'जरा सा झूम लूं मैं... अरे ना रे बाबा ना..!' यहीं गाना था, जिसे गाते हुए लाल फ्रॉक वाली बच्ची थिरक रही थी। पड़ोस के चाचा के यहां आई थी, जाड़े की छूट्टी में गांव घूमने। उसका परिवार मुम्बई में रहता था। मैं यहीं कोई 12 वर्ष का रहा होऊंगा। फुआ के साथ साग खोंटने सरेह वाले खेत में आया था। मक्के के खेत में बथुआ के खोंटनिहारों में जैसे होड़ सी लगी थी। मेरा काम कपड़े के झोले में साग बटोरना था।
वर्ष 95 की जनवरी की वह सर्द भरी दोपहर थी। हाड़ को छेदने वाली पछुआ ब्यार और आसमान में कुंहासे की एक महीन परत छाई थी। इनके बीच से छनकर आ रही सुनहली धूप में सरसों के पीले-पीले फूल रोमांचित किए जा रहे थे। तभी फुआ ने उस बच्ची को ओर देखते हुए कहा, 'ये लडक़ी जो गाना गा रही है। दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे फिल्म का है। आजकल 'विविध भारती' रेडियो स्टेशन से इसका गाना रोज बज रहा है। फिल्म के सारे गाने हिट हैं।'
तभी फुआ ने बच्ची को पास बुलाया। बोलीं, 'बाबू आप तो बहुत अच्छा डांस करती हो। कहां से सीखा।' उसने बताया, 'डेरा पर केबल टीवी लगा है। उसी पर गाना आता है इस फिल्म का। शाहरुख और काजल को देखकर सीखती हूं। उसका जवाब सुनकर, मुझे अपने घर वाले ब्लैक एंड व्हाइट सनमाईका टीवी पर तरस आने लगा।
एंटीना लगाकर दूरदर्शन देखते थे। जिसमें गाने के कार्यक्रम के नाम पर हर बुधवार व शुक्रवार की शाम 'चित्रहार', और रविवार की सुबह में 'रंगोली' का प्रसारण होता था। चित्रहार में वर्ष 90 के पहले वाले फिल्मों के गाने तो रंगोली में 70 के दशक वाले गाने थे। चाचा व बाबा के उम्र के लोगों को तो इस कार्यक्रम में काफी रस मिलता था। लेकिन मुझे उन दिनों पुराने गाने जरा भी नहीं सुहाते थे, बस हंकला कर प्रस्तुति देती अधेड़ एंकर हेमा मालिनी को छोड़कर। शायद मेरी उम्र का तकाज़ा था।
आज भले ही ब्लैक एंड व्हाइट जमाने के साथ हंसता हुआ वो बचपन भी बीत गया। ना तो मेरे पास फुआ-बहनें हैं। ना ही बच्चों की वो हमउम्र टोली और छुटपन का रोमांच है। फिर भी जाने क्यों, हर साल खेतों में फुलाए इन सरसों के फूलों को जब भी देखता हूं। मन नॉस्टैल्जिक होकर उसी दौर में लौट जाना चाहता है। सब कुछ भुलाकर, इन्हीं खेतों में उछल-कूद मचाने के लिए। हीरो बनकर इतराने के लिए।
©️®️श्रीकांत सौरभ
90s का वो दौर ही अलग था।
ReplyDelete