भले ही भूल जाइए कि आप क्या हैं! लेकिन याद जरूर रखिए कि हम बिहारी हैं! जब गुजरात वालों को गुजराती, पंजाब वालों को पंजाबी, असम वालों को असमिया कहते हैं तो हम भी बिहारी ही न हुए। लेकिन अन्य राज्यों के निवासियों का सम्बोधन जहां बड़े शान से किया जाता है। वहीं 'बिहारी' शब्द हमारे लिए गर्व की अनुभूति कराने वाला नहीं, बल्कि गाली होता है। वो इसलिए कि हमारे यहां बच्चे जन्मते नहीं, बदकिस्मती से टपक जाते हैं। बड़े होकर पलायन करने के लिए। दूसरे राज्यों में जाकर मरने-खपने के लिए।
जिसकी मिट्टी में लोटा कर बचपना बिताते हैं। वहीं धरती बेगानी हो जाती है। यहां टपकने वाला कोई भी बच्चा इंसान नहीं होकर, पहले बाभन, भूमिहार, राजपूत, लाला, बनिया, यादव, कोयरी, कुर्मी, दलित या महादलित होता है। स्कूल जाने की उम्र में किसी बच्चे का सरकारी विद्यालय में नामांकन होता है। तो किसी का एडमिशन कान्वेंट में होता है। किसी को हिंदी की घुट्टी पिलाई जाती है, तो किसी को अंग्रेजी की कोरामिन दी जाती है। दोनों ही माध्यमों से पढ़ाई का स्तर जो भी रहे, सबसे पहले मातृभाषा ही मारी जाती है।
काहे कि बिहारी हैं हम...
गांव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले जाने कितने बच्चे दसवीं तक आते-आते पढ़ाई छोड़ देते हैं। इनके अभिभावकों को असमय पढ़ाई छूट जाने का, जरा भी मलाल नहीं होता। दरअसल शुरू से ही लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गई है। अक्सर मजदूर या किसान पिता कहते मिल जाते हैं, जल्दी से बड़े हो जाओ, फिर बाहर जाना है कमाने। पंजाब के खेतों में फसल बोने-काटने, असम के चाय बगानों को, लुधियाना, सूरत की कपड़ा फैक्ट्रियों को, बंगलुरू, हैदराबाद, केरल के ऑइल मिलों को, आबाद करने। जहां किसी के मामा, फूफा, गांव के चाचा लेबर, मुंशी या ठीकेदार होते हैं।
अब चाहें रोज़गार के लिए हो या उत्तम जीवन शैली के लिए, पलायन तो बिहारियों के भाग्य में लिखा होता है। और जाना भी सभी का ट्रेन से ही होता है। फर्क बस इतना होता है कि इस पर सवार कोई लड़का दिल्ली, जयपुर, शिमला, कोटा, देहरादून कमाने जा रहा होता है। तो कोई बैंकिंग, एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी की पढ़ाई करने। कोई एसी या स्लीपर से जाता है तो कोई जेनरल बॉगी में ठूस-ठूसकर। वहां जाकर कोई फ्लैट में रहता है, तो कोई संकरी गलियों वाले सिंगल कमरे के मकान में। और कोई झुग्गियों में ही जवानी गुजार देता है। कोई वातानुकूलित कमरे में दिन बिताता है। तो कोई सड़क पर काम करते हुए जेठ-बैशाख की दोपहरी में चमड़ी झुलसाकर पसीने बहाता है।
अब जो हो लेकिन एक बार जो किसी के क़दम यहां से उठते हैं। फिर स्थायी रूप से लौटकर आते भी कहां हैं। प्रवासी लोग मौका-बेमौका, वर्ष-दो वर्ष में एकाध बार यहां आते भी हैं। तो छठ, होली, दीवाली, शादी-ब्याह, मरण-हरण जैसे आयोजनों में शरीक होने। गांव उनके लिए डेरा बन जाता है। अपनी जड़ों से कटा आदमी, बनावटी जिंदगी जीता आदमी, पहचान की संकट से गुजरता आदमी। उसका सबसे बड़ा उदाहरण हम ही हैं, जो दोयम जिंदगी जीते हुए अपनी मौलिकता भी भूल चुके हैं। किसी कम्पनी में यदि बंगाली, मराठी, उड़िया, मद्रासी जीएम है, तो अपनी तरफ़ के मजदूर से मातृभाषा में बात करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा। लेकिन एक बिहारी सुपरवाइजर भी अपने मुंशी से टूटी-फूटी हिंदी में रौब झाड़ेगा। बड़े शहरों में वर्षों से रह रहे लोग 'बिहारी' कहलाने में ख़ुद की तौहीनी समझते हैं। इसलिए पहचान ही छुपा लेते हैं। और यहीं लोग 'जिअ हो बिहार के लाला जिअ तु हजार साला...' वाला गाना सुनकर आत्ममुग्ध भी हो जाते हैं।
काहे कि बिहारी हैं हम...
आपने कभी सोचा है, आजादी के 73 वर्षों बाद भी देश के मानचित्र पर हम कहां हैं? पुरानी कंपनियां धीरे-धीरे बंद तो होती ही गई। पिछले 50 वर्षों में ढंग की एक अदद फैक्टरी नहीं लग सकी। ना तो जरूरत के हिसाब से अच्छे कॉलेज खुलें। ना ही अस्पतालों की संख्या बढ़ाई जा सकी। वैसे भी 12 करोड़ की आबादी वाले, जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय रहा ही नहीं। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। उस भाषा में साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी होगी कि नहीं। फ़िल्मों में भी अक्सर हमारे भाषा, वेशभूषा, चलन, रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। नकारात्मक छवि परोसी जाती है। और हम हैं कि इसका विरोध नहीं कर, उल्टे मौन समर्थन देते हैं।
हमारे यहां छात्र हैं, दर्शक हैं, उपभोक्ता हैं, कलाकार हैं, खिलाड़ी हैं, साहित्यिक प्रतिभा हैं, अभिनेता हैं, बीमार हैं, डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, कारोबारी हैं, श्रमिक हैं। लेकिन अफ़सोस, सभी कोई चीजों की पूर्ति के लिए बाहर पर ही आश्रित हैं। बाहर, मतलब वैसे राज्य जिनके लिए हम महज़ बाजार, ख़रीददार और मैन पावर भर हैं। हम उनके यहां बने समान ख़रीदकर, उनके अस्पताल में इलाज कराकर, उनके शैक्षणिक संस्थानों में पढ़कर, उनकी फिल्में देखकर, उनकी दवा खाकर, उनके कपड़े पहनकर, उनकी कम्पनियों में काम कर, उनकी इकॉनमी में बढ़ोतरी करते ही हैं। बदले में, दोतरफ़ा मार भी झेल रहे हैं। मैन पावर के रूप में वर्षों से प्रवासी के रूप में काम करते हुए, ना तो वे ही हमें अपना सके। और ना अपने राज्य में हम आज तक अपनी ज़मीन तैयार कर पाए।
उद्यमिता की भावना तो हममें कभी रहीं ही नहीं। बाहर में सड़कों पर ठेले घुमाकर जूस या सब्जी बेंच लेंगे। लेकिन अपने यहां छोटा काम करने में शर्म आती है। सही है कि बाहर जाकर कुछ हजार लोगों ने मेहनत से ज़िंदगी बदली है। लेकिन लॉकडाउन में वापस लौट रही लाखों की भीड़ चीख-चीखकर किस बात की गवाही देती है? यह भी गौर करने लायक है। चीजों को बदलने की जिम्मेवारी जिस सत्ता पर होती है। उसके लिए भी हम महज़ वोट बैंक हैं। राजनेताओं के लोकलुभावने भाषण, मुफ़्त के राशन, अनुदान, जाति-धर्म के प्रायोजित लफड़ों में उलझी जनता, जब तक वोट बैंक बनी रहेगी। तब तक बाढ़, सुखाड़, गरीबी, बेरोज़गारी व पलायन से जूझते बिहार को 'बीमारू' राज्य के ठप्पे से छुटकारा नहीं मिलने वाला।
काहे कि बिहारी हैं हम...
लेकिन अब हमें जागना होगा। मां, मातृभूमि और मातृभाषा को अपनाकर इसी ज़मीन पर अपनी तक़दीर की इबारत लिखनी होगी। हमारा बिहार, प्यारा बिहार!!!
©️श्रीकांत सौरभ
जिसकी मिट्टी में लोटा कर बचपना बिताते हैं। वहीं धरती बेगानी हो जाती है। यहां टपकने वाला कोई भी बच्चा इंसान नहीं होकर, पहले बाभन, भूमिहार, राजपूत, लाला, बनिया, यादव, कोयरी, कुर्मी, दलित या महादलित होता है। स्कूल जाने की उम्र में किसी बच्चे का सरकारी विद्यालय में नामांकन होता है। तो किसी का एडमिशन कान्वेंट में होता है। किसी को हिंदी की घुट्टी पिलाई जाती है, तो किसी को अंग्रेजी की कोरामिन दी जाती है। दोनों ही माध्यमों से पढ़ाई का स्तर जो भी रहे, सबसे पहले मातृभाषा ही मारी जाती है।
काहे कि बिहारी हैं हम...
गांव के सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले जाने कितने बच्चे दसवीं तक आते-आते पढ़ाई छोड़ देते हैं। इनके अभिभावकों को असमय पढ़ाई छूट जाने का, जरा भी मलाल नहीं होता। दरअसल शुरू से ही लोगों की मानसिकता ऐसी बना दी गई है। अक्सर मजदूर या किसान पिता कहते मिल जाते हैं, जल्दी से बड़े हो जाओ, फिर बाहर जाना है कमाने। पंजाब के खेतों में फसल बोने-काटने, असम के चाय बगानों को, लुधियाना, सूरत की कपड़ा फैक्ट्रियों को, बंगलुरू, हैदराबाद, केरल के ऑइल मिलों को, आबाद करने। जहां किसी के मामा, फूफा, गांव के चाचा लेबर, मुंशी या ठीकेदार होते हैं।
अब चाहें रोज़गार के लिए हो या उत्तम जीवन शैली के लिए, पलायन तो बिहारियों के भाग्य में लिखा होता है। और जाना भी सभी का ट्रेन से ही होता है। फर्क बस इतना होता है कि इस पर सवार कोई लड़का दिल्ली, जयपुर, शिमला, कोटा, देहरादून कमाने जा रहा होता है। तो कोई बैंकिंग, एमबीए, इंजीनियरिंग, मेडिकल, यूपीएससी की पढ़ाई करने। कोई एसी या स्लीपर से जाता है तो कोई जेनरल बॉगी में ठूस-ठूसकर। वहां जाकर कोई फ्लैट में रहता है, तो कोई संकरी गलियों वाले सिंगल कमरे के मकान में। और कोई झुग्गियों में ही जवानी गुजार देता है। कोई वातानुकूलित कमरे में दिन बिताता है। तो कोई सड़क पर काम करते हुए जेठ-बैशाख की दोपहरी में चमड़ी झुलसाकर पसीने बहाता है।
अब जो हो लेकिन एक बार जो किसी के क़दम यहां से उठते हैं। फिर स्थायी रूप से लौटकर आते भी कहां हैं। प्रवासी लोग मौका-बेमौका, वर्ष-दो वर्ष में एकाध बार यहां आते भी हैं। तो छठ, होली, दीवाली, शादी-ब्याह, मरण-हरण जैसे आयोजनों में शरीक होने। गांव उनके लिए डेरा बन जाता है। अपनी जड़ों से कटा आदमी, बनावटी जिंदगी जीता आदमी, पहचान की संकट से गुजरता आदमी। उसका सबसे बड़ा उदाहरण हम ही हैं, जो दोयम जिंदगी जीते हुए अपनी मौलिकता भी भूल चुके हैं। किसी कम्पनी में यदि बंगाली, मराठी, उड़िया, मद्रासी जीएम है, तो अपनी तरफ़ के मजदूर से मातृभाषा में बात करने में ज़रा भी नहीं हिचकेगा। लेकिन एक बिहारी सुपरवाइजर भी अपने मुंशी से टूटी-फूटी हिंदी में रौब झाड़ेगा। बड़े शहरों में वर्षों से रह रहे लोग 'बिहारी' कहलाने में ख़ुद की तौहीनी समझते हैं। इसलिए पहचान ही छुपा लेते हैं। और यहीं लोग 'जिअ हो बिहार के लाला जिअ तु हजार साला...' वाला गाना सुनकर आत्ममुग्ध भी हो जाते हैं।
काहे कि बिहारी हैं हम...
आपने कभी सोचा है, आजादी के 73 वर्षों बाद भी देश के मानचित्र पर हम कहां हैं? पुरानी कंपनियां धीरे-धीरे बंद तो होती ही गई। पिछले 50 वर्षों में ढंग की एक अदद फैक्टरी नहीं लग सकी। ना तो जरूरत के हिसाब से अच्छे कॉलेज खुलें। ना ही अस्पतालों की संख्या बढ़ाई जा सकी। वैसे भी 12 करोड़ की आबादी वाले, जिस राज्य में मां, मातृभूमि और मातृभाषा कभी गर्व का विषय रहा ही नहीं। उसमें स्वाभिमान या अस्मिता की भावना जागेगी भी कैसे? जहां के रहनिहार को मातृभाषा बोलने में भी शर्म आती हो। उस भाषा में साहित्य, संगीत या सिनेमा की कल्पना करना बेमानी होगी कि नहीं। फ़िल्मों में भी अक्सर हमारे भाषा, वेशभूषा, चलन, रहन-सहन का मज़ाक उड़ाया जाता है। नकारात्मक छवि परोसी जाती है। और हम हैं कि इसका विरोध नहीं कर, उल्टे मौन समर्थन देते हैं।
हमारे यहां छात्र हैं, दर्शक हैं, उपभोक्ता हैं, कलाकार हैं, खिलाड़ी हैं, साहित्यिक प्रतिभा हैं, अभिनेता हैं, बीमार हैं, डॉक्टर हैं, इंजीनियर हैं, कारोबारी हैं, श्रमिक हैं। लेकिन अफ़सोस, सभी कोई चीजों की पूर्ति के लिए बाहर पर ही आश्रित हैं। बाहर, मतलब वैसे राज्य जिनके लिए हम महज़ बाजार, ख़रीददार और मैन पावर भर हैं। हम उनके यहां बने समान ख़रीदकर, उनके अस्पताल में इलाज कराकर, उनके शैक्षणिक संस्थानों में पढ़कर, उनकी फिल्में देखकर, उनकी दवा खाकर, उनके कपड़े पहनकर, उनकी कम्पनियों में काम कर, उनकी इकॉनमी में बढ़ोतरी करते ही हैं। बदले में, दोतरफ़ा मार भी झेल रहे हैं। मैन पावर के रूप में वर्षों से प्रवासी के रूप में काम करते हुए, ना तो वे ही हमें अपना सके। और ना अपने राज्य में हम आज तक अपनी ज़मीन तैयार कर पाए।
उद्यमिता की भावना तो हममें कभी रहीं ही नहीं। बाहर में सड़कों पर ठेले घुमाकर जूस या सब्जी बेंच लेंगे। लेकिन अपने यहां छोटा काम करने में शर्म आती है। सही है कि बाहर जाकर कुछ हजार लोगों ने मेहनत से ज़िंदगी बदली है। लेकिन लॉकडाउन में वापस लौट रही लाखों की भीड़ चीख-चीखकर किस बात की गवाही देती है? यह भी गौर करने लायक है। चीजों को बदलने की जिम्मेवारी जिस सत्ता पर होती है। उसके लिए भी हम महज़ वोट बैंक हैं। राजनेताओं के लोकलुभावने भाषण, मुफ़्त के राशन, अनुदान, जाति-धर्म के प्रायोजित लफड़ों में उलझी जनता, जब तक वोट बैंक बनी रहेगी। तब तक बाढ़, सुखाड़, गरीबी, बेरोज़गारी व पलायन से जूझते बिहार को 'बीमारू' राज्य के ठप्पे से छुटकारा नहीं मिलने वाला।
काहे कि बिहारी हैं हम...
लेकिन अब हमें जागना होगा। मां, मातृभूमि और मातृभाषा को अपनाकर इसी ज़मीन पर अपनी तक़दीर की इबारत लिखनी होगी। हमारा बिहार, प्यारा बिहार!!!
©️श्रीकांत सौरभ
3 comments:
मौलिकता से परिपूर्ण लेख...
वातविकता से परिपूर्ण आलेख।
सहमत। पर बिहारी को गाली महसूस करना ठीक नहीं। देश के ज्यादातर राज्यों के हालात गरीब और गरीबी के हिसाब से एक जैसे हैं हमारे राज्य के युवाओं के हालात भी वही हैं पहाड़ी राज्य के पहाड़ बन्जर हो चुके हैं और युवा देश के बड़े शहरों के होटलों में काम करने को मजबूर हैं।
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