाएंगे। सारी व्यवस्था है।"

इधर, दालान में खेदन महतो ने बेटे को नेता जी से मिलवाया। विनायक ने पैर छूकर अभिवादन किया। उन्होंने उसे गले लगाते हुए कहा, "जीते रहो बाबू। तुम ही लोग तो हमारे समाज की शान हो। वैसे कब आए राजधानी से, सब ख़ैरियत हैं न? ख़बर तो देखते ही रहता रहता हूं। बहुत उथल पुथल मची है इन दिनों वहां ।"

"चाचा जी, आप तो जानते ही हैं। यूनिवर्सिटी में शुरू से ही कई विचारधारा काम कर रही हैं। इसी आधार पर अभी दो छात्र संगठन सक्रिय हैं, भारतीय छात्र परिषद और इंक़लाब छात्र एकता। दोनों संगठनों का निर्माण छात्रों के हित की रक्षा के लिए ही किया गया था। दोनों संगठन राष्ट्रवादी मुद्दे को उठाते हैं। लेकिन…।"

तब तक फीकी चाय बनकर आ गई। अध्यक्ष ने पहले ही बता दिया था। नेता जी सुगर का रोगी होने के कारण भोजन नहीं करेंगे। बस एक कप बिना चीनी वाली चाय पियेंगे। जबकि अन्य कार्यकर्ता खाने चले गए।

"बिल्कुल, इसमें कोई दो राय नहीं। लेकिन अभी तो इंक़लाब छात्र एकता के ही अध्यक्ष है न। क्या नाम है उनका? हां, याद आया, माधव मुरारी।" नेता जी ने चाय की चुस्की लेते हुए कहा।

"जी हां, यूनिवर्सिटी में अध्यक्ष पद पर तो अभी माधव ही काबिज़ हैं। मैं भी उसी संघ से जुड़ा हूं। लेकिन केन्द्र में जिसकी भी सत्ता रहे। किसी न किसी संगठन का झुकाव उस ओर रहता ही हैं। पूर्व की सरकार हमारे संघ के समर्थन में थी। और अभी की भारतीय छात्र परिषद के साथ है। बस सारा 'खेला' इसी को लेकर है।", उसने माथे पर बल देते हुए कहा।

"कैसा खेला?"

"सरकार की मंशा है, लोगों को धर्म, राष्ट्रीयता, जात-पात में भ्रमित कर अपनी रोटी सेंकते रहे। पूंजीपतियों की गोद में खेल रही केंद्रीय सत्ता इसी की आड़ में सरकारी तंत्र को बेंचकर निजीकरण लागू कर रही है। उसकी दो तीन नीतियां पहले ही असफल हो चुकी हैं। मीडिया तो पूरी तरह बिका लगता है। वह सरोकारी खबरों को दिखाने के बदले सत्ता की चरण वंदना में लगा है।" विनायक ने चिंतित मुद्रा में कहा।

"लेकिन इस खेल में तो अमीर-गरीब के बीच की खाई और भी बढ़ जाएगी। हर चीज़ का बाज़ारीकरण हो जाएगा। सरकारी नौकरियों में कटौती होगी, निजी कंपनी बढ़ेंगी। और हमारे ही लोग उसमें कम मेहनताना पर श्रम करेंगे। किसान अपनी फसलों को बिचौलियों को कम भाव में बेंचकर, उनसे बने उत्पाद महंगे दामों में खरीदेंगे भी। गेहूं हमारा, आटा उनका। धान हमसे लेंगे, चावल उनका बिकेगा।", नेता जी ने उसकी बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया।

"एकदम सही कहा आपने। इन्हीं जनविरोधी नीतियों के ख़िलाफ़ के कारण तो हम सत्ता की नज़रों में खटकते हैं। सत्ताधीश चाहते ही नहीं कि गरीब का कोई लड़का उंची पढ़ाई करे। पढ़ेगा तो, जानकारी नहीं हो जाएगी। फिर तो संगठित होकर अपना हक़ मांगने वालों की तादाद भी बढ़ जाएगी।"

"हां, सच्चाई तो यहीं है। कुछ दिन पहले ही फेसबुक पर 'द पब्लिक' वेबसाइट की एक रिपोर्ट का लिंक मिला था। उसमें पढ़ा कि सरकारी शिक्षण संस्थानों को ध्वस्त कर निजी हाथों में देने की तैयारी चल रही है। बड़े-बड़े कारपोरेट घराने स्कूल, कॉलेज खोलेंगे। महंगे दामों में डिग्रियां बेचेंगे। ऐसे में बच्चों को उच्च शिक्षा दे पाना सबके लिए तो मुमकिन नहीं होगा।" इतना कहते हुए नेता जी ने घड़ी की ओर देखा।

"अरे, बातों ही बातों में आधा घण्टा कैसे बीत गया। पता ही नहीं चला। दूसरी ज़गह भी घूमने जाने का कार्यक्रम है। अब चलना चाहिए।" इतना कह उन्होंने फिर से पूछा, "अच्छा तो अभी चुनाव तक रुकोगे न?"

"जी। अभी 20 दिनों तक रुकूंगा। मैं आपकी जीत के लिए अपनी तरफ़ से हरसंभव प्रयास कर रहा हूं। लेकिन वोट के खातिर यह दारू पीने-पिलाने वाली बात मुझे कुछ ठीक नहीं लगा रहा। नशापान से अपना ही तो नुकसान है।", विनायक की बातों में साफ़-साफ़ नाराज़गी झलक रही थी।

"देखो बेटे, बड़ी ज़गहों पर रहकर तुम भी उन्हीं की ज़बान बोलने लगे हो। यह मत भूलो की मदिरा पीना, शिकार खेलना हमारी परंपरा है। और शहर वाले जो पीते हैं न व्हिस्की, रम, स्कॉच। उतना हानिकारक नहीं होती हमारी 'देशी'। कितना भी कोई दुबला क्यों नहीं हो। महुआ-मीठा वाली शराब तीन महीने तक पी ले, तो बॉडी बन जाती है।" यह नेता जी का जवाब था।

"खैर, हम चलते हैं। सभी किसी को प्रणाम! जल्द ही फिर मुलाक़ात होगी। आप सब अनुमति दीजिए।", उन्होंने वहां पर मौजूद लोगों से हाथ जोड़ते हुए कहा।

गाड़ी स्टार्ट हुई। प्रचार गाड़ी में लगे साउंड सिस्टम से 'जहां डाल-डाल पर सोने की चिड़िया' गाना जोर-जोर से बजने लगा। उनके साथ कार्यकर्ता भी खड़े होकर वहां से निकल लिए। एक बार फिर से वहां उड़ रही धूल का गर्द गुबार चारों तरफ छा गया।

भाग - 2

चुनाव का दिन क़रीब आ रहा था, जंगल, ज़मीन और रोज़गार के मुद्दे भरपूर उछाले जाने लगे। कई तरह के जुमले प्रचारित कर बाहरी-भीतरी की भावनाओं को जगाया गया जा रहा था। नतीजा सत्ता विरोधी वोट एकजुट होते दिखने लगा। विनायक भी टोले-टोले में घूम-घूमकर नुक्कड़ सभाएं करने लगा। 'टीयू' की पढ़ाई में छात्र नेताओं से सीखी गई बोलने की कला, अब जाकर काम रही थी। उसका व्यवाहरिक प्रयोग करने का सही मौका मिला था।

वह जहां भी जाता, राजनीति की कठिन बातों को भी सरल ढंग से कहकर लोगों का दिल जीत लेता। सत्ता पक्ष की कमजोरियों, उसकी जन विरोधी नीतियों को छोटे-छोटे उदाहरण देकर, गीत गाकर उज़ागर कर देता। फिर तो तालियों की गड़गड़ाहट और 'जिंदाबाद' के नारे से अजीब सी शमां बंध जाती। कम समय में ही वह इलाक़े में काफ़ी लोकप्रिय हो गया। लेकिन इस लोकप्रियता के चलते, विरोधियों से ज़्यादा जलन उसके ही समाज से 'बागी' बने युवकों में होने लगी।

"महतो जी घर पर हैं आप, गेट खोलिए।"

मुख्य दरवाजे पर ठकठक की ज़ोरदार आवाज सुन खेदन महतो की नींद टूटी। घड़ी में समय देखा। रात के डेढ़ बजे थे, 'इस वक्त कौन आएगा यहां?'

उन्होंने खिड़की के छेद से झांककर पहचानने की कोशिश की। बाहर में, सोलर लैम्प की जगमग रोशनी में आंखों को केंद्रित कर देखा। चितकबरे ड्रेस में मुंह को लाल गमछा से ढके 15-20 युवक कांधे पर हथियार टांगे खड़े थे। उनका दिल किसी अनहोनी की आशंका से धड़कने लगा। किसी तरह खुद को संभाल कर उन्होंने खुद को नॉर्मल किया, और दरवाजा खोला।

"अरे कामरेड आप और अभी? आपका बुलावा आता तो हम ही चले आते। इतनी रात को कष्ट उठाने की क्या जरूरत थी? आइए बैठिए, क्या सेवा करुं आप सबकी।", उन्होंने समूह के नेतृत्वकर्ता का चेहरा पहचान लिया। वे 'जनक्रांति' संगठन वाले थे।

"आपका लड़का विनायक किधर है। उसे बुलाइए जरूरी बात करनी है।" यह कमांडर का स्वर था।

"हां, हां, क्यों नहीं? अभी बुलाता हूं। विनु, ओ बेटा विनु। जरा बरामदे में आना तो।" पापा की आवाज सुन फेसबुक चला रहे विनायक ने मोबाइल में समय देखा।

"इतनी रात को भला पापा क्यों बुला रहे होंगे मुझे?" वह मन ही मन अंदाज़ा लगाते हुए कमरे से निकला। उसकी नज़र बरामदे में मुंह बांधकर बैठे अजनबियों की ओर ठहर गई। उनको पहचानने की असफल कोशिश की।

"आओ इधर बैठो विनु। तुम मुझे नहीं पहचानते होगे, मैं 'जनक्रांति संगठन' का कमांडर हूं, हरिमोहन उर्फ़ वारियर। वैसे पिछले दिनों भी हमारे कामरेड आए थे यहां। उनसे तुम्हारी बात हुई थी। तुम इतने बड़े कॉलेज में पढ़ाई कर रहे हो। अपने लोगों की बेहतरी की तुम्हें चिंता लगी रहती है। जानकर अच्छा लगा। लेकिन मैंने भी कोई घास नहीं छिली, समाजशास्त्र में एमए हूं। तुमसे बस इतना ही कहना चाहूंगा, जो हो गया सो हो गया। तुम 'नेतागिरी' में मत पड़ो।"

"ऐसी बात नहीं है भाई, सभी नेता या पार्टी की विचारधारा बुरी ही होती है। वोट देना हमारा मौलिक अधिकार है। संविधान से आम जनता की मिली यही तो सबसे बड़ी ताकत है। जिससे पांच वर्षों में हम निरकुंश सत्ता को उखाड़ फेंकते हैं।", विनायक ने यह बात इत्मीनान से कहते हुए ख़त्म की। और गहरी सांस ली।

फिर कहा, 'नेता जी' की पार्टी पूर्व के कार्यकाल में राज्य की सत्ता में थी। उसने हमारे लिए अच्छा या बुरा जो भी किया। कम से कम हमें जड़ों से काटने की साजिश तो नहीं रची थी। यदि हमारे प्रयास से वे सत्ता में आ जाए तो इसमें अपने ही लोगों की भलाई है।"

"लेकिन ये लुभावने भाषण, विकास के वादे, संविधान, लोकतंत्र, सत्ता, विकास, राष्ट्रीयता आदि-आदि की कोरी आदर्शवादी बातें, महज़ सुनने में ही अच्छे लगती हैं। सत्ता मिलते ही सभी नेता एक थैली के चट्टे-बट्टे निकलते हैं। देश की आजादी के कई दशक बीत गए। हम मूल निवासियों का शोषण रुका क्या अभी तक?", बोलते-बोलते हरिमोहन की आंखें तमतमा गई।

"मैं आपके कहे को गलत नहीं ठहरा रहा हरि भाई, ना मैं आपके उपर अपनी कोई विचारधारा लाद रहा। आप लोग जिन काल मार्क्स, लेनिन, स्टैलिन, चे ग्वार, माओत्से तुंगे के विचारों से प्रभावित हैं। माओ की नीतियों पर चलते भी हैं। उनको हमने भी पढ़ा है, जाना है। लेकिन मैं आपसे कहना चाहूंगा कि यह देश बुद्ध, अम्बेडकर और गांधी का है। जहां हिंसा के लिए कोई ज़गह नहीं। हम दोनों का उधेश्य एक है, सामाजिक न्याय, लेकिन रास्ते अलग-अलग। ऐसे में, आपको भी हमारे काम से आपत्ति नहीं होनी चाहिए।"

"कमांडर दो बजे गए। अब हमें चलना चाहिए, टाइम हो गया निकलने का।" एक कामरेड ने फुसफुसाते हुए कहा।

"ठीक है। हम लोग निकल रहे हैं। लेकिन कुछ गड़बड़ हुआ तो याद रखना।" हरिमोहन यह कहते हुए खड़ा हो गया। फिर सभी वहां से चले गए। इस बीच विनायक यह नहीं समझ पाया कि यह धमकी थी या नसीहत। ऐसा कहने के पीछे की वज़ह क्या रही होगी।

रात में देर से सोने के कारण सुबह आठ बजे उसकी आंखें खुलीं। आदत के मुताबिक व्हाट्सएप्प खोलकर देखने लगा। तभी 'लोकल न्यूज़ ग्रुप' में एक ख़बर पढ़कर वह सन्न रह गया। 'प्रतिबंधित जनक्रांति संगठन का कमांडर हरिमोहन उर्फ वारियर तीन साथियों के साथ पुलिस मुठभेड़ में मारा गया'। इससे आगे का मज़मून वह पढ़ता, पापा ने उसके कमरे में दस्तक दी। कुछ चिंतित से लगे।

उन्होंने कहा, "बेटे कल कमांडर और उसके तीन साथी मारे गए, मुठभेड़ में। पुलिस गांव में आई है, पूछताछ के लिए। सभी लोगों ने अपने घरों का दरवाजा बंद कर लिया है।"

विनायक बिना कोई जवाब दिए सीढ़ी पर चढ़ा। उसमें लगे झरोखों से झांका। देखा कि एक खाकी वाले अधिकारी कंधे में छोटा सा लाउडस्पीकर लटकाए, माइक से बोल रहे थे, "मैं डीएसपी राघवशरण भाटी बोल रहा हूं। घबराइए नहीं हमारा सहयोग कीजिए। हम आपकी ही सुरक्षा के लिए हैं। आपको सूचित किया जाता है कि कल देर रात 'जनक्रांति' के सदस्य मुठभेड़ में मारे गए। हमें सूचना मिली है कि वे इसी गांव से बैठक कर लौट रहे थे। क्या कोई सज्जन बता सकता है, वे यहां क्या करने आए थे?"

यह सब सुनकर वह पापा की हिदायत को ध्यान दिए बगैर तेजी से नीचे उतरा। और घर से बाहर निकल आया। कहा, "जी सर नमस्कार, पूछिए क्या जानकारी चाहिए?"

"आपकी तारीफ?", डीएसपी भाटी ने उसके बोलने का सलीका देख घूरते हुए पूछा।

"जी, मैं विनु उर्फ विनायक। टीयू से पीजी कर रहा हूं। अभी छूट्टी में घर पर हूं। वैसे मैं यहां के वार्ड सदस्य का पुत्र भी हूं।"

"ओहो, तभी तो कह रहे हैं कि… आजकल तो आपकी यूनिवर्सिटी काफी चर्चे में है। मीडिया में हर तरफ़ छाए हुए हैं वहां के छात्र। पढ़ाई कम राजनीति ज्यादा। अजीब-अजीब सी मांगें कर रहे हैं, देश बर्बाद करने की पूरी…"

डीएसपी के लहज़े में छुपे हुए व्यंग को भांप गया वह। बीच में ही उनकी बात काटते हुए बोला, "निवेदन है सर, काम की बात की जाए। बोलने के लिए मेरे पास भी बहुत कुछ है। लेकिन डिबेट कीजिएगा तो हार जाइएगा। वैसे भी मन खिन्न है अभी।"

"ओके, ओके, रिलैक्स। जान सकता हूं कि कल वे 'शांति दूत' क्या करने आए थे इधर?"

"मैं लोगों को वोट देने के लिए जागरूक कर रहा हूं। यही बात उन्हें अच्छी नहीं लगी। आप तो उनकी विचारधारा जानते ही हैं। उनके दबाव के बावजूद मैंने उनकी 'वोट बहिष्कार' नीति का समर्थन नहीं किया, " विनायक ने कहा।

"वैसे मैं जान सकता हूं। आप यहां के लोगों को जागरूक कर रहे हैं या किसी ख़ास पार्टी का प्रचार?" डीएसपी भाटी ने पूछा।

"खास पार्टी मतलब?" आपके इस ग़ैरवाजिब सवाल का जवाब देने के लिए मैं मजबूर नहीं हूं। बस इतना जान लीजिए हमारा देश लोकतंत्रिक मूल्यों पर टिका है। इस नाते यहां के सभी नागरिकों को चुनाव लड़ने, वोट मांगने या किसी पार्टी के पक्ष में प्रचार करने का संवैधानिक अधिकार हैं। मैं भी वहीं कर रहा।"

विनायक का यह कथन सुन उन्हें कोई जवाब ही नहीं सूझ रहा था। कुछ देर के लिए चारों तरफ़ सन्नाटा छा गया। हालांकि घरों में दुबके लोग दम साधकर उनकी बातचीत सुनने का प्रयास कर रहे थे।

"कोई बात नहीं। मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था। आप बुरा मान गए। खैर, आप पढ़े-लिखे आदमी हैं। कानून में भी पूरी आस्था है। इस नाते आपसे मेरी नेक सलाह है। रात वाली बात को लेकर आप स्थानीय थाने में आवेदन देकर रिपोर्ट दर्ज करा दीजिए।"

"अरे साहब। अब छोड़िए भी ना। क्या रिपोर्ट दर्ज कराकर, पढ़ने-लिखने वाले लड़के को केस-मुकदमा में लपेटिएगा। इसको अभी दुनियादारी का अनुभव ही कहां हैं।", यह विनायक के पिता का स्वर था।

"पापा आप इस तरह से गिड़गिड़ाकर इन लोगों के सामने लाचारी क्यों दिखा रहे हैं। मुझे कोई रिपोर्ट नहीं दर्ज करानी। ना ही ऐसा करने के लिए कोई दबाव बना सकता है।", विनय ने दाहिना हाथ उठाकर पापा को चुप रहने का इशारा किया।

"अच्छा तो हमें चलना चाहिए। यदि आपको असामाजिक गतिविधि की कोई सूचना मिले तो हमसे जरूर शेयर कीजिएगा। ये रहा मेरा मोबाइल नम्बर।", उससे मित्रवत व्यवहार जताते हुए डीएसपी ने गंभीर माहौल को थोड़ा सहज बनाने की कोशिश की। इसके बाद वहां से अपनी पुलिस टीम के साथ निकल लिए।

भाग -3

निश्चित तिथि को चुनाव हुआ। मतगणना का परिणाम भी आया। मधुआ विधानसभा से किसान मजदूर एकता पार्टी के दिनेश्वर महतो अच्छे मतों से चुनाव जीत गए। प्रदेश में उन्हीं की पार्टी की गठबंधन वाली सरकार बनी। इस चुनाव की चर्चा पूरे देश में होने लगी। वजह रही देश की सत्ता संभाल रही पार्टी का तेजी से राज्य चुनावों में जनाधार खोना।

इधर, विनायक छुट्टी बिताकर यूनिवर्सिटी लौट गया। दो दिन हो गए थे उसे यहां आए। लेकिन कैम्पस की स्थिति काफ़ी तनावपूर्ण थी। एक तो सरकार ने इस बार फ़ीस में अप्रत्याशित बढ़ोतरी कर दी थी। उसको लेकर आंदोलन जारी ही था। उस पर दोनों छात्र संगठनों, भारतीय छात्र परिषद और इंक़लाब छात्र एकता में भी तनातनी चल रही थी। इसमें कुलपति (वीसी) की पक्षपाती भूमिका आग में घी का काम कर रही थी। आग भड़के भी क्यों नहीं, जब एक पक्ष को सत्ता का अप्रत्यक्ष सह मिल रहा हो।

उसने घड़ी की ओर देखा, नौ बजने वाले थे। आज उसका डिनर का मूड नहीं था। सोचा, ब्रेड पकौड़ा खाकर हॉस्टल में जाकर पढ़ाई किया जाए। सहसा बगल में स्थित 'विष्णु' ढाबे की तरफ़ उसके कदम मुड़ गए।

"दो ब्रेड पकौड़े लगाना जरा। और हां, टोमैटो नहीं चिली सॉस देना।", उसने काउंटर बॉय से ऑर्डर लगते हुए कहा।

"सर, पैक कर दें या यहीं पर खाना है।",

"यहीं पर लगा दो यार।"

कुछ ही देर में प्लेट में आइटम हाज़िर था। दस मिनट में उसने निपट लिया। पैसे देने के लिए पॉकेट में हाथ लगाया। तभी याद आया, अरे पर्स तो कमरे में ही छूट गया। उसने पॉकेट से मोबाइल निकाला। वहां रखे पेटीएम बार कोड को स्कैन करने के लिए हाथ आगे बढ़ाया।

"सर, पेटीएम सुविधा अभी बंद है। पैसे नहीं है तो कोई बात नहीं। 20 रुपए की तो बात है कल दे दीजिएगा। वैसे भी आप हमारे पुराने ग्राहक हैं।" काउंटर बॉय का जवाब था।

उसका जवाब सुनकर विनायक मन ही मन मुस्कुराया। यहीं तो खासियत है इस कैम्पस की। कोई कितना भी कमर्शियल क्यों न हो। कुछ दिन यहां रह ले तो मिलनसार हो ही जाता है। घुलमिल कर जीना सीख लेता है। मेट्रो सिटी में इस तरह का सहज वतावरण शायद ही कहीं देखने को मिले।

लेकिन अगले ही पल यह सोचकर थोड़ा बोझिल होने लगा, "जाने इस यूनिवर्सिटी की साफ़-सुथरी आबो-हवा को किसकी नज़र लग गई।"

तेज कदमों से वहां से निकला। होस्टल से कुछ दूर पहले छह नम्बर गेट के पास जुटी भीड़ दिखी। पास गया तो देखा, मॉस्ट लाइट की दूधिया रौशनी में पार्क की हरी घास पर चौपाल लगी थी। दर्जनों की भीड़ में अधिकांश जाने-पहचाने चेहरे दिखे। अमरजीत, नरेन्द्रनाथ, संदीप, सोफिया, पुलकित मिश्रा, मालती, रेहान, जॉन पीटर, वेंकटेश… आर्ट, साइंस, लैंग्वेज लगभग सभी फैकल्टी से विद्यार्थी आए थे।

छात्र संघ का अध्यक्ष माधव मुरारी खड़े होकर अपनी चिर-परिचित शैली में जारी था। "साथियो, अभी हम बहुत ही नाज़ुक परिस्थिति से गुजर रहे हैं। अगले पल क्या हो जाए कहना मुश्किल है। एक साथ हम कई मोर्चे पर लड़ रहे हैं। ओपोजिट संगठन, सत्ता, यूनिवर्सिटी एडमिनिस्ट्रेशन, मीडिया और आम जनता से भी। ऐसा हैवोक क्रिएट किया गया है कि पूरी 'टीयू' की शाख दांव पर लगी है।"

तभी उसका ध्यान विनायक पर गया। बोला, "अरे विनु, यार घर से कब आए। तुम्हारे यहां तो चुनाव में गज़ब परिणाम आया।"

जवाब में विनायक कुछ बोला नहीं। बस हाथ उठाकर मुस्कुरा भर दिया। शायद कुछ भी बोलकर इस जरूरी डिबेट को भटकाना नहीं चाहता था।

इधर, माधव वापस मुद्दे पर आते हुए पूछा, "क्या आपमें से कोई बता सकता है। तेजनारायण यूनिवर्सिटी का रहना क्यों जरूरी है?"

यह सुनकर संदीप बोला, "मैं कुछ कहना चाहता हूं।" इतना कहते हुए अपनी ज़गह पर खड़ा हो गया। लोक प्रशासन विषय से एमफिल का छात्र था। ग्रामीण क्षेत्रों की समस्या पर अच्छी पकड़ थी। बोलता भी बेजोड़ था।

बोला, "मैं बावनगढ़ जैसे सुदूरवर्ती राज्य से हूं। प्राकृतिक संसाधन होने के बावजूद आज तक वहां से गरीबी नहीं गई। जबकि बड़ी-बड़ी कंपनी वाले हमारा कोयला बेंचकर मालामाल हो गए। हमारे लोगों की दिहाड़ी पर खटते हुए कई पुश्तें बीत गई। इसका सबसे बड़ा कारण है, अशिक्षा। लोगों को अपना अधिकार पता ही नहीं।"

'अरे भाई, बहुत लंबा खींचते हो। पकाने में तुम्हारा कोई जोडा नहीं। बिना भूमिका के तुम बोल ही नहीं सकते। मुद्दे पर आओ।", रेहान ने बीच में ही उसकी बात काटते हुए चुस्की ली।

"हां तो इतने उतावले क्यों हो रहे हो? वहीं तो आ रहा हूं। आप सब मेरी आदत से वाकिफ़ हैं ही। आमतौर पर सामूहिक चर्चा में ज़्यादा सुनता ही हूं, बोलता नहीं। लेकिन जब बोलने की बारी आती है, तो बिना भरपेट बोले रुकता भी नहीं।" उसने कहा।

फिर चर्चा पर लौट आया, "देश के किसी भी कस्बा या गांव में अलग-अलग जाति व धर्म में जब बच्चे जन्म लेते हैं। कोई किसान, कोई मजदूर, कोई रिक्शाचालक, कोई मोची, कोई दर्जी की संतान के रूप में आंखें खोलता है। वह बच्चा बचपन से ही घर में कई तरह की बातें सुनते बड़ा होता है। ये फलाने बाबू जमींदार, ये चिलाने साहब उद्योगपति, डॉक्टर, व्यवसायी हैं।"

"सॉरी!" ये कहकर उसने बहुत देर से वाइब्रेट कर रहे मोबाइल को पैंट के पॉकेट से निकाला। कॉल में आ रहे नम्बर को देखा। फिर उसे बंद कर वापस पॉकेट में रख लिया।

"हां तो मैं कह रहा था" के तकिया कलाम के साथ वह शुरू हो गया, "सरकारी स्कूल में पढ़ते हुए उन बच्चों में समाज आत्महीनता भर देता है। उनके दिमाग में यह बैठा दिया जाता है। पूर्वजन्म के अच्छे कर्मों के हिसाब से आदमी कर्म फल भोगता है। एक काम्प्लेक्स सबके ज़ेहन में घर कर जाता है। भाग्य के भरोसे जिंदगी व्यतीत करने के लिए। जहां कुछ करने नहीं, कुछ होने में यकीन होता है। और फिर शोषण सहने का अंतहीन सिलसिला चलते रहता है।"

संदीप ने थोड़ी जम्हाई ली। फिर कहा, "हम वैसे परिवेश से आते हैं, जहां संघर्ष से तकदीर बदलना नहीं। सब्र से रहते हुए इंतजार करना सिखाया जाता है। वह 'टीयू' ही है जो हमारे अंदर आत्मविश्वास भरता है। हमें सिखाता है। कोई किंतना भी बड़ा क्यों न हो। संविधान से उपर नहीं। इंसान की सबसे बड़ी शक्ति होती है, जानकारी। जो किताबों से मिलती है, प्रोफ़ेसर के लेक्चर और आपसी चर्चा से बढ़ती है। कहा भी गया है कि विचारों से पूरी दुनिया के दिलों पर राज किया जा सकता है।"

"एकदम मेरे दिल की बात कह गए आप। मैं जिस राज्य लालगढ़ से आता हूं। वहां पर पांच कट्ठा जमीन जोतने वाला ठाकुर भी खुद को उंची जाति के होने के मुग़ालते में जीता है। जबकि उनकी हैसियत किसान मजदूर से ज्यादा की नहीं।" यह पुलकित मिश्रा का स्वर था।

पुलकित। दर्शनशास्त्र से एमए प्रथम वर्ष का छात्र, दोस्तों के बीच 'पंडित' के नाम से चर्चित था। कुछ दिन पहले तक वह भी बीसीपी का सदस्य था। लेकिन संगठनों की आपसी लड़ाई में जब यूनिवर्सटी की प्रतिष्ठा दांव पर लगी नज़र आई। उसने वहां से किनारा करना ही उचित समझा। स्वतंत्रता सेनानी का पोता और परिवार की समाजवादी पृष्ठभूमि का होना भी एक बड़ा कारण था।

उसका मानना था, "सामाजिक न्याय की चाहत रखने वाले को हमेशा दमनात्मक नीतियों का विरोधी होना चाहिए। ना कि सत्ता का तलवा चाटने वाला।"

अब सोफिया के बोलने की बारी थी। उसने पंडित की बातों को आगे बढ़ाते हुए कहा, "लोगों को अपनी ट्रेडिशनल मानसिकता बदलनी होगी। देश में शोषण का रूप बदल गया है। वह चाहे किसान, मजदूर, दलित, महिला, पिछड़ा, किसी भी वर्ग का निम्नमध्यवर्गीय परिवार हो या बेरोजगार। सबकी लड़ाई अभी पूंजीवादी व्यवस्था से है। यह हमारा ही नहीं पूरे विश्व का मामला बन गया है। जेंडर, कास्ट डिस्क्रिमिनेशन, इकोनॉमिक एनइक्वलिटी किसी भी समाज की तरक्की के सबसे बड़े रोड़े हैं।"

"बिल्कुल, जिस तरह से सरकारी जॉब, शिक्षण संस्थानों में कटौती कर निजीकरण को बढ़ावा मिल रहा है। देश के 70 प्रतिशत युवा टैक्स भरने वाले मजदूर बनकर रह जाएंगे। महंगे लोन लेकर बच्चे को पढ़ाओ। वहीं बच्चा जब किसी निजी कम्पनी में नौकरी करेगा। टैक्स काटकर मिल रही सैलरी से पहले एडुकेशन लोन भरेगा। फिर दाल-रोटी चलाने, बच्चों को पढ़ाने, गाड़ी, मकान की ईएमआई भरने में ज़िंदगी पिसती रहेगी।" अध्य्क्ष माधव ने हामी भरी।

कहा कि, "हमारा विरोध निजी कंपनी या एडुकेशनल इंस्टीट्यूशन्स से नहीं है। खुले और ज़्यादा से ज़्यादा संख्या में खुले। लेकिन सरकारी संस्थानों की बंदी की शर्त पर मंजूर नहीं होगा। कंपनी बिठाने के नाम पर अनावश्यक रूप से जंगल, पहाड़ जैसे नेचुरल रिसोर्सेज नष्ट नहीं किए जाए।"

तभी एक साथ कई कदमों की आहट सुनाई दी। दर्जनों की संख्या में नकाबपोश हाथों में हॉकी स्टिक, लोहे का रॉड, डंडे लिए आते दिखे। एक साथ कई आवाजें आई, "मारो साले देशद्रोहियों को।" फिर तो फटाक, फटाक… जबर्दस्त भगदड़ मची वहां पर। किसी की बांहों में, पीठ में तो किसी के पैर में चोटें आई। विनायक ने खुद को संभालते हुए देखा कि मुख्य गेट की ओर पुलिस खड़ी है। लेकिन सहायता के लिए नहीं आ रही। इससे पहले कि वहां से भागता। एक हॉकी स्टिक उसके माथे पर पड़ी। वहीं गश खाकर गिर पड़ा।

होश भी आया तो अगली सुबह अस्पताल में। वहां आईसीयू में बेड पर पड़ा था। उसने हाथों से छूकर कन्फर्म होना चाहा, सिर पर पट्टी बंधी थी। तभी नर्स ने उसे देखा।

पास आकर बोली, 'कैसी तबीयत है अभी?"

"सिर भारी लग रहा है।"

"बाबू, अभी थोड़ा-थोड़ा दर्द करेगा। तुमको बहुत चोट लगी थी। ढेर सारा खून निकला है। छह टांके पड़े हैं। टेंशन नहीं करने का। मेडिसिन लो, कुछ दिन आराम करो। गॉड सब ठीक कर देगा।"

विनायक ने गौर किया, टूटी फूटी हिंदी-अंग्रेजी में बतिया रही अधेड़ उम्र की गोरी क्रिस्चियन नर्स थीं। तब तक वह पहिया वाले बेड को पुश करने लगी।

पूछा, कहां ले जा रही हैं अभी?"

"तुम्हारी स्थिति कंट्रोल में है। अस्पताल के जेनरल वार्ड में शिफ्ट किया जा रहा है।"

उसने देखा जेनरल वार्ड में पहले से ही कई मरीज पड़े थे। चारों ओर कराहने, खांसने की आवाज़। स्लाइन की बोतलें टंगी हुई। अजीब सा फील हो रहा था उसे। तभी टीवी पर चल रहे न्यूज की ओर ध्यान गया। स्क्रोल में ख़बर चल रही थी, "टीयू कैम्पस में आईसीए संगठन व बाहरी उपद्रवियों के बीच जमकर मारपीट, कई घायल, बीसीपी संगठन के छात्रों को भी आई गम्भीर चोटें"

वहीं एंकर बोल रही थीं, "तेजनारायण यूनिवर्सिटी में बाहरी उपद्रवियों ने किस साजिश के तहत इंक़लाब छात्र एकता के सदस्यों से मारपीट की, बदले में उन्होंने भारतीय छात्र परिषद से जुड़े छात्रों को भी चोटें पहुंचाई। ऐसा क्यों हुआ, जांच का विषय है। आपको बता दें कि आए दिन हो रहे विवादों के चलते छात्रों की पढ़ाई अधर में लटकी है। देश भर के बुद्धिजीवियों की राय आ रही है कि वामपंथियों की अमर्यादित हरकतों के कारण यह समस्या उत्पन्न हुई है। कुछ समय के लिए यूनिवर्सिटी को बंद ही कर देना चाहिए।"

अचानक उसे याद आया। उसने जीन्स के पॉकेट को हाथों से टटोला, "अरे, मेरा मोबाइल कहां गया, सिस्टर क्या आप जानती है?"

"हां, अभी लाकर देती हूं। ड्रावर में रखा है।" नर्स ने लेकर मोबाइल दिया तो उसने स्विच ऑन किया। देखा, चार्जिंग लेबल 30 प्रतिशत बचा हुआ था। जैसे ही कॉल करने के लिए की पैड टच किया। उधर से आ रही कॉल के चलते रिंग टोन बजने लगा। घर का नम्बर था।

"हेल्लो, हां प्रणाम पापा।"

"खुश रहो। सुबह से लगातार फोन मिला रहा था। बंद बता रहा है। काफ़ी फ़िक्र हो थी तुम्हारी। सब ठीक है न? टीवी पर देखा, तुम्हारे कॉलेज की खबर। बता रहा है, फिर से मारपीट हुई है। बहुत छात्र घायल हैं।

"नहीं, नहीं आप जरा भी चिंता मत करिए। मैं बिल्कुल ठीक हूं।"

"तुम्हारी आवाज इतनी धीरे-धीरे क्यों निकल रही है। मुझसे कुछ छुपा रहे हो क्या विनु?

यह सुनकर वह अपने जज़्बात पर काबू नहीं रख पाया। फफककर रोने लगा। उसको सुनकर पापा भी शुरू हो गए। इधर बाप उधर बेटा, रोते हुए दोनों हो एक दूसरे को सांत्वना देने लगे। अस्पताल के अन्य मरीजों के साथ नर्सों का भी ध्यान उसकी तरफ़ हो गया।

"पापा, प्लीज चुप हो जाइए। मुझे कुछ नहीं हुआ। हल्की-फुल्की चोट आई थी। अब ठीक हूं। आप तो सीरियसली ले लिए इसे।"

"बेटा है मेरा तू, तुझे जन्म दिया, पाला, पोसा और बड़ा किया। तुमसे ज़्यादा तुमको समझता हूं। कोई एक थप्पड़ भी मारता है तुम्हें। तो लगता है मेरे कलेजे पर सौ लाठियां चली हैं।", उधर खेदन महतो ने आंसुओ को पोछते हुए खुद को सामान्य बनाने की कोशिश की।"

सुबकते हुए बोले, "जिस कंधे पर तुझे घूमा-घूमाकर बड़ा किया। आज उसे तेरे सहारे की जरूरत है। एक तो पहले से ही दुख झेल रहा हूं, 'बड़का (बड़ा बेटा)' असम कमाने गया। और शादी कर वहीं पर घर बसा लिया। पांच वर्ष हो गए। आज तक उसे याद नहीं आई कि गांव में उसका कोई अपना भी है। अब नहीं चाहता कि मेरे बुढ़ापे की इकलौती लाठी भी टूट जाए।"

"आप ऐसे हिम्मत हारकर, मुझे कमजोर नहीं कीजिए। अभी मुझे पढ़ना है। अपने ही लिए नहीं, समाज के लिए भी। प्लीज आप चुप हो जाइए।"

"भाड़ में जाए तुम्हारी पढ़ाई और समाजसेवा। सब कोई कमाने-खाने, एक-दूसरे को लूटने में लगा है। नेतागिरी का चक्कर छोड़ो बेटा। एक काम करो, कल ट्रेन पकड़ो और वहां से चले आओ। यहां तुम्हारी रिश्तेदारी के लिए भी कई लोग आ रहे हैं। पता है, विधायक जी ने चिमनी का लाइसेंस दिलवाने की बात कही है। बैंक से लोन भी करवा देंगे। आकर संभालो ये सब।"

"पापा, आप क्षणिक भावना में बहकर इस तरह की बातें कर रहे हैं। आप इतना मतलबी कैसे हो सकते हैं, संभालिए खुद को। ज़िंदगी कोई तीन घण्टे की फ़िल्म नहीं। अपना पेट तो कुत्ता भी पाल लेता है। इतना जान लीजिए, मैं यहां आया भले ही उंची पढ़ाई और अच्छी नौकरी के लिए था। लेकिन मेरे जीने का मक़सद अब बदल गया है।"

"देख, मैं कुछ नहीं सुनना चाहता। तुझे आना ही होगा। कह दिया तो कह दिया। नहीं तो आज से मेरा खाना बंद।"

"पापा, मैं आपकी जिद जानता हूं, जो कहते हैं पूरा करते हैं। लेकिन मैं भी कम जिद्दी नहीं, खून तो आपका ही हूं। याद है, जब मैं गांव के स्कूल में पढ़ता था। मास्साब बस्ती के बच्चों को ट्यूशन पढ़ाने आते, तो एक कविता अक्सर सुनाया करते थे। आपको भी वह बेहद पसंद थी। उसकी दो पंक्तिया आज भी मुझे प्रेरित करती हैं। 'हर ज़ोर-ज़ुल्म की टक्कर  में संघर्ष हमारा नारा है, हम रुके नहीं हम झुके नहीं कहता इतिहास हमारा है… बाकि, आप खुद समझ लीजिए।"

इतना कहते हुए विनायक ने फोन काट दिया। इससे आगे वह कुछ कहने या सुनने की स्थिति में भी नहीं था। और दोबारा फूट-फूटकर रोने लगा। लेकिन, शायद इस बार उसकी आंखों से निकल रही आंसू की बूंदें। उसको कमजोर करने के लिए नहीं, उसके बोझिल मन की पीड़ा को हल्का करने के लिए थीं। (पूरी कहानी मेघवाणी ब्लॉग पर भी उपलब्ध है।)

©️®️श्रीकांत सौरभ (साहित्य के अथाह समंदर का नवोदित तैराक हूं। किसी भी एक भाषा का मुक़म्मल ज्ञान नहीं, देवनागरी से बेपनाह मोहब्बत है। मेरा लिखा पढ़कर प्यार लुटाइए या नाराज़गी जताइए। लेकिन अपनी भावनाओं को छुपाइएगा मत।)

नोट - मनोरंजन के लिए लिखी गई यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें जिक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।


06 January, 2020

जिन्हें फिल्म 'DDLJ' के राज-सिमरन की तरह प्यार नसीब नहीं, उनके लिए

बसंत आ गया। दिख रहा है, खेतों में फुलाए पीले-पीले सरसों की पंखुड़ियों में। अंगड़ाई लेते मटर, गेंहूं के हरिहराए पौधों में। महसूस हो रहा, फफनाकर बहती, प्री फगुनहट का अहसास कराती पछुआ ब्यार में। महक रहा है, खिले डहलिया, गेंदा, गुलाब, जूही के फूलों में। आम की डालियों के बीच आस्तित्व के लिए संघर्ष करते मंजरों में। सुनाई दे रहा, बागों में बैठीं कोयल की कूक में।

यह महीना ऐसे भी खास होता है। जहां ठंड की जवानी उफान पर होती है। वहीं, भोर से ही जागकर। रजाई/कंबल में नुकाए मैट्रिक/इंटर की तैयारी कर रहे जाने कितने किशोर। ब्रिलियंट/एमबीडी/गोल्डेन प्रकाशन का गेस पेपर चाटकर विहान कर रहे होते हैं। यौवन की तरुणाई में उतराते इन रणबांकुरों को एक तरफ जहां इम्तिहान की चिंता सताती है। दूसरी तरफ प्यार की पाठशाला में नव नामांकित लाखों 'प्रीतम' व 'प्रीति' के दिलों में प्यार की पींगे भी उठने लगती हैं।

ऐसा होना स्वाभाविक है। इसीलिए मौलिक भी लगता है। बसंत का प्रेम से सदियों का नाता रहा है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं, इस दौरान मस्तिष्क में ऑक्सिटॉक्सिन व डोपामाइन हार्मोन का प्रवाह चरम पर होता है। तभी तो एक परछाई भर साथ के लिए। अप्रैल से दिसम्बर तक लगातार पीछा करने के बावजूद। जिस 'धनिया' का दिल 'होरी' के लिए नहीं तरसता। जनवरी आते-आते उसकी याद में भी धड़कने लगता है।



भले ही दुनिया फाइव जी युग में हैं। कई तरह के संचार व्यवस्था है, प्रेम रस में सराबोर होने के लिए। लेकिन अभी भी हमारे बिहार या यूपी के गांवों/कस्बों के लौंडों का लभ। व्हाट्सएप्प, इमो, एफबी मैसेंजर पर या मल्टीप्लेक्स, पार्क, मॉल में नहीं। गांव के चौक, चट्टी, बाजार स्थित चल रहे किसी नौंवी/दसवीं के कोचिंग या हाईस्कूल में ही पनपता है। और हां, सरस्वती पूजा के रोज इसका इजहार चरम पर होता है। जहां किसी 'चंदू' के मुनहार पर कोई 'चिंकी' ललका शूट में आती है। प्रसाद बांटने के बहाने ही सही। स्पर्श सुख से जमाने भर की खुशी जो मिल जाती है।

पिसवाने ले जाने के दौरान बोरे से दो-तीन किलो गेंहूं चुराना। फिर उसे दुकान में बेंचना। उस पैसे से प्रेमिका के जिओ सिम का 50 ₹ के टॉप अप से रिचार्ज कराने का अनुभव। या फिर इसी ठंड के बीच अधनिकली गुलाबी धूप में। किसी प्रेमिका का कपड़ा सुखाने/उतारने, धूप सेंकने के बहाने। बार-बार छत पर जाना। और सीढ़ी वाले घर में छुपकर मोबाइल से घण्टों बतियाने का सुख। क्या होता है। यह तो हिन्दी पट्टी का कोई कस्बाई युवा ही बेहतर ढंग से बता सकता है।

खैर, छोड़िए। कसमें, वादे, प्यार, वफ़ा सब बातें हैं, बातों का क्या। नए साल में मेरी भगवान से यही गुजारिश रहेगी। वैसे प्रेमी/प्रेमिका जिनका लंबे समय से ब्रेक अप है। या बिल्कुल खलिहर हैं। उन्हें जरूर से नया 'प्यार' मिल जाए। जिसका अफेयर अच्छा चल रहा है। उसे रिश्ते का दामन मिल जाए। और हां, वैसे बालिग प्रेमी जोड़े जो जॉब में सेटल्ड हैं। जिनकी राजी के बाद भी मां-बाप शादी में रोड़े बने हैं।

उन्हें साफ तौर पर कहना चाहूंगा। फिजूल के इंतजार में समय ज़ाया नहीं कीजिए। सबको फिल्म 'दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे' के 'राज' व 'सिमरन' की तरह प्यार नसीब नहीं होता। जिसमें तमाम विरोध करने के बाद भी चौधरी बलदेव सिंह की तरह कोई मजबूर पिता आए। और बेटी का हाथ पकड़कर प्रेमी के हाथों में सौंपते हुए कहे, जा सिमरन जा, जी ले अपनी जिन्दगी। अब आपको आगे क्या करना है। उम्मीद है, आप अच्छी तरह समझ गए होंगे।

©️®️श्रीकांत सौरभ, मोतिहारी वाले। (अच्छा लगा हो तो प्रतिक्रिया जरूर दीजिएगा। लाइक व शेयर भी करिए।)

'नीचे इश्क है उपर रब है, इन दोनों के बीच में सब है'

मित्रो, अंग्रेजी कैलेंडर के मुताबिक साल का पहला दिन था। आज पांच बजे ही नींद टूट गई। आदत के मुताबिक मोबाइल लेकर टीपने लगा। सोचा, दो घण्टे पहले जगा हूं। क्यों नहीं, कोई फिल्म देख ली जाए। नेटफ्लिक्स खोला। बॉलीवुड की पुरानी मूवी खंगलाते हुए 'ताल' पर नजर ठहर गई। सहसा फ्लैश बैक में चला गया। वर्ष 1999 का वह अगस्त महीना। जब मोतिहारी के 'संगीत टॉकीज' में फिल्म लगी थी।

तब आईएससी प्रथम वर्ष का छात्र था। अखबार में फिल्म का जबर्दस्त विज्ञापन आ रहा था। समीक्षा भी आई थी। एक तो कम्प्लीट शो मैन सुभाष घई की ड्रीम फिल्म। वहीं ए आर रहमान की फ्यूजन म्यूजिक। यानी लाइट क्लासिकल गाने के साथ प्राकृतिक वाद्य यंत्र घड़ा, चम्मच, थाली की आवाज का प्रयोग। उस पर विश्व सुंदरी ऐश्वर्या राय जैसी नवोदित अभिनेत्री का इनोसेन्ट अभिनय। और चर्चा यह कि आधी फिल्म में बिना मेक अप ऐश्वर्या की लुक आउट गजब की दिखती है।

पहले दिन ही शो देखने की लालच नहीं रोक पाया। पूरे 20 रुपए ब्लैक में टिकट खरीदा था मैंने। फिल्म मानव व मानसी के प्यार पर केंद्रित था। मानव मेहता (अक्षय खन्ना) एक बड़े उद्योगपति जगमोहन मेहता (अमरीश पूरी) का लड़का। स्कॉटलैंड से पढ़कर लौटा था। विदेशों में पढ़े होने बावजूद जड़ों से जुड़ा हुआ सांस्कारिक युवक। बड़े घराने के होने का लेस मात्र घमंड नहीं।

उसकी फैमिली आउटिंग कम बिज़नेस ट्रिप के मकसद से हिमाचल के चंबा में आई है। मानव विदेश से सीधे वहां घूमने आता है। जहां स्थानीय लोकप्रिय फोक गायक व संगीतकार तारा बाबू (आलोकनाथ) की इकलौती बेटी मानसी (ऐश्वर्या राय) के प्रेम में पड़ जाता है। फिल्म देखते हुए, पता नहीं क्यों। वह किशोर उम्र का आकर्षण था या कुछ और।

सादगी भरा वो निश्चल चेहरा, सुरमई आंखे, हंसते हुए गालों पर पड़ा डिम्पल। नृत्य करते हुए सुडौल फिगर की लचक। उस वक्त कमसीन चेहरा वाली ऐश्वर्या बलां की खूबसूरत लगी थीं। जादुई परी सी। इतनी कि उससे पहले मैं पटकथा या हीरो के चलते फिल्में देखता था। लेकिन इस फिल्म को देखने के बाद विश्व सुंदरी का लाइफ टाइम फैन बन गया।

खैर, मुद्दे पर लौटता हूं। 20 साल बाद मैंने फिल्म को दुबारा नए सिर से देखा। भले ही मैं इन वर्षों में 15 से 35 का हो गया। लेकिन कुछ भी तो बदला सा नहीं लगा फिल्म में। वहीं चंबा घाटी का मनमोहक पहाड़ी दृश्य, नदी, झरना। बैकग्राउंड में गूंजती रहमान साहब की शास्त्रीय तान। और तारा बाबू का संगीताश्रम। जहां मानव को मानसी मिली। मानसी बोले तो मनोहरी छवि वाली एक सुंदरी। कुशल नृत्यांगना, गायक व योगा शिक्षक भी। उसका बेहद सादगी से मानव को योगा सिखाना। एक-दूसरे के प्रेम में पड़कर फिर से मिलने का वादा कर मानव का मुम्बई लौटना।



कुछ दिनों बाद उससे मिलने के लिए पिता के साथ मानसी का भी मुम्बई पहुंचना। लेकिन वहां पहुंचने पर उनके साथ बुरा व्यवहार होना। मानव की अनुपस्थिति में उसके भव्य कोठीनुमा घर पर उसके भैया, भाभी, चाचा, चाची व पिता का तारा बाबू की गरीबी का मजाक उड़ाना। अमीरी के दंभ में सरस्वती के साधकों को नीचा दिखाना। बेइज्जती से निराश दोनों कलाकार पिता-पुत्री।

उनकी जिंदगी में स्टार म्यूजिक डाइरेक्टर विक्रांत मल्होत्रा (अनिल कपूर) का यू टर्न बनकर पाना। मानसी के अंदर छुपी हुई कला को पहचान कर उसे प्रोमोट कर अंतराष्ट्रीय स्तर की कलाकार बनाना। इसी दौरान एमटीवी के अवार्ड शो में मानसी का मुख्य अतिथि के तौर पर आना। उसमें बिन बुलाए मानव का भी प्रवेश करना। और मिलने के बहाने मानसी के पास जाकर बुदबुदाना, 'इस झूठी दुनिया पर भरोसा मत करना यार।' माया नगरी की हकीकत बयां कर देती है।

सबसे खास रहा, तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद 'मानव' का हार नहीं मानना। कठिन जद्दोजहद के बाद दोनों का नाटकीय ढंग से मिलन। फिल्म में नृत्य, संगीत, अभिनय, प्यार, घृणा, प्राकृतिक सुंदरता, भावुकता, स्वाभिमान, अभिमान, व्यवहारिकता, ग्लैमर की दुनिया की चकाचौंध। क्लाइमेक्स बेहतरीन है। अंत के साथ सीख भी देती है।

आदमी की कीमत उसकी प्रतिभा होती है। ना कि पास का बेशुमार धन। किसी को कमजोर आंककर, उसकी भावनाओं से ना तो खेलना, ना ही उसे नीचा दिखाना चाहिए। जीवन में तरक्की के लिए व्यवहारिक बनना जरूरी शर्त है। सबसे कठिन काम है किसी का दिल जीतना। चाहे किसी की भी पारिवारिक पृष्ठभूमि कैसी भी हो, प्रेम के मामले एक पिता को अपनी संतान के आगे झुकना ही पड़ता हैं। और फिल्म देखने के बाद कोई सब कुछ भूल क्यों नहीं भूल जाए। ये वाला गाना जरूर सभी के जेहन में छाप छोड़ देता है।

नीचे इश्क है ऊपर रब है,
इन दोनों के बीच में सब है,
एक नहीं सौ बातें कर लो,
सौ बातों का एक मतलब है,
रब सब से सोना इश्क इश्क,
रब से भी सोना इश्क,

इश्क बिना क्या जीना यारों,
इश्क बिना क्या मरना यारों,
गुड़ से मीठा इश्क-इश्क,
इमली से खट्टा इश्क इश्क,
हीरा ना पन्ना इश्क-इश्क,
बस एक तमन्ना इश्क-इश्क,

©️®️श्रीकांत सौरभ (Disclaimer : मैं कोई फिल्म समीक्षक नहीं हूं भाई। फिल्म देखते हुए जो मन मे आया लिख दिया। कुछ गलत लगे तो क्षमा कर देना।)

01 January, 2019

पान बेंचने वाले इस पंडित जी के संघर्ष की दास्तान सुन, आप भी रह जाएंगे हैरान

मोतिहारी। मजबूरी का नाम भले ही महात्मा गांधी हों या ना हों। लेकिन संघर्ष का दूसरा नाम शर्मा जी जरूर हो सकते हैं। एक रोज रिपोर्टिंग को लेकर घूमते समय इनसे हरसिद्धि के भादा पुल के पास मुलाकात हो गई। औपचारिक बातचीत में इन्होंने जो आपबीती सुनाई, लगा उसकी खबर जरूर बननी चाहिए।

ओल्हा मेहता टोला पंचायत के ओल्हा निवासी 51 वर्षीय हरिनारायण शर्मा वर्ष 1986 के कॉमर्स स्नातक (बीकॉम) हैं। वे बताते हुए जैसे फ्लैश बैक में चले जाते हैं। कहते हैं कि वर्ष 79 की बात है। तब चन्द्रगोखुला हाई स्कूल, मच्छरगांवा में नौंवी में पढ़ रहा था। कुछ वर्षों पहले ही पिता रामचंद्र ठाकुर का निधन हो चुका था। मां-बाप का इकलौता पुत्र था और घर की आर्थिक स्थित बेहद ही दयनीय थी।

उस वक्त पूर्वी चंपारण के डीएम बेग जूलियस थे। एक जान-पहचान वाले के माध्यम से कलेक्ट्रेट में 18 रूपए के एडहॉक (दैनिक भुगतान) पर चपरासी की नौकरी पकड़ ली। मेरी तरह कुछ और भी लोग थे वहां। कोर्ट से सम्मन-वारंट पहुंचाना होता था। रोजाना स्कूल की हाजिरी लगाने के आधे समय के बाद मोतिहारी चला जाता। बस या कोई सवारी नहीं मिलती तो कई बार पैदल ही जाना होता।

बताते हैं कि कहने को रोजाना की मजदूरी मिलनी थी। लेकिन मिलता एक नया रुपया किसी को नहीं था। हां इतना जरूर था कि लोगों से ही कुछ खर्च मिल जाते। इस बेगारी के पीछे एक उम्मीद थी कि आगे चलकर नियमित हो जाएंगे। लेकिन सरकारी नौकरी भाग्य में शायद नहीं लिखी थी। वर्ष 80 में डीएम राजकुमार सिंह आए तो हम सबकी छंटनी हो गई।

वे अपने रौ में बोले जा रहे थे, वर्ष 81 में अच्छे नम्बरों से मैट्रिक पास किया। आगे की पढ़ाई के लिए पैसे नहीं थे। बाहर जाकर नौकरी करना ही एकमात्र चारा था। तभी पड़ोसी गांव दामोवृति के वकील हरिकिशोर वर्मा ने मनोबल बढ़ाया। बोले कि हम लोग भले ही चंदा मांगेंगे लेकिन तुम पढ़ाई जारी रखो। सभी के सहयोग से उत्तराखण्ड (तब उत्तरप्रदेश) के तिहड़ी गढ़वाल (अब उत्तरकाशी) स्थित राजकीय इंटर कॉलेज, चिन्याली शॉट में आइकॉम में नाम लिखवाया।

एक वर्ष बाद ही फिर आर्थिक संकट आड़े आने लगा। ऐसे में, दो ही उपाए बचे थे, या तो पढ़ाई छोड़ दो नहीं तो काम करो। इसी बीच एक परिचित ने सुझाव दिया कि पढ़ाई का खर्च निकालने के छुट्टी के दौरान काम करो। उस समय स्कूल में परीक्षा के बाद व सर्दी के समय लंबी छुट्टी मिलती। उसी दौरान ट्रेन पकड़ पश्चिम बंगाल के दुर्गापुर स्थित सीमेंट फैक्ट्री में चला जाता। वहां सीमेंट से भरे बोरे के लोडिंग-अनलोडिंग का काम था। काम भले ही मजदूरी का था। लेकिन अच्छी मेहनताना मिलने से खर्च निकल जाते।

समय अपनी रफ्तार में बीतता रहा। हमारे इंटर स्कूल को डिग्री कॉलेज का दर्जा मिल गया। वर्ष 86 में यहीं से बीकॉम की डिग्री लेकर नौकरी के लिए दिल्ली चला गया। कुछ दिन इधर-उधर हाथ-पांव मारे। उस वक्त नोएडा में टी सीरीज की गिनती एक नामी कंपनी में होती थी। इसमें हजारों लोग कार्यरत थे। वर्ष 87 में मुझे भी यहां स्टोर कीपर की नौकरी मिल गई। बीकॉम होने के कारण एकाउंटिंग की जानकारी थी। सो, लेखापाल का काम करने लगा। सैलरी भी बढ़ गई।

कहते हैं, वर्ष 92 में कंपनी में कंप्यूटर लग गया। वहीं पर ट्रेनर के माध्यम से कंप्यूटर ऑपरेट करना सीखा। तब एकाउंट का काम एक्सेल सॉफ्टवेयर पर होता था। हालांकि आज की तरह उसमें फीचर नहीं होते थे। सीमित सुविधा थी।

हरसिद्धि के भादा पुल के पास पान विक्रेता


जहां अधिकांश लोग कंप्यूटर चलाने के नाम से ही डर जाते थे। मैं कुछ ही दिन में इसमें कुशल हो गया। वर्ष 10 में सेवा अवधि 23 वर्ष पूरी हो गई। और कंपनी की नीति के मुताबिक मैंने स्वैच्छनिक सेवानिवृति (वीआरएस) ले ली।

फिर वे गांव लौट आए। लेकिन बैठकर खाना उन्हें मंजूर नहीं था। पीएफ के पैसे से एक ऑटो खरीदकर चलाने लगे। और गृहस्थी की गाड़ी खिंचती रही। तीन बीघा जमीन है पास में। 58 वर्ष की उम्र होते ही नियम के मुताबिक उन्हें पेंशन भी मिलने लगेगा।

कहते हैं, बढ़ती उम्र का असर शारीरिक ऊर्जा पर भी पड़ता है। इस लिहाज से उन्होंने ऑटो चलाना छोड़ दिया। और कुछ महीने पहले ही पान की दुकान खोले हैं।

चलते-चलेते परिवार के बारे में जब मैंने पूछा। तो कवयित्री महादेवी देवी प्रसाद वर्मा की कविता की चंद पक्तियां सुनाते हुए बोले, अरे यह बताना तो भूल ही गया था। घर में पत्नी उर्मिला देवी है। एक बेटा विवेक कुमार है। वह बीकॉम पार्ट पार्ट वन का छात्र है।

31 December, 2018

सरसती माई के किरिया है ई लभ लेटर जरूर पढ़ना

डियर पिरिति,

हैपी न्यू ईयर। आज 31 दिसम्बर है। नया साल 20 से ठीक एक दिन पहले सन्देश भेज रहा हूं। तोहरा व्हाट्सअप पर। मामा जी का लावा मोबाइल घर पर छूट गया था। उसी में आइडिया का सिम लगाकर 50 का 4G नेट पैक डाला हूं, चार किलो गेहूं बेंचकर। हमें मैसेज भेजने का मूड नहीं था। बुझते हैं, तुमको आछा नहीं लगेगा। मने लिखना चालू किए त तनी जादा लिख दिए। रिक्वेस्ट है, पूरा पढ़े के बाद ही डिलीट करना, एक सांस में नहीं त थोड़ा-थोड़ा करके। सरसती माई के किरिया है।

इयाद करो, ठीक दू बरिस पहिले बाजारी पर मुन्ना सर के कोचिंग में हमलोग मिले थे। मैटिक परीक्षा के तैयारी के लिए नया-नया एडमिशन हुआ था। का बताए इहवां नाम लिखावे खातिर केतना पापड़ बेले थे। गांव के चऊक पर ढेर टिशन चलता है। पापा का कहना था, यहीं पढ़ो। बाजार पर जाएगा त बिगड़ जाएगा। एही से भेजने से हरकते थे। मंटू सर हाई स्कूल में साइंस के नामी टीचर थे। लेकिन इस नाम का प्रयोग स्कूल के पढ़ाई से जादा मेहनत अपना कोचिंग चमकाने में करते थे।

तीन कोस के एरिया में जेतना भी मैटिक का छात्र था। सबको यहीं विश्वास था कि उनके कोचिंग में एक बार जेकर नाम लिखा गया। उसका पास होना तय है, मैटिक, आईए, आईआईटी, पोलटेक्निक फलाना-ढिकाना परीक्षा। बेतिया के 'अहमद भाई दवा वाले' जइसन चरचा था। जेकरा परचार गाड़ी में रखल एके गो दवाई में दाद, खाज-खुजली, बवासीर, भगन्दर, हारनिया आदि केतना बेमारी का इलाज हो जाता है।

'सर' बहुते चालक किसिम के आदमी ठहरे। कोई कुछ पूछता-टोकता त जवाब देते, का करे एगो त कुछ हजार के महीना पर नियोजित शिक्षक हैं। सरकार कहती है कि चपरासी हमारा स्टाफ है, मने नियोजित शिक्षक नहीं। ओपर से वेतन छव-छव महीना पर मिलता है। अपने घर से दू जिला टपके एतना दूर आकर भाड़ा के मकान में रहते हैं। एतना कमरतोड़ महंगाई में खरचा कइसे चलेगा। बीवी, बच्चा, परिवार के गुजारा चलावे खातिर कुछ न कुछ त करना होगा।

हम और कुछ दोस्त सेटिंग किए सर से। वे जाकर पापा को अइसन ना पट्टी पढ़ाए कि परमिशन मिल गया पढ़ने के लिए। वहां जाने पर पता चला कि सर के कोचिंग के हिट होखे का राज का है। एगो छोटा हॉल में 25 गो बेंच आ एक बैच में 100 विद्यार्थी। अगिला पांच बरेंच लड़की सब के लिए रिजर्व। सर तो पढ़ाते बहुते आछा थे। मैथ, केमेस्ट्री, फिजिक्स तीनु विषय पर बराबर पकड़ था। उनकर बोली, एतना महीन कि का मजाल छठा बरेंच से आगे किसी को कुछो सुना जाए।

बोर्ड पर लिखते त सब कॉपी पर एकदम रचकर लिख लेते। समझ में आए चाहे नहीं। ऊ खुदे कहते थे, साइंस त समझे आला चीज है रटे आला थोड़े। क्लास के बाद नोट्स के फोटो कॉपी लेवे खातिर अइसन हल्ला मचता। जइसे तकिया के नीचे रखकर कोई सुत भी जाएगा त फर्स्ट डिवीजन मिल जाएगा एक्जाम में। रहीं बात हमारी तो एक बरिस में गिनती के 30-40 क्लास अटेंड किए होंगे। एतना दिन में किताब का एको चैप्टर माथा में नहीं घुसा। मने भीड़ जुटावे खातिर लड़की सबको अगिला बरेंच पर बैठाने का राज हमको जरूर बुझा गया।

अरे हम भी केतना बुरबक हैं। कहना था क्या और क्या लिखने लगे। इयाद आया, वह जनवरी का हाड़ कंपकपाता ठंडा का महीना था। जब कोचिंग में नाम लिखवाया। पहला क्लास और सबसे पछिला बरेंच पर बैठा था। तभी 'मे आई कम इन सर' के कोयल जइसन आवाज से पूरा क्लास में गरदा उड़ गया। सभे केहु का धेयान गेट पर चला गया। बॉडी पर करिया सुइटर, ब्लू जीन्स, गला में गुलाबी दुपट्टा, खुलल केस। अब का बताए, तोहरा के देखते ही हमरा जइसन केतना लइका का करेजा धुक-धुकाने लगा।

हम त पहिला नजर में ही तुमको दिल दे दिए। तुम्हारे रूप जाल में अइसे फंसे कि कब तुम्हारा पीछा करे लगे। पता नहीं चला। सवेरे सात बजे क्लास था आ हम पांच बजे घरे से साइकिल से निकल जाते। मेन रोड में बेखबरा चेवर के पास एकदम सुनसान रहता। वहीं से तुम्हारे पीछे लग जाता। केतना बार साइड लेवे के हड़बड़ी में ट्रक के नीचे आने से बचे थे।

फिर भी तुमसे पहले कोचिंग के गेट पर हाजिर रहता। जब तुम क्लास में 'इन' कर जाती तो मैं प्रवेश करता। क्लास खत्म होखे से पहिले भी गेट पर खड़ा रखता। लेकिन तुम हमारे तरफ ताकती नहीं थी। शायद ऐसा करने की नाटक करती होती थी।

तुम्हारे पास मोबाइल नहीं था। केतना बार कागज पर अपना नम्बर लिखकर रास्ते में गिराए थे। तुमने एक बार भी उसे उठाना मुनासिब नहीं समझा। गांव के नाते लगने वाली मुन्नी फुआ और तुम्हारी सखी से भी केतना बार तुम्हारे किताब में चिट्ठी रखवाए। कोई जवाब नहीं मिला। भगवान जाने कवन माटी से तुमको बनाए हैं। तुम्हारे फेरा में एक बरिस कइसे बीत गया, कुछो नहीं बुझाया।

बोर्ड का एक्जाम हुआ। तुम फर्स्ट डिवीजन से पास कर गई। और हम मैथ में कम आए तीन नम्बर से थर्ड डिवीजन लाते-लाते रह गए। पापा जी त एतना न फायर हुए रिजल्ट देखकर कि उनकर पुरनका संडक चप्पल हम्मर देहे पर टूट गया। केतना हंगामा मचा था घर में। पढ़ाई छोड़ावे के मूड में थे पापा। लेकिन मम्मी के रात-दिन निहोरा कइला के बाद मान गए।

इसके बाद तुम बेतिया चली गई आईएससी की तैयारी के लिए। और मैं रह गया गांव पर। तबहु फुआ से तोहर खबर लेते रहा। उसी से मालूम हुआ कि तुमको एंड्राइड सेट मिला है जियो वाला, घरे बतियाने के लिए। तोहार मोबाइल नम्बर भी मिल गया। कहीं रिजेक्ट नहीं कर दो इस डर से तुमसे बतियाने की हिम्मत नहीं हुई।

तुम अबकी साल में दो बार आई अपने घर। होली आ छठ पूजा में। होली के दिन रजुआ के संगे प्लेटिना पर बैठकर तुम्हारे गांव गए थे। तुम बरामदा में खड़ी थी। मने रमपुरवा गांव आला छुछेर लइका सब हरिहरका रंग पोत के हमारा मुंह एकदमे बानर बना दिया था। तुम चिन्ह नहीं पाई। तुम्हारे छठ घाट पर भी गए थे।

सिरसोपता के आगे चउका-मउका बैठी गुलाबी सलवार शूट में झक्कास लग रही थी। मन हुआ कि सेल्फी खींच ले लगे खड़िया कर। मने अगल-बगल का माहौल उस लायक नहीं था। तुम्हारे गांव के मुस्टंडे लड़के अजनबी बूझकर कटाह नजरों से से घूर रहे थे। वहां से चलते बने।

तुमको बता दूं कि सपलमेंट्री नहीं दिया। सीधे परीक्षा का फार्म भरे हैं। इस बार कइसे भी फर्स्ट करना है, जीवन-मरण का सवाल है। पापा जी बोल दिए है कि अबकी मैटिक नहीं पास किया। तो मामा जी के संगे लुधियाना कम्बल फैक्ट्री में भेज देंगे काम सीखे। मारे डर के केतना पीर-फकीर, सन्त, बाबा के दिहल भभूत-चूरन खा गए। मम्मी गांव के तीन पेड़ियां आला बरगज गाछ के जीन बाबा की भखौती भाखी है। कइसे बताए जब भी एमबीडी का गेस खोलकर पढ़े बैठते हैं। सामने तोहार सुरत घूमने लगता है।

तुम हमको कुछ बूझो या नहीं। लेकिन हमको तुमसे बहुते प्यार है। बस एक बार तुम जवाब में 'हां' लिखकर भेज दो उधर से। अपना डीह आला दस कठिया खेत में फुलाइल पीयर सरसो के कसम। फर्स्ट करके नहीं दिखाया तो मेरे नाम पर कुकुर पोस देना। चलते-चलते दू लाइन तुम्हारे लिए,

"जनि फेंकअ पथर नदिया में ओकरो पानी त केहू पीयेला
ना रहअ उदास जिनगी में, तोहके देखियो के केहू जियेला"

तोहरा जवाब के इंतिजार में,

तोहार पिरितम


28 February, 2016

बुरबक बिहारी : पिरीति आ पिरितम के Love स्टोरी

************************* (1.)

 'हेल्लो, कवन बोल रहे हैं उधर से? मिस कॉल आया है आपका मेरे नम्बर पर।' मोबाइल पर अंजान नंबर से आए मिस काल को देख फोन लगा प्रीतम ने पूछा।

'जी, सॉरी। गलती से लग गया था आप पर। ऊ त हम अपना मौसी के यहां परसा फोन लगाए थे।'

'त एमे सॉरी के कवन बात है। कबो-कबो गलती से आछा काम हो जाता है।' फोन पर उधर से लड़की की मीठी
आवाज को सुन प्रीतम ने लपेटना शुरू कर दिया।

'आछा काम मने?' लड़की ने चिहुकते हुए पूछा।

'मने का? आपसे हमारा बात करना आछा ही न है।'

'ई हमको नहीं पता, का आछा है और का बुरा? मने एकरा बाद ई नंबर पर फोन मत कीजिएगा। पापा जी का मोबाइल है। जान जाएंगे त पिटाने लगूंगी।'

'आछा, नहीं करेंगे। अपना नाम तो बता दो?'

'नाम काहे बता दे आपको? हम त आपको जानते भी नहीं।'

'एमे जानना क्या है। पिरितम नाम है हमारा। घर बहादुरपुर। बहलोलपुर हाई स्कूल से इंटर कर रहा हूं, सकेंड ईयर में।'

'अरे वाह, हम भी त ओही स्कूल से दसवां कर रहे हैं। अगिला साल मैटिक का एक्जाम है।'

'एतना बता दी त नामो बता दो ना?'

'हमर नाम पिरीति है। घर सोनगंज, बस एह से जादा नहीं बताएंगे। अब चलिए फोन रखिए। नहीं त पापा जी सुन लिए त जुलुम कर देंगे।'

'अरे वाह! आप पिरीति हम पिरितम। हमारा-आपका गांव भी अगले-बगल में है। का सन्जोग है! वइसे हम फोन रख देते हैं। ई बताओ फेरु कब बतियाओगी?'

'अब ई नहीं बता सकती कि बात होगी कि नहीं। अभिये परिचय हुआ और आप तो एकदमे लाइने मारे लगे।'

************************* (2.)

'हां, हेल्लो। के बोलत बा, कहवां से बोला तानी?'

'हम रमेस बोलत बानी खजुरिया से। ई डुमरिया लागल बा नु?'

प्रीतम ने फोन पर एक उम्रदराज महिला की आवाज भांपते हुए पैतरा बदलकर बोला। आज सात दिन बाद उसने प्रीति को फोन लगाया था। लेकिन उसकी मां रामकली देवी ने फोन रिसीव किया और सवालों की झड़ी लगा दी।

'ना ई सोनगंज लागल बा। हम पिरीति के माई बोलत बानी।'

'आछा रखीं फोन। बुझाता रांग नम्बर लागल बा।' प्रीतम ने झूठ बोला।

'के ह मां, का कहत बा?

'कवनो मरदा रहल ह खजुरिया के। कहत रहे डुमरिया लगवले बानी।' रामकली देवी ने प्रीति के पूछने पर बताया।

'आछा, तनि फोनवा देबू हमके गेम खेले के बा।' प्रीति ने उनके हाथों से फोन लपकते हुए कहा।

'हाली से खेल के दे दिहे फोनवा। तोर पापा देख लिहे त मुआ दिहे। तोरा संगे हमरो के। हर दफे मना करे ले तोरा के फोन ना देवे के। कहत रहले एह घड़ी फोने पर लड़का-लड़की बिगड़ जाता लोग।' उन्होंने फोन देते हुए हिदायत दी।

'आछा त ई ओह दिनवा आला रांग नम्बर से आइल रहल ह।' प्रीति ने चुपके से छत पर जाकर मोबाइल में नम्बर को देख बुदबुदाया और मिस काल दे दी।

'आपको बोल थे न उस दिन। यहां फोन मत करिएगा। फिर काहे किए हैं। पापा जी जान गए त घर में रहल मुश्किल कर देंगे। आप बुझ काहे नहीं रहे।' उधर से कॉल आते ही वह शरु हो गई।

'आपका आवाज बहुत नीमन लगा। ओहि से फोन किए। सुनने का मन किया आज।'

'एकर का मतलब हुआ। दुनिया में जवन लड़की के आवाज आछा लगेगा ओकरा पिछ्ही पड़ जाइएगा।'

'अरे खिसिया काहे रही हो। आपन किरिया खाके कहते हैं। जिनगी के पहिला लड़की हैं आप। जिससे बतिया रहे हैं।'

'मने हमको आपसे नहीं बतियाना। चलिए फोन रखिए।'

'आपको बात नहीं करना है तो काट दीजिए। हम नहीं रखेंगे।'

'तनि सा बतिया का लिए आपसे। आप तो पिछ्ही पड़ गए हमारे।'

'ऐसा बात नहीं है पिरीति। ई सब बोलकर हमको लजवाओ मत। आज तुम्हारा इयाद आ रहा था तो फोन कर दिए। बाकि हमारे मन में तुम्हारे लिए ऐसा-वैसा कुछो नहीं है।'

'आप समझते काहे नहीं। राजपुत हैं हम लोग। उसमें भी पापा जी बड़ी खिसियाह हैं। जान गए उनकर बेटी कवनो लड़का से बतियाती है। तो कचरवाकर फेंकवा देंगे। घर में खानदानी बन्दूक रखल है। जब गांव में केहू से झगड़ा होता है। तो बात-बात पर निकाल लेते हैं। आ हमको खून-खराबा से बड़ी डर लगता है। मैं दुनू हाथ जोड़कर निहोरा करती हूं कि एकरा बाद फोन मत कीजिएगा।'

'अब एमे जात के बात कहां से आ गया। आप राजपुत हो तो हम भी कवनो ननकी जात नहीं है। जो डेरा जाएंगे। पंडी जी हैं हम भी। आचार्य उमा शंकर त्रिवेदी को जवार में कवन नहीं जानता उनकर बेटा हैं हम।'

'पिरीति... ए पिरीतिया, कहां बाड़े रे लड़की। गोड़ में एकरा चक्कर हो गइल बा। अगिला साल मैटिक के परीक्षा बा। मने किताब के ओरी ताकतो ना बिया। तनि पापा के पानी लेआ के दे त बेटी।'

'आवत बानी मां। छत पर आइल रहनी ह कपड़ा पसारे।'

'आछा। हम फोन रख रहे हैं। बुझा रहा है पापा जी घरे आ गए। मां बोला रही है।' फोन के Recieve व Miss Call से नम्बर को डिलीट करते हुए हुए प्रीति छत से नीचे की तरफ भागी।

************************* (3.)

प्रीति के पिता रणविजय सिंह घर के ओसारे में बैठे हुए थे। तभी उनका मोबाइल बज उठा। बार-बार फोन उठाते और बिना उधर से जवाब दिए कट जाता था।

'हेल्लो, हेल्लो...!'

'का जाने कवन फोन करता? ओने से आवाजे नइखे आवत।' चौथी बार भी दूसरी ओर से कोई आवाज नहीं पर उन्होंने झल्लाते हुए कहा।

बगल के कमरे में प्रीति गोल्डेन प्रकाशन का मैट्रिक परीक्षा की तैयारी वाला गेस पेपर विषयवार अलग-अलग कर स्टेपलर से पिन मार रही थी। पापा की कड़क बोली सुन अंजाने डर से उसका दिल धड़कने लगा, 'तीन दिन पहले जो फोन आया था, कहीं वहीं लड़का तो नहीं..?'

'हई देख त पिरीतिया केकर नमरवा से फोन आवता।'

'बाप रे, ई त उहे नमरवा ह। आजु मुआ दिहे पापा हमरा के।' उसने मोबाइल का नम्बर देख मन ही मन बुदबुदाया।

तभी उन्होंने प्रीति से कहा, 'आछा, तनि फोनवा चार्ज में लगा दे। केहू के फोन आवे त बोल दिहे कि घरे नइखी अबही। हम तनि सुखड़िया किहा से आवत बानी एगो पंचायत कके।'

उनके जाते ही वह छत पर गई और उस नम्बर पर मिस कॉल मार दिया। थोड़ी ही देर में फोन आ गया।

'आप काहे हाथ-गोड़ धोके हमरा पीछे पड़ गए हैं। पता है आजु पापा जी के हाथ में मोबाइल था। ई कहिए कि ऊ नहीं बुझ पाए।'

'आछा तो हम कवनो बुरबक है का! हम त आवाजे सुन के समझ गए कि केकरा लगे मोबाइल है। एहि से त खाली हेल्लो-हेल्लो कहके फोनवा काट दिए थे।'

'आप बुझते नहीं हमारे घर वाले केतना खतरनाक हैं। एक बार हमारी फुआ के साथ का हुआ था, आपको पते नहीं है। उन पर हाई स्कुल में पढ़ाई के समय एगो लड़का अइसही दीवाना था। एक दिन ऊ फुआ को चिठी दे दिया। ई बात के जानकारी जब बाबा को हुआ। तो ऊ आ पापा मिलके ओह लईका के हाथे तुड़वा दिए थे।'

'तुम अपने खानदान का नाम लेकर हमको डराती काहे हो? अब तुमको बतियाने का मन नहीं करता त ऊ दोसर बात है। एक बार खाली अपना करेजा पर हाथ रखके कह दो, तुमको हमारा आवाज आछा नहीं लगता। हम किरिया खाकर कहते हैं फोन नहीं करेंगे।'

'देखिए ऐसा बात नहीं है। आप हमारा मजबूरी समझिए। आ हमेशा किरिया खाने वाला बात काहे कहते हैं। ई बताइए फोन काहेला किए थे?'

'तुमसे एगो मन का बात कहना था। लेकिन अभी नहीं कहेंगे। मूड ऑफ़ हो गया।'

'ठीक है मत कहिए। नीचे जा रही हूं मां बुला रही है।'

'ई तो बता दो अब कब बात होगा?'


'कबो नहीं।'

'देखो, एतना किसी को तड़पाना आछा नहीं है। शाम को मिस कॉल देना एगो जरूरी बात कहना है।'

'कवन बात?'

'अभी नहीं शामे को बताएंगे।'

'आछा, समय मिलेगा तो देखेंगे।'

'देखेंगे नहीं, परोमिस करो। हम तुम्हारे मिस कॉल का इन्तजार करेंगे।'

'आछा परोमिस! करेंगे। अब फोन रखिए।'
 
************************* (4.)

जब मन में कोई चोर छुपा हो तो आदमी हर चीज को संदेह से देखता है। यहीं स्थिति प्रीति की भी हो गई थी। शाम में प्रीतम को Miss Call देने का वादा क्या किया था। उसे पल-पल मां या पापा की नजरें अपनी तरफ घूरती नजर आतीं। और उसकी नजर रह रहकर घड़ी की सुई पर टिक जाती। घर में इस वक्त कुल जमे तीन प्राणी ही थे। जबकि प्रीति का इकलौता भाई विजय पटना में इंजीनियरिंग की तैयारी कर रहा था।

इस समय आठ बज गया था। रणविजय सिंह खाना खाकर बथान पर सोने चले गए। वहीं रामकली देवी पड़ोस में शिव चर्चा सुनने जा रहे थीं।

उन्होंने प्रीति को आवाज लगाते हुए कहा, 'मन त रहल हो तोहरो के ले चले के। मने घरो के देखल त चाहि। केवाड़ी के छिटकिलि ठीक से लगा दिहे बबी। हम एक-दू घण्टा में आएम।'

'ए मां तू चल जइबू त डर लागी हमरा। मत जा।' उसने बनावटी डर दिखाते हुए कहा।

'भगवान के काम में 'ना' बोलल असुभ ह। आ केहू किहां ना जाईल जाई त उहो अपना इहां ना आई।'

'ठीक बा। मोबाइल देले जा हमराके गेम खेलेला।'

'दे तानी। बाकिर जादे पेर-पार मत करिहे ओकरा के। एने-ओने फोन कईला प पईसा काट लेत बिया कम्पनी।'
'आछा ना करेम।' उसने आश्वस्त करते हुए मोबाइल ले लिया।

मां के घर से जाते ही उसने झट से किवाड़ी बंद कर दिया। नीचे Aircel का टावर अक्सर गायब रहता। बातचीत में रुकावट ना हो इसलिए छत की सीढ़ी पर जाकर उसने प्रीतम के पास Miss Call दे दिया। अबकी छत पर नहीं गई। उसे अच्छी तरह पता था कि रात में ऊपर से आवाज दूर-दूर तक जाती है। पांच मिनट तक उधर से फोन नहीं आया तो उसने खीजते हुए लगातार तीन बार Miss Call मार दिया।

दस, पन्द्रह, बीस मिनट...। और अब पूरे आधे घण्टे बीतने को थे। कोई जवाब नहीं आया। जाने क्यों, उसे प्रीतम के ऊपर थोड़ा गुस्सा आने लगा था। उसी अनुपात में खुद के ऊपर शर्मिंदगी भी महसूस हुई। यह सोचकर कि मैं होती कौन हूं एक अंजान लड़के के फोन का इन्तजार करने वाली। तभी उसके मोबाइल का Ring Tone बज उठा। उसने Screen पर नम्बर देख बिना देरी किए उठा लिया। अचानक से उसका टेंशन उड़न छू हो गया और चेहरे का रंग गुलाबी।

'हेल्लो... सॉरी तुमको देर से फोन किए। अबगे टयूशन पढ़के आ रहे हैं। पॉकेट में मोबाइल भाईब्रेशन में था। अभिए तुम्हारा मिस कॉल देखे हैं। हमको विस्वास था तुम जरुरे मिस करोगी'। प्रीतम ने बढ़ी हुई धडकन पर काबू पा एक सांस में कह डाला।

'सवेरे कवन बात कह रहे थे मुझसे कि शाम में बताएंगे? वह सवाल करते हुए बोली।

'आछा छोडो उस बात को। ऊ त अइसही मजाक में बोले थे।'

'मजाक में मने का? एकरा मतलब तुमको कुछो नहीं कहना था हमसे। फिर मिस कॉल करे ला काहे बोले।'

'सोचते हैं कि कहीं बता दूं तो तुमको बुरा न लग जाए।'

'नहीं बुरा मानेंगे। कहिए।'

'तो फिर परोमिस करो।'

'परोमिस।'

'तुम बहुते सुन्दर हो। दुनिया के सब लड़की से बढ़कर ब्यूटीफुल हो मेरे लिए।'

'भाक, ई कवन कह दिया कि हम सुनर हैं। और हमको देखे बिना आप कईसे मान लिए कि कईसन हैं?' उसने शर्माते हुए कहा।

'अपना मन के आंख से देखे हैं और का?'

'आछा। आप तो बड़का अंतरधानी बाबा हैं।' वह मंत्रमुग्ध हो चली थी।

'एकदमे अंतरधानी हैं हम। पूछो, तुम्हारे बारे में कुछो बता सकते हैं।'

'त ई बता दीजिए अभी हम का पहने हैं?'

'ए ए ए... सलवार सुट पहनी हो।' उसने आवाज को खींचते हुए अंदाजा लगाया।

'किस रंग का है?'

'गुलाबी समीज और पियर सलवार।'

'झूठ पकड़ा गया आपका। हम तो आसमानी कलर का नाईट सुट पहने हैं।' उसकी पकड़ी गई चोरी पर वह चहकते हुए बोली।

 ************************* (5.)

लड़कियों में Common Sense कूट-कूट कर भरा होता है। जिसके सहारे वह लड़कों का झूठ आसानी से पकड़ लेती हैं। प्रीतम अपनी पकड़ी गई चोरी पर झेंप सा गया। 'अब क्या होगा?', अंजाने भय से उसका आत्मविश्वास थोड़ा डगमगाने लगा।
तभी उधर से प्रीति का की खिलखिलाती आवाज सुन उसे काफी राहत मिली। 'हां..हां...हां, चलिए अब हमसे लबरई मत बोलिएगा। हमें झूठे लोग तनिको पसंद नहीं।'

'आछा, तुम्हें बुरा लगा हो तो माफ़ कर दो। मेरा इरादा तुम्हारा दिल दुखाना नहीं था। मने परोमिस करते हैं एकरा बाद झूठ नहीं बोलेंगे।'

'अब एमे माफ़ी मांगने का बात कहां से आ गया। दोस्ती में त ई सब चलते रहता है।'

प्रीति के मुंह से दोस्ती की बात सुन उसे भीतर तक गुदगुदी हुई। एक अंजान लड़की जिससे कभी मिला नहीं। महज एक Miss Call से इतने करीब आ जाएगी कि उसे दोस्त मानने लगे। एकबारगी उसे यकीन नहीं हो रहा था। शायद Teen Age का एहसास ही कुछ ऐसा होता है। किसी भी हिंदी Love Story फ़िल्म से ज्यादा रोमांटिक और काल्पनिक भी। हकीकत कम फ़साना ज्यादा।

'जब दोस्त मान ही ली त एगो बात पूछे?' प्रीतम ने भीतर की हलचल को चतुराई से दबा दिया और खुद को नियंत्रित करते हुए पूछा। थोड़ा-थोड़ा भावुक भी हो चला था।

'हां, पूछिए।'

'हम कईसन लगते हैं आपको?'

'फिर वहीं बात। ई त झूठे बोलना न हुआ। बिना आपसे मिले कइसे बता दें कि आप कईसन हैं।'

'अपना दिल से पूछो जवाब जरुरे मिल जाएगा। वइसे तुम्हें बता दें कि हम पूरा करिया-कलूटे हैं।'

'इसमें पूछना का है। जब आप दोस्त होइए गए तो जो भी हैं, जइसे भी हैं। मेरे लिए सबसे आछा इंसान हैं आप।'
'एतना जल्दी हम पर भरोसा हो गया तुमको?'

'देखिए, भरोसा का बात नहीं है। मां कहती है कि मरद का गुण देखा जाता है, सूरत नहीं।'

'जब तुमको एतना विश्वास हम पर होइए गया। तो हम भी वादा करते हैं। ई दोस्ती अंत-अंत तक निभाएंगे।'

'आछा, अब फोन रखिए कल बतियाएंगे। लाउड स्पीकर बन्द हो गया। बुझा रहा है शिव चरचा खत्म हो गया। मां आइए रही होगी।'

'ठीक है रखते हैं। ई बताओ कल कब बात होगी?'

'कल दस बजे हाई स्कूल जाना है। रस्ते में एगो सखी के मोबाइल से मिस कॉल करूंगी।'

'ओके Bye। गुड नाईट।'

'Same to You!'

                                                                  (भाग 8)

'हमरे खाति दुनिया में तोहरा के भेजवले बाड़े, भगवान बड़ी फुर्सत से तोहरा के बनवले बाड़े..!' जैसे ही मोबाइल की घण्टी में यह रिंग टोन बजा प्रीतम का ध्यान टेबल पर रखे फोन की ओर गया।

उसने कम्बल से निकल कर राजनीति विज्ञान के गेस को एक तरफ रखा और फोन को रिसीव किया।

'हेल्लो, कौन?'

'जी, नमस्ते। हैपी न्यू ईयर! हम पिरीति बोल रहे हैं।' उधर से कानों में मिश्री घोलने वाली आवाज सुनते ही प्रीतम का मानो यकीन नहीं हुआ। लगा पूरे देह में सनसनी फैल गई।

'सेम टू यू! पिरीति हमको विश्वास था तुम जरूरे फोन करोगी। तुमसे बतिया के हमको केतना रिलैक्स बुझा रहा है। पास में रहती त आपन करेजा चीर के देखा देते। आछा, तुम फोन रखो। हमारा जियो का सिम फिरी वाला है एने से करते हैं।'

फोन काटके प्रीतम कॉल लगाने लगा। लेकिन इधर जियो और उधर यूनिनॉर का सिम। जैसे दोनों का जन्मजात बैर हो। एक, दो, तीन, चार, पांच... दस। बार-बार उधर से कंप्यूटर वाली बहन जी 'नॉट रिचेबल' बोले जा रही थी।

'सा... चू... ई अंबनियो सभकर हाथ में फिरी सिम पहुचाके बुरबक बना दिया है। मेन मोके पर फेल हो जाता है।' प्रीतम मन ही मन झल्लाया।

ठीक पचासवे बार में फोन लगा। तो उसे राहत महसूस हुई।

'ई बताओ आजु चार जनवरी को बतिया रही हो। हम हेमा को फस्टे जनवरी को तोहरा लगे ग्रीटिंग कार्ड पहुचावे आ बात करावे ला बोले थे।'

'हेमा के मां का तबियत खराब था। एही से ओह दिन नहीं आई। आजुए आई है मिले के बहाने। उसी का नम्बर से आपसे बतिया रहे हैं। आपका ग्रीटिंग्स पढ़े हैं। का बताए, पढ़ला के बाद मने-मने केतना बेचैन हैं। रो नहीं रहे बाकि सब करम हो गया है।'

'सुनो पिरीति हमार किरिया, रोने का बात करोगी त हमहु रो देंगे। हिम्मत से काम लो हम जल्दिए कवनो ना रास्ता निकाल लेंगे मिले खाति।'

'डारलिंग, अपने दिल से नु पराया दिल का हाल बुझा जाता है। कइसे बताए आपको हम पर का बीत रहा है? जहिया से पापा जी आपसे बतिआत में मोबाइल छीने हैं। हर दमे पहरा लागल रहता है। पापा जी त दिन में केतना बेर रूम में झांकते रहते हैं। उनका चकुदारी से तंग आ गई हूं। लग रहा है जइसे उनकर बेटी केहु के संगे उड़हर जा रही है। मानते हैं आप पंडी जी है आ हम बाबू साहेब। दुनू जने के मिलन में समाज एगो लमहर दीवार है। मने पेयारे नु किए हैं आपसे, कवनो बड़का पाप थोड़े किए हैं।'

'पिरीति, दुनिया में पेयार से बड़ा कुछो नहीं है। सबसे पवित्र रिस्ता है ई, मने जालिम जमाना नहीं बुझता है इसको। आछा, ई बताओ अभी तोहर मम्मी-पापा कहां हैं?

'पापा जी पंपिंग सेट लेके गहु पटवाने गए हैं। अउरी मां दुअरा पर मकर सक्रान्ति के चिउरा के लिए धान सुखा रही है। हम त छत पर सीढ़ी आला रूम से नुका के बतिया रहे हैं।'

'ओ...हो, आ मां तोहरा साथे कइसन बिहैव करती हैं?'

'उहो कम नहीं है पापा जी से। अब तो हर दफे बानी मारते रहती है। मैटिक कर लो फिर तुम्हारा बिआह कर देंगे। एक दिन राति के बथानी पर पापा जी से बतिया भी रही थी। हम खाना लेके गए थे नुका के सुन लिए। कह रही थी 'जमाना खराब हो गइल बा। कवनो उच-नीच हो जाए। एह से नीमन बा जल्दिए इनकरा के कवनो खात-पियत घर देखके हाथ पिअर क देहल जाई।'

'त ठीके नु कहती है मां एमे बुरा क्या है? लड़की जब सज्ञान हो जाए तो बिआह कर ही देना चाहिए।' प्रीतम ने चुस्की लेते कहा।

'मारेंगे न आपको। अब आप भी जरल पर नमक छिड़क रहे हैं।' प्रीति में मीठी झिड़की दी।

'त तुम्हारा विचार क्या करने का है?' प्रीतम का सवाल था।

'एमे करना क्या है। जब हो गया त हो गया। ओखरी में मुड़ी पड़िए गया तो मोट-पातर का डर केकरा है। पापा जी के जिद्द है कि हमर बिआह दोसर जघे करेंगे। त हमहु ओही राजपूत बाप के लड़की हैं। पेयार किए हैं आपसे तो बिआह भी आपसे ही करेंगे। चाहे कुछो हो जाए।'

'देखो प्रीति खिसियाते नहीं हैं मां-बाप पर। ऊ लोग कुछो करता है। हमारे भलाई के लिए ही करता है।'

'ऊ त ठीक है बाकिर जवान बेटी को हर घड़ी ताना देना मां-बाप को शोभा देता है क्या? एक दिन त हम खींस-पित्त में कह दिए मां से। हमको अबही बिआह-उआह नहीं करना। एमए ले पढ़ाई करेंगे। आ आप लोग जादे टेंशन दीजिएगा त कुछो कर लेंगे।'

'मेरी करेजा, मरने-जीने का बात काहे करती हो। दिल धुकधुकाने लगता है। जब तुम कुछो कर लोगी त हम जिन्दे रहेंगे का। जियेंगे त एक-दोसरा के लिए आ मरेंगे भी त साथे-साथे। हम भी वचन देते हैं।'

तभी टे-टे की आवाज के साथ मोबाइल डिसकनेक्ट हो गया। प्रीतम ने मोबाइल पर टाइम देखा। आधा घण्टा हुआ था बात करते। उसने फिर फोन लगाया।

'अरे हां देखो न फोन कट गया था। जियो से लगातार आधा घण्टा से जादे नहीं बतिया सकते। एक बात कहना भूल गए थे। 29 जनवरी के हमरा दोस्त विक्रम के फुफेरा भाई के बरिआत तोहरा गांवे आ रहा है। फरवरी में हमर इंटर के एक्जाम है। मन त नहीं था आने का। मने तोहरा के देखे ला नाता-खोता जोड़के बरिआत अइबे करेंगे।'

'अरे वाह, ई त बड़का खुश खबरी सुनाए हैं। ऊ बरिआत त हमरा पट्टीदारिए में आ रहा है। फुआ लगेगी हमारी। लेकिन देखे त हइये नहीं हैं, पहचानेंगे कइसे आपको?'

'ई कवन बड़का बात है। हेमा पहचानती है न उसे बोला लेना। हम करिया कोट आ ब्लू टाई में रहेंगे। नागिन डांस करे में हमको खूबे मजा आता है। छत पर से तुम देखना। आ द्वार पूजा में त देखा-देखी होइए जाएगा।'

तभी आंगन में रामकली देवी की आने की आवाज गूंज उठी। प्रीति को लगा इससे पहले कि बातें करते पकड़े जाए। उसने मोबाइल ऑफ़ करके हेमा को थमा दिया।

'आछा त अब फोन रखते है। मां ओसारा से अंगना में आ गई है। मोबाइल से बतियाते देख ली त जुलुम हो जाएगा।'

'अइसे नहीं, पहले एगो 'किस' दे दो तब रखेंगे।' प्रीतम ने रोमांटिक मूड में कहा।

'एमे पूछना का है? सब त आपके ही नामे कर दिए है। जवन चीज लेना है ले लीजिए।'

फिर पुच... पु...च की लंबी ध्वनि के साथ बाए-बाए की आवाज गूंजी और फोन कट गया।

                                                                (भाग 9)

'सोने के कचोरवा में पीसे ली हरदिया भउजी लाहे-लाहे, हो भउजी लाहे-लाहे..!' एने प्रीति की पट्टीदारी में उसकी फुआ को भउजाई व सखी सब उबटन लगा रही थी। ओने डीजे साउंड पर बज रहे इस गाने से बहादुरपुर गांव वैवाहिक रस्म में डूब चला था। आज 29 जनवरी था यानी फुआ का बरिआत आने वाला था। लेकिन जितनी खुशी उसके चेहरे पर छलक रही थी, लग रहा था दुनिया की सबसे खुशनसीब इंसान वहीं है।

और हो भी क्यों नहीं? आज ठीक एक वर्ष बाद पहली बार उसका 'वो' आने वाला था। अजीब सी हालत हो चली थी। कभी मन में गुदगुदी उठती और चहकने लगती। फिर अगले ही पल अंजाने भय से दिल धड़कने लगता। जवाब कई सारे पर सवाल सिर्फ एक। कहीं उसने मुझे देखकर छोड़ दिया तो..?

हर पल मन में आ रहे अजीब-अजीब ख्याल से वह चिहुंक उठती। दोपहर में ही बहलोलपुर से हेमा भी उसके घर आ गई। रात के पहनावे को लेकर चर्चा होने लगी। गोदरेज की अल्मारी खुली, उसमे रखे जीन्स-टॉप, लेगिज, लहंगा शूट, सलवार शूट..।

दर्जनों कपड़े निकालकर बिछावन पर रख दिए। पहनावे को लेकर खूबे माथा-पच्ची हुई। लेकिन फाइनली हेमा का आईडिया ही काम आया। द्वार पूजा के समय जींस टॉप और रात को माड़ो में लहंगा साड़ी जो दिल्ली वाली मौसी के लड़की पिछले साल गिफ्ट में दी थी।

'हेमा एगो बात पूछे?' प्रीति ने कहा।

'हां बोलो।'

'कहीं उनको हम पसन नहीं पड़े तो?'

'कइसन बुरबक निहर बतियाती है। तुम एतना गोरी है। ऊ तोहरा सामने भले हाईट में तनी जादे हैं। मने हैं सावरे नु। तू उनकरा से बीस नहीं पच्चीस है।'

पता नहीं क्यों प्रीति को हेमा का यह जवाब जंचा नहीं। उसने तपाक से कहा, 'सुनरता लड़की में देखा जाता है। लड़का में त गुने नु देखा जाता है। ऊ भले सावर हैं, करिया-कलूट हैं। आ हम सुनर-भभुका। मने एतना विश्वास है कि हम उनकर गोड़ के धोवनो में नहीं हैं।'

'एही से न कहती हूं कि तुम उनकर पेयार में पगला गई हो।'

'हां, होइए गई हूं पागल त बोलो का करोगी एमे?'

'बड़ी जल्दी तुम खिसिया जाती है। तुमको मिलवाने के लिए हम ओतना दूर से घरे से झूठ बोल के आए है, बिआह देखे के बहाने। आ पूछ रही हो हम का करेंगे एमे? त हम जा रहे हैं वापस।'

'तुम एतना सीरियस काहे हो जाती हो दिलजानी। मने हम ई थोड़े कह रहे हैं कि उनसे मिलवाने में हमको मदद नहीं कर रही हो। मामला एतना अगाड़ी बढ़ा है ऊ तोहरे चलते हुआ है। ई एहसान हम मानते हैं।' प्रीति ने उसके मूड को भांपकर खुशामदी की।

'आछा, रहे दे। अब जादे पॉलिश मत लगा। ना त हमहु अगरा जाएंगे।'

'कवनो उपाय लगाओ हेमा कि राति के पांचों मिनट ला उनसे भेंट हो जाए। कनिया आला रूमवा राति के जब ऊ माड़ो में जाएगी त खालिए नु रहेगा। ओही में..।'

'ऊ त ठीक है मने सउसे घर पहुना आ पहुनी से भरल रहेगा। मिलवाने में हमको रिस्क बुझा रहा है, कहीं पकड़ा गए त पूरा हाला मच जाएगा।'

'हेमा, जब तोहरा जइसन सखी हमरा लगे है त रिस्क के कवन बात है। 'ऊ' माड़ो में बिआह देखे अइबे करेंगे। जइसे ही कनिया माड़ो में जाएगी। सब केहु त गीत-गवनई आ लइका-लइकी के परिछे में लागल रहेगा। मोका देख के घर में उनकरा के बोला लेना आ गेट पर खड़िया के तुम पहरा देना। एगो काम करो अबहिए फोन करो उनका लगे आ सेटिंग कर लो।'

  (भाग 10)                                                                                                                                             

'जिमी जिमी जिमी आजा आजा आजा, आजा रे मेरे पुकारे तेरा प्यार, पुकारे मेरा दिल जिमी जिमी जिमी..!' इसी गाने की धुन पर ट्रॉली पर खड़ी थिरक कर बरातियों को लुभा रही थी हॉफ कटी ड्रेस में बंगाली डांसर। और चारो तरफ बैंड-बाजे की धूम गूंज रही थी। यानी बहादुरपुर में पहुंची बारात जनवासे से बेटिहा के दरवाजे की ओर निकल चुकी थी। पीछे-पीछे लड़को की टोली मस्त होकर उछल-कूद मचाए हुए थी। मानो धान की कुटाई चल रही हो।

वैसे भी कोई कितना ही खराब काहे नहीं नाचता हो। समूह में खुद को माइकल जैक्शन ही बुझता है। नए लड़कों से तो जादा उमंग दूल्हे के मामा, मउसा व फूफा में लउक रहा था। नगिनिया डांस करते हुए सब जमीन पर ऐसे लोटा रहे थे कि नवही लोग भी उनके सामने फिंका पड़ जाए। हालांकि एमे 'हजारा' खर्च कर लिए गए 'पऊआ' का भी असर साफ़-साफ़ बुझा रहा था।

जइसे ही लड़की वाले का घर नजदीक आया फिर तो बाजा वाले के पास फरमाइशी गीतों का दौर शुरू हो गया। इस वक्त 'लॉली पॉप लागेलु' बज रहा था। नचनियों की इसी भीड़ में प्रीतम भी हाथ उठाए झूमने में मग्न था। लेकिन उसकी चोर निगाहें छत की और बेसबरी से किसी की खोज रही थीं।

'ए पिरीति देखो ना ऊ करियका सूट में जो लड़का नाच रहा है न उहे पिरितम हैं।' छत पर खड़ी होकर बारात के धूम गजर को निहार रही लड़कियों की झुंड में हेमा ने प्रीति के कानों में फुसफुसाते हुए कहा।

तभी प्रीतम व प्रीति की नजर टकराई। और मानो वक्त कुछ पल के लिए ठहर सा गया। नीली जीन्स पर उजला टॉप और कथई रंग का हाफ जैकेट। कंधे तक लटकते अधकटे खुले बालों में प्रीति को देख पहली बार में ही प्रीतम ने भांप लिया। यहीं है उसके सपनों की रानी जिसकी एक झलक पालक पाने के लिए वह महीनों से बेताब था।

'चलअ स रे सभे नीचे, दवार पूजा के मंगल गीत गावे। बरिआत दुअरा प चहुप गइल बडुए।' तेजी से सभी लड़कियां व महिलाएं व लड़किया नीचे जाने के लिए सीढ़ी की ओर भागी। एकाएक प्रीति का ध्यान उधर से हटा। उसने तिरछी नजरों से चारों ओर देखा। कहीं उसकी चोरी पकड़ी तो नहीं गई। लेकिन हेमा के अलावा कोई वहां नहीं था। वे दोनों भी नीचे उतर गईं।

चौकी पर द्वार पूजा का विद्द हो रहा था। दूल्हा अपनी अंजुरी में अक्षत वगैरह लेकर बैठ गया। नाई ठाकुर आम का पल्लो सजाने में लगे थे। और पंडी जी तेजी से मंत्र पढ़े जा रहे थे। वीडियो कैमरा के साथ लगे हैलोजन लाइट की रौशनी से दिन जैसा उजाला हो गया था। प्रीति व हेमा ठीक दूल्हे के पीछे खड़ी थी। वहीं प्रीतम भी देखनिहारों की रेलमपेल भीड़ को चीरते हुए पंडी जी के पीछे खड़िया गया।

हेमा ने धीमे से अंगुली के इशारे से प्रीति की ओर प्रीतम का धेयान आकर्षित कराया। ठीक आमने-सामने दोनों की आंखें चार हुई। और नजरों के रास्ते दिल की बात होने लगी। इधर, बाजे का एनाउंसर गा रहा था, जिसका मुझे था इंतिजार, जिसके लिए दिल था बेकरार, वो घड़ी आ गई..!

तभी महिलाएं गाली गाने लगी, 'दूल्हा के माई बनारस के रंडी, मीठा लागल खीर खइली हो दूल्हा भइले करिया...।' इस पर हेमा ने प्रीतम की ओर देखते हुए धीरे से एक आंख मारी। प्रीतम झेंप सा गया। उसे लगा मानो गाली उसी के लिए हो रही है।

इधर, हजाम ठाकुर सगुन का चाउर अक्षत के लिए में सभी विवाहितों को बांटने लगे। हालांकि चलावे के मुताबिक कुंवारे लड़के अक्षत नहीं लेते। लेकिन प्रीतम को जाने क्या सुझा उसने भी दायां हाथ बढ़ाकर मुठ्ठी में अक्षत ले लिया। जैसे ही पंडी जी ने इशारा किया सभी कोई दूल्हे के ऊपर अक्षत फेंक कर आशीष देने लगे।

इसी बीच प्रीतम ने तेजी से मुठ्ठी को उठा प्रीति को निशाना बना कर उछाला। और वह सिर से पांव तक चावल के दाने से भर गई। वह मारे शरम के सहम गई। उसक गोरे गाल सुर्ख गुलाबी हो उठे। लेकिन शुक्र था खुदा का कि उतनी भीड़ में से किसी ने भी इस अप्रत्याशित वाकये पर धेयान नहीं दिया। बस इस रोमांटिक क्षण के तीन जने ही गवाह थे।

                                                                       (भाग 11)

दवार पूजा का नेग पूरा हुआ। और दूल्हा अपनी दहेजुआ स्विफ्ट डिजायर कार से जनवासे में लौट गया।

'पिरीति, जब ले जनवासे से दूल्हा माड़ो में आएगा, तब ले चलो ना ड्रेस चेंज कके आ जाते हैं।' हेमा के कहने पर दोनों सखियां तेज कदमों से घर की ओर चल दीं।

हेमा व प्रीति घरे पहुंचते ही बाथरूम में घुस गई। मुंह पर पानी डाला और लक्मे फेसवाश से चेहरे की सफाई की दोनों ने। फिर ऐनक के पास बैठकर एक दूसरे की मदद से चेहरे पर फाउंडेशन, आंखों में काजल, ओठों पर हल्के ग्रे शेड की लिपस्टिक, पलकों पर गुलाबी मस्कारा लगाया और भौह को आई लाइनर से चमकाया।

हेमा ने तो फटाफट सलवार-शूट बदलकर घर से लाई अपनी पसंदीदा मां की आसमानी रंग की सिल्क साड़ी पहन ली। लेकिन प्रीति को लहंगा साड़ी पहनने ही नहीं आ रहा था। अजीब तरह से वह साड़ी को कमर में कभी इधर से उधर तो दाएं-बाएं लपेट रही थी।

यह देखकर हेमा खिलखिलाकर हंस दी। 'अरे तुमको तो साड़ियों पहिने नहीं आ रहा। ऊ भी हमको ही सिखाना पड़ेगा। कइसे तुम ऊ लड़का के हैंडिल करेगी। ओमे त हमको बोलएबी नहीं करेगी।' उसने चुस्की ली तो प्रीति शरमा गई।

'ई देखो अइसे पहना जाता है लहंगा साड़ी, बुरबक।' हेमा ने उसे सही तरीके से पहनाया।

प्रीति ने एक बार फिर से हाथों में विको क्रीम पोतकर गालों पर मसाज किया। नाक में नथिया व कानों में झुमका पहना। और वह शीशे के पास जाकर खुद को निहारने लगी। लाल ड्रेस में क्या गजब कहर ढाह रही थी वह। बिल्कुल कनिया जैसी बुझा रही थी।

'हाय हमर पिरीति रानी, केतना सुनर लग रही हो! एक दमे परी बुझा रही हो। आजु त जुलुम कर दोगी मड़वा में। केतना लड़िका सब तोहके देखके पगला जाएगा। कास हम लड़का रहते तो तोहरे के भगा ले जाते।'

'भाक, अइसन बात नहीं है। हमारे दिल में त एके गो लइका का तस्वीर कैदे हैं। फेरु दोसरा लड़िकन पर जुलुम हो चाहे रहम, हमको का है? केहू के देखके से ओकरा के रोक नहीं नु सकते। बाकिर हमारा मन बुझ रहा है न कि हमारे देह पर केकर अधिकार है।' प्रीति का जवाब था।

'आय-हाय, पेयार के रंग में रंगा के तुम त एकदम फिलौसपरे हो गई है।'

एने जैसेे ही दूल्हे की गाड़ी दुआरे पर दोबारा पहुंची। उसको माड़ो में ले जाने के लिए लड़कियां सब मोमबतियां जलाकर, अकछत, चन्दन से भरी आरती की थाली लेकर आईं।

Engineering व MBA ग्रेजुएट, NCR के एक MNC में सेट दूल्हा हल्के पीले रंग की शेरवानी खूबे स्मार्ट लग रहा था। हालांकि बचपन से ही Convent में हुई स्कूलिंग के कारण वह गांव में बिल्कुल नहीं रहा था। अब तक उसने शहर में तो कई शादियों में भाग लिया था।

लेकिन गांव के रीति-रिवाज का अनुभव पहली बार हो रहा था उसे। थोड़ा नकचढ़ा व रिजर्व टाइप का होने के कारण असहज महसूस कर रहा था उस वक्त।

दुल्हन की मौसेरी बहन हाथों में थाली लिए आगे-आगे लड़कियों की झुण्ड की अगुआई कर रही थी। हेमा व प्रीति भी संग हो लिए।

'चलनी के चालल दूल्हा, सूपा के फटकारल हे। आ गइले बकलोल दूल्हा कहवां के बाकल हे..!' कार का फाटक खुला और दूल्हे की आरती उतारते हुए यहीं गीत गाई जाने लगी।

तभी मोमबती का गर्म मोम पिघलकर दूल्हे के पैंट पर चू गया। उसने कराहते हुए 'ओ शिट' भर कहा।

लेकिन गाने व चुहलबाजी में मगन लड़कियों ने इस पर धेयान नहीं दिया। कोई पेयार से उसके गाल को खींच रही थी तो कोई शायरी सुनाने की फरमाइश कर रही थी।

इन सबके बीच खुद को बेचारा महसूस कर रहा वह मन ही मन में सोचने लगा किस आफत में फंस गया हूं यहां? बिल्कुल गंवार की तरह मुझसे बिहैव कर रहे हैं सभी।

अचानक हेमा ने दूल्हे के गले में दोनों हाथों से अपना दुपट्टा फंसाया और धीरे से गाड़ी से बाहर उसे खींचने लगी। लेकिन अब बात बरदास्त से बाहर हो चली थी। सो गुस्से में उसे बोलना ही पड़ा।

'What the hell? I don't like such types of rude manner!'

'आय-हाय जीजा जी तो अभिए से अंगरेजी झाड़ने लगे। आगे क्या गुजरेगी दीदी पर?'

'त रउए सभन के बाबू जी नु पांव पूजाई के लिए अइसन लईका खोजे हैं। ओह बेरा नहीं बुझाया।'

यह दूल्हे के ममेरे भाई विक्रम का स्वर था। फुफेरे भाई को अकेले पड़ता देख वह साथ देने आ गया। पास में ही प्रीतम भी खड़ा था। अब जाकर वर पक्ष का पलड़ा संतुलन में आया था।

'एतना गुमान है अपना पर त तनी शायरी बोले में फरिया लीजिए ना, आटा-चाउर का भाव बुझा जाएगा। जब ले हमनी सब के हाराइएगा नहीं आप लोग। जीजा जी मड़वा में नहीं जाएंगे।' दुल्हन के सहेली आरती ने ताव दी।

'हां त एमे कम केकरा के बुझते हैं आप लोग। चलिए आपही लोग शुरू कीजिए।' विक्रम भी पूरे मूड में आ गया था।

                                                                   भाग (12)

दुआर पूजा के बाद दूल्हा के माड़ो में जाने का रस्म ही ऐसा होता हैं। वहां पर मौजूद तमाम लड़कें या लड़कियां रोमांटिक होकर शायराना मूड के हो जाते हैं। हेमा का प्रस्ताव कि पहले लड़केे पक्ष वाले शायरी शुरू करें, विक्रम को पसंद आया। और वह दिलफेंक अंदाज में शुरू हो गया।

"इश्क ने हमें बेनाम कर दिया,
हर खुशी से अंजान कर दिया,
हमने तो कभी नहीं चाहा कि
हमें भी मोहब्बत हो जाए,
लेकिन आप की एक नजर ने
हमें नीलाम कर दिया !!"

इस पर दुल्हन की चचेरी बहन काजल ने हेमा की ओर देखा। और जवाब में सुना दी...

"मुहब्बत में ना जाने कितने अफसाने बन जाते हैं,
शमां जिसको भी जलाती है वो परवाने बन जाते हैं,
कुछ हासिल करना ही इश्क कि मंजिल नही होती,
किसी को खोकर भी कुछ लोग दिवाने बन जाते है !!"

विक्रम ने पूरी अदा के साथ फिर से एक शेर दागा, मानो वह बख्शने के मिजाज में नहीं था।

"खूबसूरत क्या कह दिया उनको,
हमें छोड़ कर वो शीशे की हो गई,
तराशा नहीं था तो पत्थर जैसी थी,
जो तराश दिया तो खुदा हो गई !!"

इस चौके पर छक्का मारते हुए हेमा ने सुनाया,

नदी से किनारे छूट जाते हैं,
आसमान से तारे टूट जाते हैं,
जिन्दगी में अक्सर ऐसा होता है,
जिसे हम दिलसे चाहते हैं,
वही हमसे रूठ जाते हैं !!

अब बारी विक्रम की थी। थोड़ा यादाश्त पर जोर लगाया और...

"रब से आपकी खुशी मांगते हैं,
दुआओं में आपकी हंसी मांगते हैं,
सोचते हैं मांगे भी तो आपसे क्या मांगें
चलो उम्र भर की मोहब्बत ही मांगते हैं !!"

विक्रम की इस शायरी को सुन हेमा झेंप सी गई। मारे शर्म के उसके गाल लाल हो गए। वह काजल व प्रीति की ओर देखकर मन ही मन सोचने लगी, 'कहां फंस गई इस उलझन में, कुछ सूझ ही नहीं रहा।'

'चलिए आप लोग हार मान लिए न। बड़ी नाम सुने थे बहादुरपुर का। आप सब त गांव का नाके कटा दिए। अब लिख कर दीजिए कॉपी पर कि हार मान गए।' विक्रम ने मुस्कुराते हुए टोन मारी।

'जमुनिया के बाबू साहेब लो में एतना दम नहीं कि बहादुरपुर के हरा के चल जाए। ऊ भी हमनी के रहते हुए। हमनियो के कवनो छोटकन टोला के नहीं बबुआन के हैं। हरदी-कबड्डी बोलाके छोड़ेंगे।' यह प्रीति का स्वर था।

दरअसल कुछ महीने पहले ही वह नवरात्रा मेले से शायरी की एक किताब खरीद लाई थी। जिसके कुछ शेर उसे मुहजुबानी याद थे। अच्छा मौका था यहां सुनाने का। उसकी बातों से काजल व हेमा को काफी राहत मिली।

'प्रेमी जोड़े की किस्मत बुरी होती है,
हर जुदाई मिलन से शुरू होती है,
रिश्तों को कभी परख कर देखना,
दोस्ती हर रिश्ते से बड़ी होती है !!'

इस पंक्ति को सुनते ही हेमा उसके कंधे पर हाथ रखकर बोली, 'जियो पिरीती डार्लिंग। हम सब तो तुमको चुप्पा बुझते थे। तुम तो गजबे ढाह दी, एकदमे छुपा रुस्तम निकली।'

'ई सब तोहरे संगत में नु सीखी हूं।' प्रीति को बोलते देख प्रीतम को भी ताव आ गया। उसे लगा कि इस वक्त उसने भी कुछ नहीं सुनाया तो महफ़िल में बड़ी बदनामी हो जाएगी। शुरू हो गया...

'किसी न किसी पे ऐतबार हो जाता है,
अजनबी कोई शख्स भी यार हो जाता है,
खूबियों से ही नहीं होती मोहब्बत सदा,
खामियों से भी अक्सर प्यार हो जाता है !!"

इसको सुनकर प्रीति अंदर ही अंदर से भावुक हो गई। वह इसके जवाब में एक प्यारा सा शायरी बोलना चाहती थी। लेकिन अगले ही पल दिल में ख्याल कि यह प्रेम प्रदर्शन की जगह नहीं जो मिलता-जुलता शेर सुनाकर सहमति बनाए। यह तो प्रतियोगिता है जिसमें गांव की इज्जत दांव पर थी और सामने वाले प्रतिद्वंदी। सो उसने जवाब में नहले पर दहला मारा...

प्यार करने वालों की नसीब खोटी होती है,
दिन-महीने या साल की हो, हर रात रोती है,
कभी मौका मिले तो प्रेम ग्रन्थ पढ़ लेना,
हर प्रेमी जोड़े की कहानी अधूरी होती है !!"

'वर के हाली से माड़ो में ले चली लोगन बबुनी। पंडी जी कहनी ह कि बिआह के मुहूर्त हो गइल बा।' हज्जाम ठाकुर ने जैसे यह संदेश सुनाया। सब कोई एक-दूसरे का मुंह ताकने लगा। कितना बढ़िया तकरार चल रहा था।

'इहो सरऊ के अब्बे आवे के रहल ह का?  मय रंग में भंग क देले आके ससुर...।' विक्रम प्रीतम के कानों में धीमे से फुसफुसाया।

'एही से नु माड़ो में मेहरारू सभे नउआ लोगन के गरियावेली सन, जइसन रेलिया के चाका वइसन हजमा उचाका...!' प्रीतम ने हज्जाम को सुनाते हुए कहा। लेकिन बढ़ती उम्र से कानों में आई खराबी के कारण वह नहीं सुन सका।

'चलअ स रे जीजा जी के लेके अंगना में।' सभी लड़कियां दूल्हे को लेकर चल पड़ी।

'हां, हां जाइए आप सब। मने ई मत बुझिएगा कि रिजल्ट फाइनल हो गया। बाकी-साकी मड़वो में पूरा होगा।' विक्रम ने चैलेंज देने के अंदाज में कहा तो लड़कियां सब अंगूठा दिखाते हुए हंस पड़ीं।

'हां हां, जाई लोगन ना भीतरा। कनिया के भउजाई सभे दही-हरदी लेके राउर सुआगत में खाड़ बाड़ी जा।' यह हज्जाम ठाकुर बोल रहे थे। और बोलें काहे नहीं? बरिआत में इनसे बड़ा मजाकिया कौन होता है भला? एही से त दुनु पक्ष से गारी भी सुनते हैं।

                                                                        (भाग 13)

खर-बांस से बना माड़ो रंग-बिरंगे झालर व फूल से चकमक था। और उसके नीचे दुल्हन की सहेली के साथ ही भउजाई, चाची, फुआ से लड़कर दादी भी खड़े होकर दूल्हे की अगुवानी में खड़ी थीं। लड़कियां ज्यादातर सलवार शूट में थीं।

कोई-कोई जीन्स व टॉप पहने थीं जो इनके बीच चर्चा का विषय था बना हुआ था। पीले रंग की बनारसी साड़ी में बेतिया वाली फुआ तो इतना ना गाढ़ा लाल लिपस्टिक लगाई थी। 40 वर्ष की उम्र में उनका गहरा मेक अप देखकर काजल से रहा नहीं गया।

उसने मुंह बिचकाते हुए कहा, 'फुआ तू त साफा बिजली गिराव$ तारू। देखिह$ कहीं समधी लो पसन ना कर लेवे।'

'हमरा के समधी पसन के लिहे त तोर फूफा जी के का होई?'

यह सुनकर उनकी नौवीं में पढ़ने वाली बेटी गोल्डी शरमा गई। बोलीं, 'ए मां तोहरो नु उमिर के ख्याल ना रहेला। केन$हु शुरू हो जालु।'

'त कवनो अभिए फुआ कवनो बूढा थोड़े गइल बाड़ी। ई त हमनियो प बीस बाड़ी।' हेमा का इतना कहते ही सभी कोई खिल-खिलाकर हंसने लगा।

तभी दूल्हे ने आंगन में प्रवेश किया और महिलाएं गीत गाने लगीं, 'आपन मुंहवा निरेख$ ए वर$ चननो नाहि, माई तोर पंडितवा बहू चनन ना करे जान$ ए बाबु, कतेक$ लुलुअइबू से सासु कतेक$ परे गारी..!'

परिछावन में अक्षत की बौछार से दूल्हे का पूरा शरीर भर गया। तभी एक चावल का दाना उसकी बायीं आंख में लग गया। उसने हाथ से पपनी को मसला कि लोर बह चले। माजरा समझ काजल रुमाल से उसकी आंखों को धीरे-धीरे पोछने लगी।

'आय-हाय, दीदी त अभी मड़वा में अइली ना कि जीजा जी उनके इयाद में रोवे लगले।' इस पर सभी लड़कियां एक बार फिर से हंस पड़ीं।

काजल को मजाक सूझ रहा उधर दूल्हा को हंसी के साथ गुस्सा भी आ रहा था। एक पल के लिए मन में आया कि कह दे, 'इस अकेले बच्चा का आप लोग जान लेकर ही छोड़ोगे क्या?'

लेकिन अगले ही पल घर से चलते वक्त मां, मौसी व फुआ की दी हुई हिदायत याद आ गई, 'बबुआ केतनो केहू ससुरार में कुछो करी मने जन बोलिह$ माड़ो में तोहार शिकायत हो जाई।'

थोड़ी देर में पंडी जी ने दूल्हे को आसन ग्रहण करने का आदेश दिया। उसने तिरछी नजर से मुआयना कर वस्तु स्थिति का जायजा लिया। एक पतले कम्बल पर चावल के पीले दाने से कुछ बनाया गया था जिस पर बैठना था। बगल में कलश में आम का पल्लो, खेत जोतने वाला हल, ओखर-मूसर, हवन की वेदी...।

और चारों तरफ से घेरकर बैठा लड़कियों और महिलाओं का झुंड एकटक उसे ही निहार रहा था। इस तरह के Get-Together का पहले से अनुभव ना होने वह थोड़ा झेंप गया।

घर से मिले निर्देश के मुताबिक बैठनी वाली जगह का गम्भीरता से निरीक्षण किया। कुछ गड़बड़ नहीं होने के प्रति आश्वस्त हो गया। उसने आराम से अपने लाल रंग का बिहउती चमड़े का जुत्ता खोला और बैठ गया। लेकिन ये क्या... जांघ के ऐन नीचे कोई ठोस चीज गड़ने का एहसास हुआ। और एक बार फिर जोरदार ठहाके से माहौल गुलजार हो उठा।

दरअसल सालियों ने चतुराई से उसका जुत्ता नीचे लगा दिया था। बिआह के समय माड़ो में नकचढ़े दूल्हे को काफी परेशानी झेलनी पड़ती है।

'ॐ मंगलम भगवान विष्णु पुण्डरीकाक्षः... मंत्र का उच्चारण कर पंडी जी ने प्रक्रिया को आगे बढ़ाया। उम्रदराज महिलाएं बरामदे में नीचे ही समूह में एक जगह बैठकर गवनई में व्यस्त थीं। जबकि लड़किया सब दूल्हे के पीछे कुर्सी लगाकर बैठ गईं। उन्हें तो चुहलबाजी और शरारत सूझ रही थी। कनिया वाले रूम के पास दो कुर्सी रखी थीं। हेमा ना आंखों से इशारा किया तो प्रीतम व विक्रम वहीं बैठ गए।

थोड़ी ही देर में विक्रम को लगा कि मुंह में कुछ लभेरा गया। अरे यह तो लड़की की मामी थी हाथ में हल्दी मिलाया दही लिए। प्रीतम तो झटके से खड़ा हो गया था। लेकिन शर्ट के बाजू में लग ही गया।

'का मामी जी, रउरा अकेले काहे बानी? ऊ सभे का करेगी? जे आपको बुढौती में एतना मेहनत करना पड़ रहा है। उनको भेजिए ना।' विक्रम ने रुमाल से बाएं ओर के आंख व गाल को पोछते हुए लड़कियों की तरफ इशारा किया।

तो नई बिआह कर आई पट्टीदारी की सरहज ने चस्की ली, 'जा ए साले खाए के रहल ह त मंगनी ह काहे ना जे दही के नदिये में मुंह लगा देनी ह!'

'अब अइसनो जन कहीं। हमनी के चोरा-नुका के ना खानी स$। प्रेम से ना मिले त बरिआई छिनहु के हाल जाने ली जा।' प्रीतम ने विक्रम का पक्ष लिया।

'कनिया दान के बेरा हो गइल बा। लइकी के बोलाई सभे।' पंडी जी ने आवाज लगाई।

                                                                भाग - 14

 हई लीं बबुआ, कनिया के आवे से पहिले खाड़ होखे मरदानी पहिन लीं।' हज्जाम ठाकुर ने दूल्हे को धोती सौपते हुए कहा।

उसने पीली धोती को तह लगाकर लपेट रहे हज्जाम की ओर ऐसे देखा मानो वह दूसरे ग्रह से आया प्राणी हो। मन ही मन कहा, अब ये क्या बला है?'

'अरे ये इतना लंबा है। मुझे नहीं आता ये सब पहनना। नहीं पहनूंगा, ऐसे ही ठीक हूं।'

'बबुआ ई मरजाद आ सगुन ह। बिना पहिनले विद्द कइसे पूरा होई? रउआ खड़ा रही हम लपेटे के सीखा देत बानी।'

वह बेचारा चुपचाप खड़ा हो गया। और धोती को लुंगी की तरह लपेट कर फूल पैंट निकाल दिया। लेकिन पीछे मुड़कर देखा तो उसका जुत्ता गायब था।

'अरे मेरा शू क्या हुआ?'

'ऊ त नहीं मिलेगा जीजा जी। अब नेग दीजिएगा तभिये भेटाएगा।' काजल ने अंगूठा दिखाते हुए कहा।
तभी लम्बी घूंघट काढ़े दुल्हन का आगमन हुआ माड़ो में। हेमा उसे लेकर आई थी। दूल्हा मन मानकर वहीं पर बैठ गया।

इधर, प्रीति ने हेमा की ओर देखा तो उसने इशारे से कुछ कहा। वह दुल्हन वाले कमरे में चली गई। हालांकि कमरे में उस वक्त कोई नहीं था लेकिन अंजाने भय से उसका कलेजा धड़कने लगा। कहीं हमारी चोरी पकड़ी गई तो...

माड़ो में वर-वधू के बैठते एक साथ बैठेते ही सभी की नजरें उस तरफ ही तल्लीन हो गई। पंडी जी के मंत्रोच्चारण से लग्नमय दृश्य बन गया। जबकि महिलाएं गीत गाने में विभोर हो चली थीं।

हेमा बेहद होशियारी से दुल्हन वाले कमरे के गेट पर पहरेदार की तरह खड़ी हो गई। कि कोई शक नहीं करे। पास में विक्रम व प्रीतम भी बैठे थे।

'प्रीतम जी आप भीतर जाइए, पांव रंगाई का रस्म होगा।' उसने धीरे से कहा तो वह चुपके से उठकर कमरे के अंदर चला गया।

सीएफएल की दूधिया रौशनी में रेड कलर की लहंगा साड़ी पहने पलंग पर बैठी प्रीति गजब की खूबसूरत दिख रही थी। और थोड़ा Matured भी। लग ही नहीं रहा था का मैट्रिक की छात्रा है। वैसे भी साड़ी में लड़कियां असमय ही उम्र से ज्यादा व गम्भीर दिखने लगती हैं।

हाथ में लिए लक्मे की ग्रे रंग वाला नेल पॉलिश के ढक्कन को खोल रही थी। प्रीतम को देखते ही वह शर्माकर बगल झांकने लगी।

'का हम पसन्द नहीं तुमको जो देखकर मुंह चोरा रही हो?' प्रीतम उसके करीब जाकर पलंग बैठते ही बोला।
'भाक, अइसा बात नहीं है। आपको देखकर करेजा धुकधुकाए लगा। आ मन में गुदगुदी उठ रहा है।'

'तो ई बात है। हमको तो कुछ और ही बुझाया...'

'का बुझाया?'

'अब रहने दो दिल का बात दिले में रहे त आछा है।'

'ठीक है राखिए बात दिल में। आ दाहिना हाथ दीजिए। रंगना है। नहीं तो बतियाए में ही टाइम बीत जाएगा।'

'आ हम नहीं रंगवाएं त का करोगी?' प्रीतम ने भाव बनाया।

'ई आपका मरजी है हम कवन जबरदस्ती थोड़े बोल रहे हैं।' प्रीति ने बनावटी नाराजगी जताई।

इसपर प्रीतम ने उसका बायां हाथ अपनी कलाई में जकड़ लिया। लेकिन यह क्या वह तो कांपने लगी और हाथ भी मानो तवे सा गर्म हो गया।

'अरे, तुम कांप काहे रही हो। हम कवनो भूत हैं का?

'कापेंगे नहीं तो और का होगा। एगो अंजान लड़की दोसरा लड़का के संगे बैठी है। कोई देख ले ई हाल में तो क्या होगा?

'ओहो, तो ई बात है।'

'और का? आप भूत तो नहीं मने जादूगर तो हइए हैं। जादू से हमारा दिल चोरा लिए हैं।'

'इहे बात तो हम तुमको भी कह सकते हैं। अकेले मुझे ही दोषी काहे बना रही हो?'

'उ त हइए हैं। आग त दूनो ओर बराबर लगा है।' प्रीति उसके हाथों का अंगूठा रंगते हुए बोली।

'पिरीति एगो बात बोलें?'

'हां बोलिए।'

'तुम एतना ना सुंदर दिख रही हो कि का बताए। हमको तो सपना में भी नहीं एहसास था कि एतना जल्दी
मुलाकात होगा।'

'सब देवी माई के किरपा है। नवरात्र में हम उनसे भखौती माने थे। देवी माई आपसे मुलाकात करा दे तो खोइछा भरेंगे।'

'चलो, माता रानी ने तुम्हें सुन लिया। आ एही बहाने हम लोग मिल भी लिए।'

'आछा ई बताओ हम तुमको कइसन लग रहे हैं?' प्रीतम ने एक और सवाल छोड़ते हुए बातों का सिलसिला आगे बढ़ाया।

'आप बार-बार ई बात पूछकर हमको शर्मिंदा काहे करते हैं। हम तो पहिलही कह दिए हैं आपसे। आप कइसनो हैं मेरे लिए तो भगवान है, जो मेरे में दिल में बस गए हैं।' प्रीति ने उसकी दसवीं अंगुली को रंगते हुए कहा।

'ओह, तो एतना विश्वास करती हो हम पर कि भगवाने बना ली हो। आ मैं ई बात पर खरा नहीं उतरा और तुमको छोड़ दिया तो..?'

'करेंगे का, एक चिटकी जहर खाकर परान दे देंगे। आउर का।'

'राम-राम, शुभ-शुभ बोलो। मैं तो मजाक कर रहा था।'
 
'लेकिन हमको मजाक में भी छोड़े-छाड़े आला बात तनिको पसन्द नहीं है। आगे ई सब मत बोलिएगा। हम तो तय कर लिए जिएंगे तो आपके लिए और मरेंगे भी..।
आगे जारी...

(नोट- ©® भदेस (भोजपुरी+हिन्दी) भाषा में लिखी मेरी लम्बी काल्पनिक प्रेम कहानी पिरीति आ पिरितम के Love स्टोरी' टुकड़े-टुकड़े में आगे भी जारी है। शेष भाग पढ़ने के लिए आप पोस्ट के हैश टैग या मेरे ब्लॉग www.meghvani.blogspot.in पर क्लिक कर सकते हैं। बिना रचनाकार का नाम लिए इसका कॉपी-पेस्ट कर शेयर करना निंदनीय अपराध होगा।)

(सोशल साइट्स से जुड़ी लाखों की भीड़ में पढ़ने वाले कम और लिखने वाले ज्यादा हैं। लेकिन चीज अच्छी हो तो जरूर पसंद की जाती है। भदेस भाषा में लिखी मेरी लंबी प्रेम कहानी 'बुरबक बिहारी' टुकड़े-टुकड़े में आगे भी जारी...)