अंजोर Anjor
अब पढ़ता कोई नहीं लिखते सभी हैं, शायद इसलिए कि सबसे अच्छा लिखा जाना अभी बाकी है!
26 February, 2014
इसी 'कुछ' ने पत्रकारों का वजूद बचा कर रखा है
›
मुफ्फसिल क्षेत्रों में पत्रकारिता बेहद दुरुह काम है. और यहां तकरीबन 90 प्रतिशत ग्रामीण पत्रकारों को दस टके पर खटना पड़ता है. वह भी सुबह से श...
"...घर के भाषा में ना बात करल खराब मानल जाला"
›
कल एक शादी समारोह में खाना बनाने वाले कैटरर्स को आपस में बंगाली में बतियाते देख नजरें उनपर ठहर गई. स्थानीय हलुवाई टीम का एक भोजपुरी भाषी क्...
18 February, 2014
अब कलम नहीं चलाते ब्यूरो चीफ
›
एक जमाना था जब अखबारों के जिला संस्करण नहीं होकर प्रादेशिक पन्ने छपते थे. जिला कार्यालय में ब्यूरो चीफ की अच्छी खासी धाक रहती थी. अखबार के...
भाषा सुधार नहीं सूचना के लिए पढ़ें अखबार
›
भले ही अन्य निजी संस्थानों में तमाम डिग्रियां होने के बावजूद स्किल टेस्ट लेकर ही भर्ती करने का प्रावधान है. लेकिन मीडिया में दक्षता जांच कर...
मेरी वीरगंज (नेपाल) यात्रा - 1
›
जब भी रक्सौल आता हूं, जाने क्यों नास्टलेजिक हो जाता हूं. इस पार भारत व उस पार नेपाल का वीरगंज शहर. इस बार मां की आंखों के इलाज के लिए परवान...
18 September, 2013
बिहार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय और पटना प्रवास से जुड़ी मेरी यादें
›
किसी भी पद के लिए चयन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसकी गरिमा को बचाए रखना. और यह तभी मुमकिन है जब उस पद पर किसी योग्य व्यक्ति को चुना जाए...
1 comment:
इंटरनेट ने लगाया 'छपास रोग' पर मरहम
›
'छपास' की बीमारी बेहद ख़राब होती है. जिस किसी को यह रोग एक बार लग जाए. ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता. प्रायः यह पत्रकारों व लेखकों में पा...
14 September, 2013
मशहूर पत्रकार निराला उर्फ़ बिदेशिया जब मेरे गांव आए
›
निराला पत्रकारिता तो सभी करते हैं पर इसे जीता कोई-कोई ही है. एक ऐसे ही बिहारी पत्रकार हैं निराला जो कि पत्रिका तहलका,पटना से जुड़े हैं....
हिंदी दिवस पर अमेरिका से मिश्रा जी का यह फोन
›
आज 14 सितम्बर है, बोले तो हिंदी दिवस. सुबह में ही अमेरिका के बोस्टन शहर में रहने वाले एनआरआई सुधाकर मिश्रा का फोन आया. बोले, मेरा नंबर उनको...
16 April, 2013
...तो क्यों नहीं साहित्यिक पंडों की लेखन शैली का भाषाई श्राद्ध करा दें?
›
रचनात्मक लेखन की कश्ती पर सवार हिंदी के युवा साहित्यकारो, जरा ध्यान दीजिए... ------------------------------------------------------------...
1 comment:
14 April, 2013
यादें (3): वो जमाना जब दूध सस्ता और मनोरंजन महंगा था!
›
जब मैंने होश संभाला 5 साल की उम्र रही होगी, सन 88 का वर्ष था. वह दौर जब उदारीकरण की सुगबुगाहट में उनींदा भारत ‘इंडिया’ बनने की और अग्रसर...
1 comment:
07 April, 2013
यादें (2): ...और 'मिशन स्कूल' में पढ़ाई का सपना अधूरा रह गया!
›
यादाश्त पर जोर दूं तो 90 का शुरूआती दशक था वह . तब मैं दूसरी कक्षा में पढ़ता था पड़ोस के ही प्राथमिक विद्दालय में , न...
12 comments:
‹
›
Home
View web version