18 February, 2014

अब कलम नहीं चलाते ब्यूरो चीफ

एक जमाना था जब अखबारों के जिला संस्करण नहीं होकर प्रादेशिक पन्ने छपते थे. जिला कार्यालय में ब्यूरो चीफ की अच्छी खासी धाक रहती थी. अखबार के चर्चित संवाददाताओं की गरिमा निराली थी. उनकी धारदार लेखनी के कायल स्थानीय विधायक, मंत्री से लेकर एसपी व डीएम तक रहते. स्थिति यह थी कि ये हुक्मरान चिरौरी के लिए खुद कार्यालयों का साप्ताहिक या पाक्षिक दौरा लगाते थे. तब न आज की तरह इंटरनेट, कंप्यूटर, डिजिटल कैमरे व मोबाइल जैसी हाइटेक सुविधाएं थीं. ना ही रंग बिरंगे पन्ने बनते थे.

संवाददाता सूचना प्रेषित करने के लिए पूरी तरह फैक्स, तार या डाक पर निर्भर थे. और पूरे जिले में अखबार का 2 हजार प्रसारण भी काफी माना जाता. लेकिन उस वक्त श्वेत श्याम अखबार के पीले पन्ने में छपी खबर का जो रुतबा था. उसे शब्दों में व्यक्त करना मुमकिन नहीं. भ्रष्टाचार की एक खबर से सरकारी कर्मी का तबादला हो जाता. तो अवैध कारोबारी सलाखों की भीतर रहते. लेकिन वर्ष 00 के बाद जब जिले में अखबारों के मोडेम कार्यालय खुलने शुरु हुए. ब्यूरो चीफ की जगह कार्यालय प्रभारी रखे जाने लगे. क्षेत्रीय खबरों का दायरा जिले भर में ही सिमट कर रह गया. और वर्ष 14 में, अखबारों का स्तर गिरते गिरते उस दौर में पहुंच चुका है. कि भले ही जिले में अखबारों का प्रसारण हजारों में है.

लेकिन आकर्षक कलेवर में रंगीन छपाई वाले पन्नों की हालत परचे पोस्टर से ज्यादा की नहीं रह गई. लगभग सभी बैनरों के प्रबंधन का ही सख्त आदेश है कि विवादित यानी हार्ड खबरों की रिपोर्टिंग फूंक फूंक कर करनी है. भले ही खबर छूट जाए लेकिन बिना पूरा तथ्य के खबर नहीं छापनी है. स्पष्ट कहे तो फिलहाल लाइफ स्टाइल व पीआरओ शीप पत्रकारिता का चलन है. जहां कार्यालय प्रभारी की हैसियत महज प्रबंधक की है. जिसे अपने बैनर का प्रसारण बढ़ाने व उसके लिए विग्यापन जुटाने की मानसिक जद्दोजहद से ही फुर्सत नहीं. बचा समय स्टिंगरों से प्लानिंग की हुई खबरें संग्रह करवा यूनिट में भिजवाने में ही गुजर जाता है. फिर वह खबर क्या खाक लिख पाएगा?

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