आज 14 सितम्बर है, बोले तो हिंदी दिवस. सुबह में ही अमेरिका के बोस्टन शहर में रहने वाले एनआरआई सुधाकर मिश्रा का फोन आया. बोले, मेरा नंबर उनको इंटरनेट से मिला. भोर के 2 बजे (अमेरिकी समय शाम 4.30 बजे) से ही प्रयास कर रह थे, बात करने के लिए. लेकिन फोन लगा सुबह 8.30 बजे (अमेरिकी समय रात 11 बजे). हिंदी के प्रति मेरे प्रेम ने उन्हें मुझसे बात करने को प्रेरित किया. 56 वर्षीय मिश्रा जी ने बताया कि वे मूल रूप से बनारस के निवासी हैं. दिल्ली में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार में पत्रकारिता भी किया है.
फिलहाल बोस्टन में अपनी बेटी के पास रहकर बतौर क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट मानसिक रोगियों का इलाज करते हैं. अभी भी मातृभाषा हिंदी के प्रति मोह बरक़रार है. भले ही अमेरिकी लोगों से अंग्रेजी में मजबूरन बातें करते हैं. लेकिन उनका दिल हर घड़ी हिंदी के लिए धड़कता है. हिंदी के विकास को लेकर उनसे तक़रीबन 20 मिनट चर्चा हुई. भारतीय साहित्य का मठाधीसों के कारण बेड़ा गर्क होने से लेकर हिंदी उत्थान के लिए एक क्लब बनाने तक. उनकी बातों से परदेश प्रवास की पीड़ा भी झलक रही थी. कहा, यार कुछ वर्ष यूरोप भी रहा हूं, और अब अमेरिका में हूं. बेहद खोखले देश हैं ये सारे. भारत जैसी रूमानियत व बेफिक्री और कहां मिलेगी.
फिर, आगे भी बात करते रहने व जनवरी में बनारस में मुलाकात होने का आश्वासन दे उन्होंने फोन रखा. मुझे भी उनसे बात कर काफी ख़ुशी मिली. यह सोचने को विवश भी हुआ कि एक हम लोग हैं जो हिंदी को ठुकरा अंग्रेजी के आगे नत मस्तक हुए जा रहे हैं. तो दूसरी तरफ मिश्रा जी जैसे हजारों प्रवासी भी हैं. जो लंदन, शिकागो, मेलबोर्न, बोस्टन, पेरिस आदि जगहों पर रहते हुए भी हिंदी का अस्तित्व बचाने के लिए उसे सहेज कर रखे हैं.
फिलहाल बोस्टन में अपनी बेटी के पास रहकर बतौर क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट मानसिक रोगियों का इलाज करते हैं. अभी भी मातृभाषा हिंदी के प्रति मोह बरक़रार है. भले ही अमेरिकी लोगों से अंग्रेजी में मजबूरन बातें करते हैं. लेकिन उनका दिल हर घड़ी हिंदी के लिए धड़कता है. हिंदी के विकास को लेकर उनसे तक़रीबन 20 मिनट चर्चा हुई. भारतीय साहित्य का मठाधीसों के कारण बेड़ा गर्क होने से लेकर हिंदी उत्थान के लिए एक क्लब बनाने तक. उनकी बातों से परदेश प्रवास की पीड़ा भी झलक रही थी. कहा, यार कुछ वर्ष यूरोप भी रहा हूं, और अब अमेरिका में हूं. बेहद खोखले देश हैं ये सारे. भारत जैसी रूमानियत व बेफिक्री और कहां मिलेगी.
फिर, आगे भी बात करते रहने व जनवरी में बनारस में मुलाकात होने का आश्वासन दे उन्होंने फोन रखा. मुझे भी उनसे बात कर काफी ख़ुशी मिली. यह सोचने को विवश भी हुआ कि एक हम लोग हैं जो हिंदी को ठुकरा अंग्रेजी के आगे नत मस्तक हुए जा रहे हैं. तो दूसरी तरफ मिश्रा जी जैसे हजारों प्रवासी भी हैं. जो लंदन, शिकागो, मेलबोर्न, बोस्टन, पेरिस आदि जगहों पर रहते हुए भी हिंदी का अस्तित्व बचाने के लिए उसे सहेज कर रखे हैं.
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