काका 70 वर्ष के हो चले हैं। उस जमाने के इंटर पास हैं। जब मैट्रिक पास करते ही दारोगा या मास्टर की नौकरी मिल जाती थी। लेकिन जमीन की ठाट ने नौकरी नहीं करने दिया। पूरी जिंदगी अपनी शर्तों पर गांव में ही बीता दिए। नील वाले कुर्ता व धोती, रेडियो और अखबार के गजब का शौकीन ठहरे। हां, अब टीवी पर ही इनकी ज्यादातर समय बीतता है। जी न्यूज के सुधीर चौधरी और रिपब्लिक वाले अर्णव गोस्वामी के जबरिया वाला फैन हैं। इनको देखते-सुनते उन्हें अब पक्का विश्वास हो चला है कि देश में सारे समस्या की जड़ मुस्लिम हैं। जिनको राहुल गांधी, कन्हैया, रवीश और केजरीवाल जैसे देशद्रोही शह देते हैं। इन चारों को पानी पी-पीकर गलियाते हैं। अक्सर कहते भी हैं, जब सभी चोर ही हैं। उनके बीच में अकेले मोदी जी क्या करेंगे? काका का वश चले तो केंद्र से लेकर राज्यों तक में बस भाजपा की सरकार रहे। उनके विचार से विपक्ष नाम का कहीं भी अस्तित्व ही नहीं होना चाहिए।
खैर, बात पर लौटते हैं। उनको बेटा नहीं है। उसी के इंतजार में तीन बेटियां हो गई। बहुत पहले ही तीनों का हाथ पीला कर दिए। दो एनसीआर में रहती हैं, एक बंगलुरू में। तीनों कॉरपोरेट सेक्टर में मुलाजिम पतियों के साथ खुश हैं। आज सांझ के बैठका में जाने क्यों, काका थोड़ा चिंतित दिखे। शायद कोरोना लॉक डाउन के चलते फ्लैट में कैद दामाद और बेटियों की परेशानी सुनकर आहत थे। हालांकि आम तौर पर वे 'कूल' ही रहते हैं। यदा कदा रामायण, रामचरितमानस और गीता की पंक्तियां बोलकर उसका अर्थ भी सुनाते रहते हैं। शायद इसीलिए रूढ़िवादी सोच होने के बावजूद कभी-कभी गंभीर बातें भी कह देते हैं।
रोज की तरह कोरोना पर चर्चा छिड़ी तो शुरू हो गए। बोले कि महानगरों में कमरे में घिरे लोगों की जिंदगी थम सी गई है। मोबाइल-टीवी पर नजर गड़ाए रखो या बालकनी-खिड़की से बाहर का नीरस नजारा निहारो। बेटी-दामाद को कितनी बार कहे कि लॉक डाउन में कोई जुगाड़ कर घर आ जाए। लेकिन उनको ईएमआई वाला वाला फ्लैट छोड़ना उचित नहीं लगा। और अब कमरे में पड़े-पड़े उब होने लगी है। नाती-नातिनी की शरारत से तंग आ गए हैं।
सुबह में ही नोएडा वाली छोटी बेटी का फोन आया था। कह रही थी कि उसके पड़ोस में जो रिटायर्ड आईएएस मिश्रा जी रहते हैं। सुगर, हार्ट और ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। उनकी पत्नी भी बीमार हैं। अर्थिराइटिस के कारण उनका दो कदम हिलना तक मुश्किल है। एक बेटा है जो जर्मनी में इंजीनियर है। बेटी चेन्नई में रहती है। मिश्रा जी अरबपति आदमी हैं। दिल्ली और गुड़गांव में भी काफी संपति है। रईसी इतनी है कि घर में खाना बनाने, पोछा लगाने और कपड़ा साफ करने के लिए नौकर दंपति को रखे थे।
लेकिन कोरोना महामारी के संकट में दोनों गांव चले गए। बेटा तो ऐसे भी शादी के बाद दो साल से घर नहीं आया। हां, रोज फोन कर पुत्र धर्म जरूर निभा लेता है। वहीं बंदी के कारण वे ना तो बेटी के पास जा सकते हैं। ना ही बेटी उनके यहां आ सकती है। ऐसे में मिश्रा जी को ही घर में पोछा लगाने, कपड़े साफ करने, खाना बनाने, बाहर से दवा, किराना समान या सब्जी लाने का काम करना पड़ रहा है। बेचारे ऑफिसर बनने के बाद पूरी तरह नौकरों पर आश्रित हो गए थे। कभी ये काम खुद से नहीं किए। ड्यूटी के दिनों में ऑफिस के चपरासी से घरेलू काम कराते थे।
अभी तो उनकी स्थिति ये हो गई है कि अक्सर भावुक होकर रोने लगते हैं। बुरी तरह डिप्रेस्ड ही चले हैं। इतना कि अकेलेपन के एहसास उन्हें जबर्दस्त सताने लगा है। पड़ोसी होने के बावजूद भी पहले मेरी नाती-नातिनी को वे देखना नहीं चाहते थे। ना ही हाय-हैलो करते थे। उनकी प्राइवेसी और योग-ध्यान में खलल पड़ती थी। अब वहीं लोग उनका हमदर्द बने हुए है। ग्रामीण संस्कार होने के कारण मेरी बेटी उनके कमरे में जाकर खाना बना देती है। बेटा या नाती उनके लिए बाहर से जरूरी समान खरीदकर ला देते हैं। मिश्रा जी ने सपने में नहीं सोचा था कि उन्हें जिंदगी की अंतिम बेला में यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब जाकर समझ आई है कि हर बार दौलत काम नहीं आता। बुरे समय में पड़ोसियों से आत्मीय जुड़ाव ही उम्मीद की किरण बनकर आता है।
कहते हुए काका भी पूरे रौ में आ गए थे। एक लंबी जम्हाई लिए। और बोले कि जिस सुविधा, शौक और उत्तम जीवन शैली के लिए आदमी रात-दिन धन के पीछे भागे रहता है। अकूत पैसे अर्जित करता है। मुफसिल से लेकर मेट्रो सिटीज तक में आशियाना बनाता है। भगवान न करे कि वैसे लोगों को मिश्रा जी वाली हालत से गुजरना पड़े। सीमित संसाधन होने के बावजूद गांव तो फिर भी अच्छा है। कोरोना को लेकर मीडिया की पहुंच ने बहुत हद तक सबको जागरूक बनाया है। इतना जरूर है कि लोग सोशल के बदले फिजिकल डिस्टेंस का पालन कर रहे हैं। मास्क नहीं गमछे से ही सही, नाक बांधकर घूमते हैं। और छह फिट की दूरी से भी बतियाते हुए आपस के भावनात्मक लगाव को जिंदा रखे हैं। दुआरे, खेत-खलिहान का चक्कर लगाते हुए समय आसानी से कट जाता है। यहां गरीब से गरीब आदमी कम से कम भूख से तो नहीं मर सकता। ना ही अकेलेपन के अवसाद से जूझते हुए किसी के मन में आत्महत्या का ख्याल आता है।
©️®️श्रीकांत सौरभ
खैर, बात पर लौटते हैं। उनको बेटा नहीं है। उसी के इंतजार में तीन बेटियां हो गई। बहुत पहले ही तीनों का हाथ पीला कर दिए। दो एनसीआर में रहती हैं, एक बंगलुरू में। तीनों कॉरपोरेट सेक्टर में मुलाजिम पतियों के साथ खुश हैं। आज सांझ के बैठका में जाने क्यों, काका थोड़ा चिंतित दिखे। शायद कोरोना लॉक डाउन के चलते फ्लैट में कैद दामाद और बेटियों की परेशानी सुनकर आहत थे। हालांकि आम तौर पर वे 'कूल' ही रहते हैं। यदा कदा रामायण, रामचरितमानस और गीता की पंक्तियां बोलकर उसका अर्थ भी सुनाते रहते हैं। शायद इसीलिए रूढ़िवादी सोच होने के बावजूद कभी-कभी गंभीर बातें भी कह देते हैं।
रोज की तरह कोरोना पर चर्चा छिड़ी तो शुरू हो गए। बोले कि महानगरों में कमरे में घिरे लोगों की जिंदगी थम सी गई है। मोबाइल-टीवी पर नजर गड़ाए रखो या बालकनी-खिड़की से बाहर का नीरस नजारा निहारो। बेटी-दामाद को कितनी बार कहे कि लॉक डाउन में कोई जुगाड़ कर घर आ जाए। लेकिन उनको ईएमआई वाला वाला फ्लैट छोड़ना उचित नहीं लगा। और अब कमरे में पड़े-पड़े उब होने लगी है। नाती-नातिनी की शरारत से तंग आ गए हैं।
सुबह में ही नोएडा वाली छोटी बेटी का फोन आया था। कह रही थी कि उसके पड़ोस में जो रिटायर्ड आईएएस मिश्रा जी रहते हैं। सुगर, हार्ट और ब्लड प्रेशर के मरीज हैं। उनकी पत्नी भी बीमार हैं। अर्थिराइटिस के कारण उनका दो कदम हिलना तक मुश्किल है। एक बेटा है जो जर्मनी में इंजीनियर है। बेटी चेन्नई में रहती है। मिश्रा जी अरबपति आदमी हैं। दिल्ली और गुड़गांव में भी काफी संपति है। रईसी इतनी है कि घर में खाना बनाने, पोछा लगाने और कपड़ा साफ करने के लिए नौकर दंपति को रखे थे।
लेकिन कोरोना महामारी के संकट में दोनों गांव चले गए। बेटा तो ऐसे भी शादी के बाद दो साल से घर नहीं आया। हां, रोज फोन कर पुत्र धर्म जरूर निभा लेता है। वहीं बंदी के कारण वे ना तो बेटी के पास जा सकते हैं। ना ही बेटी उनके यहां आ सकती है। ऐसे में मिश्रा जी को ही घर में पोछा लगाने, कपड़े साफ करने, खाना बनाने, बाहर से दवा, किराना समान या सब्जी लाने का काम करना पड़ रहा है। बेचारे ऑफिसर बनने के बाद पूरी तरह नौकरों पर आश्रित हो गए थे। कभी ये काम खुद से नहीं किए। ड्यूटी के दिनों में ऑफिस के चपरासी से घरेलू काम कराते थे।
अभी तो उनकी स्थिति ये हो गई है कि अक्सर भावुक होकर रोने लगते हैं। बुरी तरह डिप्रेस्ड ही चले हैं। इतना कि अकेलेपन के एहसास उन्हें जबर्दस्त सताने लगा है। पड़ोसी होने के बावजूद भी पहले मेरी नाती-नातिनी को वे देखना नहीं चाहते थे। ना ही हाय-हैलो करते थे। उनकी प्राइवेसी और योग-ध्यान में खलल पड़ती थी। अब वहीं लोग उनका हमदर्द बने हुए है। ग्रामीण संस्कार होने के कारण मेरी बेटी उनके कमरे में जाकर खाना बना देती है। बेटा या नाती उनके लिए बाहर से जरूरी समान खरीदकर ला देते हैं। मिश्रा जी ने सपने में नहीं सोचा था कि उन्हें जिंदगी की अंतिम बेला में यह दिन भी देखना पड़ेगा। अब जाकर समझ आई है कि हर बार दौलत काम नहीं आता। बुरे समय में पड़ोसियों से आत्मीय जुड़ाव ही उम्मीद की किरण बनकर आता है।
कहते हुए काका भी पूरे रौ में आ गए थे। एक लंबी जम्हाई लिए। और बोले कि जिस सुविधा, शौक और उत्तम जीवन शैली के लिए आदमी रात-दिन धन के पीछे भागे रहता है। अकूत पैसे अर्जित करता है। मुफसिल से लेकर मेट्रो सिटीज तक में आशियाना बनाता है। भगवान न करे कि वैसे लोगों को मिश्रा जी वाली हालत से गुजरना पड़े। सीमित संसाधन होने के बावजूद गांव तो फिर भी अच्छा है। कोरोना को लेकर मीडिया की पहुंच ने बहुत हद तक सबको जागरूक बनाया है। इतना जरूर है कि लोग सोशल के बदले फिजिकल डिस्टेंस का पालन कर रहे हैं। मास्क नहीं गमछे से ही सही, नाक बांधकर घूमते हैं। और छह फिट की दूरी से भी बतियाते हुए आपस के भावनात्मक लगाव को जिंदा रखे हैं। दुआरे, खेत-खलिहान का चक्कर लगाते हुए समय आसानी से कट जाता है। यहां गरीब से गरीब आदमी कम से कम भूख से तो नहीं मर सकता। ना ही अकेलेपन के अवसाद से जूझते हुए किसी के मन में आत्महत्या का ख्याल आता है।
©️®️श्रीकांत सौरभ
सोचने को विवश करता आलेख।
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