डियर कोरोना
Hate you less love more!
मैं इन दिनों तुमसे थोड़ा-थोड़ा डरने लगा है। डर अपने संक्रमित होने का नहीं, अपनों के खोने का है। हमारे पास ना तो तुम्हारा इलाज है। ना ही बिना लॉक डाउन में रहे तुमसे बच सकते हैं। मुझे पता है, तुम भी हम निरीह प्राणियों को डराने की नई-नई तरकीबें सोच रही होगी। किस तरह ज्यादा ज्यादा से लोगों को संक्रमित कर मृत्यु दर बढ़ाई जाए? और जबसे तुमने गुजरात में उस 16 महीने की मासूम बच्चे की जान ली है। तुमसे नफरत सी हो गई है। इतनी कि भौतिक रूप में कहीं मिल जाती न इस बैशाख में। आम के टिकोड़े के साथ सिलबट्टे पर तुम्हारी चटनी पिसते। और उसमें निम्बू निचोड़कर खा जाते।
मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता, तुम्हारा लिंग क्या है? सजीव हो या निर्जीव? लेकिन रिसर्च में बताया जा रहा है। तुम सात रूपों वाली निर्जीव मादा हो। हैरान हूं ये जानकर। क्या निर्जीव का भी लिंग होता है? वैसे, रिसर्च का क्या? शोध करने वाले वैज्ञानिक आज कुछ और कह रहे हैं। कल कुछ और कहेंगे। इतना जरूर है कि तुम वर्ष 1815 में आए प्लेग, वर्ष 1920 के स्पेनिश फ्लू या वर्ष 1940 के हैजे की तरह खतरनाक नहीं हो। जिसकी चपेट में आकर पूरी दुनिया में करोड़ो लोग मारे गए थे। पढा हूं कि खतरे के मामले में टीबी रोग भी तुम पर भारी है। जो भी हो, इतना जान लो। तुम महामारियां मानव प्रजाति से ज्यादा विनाशकारी कभी नहीं हो सकती। हमारे पास परमाणु बम है। जिसके सामने तुम्हारा दो कौड़ी का मोल नहीं। एक बार फटा तो मिनटों में करोड़ों खल्लास। पूर्व में नागासाकी और हिरोशमा पर किया गया एक छोटे से प्रयोग का अंजाम दुनिया देख चुकी है।
खैर, तुमको अंदर की बात बता दें कि डरते-डरते तुमसे मोहब्बत भी होने लगी है। देखो ना, तुम्हारे आने से कितना कुछ बदला है। वर्षों से प्रदूषित होकर नाला बन चुकी युमना नदी काली से नीली हो चुकी है। जालंधर और चंडीगढ़ से हिमाचल के बर्फीले पहाड़ दिखने लगे हैं। पूरी दुनिया का आसमान बिल्कुल साफ लगने लगा है। रातों को टिमटिमाते तारों को देखते ही हर किसी का दिल 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार...!' गाने लगा है। दिनदहाड़े जंगलों से निकलकर जानवर सरेराह शहर की सड़कों पर चहल कदमी कर रहे हैं।
सीएम अरविंद केजरीवाल के इवन, ऑड फॉर्मूले का दिल्ली वाले जिस बेदिली से विरोध जता रहे थे। आज उससे भी बड़ा फॉर्मूला प्रकृति ने दिया है। आम दिनों में तेज रफ्तार गाड़ियों की रेलमपेल, शोरशराबे से जो सड़कें गुलजार रहती थीं। इन्हीं वीरान सड़कों पर विधवा विलाप की हद तक नितांत उदासी पसरी है। मानो ट्रैफिक सिस्टम और रेड लाइट को मुंह चिढ़ा रही हो। कोठी से लेकर बहुमंजिले भवनों के खिड़कियों से जहां पहले हवाई जहाज या गाड़ियों के तेज हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक से अहले सुबह नींद टूट जाती है। जाने कितने वर्षों से लोग घर और ऑफिस के जाल में उलझे, बदहवासी में जी रहे थे। व्यस्तता के चलते ना खाने का, ना सोने का समय तय था। पत्नी, बच्चों या बूढ़े मां-बाप से ढंग से कब बतियाए थे? यह भी याद नहीं। हर समय बस काम, काम और काम। अब जाकर एहसास हुआ है कि कोई लाख बेचैन होकर भागते रहे। ठहराव में बेहद ताकत होती है, इसे ही प्रकृति का ब्रेक लगाना कहते हैं।
कल देश के वरीय पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ला सर अपने फेसबुक वाल पर लिखे थे। गाजियाबाद के बिना लिफ्ट वाले जिस अपार्टमेंट में रहते हैं। वहां कुछ दिन पहले सीढियां चढ़ते-उतरते अक्सर रेलिंग पकड़ लेते थे। दम फूलने लगता था। 65 वर्ष की उम्र ने उन्हें ऐसा होना स्वाभाविक लगता था। लेकिन इस बार अनोखा अनुभव हुआ है। अपार्टमेंट की वहीं 40 सीढियां पांच बार बिना रेलिंग पकड़े चढ़-उतर लेते हैं। ना थकान होती है, ना सांस फूलती है। लॉक डाउन ने उनके जैसे हजारों अधेड़ों व बुजुर्गों को एहसास कराया। किसी की सांसें, महज एलर्जी, अस्थमा, हीमोग्लोबिन की कमी, बुढापा से ही नहीं, प्रदूषण से भी फूलता है।
पड़ोस की बड़की चाची के बेटा-पतोहू केरल से आए थे होली मनाने, तीन साल पर। लेकिन लॉक डाउन में यहीं फंस गए। बेटे का किराना व्यवसाय है वहां। घर भी बनवा लिए हैं। चाचा के मरने के बाद चाची अकेले ही गांव में रहती हैं। एक-दो बार गई थी बेटे के पास रहने। लेकिन पिजड़े की पंक्षी की तरह रहना नहीं भाया। ना ही वहां की भाषा और व्यस्त दिनचर्या रास आई। लौट आई घर, कभी वापस नहीं जाने के लिए। इधर बेटे ने भी मूड बना लिया है। आपदा से उबरने के बाद वहां की संपत्ति बेंचकर गांव में ही कोई रोजगार करेगा। आखिर अपनी भाषा, अपनी मिट्टी से किसे लगाव नहीं होता?
यहां भी गली-गली में पक्की सड़कें (घटिया गुणवत्ता वाली ही सही), बिजली पहुंच ही गई हैं। आरओ के पानी वाली गाड़ी तो पहले से ही आ रही थी। उससे भी स्वच्छ नल जल योजना का पानी फ्री में उपलब्ध है। एंड्रॉइड पर फोर जी नेट दनदना के चल रहा है। बाजार में चाउमीन, मोमो, एग रौल से लेकर फुचका तक बिक रहे। 20 किलोमीटर के दायरे में एक से बढ़कर एक कान्वेंट खुल गए हैं। बच्चे यहां भी स्कूलिंग कर लेंगे। मतलब साफ है जब गांव में ही काम चलने लायक संसाधन उपलब्ध है। फिर अनावश्यक रूप से उन शहरों में जाकर भीड़ क्यों बढ़ानी। जो पहले से ही बेइंतिहा प्रदूषण और आबादी की बोझ से दबे कराह रहे हैं।
सुबह में ही काका कह रहे थे, जानते हो बबुआ। कोरोना से सबसे ज्यादा डर उन राजनेताओं, अधिकारियों, व्यवसायियों, धन्नासेठों को लग रहा है। जिन्होंने काली कमाई कर अकूत संपत्ति अर्जित की है। भोग की अदम्य इच्छा उनके भीतर कुंडली मारे पड़ी है। उन्हें चिंता है कि बीमारी से कहीं मर गए तो पैसों का क्या होगा? डर नहीं है ति खेती का सीना चीरकर अनाज उपजाने वाले किसानों को। या 48 डिग्री तापमान में बदन की चमड़ी झुलसाकर मजदूरी करने वालों को। वे तो अपने साथ ही दूसरों का भोजन जुटाने के लिए रोज मर-मरकर जीते हैं। इधर, इस विपदा में भी कुछ लोगों का धंधा चमक गया है। जिधर देखो फेस वैल्यू बढ़ाने की होड़ लगी है। कोई दान या स्वैच्छनिक सेवा दिए नहीं कि सोशल साइट्स पर फोटो डालकर खुद को प्रचारित करने लगते हैं।
काका यकीन के साथ बोले कि देख लेना इस विषम काल में भी अधिकारी और जनप्रतिनिधि सरकारी फंड को लूट खाएंगे। सरकार कितना भी उपाय कर ले, बनियों की कालाबाजारी की जन्मजात आदत छूटने से रही। केंद्र सरकार सरकारी संस्थानों को चुन-चुनकर बेंच रही थी। जब कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। तो जवाब मिला था कि देश हित में यह जरूरी निर्णय है। आज संकट काल में सरकारी विमान एयर इंडिया, रेलवे, सरकारी चिकित्सक, अस्पताल, आशा, ममता, शिक्षक, सरकारी कार्यालयकर्मी ही काम आ रहे हैं। डीएम, एसपी, बीडीओ, सीओ, पुलिस, सेना के जवान जी जान लगाकर 24 घण्टे सेवारत हैं।
चलते-चलते बस इतना भर कहना चाहूंगा, तुम पर एकतरफा उमड़े प्यार का हवाला देकर। आज का इंसान दौलत, शोहरत, भौतिक संसाधनों को जुटाने की जद्दोजहद में जॉम्बी और रोबोट में तब्दील हो चुका है। महामारी के रूप में आकर तुमने हमेशा की तरह हमारी औकात बता दी। लेकिन बहुत हो गया, हमें सताना, डराना छोड़ो। अब वापस चली जाओ, हाइबरनेट मोड में। और फिर कभी ऑन या रीस्टार्ट मोड में नहीं आना। भले ही हमारे नॉस्टेलजिया में बनी रहना। और गाहे-बेगाहे हमारी ताकत का एहसास कराती रहना। इसलिए कि हम मनुष्य बड़े ही स्वार्थी, बनावटी व भुलक्कड़ किस्म के होते हैं, स्वभाव के मुताबिक।
©️®️श्रीकांत सौरभ
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मैं इन दिनों तुमसे थोड़ा-थोड़ा डरने लगा है। डर अपने संक्रमित होने का नहीं, अपनों के खोने का है। हमारे पास ना तो तुम्हारा इलाज है। ना ही बिना लॉक डाउन में रहे तुमसे बच सकते हैं। मुझे पता है, तुम भी हम निरीह प्राणियों को डराने की नई-नई तरकीबें सोच रही होगी। किस तरह ज्यादा ज्यादा से लोगों को संक्रमित कर मृत्यु दर बढ़ाई जाए? और जबसे तुमने गुजरात में उस 16 महीने की मासूम बच्चे की जान ली है। तुमसे नफरत सी हो गई है। इतनी कि भौतिक रूप में कहीं मिल जाती न इस बैशाख में। आम के टिकोड़े के साथ सिलबट्टे पर तुम्हारी चटनी पिसते। और उसमें निम्बू निचोड़कर खा जाते।
मुझे सही तौर पर यह भी नहीं पता, तुम्हारा लिंग क्या है? सजीव हो या निर्जीव? लेकिन रिसर्च में बताया जा रहा है। तुम सात रूपों वाली निर्जीव मादा हो। हैरान हूं ये जानकर। क्या निर्जीव का भी लिंग होता है? वैसे, रिसर्च का क्या? शोध करने वाले वैज्ञानिक आज कुछ और कह रहे हैं। कल कुछ और कहेंगे। इतना जरूर है कि तुम वर्ष 1815 में आए प्लेग, वर्ष 1920 के स्पेनिश फ्लू या वर्ष 1940 के हैजे की तरह खतरनाक नहीं हो। जिसकी चपेट में आकर पूरी दुनिया में करोड़ो लोग मारे गए थे। पढा हूं कि खतरे के मामले में टीबी रोग भी तुम पर भारी है। जो भी हो, इतना जान लो। तुम महामारियां मानव प्रजाति से ज्यादा विनाशकारी कभी नहीं हो सकती। हमारे पास परमाणु बम है। जिसके सामने तुम्हारा दो कौड़ी का मोल नहीं। एक बार फटा तो मिनटों में करोड़ों खल्लास। पूर्व में नागासाकी और हिरोशमा पर किया गया एक छोटे से प्रयोग का अंजाम दुनिया देख चुकी है।
खैर, तुमको अंदर की बात बता दें कि डरते-डरते तुमसे मोहब्बत भी होने लगी है। देखो ना, तुम्हारे आने से कितना कुछ बदला है। वर्षों से प्रदूषित होकर नाला बन चुकी युमना नदी काली से नीली हो चुकी है। जालंधर और चंडीगढ़ से हिमाचल के बर्फीले पहाड़ दिखने लगे हैं। पूरी दुनिया का आसमान बिल्कुल साफ लगने लगा है। रातों को टिमटिमाते तारों को देखते ही हर किसी का दिल 'ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार...!' गाने लगा है। दिनदहाड़े जंगलों से निकलकर जानवर सरेराह शहर की सड़कों पर चहल कदमी कर रहे हैं।
सीएम अरविंद केजरीवाल के इवन, ऑड फॉर्मूले का दिल्ली वाले जिस बेदिली से विरोध जता रहे थे। आज उससे भी बड़ा फॉर्मूला प्रकृति ने दिया है। आम दिनों में तेज रफ्तार गाड़ियों की रेलमपेल, शोरशराबे से जो सड़कें गुलजार रहती थीं। इन्हीं वीरान सड़कों पर विधवा विलाप की हद तक नितांत उदासी पसरी है। मानो ट्रैफिक सिस्टम और रेड लाइट को मुंह चिढ़ा रही हो। कोठी से लेकर बहुमंजिले भवनों के खिड़कियों से जहां पहले हवाई जहाज या गाड़ियों के तेज हॉर्न की आवाज सुनाई पड़ती थी। अब चिड़ियों की चहचहाहट, कोयल की कूक से अहले सुबह नींद टूट जाती है। जाने कितने वर्षों से लोग घर और ऑफिस के जाल में उलझे, बदहवासी में जी रहे थे। व्यस्तता के चलते ना खाने का, ना सोने का समय तय था। पत्नी, बच्चों या बूढ़े मां-बाप से ढंग से कब बतियाए थे? यह भी याद नहीं। हर समय बस काम, काम और काम। अब जाकर एहसास हुआ है कि कोई लाख बेचैन होकर भागते रहे। ठहराव में बेहद ताकत होती है, इसे ही प्रकृति का ब्रेक लगाना कहते हैं।
कल देश के वरीय पत्रकार शम्भूनाथ शुक्ला सर अपने फेसबुक वाल पर लिखे थे। गाजियाबाद के बिना लिफ्ट वाले जिस अपार्टमेंट में रहते हैं। वहां कुछ दिन पहले सीढियां चढ़ते-उतरते अक्सर रेलिंग पकड़ लेते थे। दम फूलने लगता था। 65 वर्ष की उम्र ने उन्हें ऐसा होना स्वाभाविक लगता था। लेकिन इस बार अनोखा अनुभव हुआ है। अपार्टमेंट की वहीं 40 सीढियां पांच बार बिना रेलिंग पकड़े चढ़-उतर लेते हैं। ना थकान होती है, ना सांस फूलती है। लॉक डाउन ने उनके जैसे हजारों अधेड़ों व बुजुर्गों को एहसास कराया। किसी की सांसें, महज एलर्जी, अस्थमा, हीमोग्लोबिन की कमी, बुढापा से ही नहीं, प्रदूषण से भी फूलता है।
पड़ोस की बड़की चाची के बेटा-पतोहू केरल से आए थे होली मनाने, तीन साल पर। लेकिन लॉक डाउन में यहीं फंस गए। बेटे का किराना व्यवसाय है वहां। घर भी बनवा लिए हैं। चाचा के मरने के बाद चाची अकेले ही गांव में रहती हैं। एक-दो बार गई थी बेटे के पास रहने। लेकिन पिजड़े की पंक्षी की तरह रहना नहीं भाया। ना ही वहां की भाषा और व्यस्त दिनचर्या रास आई। लौट आई घर, कभी वापस नहीं जाने के लिए। इधर बेटे ने भी मूड बना लिया है। आपदा से उबरने के बाद वहां की संपत्ति बेंचकर गांव में ही कोई रोजगार करेगा। आखिर अपनी भाषा, अपनी मिट्टी से किसे लगाव नहीं होता?
यहां भी गली-गली में पक्की सड़कें (घटिया गुणवत्ता वाली ही सही), बिजली पहुंच ही गई हैं। आरओ के पानी वाली गाड़ी तो पहले से ही आ रही थी। उससे भी स्वच्छ नल जल योजना का पानी फ्री में उपलब्ध है। एंड्रॉइड पर फोर जी नेट दनदना के चल रहा है। बाजार में चाउमीन, मोमो, एग रौल से लेकर फुचका तक बिक रहे। 20 किलोमीटर के दायरे में एक से बढ़कर एक कान्वेंट खुल गए हैं। बच्चे यहां भी स्कूलिंग कर लेंगे। मतलब साफ है जब गांव में ही काम चलने लायक संसाधन उपलब्ध है। फिर अनावश्यक रूप से उन शहरों में जाकर भीड़ क्यों बढ़ानी। जो पहले से ही बेइंतिहा प्रदूषण और आबादी की बोझ से दबे कराह रहे हैं।
सुबह में ही काका कह रहे थे, जानते हो बबुआ। कोरोना से सबसे ज्यादा डर उन राजनेताओं, अधिकारियों, व्यवसायियों, धन्नासेठों को लग रहा है। जिन्होंने काली कमाई कर अकूत संपत्ति अर्जित की है। भोग की अदम्य इच्छा उनके भीतर कुंडली मारे पड़ी है। उन्हें चिंता है कि बीमारी से कहीं मर गए तो पैसों का क्या होगा? डर नहीं है ति खेती का सीना चीरकर अनाज उपजाने वाले किसानों को। या 48 डिग्री तापमान में बदन की चमड़ी झुलसाकर मजदूरी करने वालों को। वे तो अपने साथ ही दूसरों का भोजन जुटाने के लिए रोज मर-मरकर जीते हैं। इधर, इस विपदा में भी कुछ लोगों का धंधा चमक गया है। जिधर देखो फेस वैल्यू बढ़ाने की होड़ लगी है। कोई दान या स्वैच्छनिक सेवा दिए नहीं कि सोशल साइट्स पर फोटो डालकर खुद को प्रचारित करने लगते हैं।
काका यकीन के साथ बोले कि देख लेना इस विषम काल में भी अधिकारी और जनप्रतिनिधि सरकारी फंड को लूट खाएंगे। सरकार कितना भी उपाय कर ले, बनियों की कालाबाजारी की जन्मजात आदत छूटने से रही। केंद्र सरकार सरकारी संस्थानों को चुन-चुनकर बेंच रही थी। जब कुछ पत्रकारों व बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध किया। तो जवाब मिला था कि देश हित में यह जरूरी निर्णय है। आज संकट काल में सरकारी विमान एयर इंडिया, रेलवे, सरकारी चिकित्सक, अस्पताल, आशा, ममता, शिक्षक, सरकारी कार्यालयकर्मी ही काम आ रहे हैं। डीएम, एसपी, बीडीओ, सीओ, पुलिस, सेना के जवान जी जान लगाकर 24 घण्टे सेवारत हैं।
चलते-चलते बस इतना भर कहना चाहूंगा, तुम पर एकतरफा उमड़े प्यार का हवाला देकर। आज का इंसान दौलत, शोहरत, भौतिक संसाधनों को जुटाने की जद्दोजहद में जॉम्बी और रोबोट में तब्दील हो चुका है। महामारी के रूप में आकर तुमने हमेशा की तरह हमारी औकात बता दी। लेकिन बहुत हो गया, हमें सताना, डराना छोड़ो। अब वापस चली जाओ, हाइबरनेट मोड में। और फिर कभी ऑन या रीस्टार्ट मोड में नहीं आना। भले ही हमारे नॉस्टेलजिया में बनी रहना। और गाहे-बेगाहे हमारी ताकत का एहसास कराती रहना। इसलिए कि हम मनुष्य बड़े ही स्वार्थी, बनावटी व भुलक्कड़ किस्म के होते हैं, स्वभाव के मुताबिक।
©️®️श्रीकांत सौरभ
सादर नमस्कार ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (14-4-2020 ) को " इस बरस बैसाखी सूनी " (चर्चा अंक 3671) पर भी होगी,
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
धन्यवाद!
Deleteलिखते रहें।
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