18 September, 2013

बिहार भोजपुरी अकादमी के अध्यक्ष चंद्रभूषण राय और पटना प्रवास से जुड़ी मेरी यादें

किसी भी पद के लिए चयन से ज्यादा महत्वपूर्ण होता है उसकी गरिमा को बचाए रखना. और यह तभी मुमकिन है जब उस पद पर किसी योग्य व्यक्ति को चुना जाए. 'बिहार भोजपुरी अकादमी' भी एक मर्यादित संस्था है. जिसका जुड़ाव या यूं कहें कि सरोकार करीब 20 करोड़ भोजपुरी भाषियों से है. पिछले दिनों अकादमी के अध्यक्ष बक्सर निवासी रविकांत दूबे ने लखनऊ की अवधी-भोजपुरी गायिका मालिनी अवस्थी को संस्था का ब्रांड एम्बेसडर क्या बनाया. अच्छे-खासे विवादों में घिर गए. चौतरफा आलोचनाओं में घिरे रविकांत दूबे का कार्यकाल तीन वर्ष पूरा होते ही पद छोड़ना पड़ा. फिलहाल इनकी जगह जदयू के सक्रिय युवा कार्यकर्ता चंद्रभूषण राय को अध्यक्ष चुना गया है. इस बारे में मैं और कुछ लिखूं यहां स्पष्ट करना चाहुंगा. 

मैं खुद भोजपुरी भाषी इलाके मोतिहारी से हूं. मेरा ननिहाल व ससुराल पश्चिमी चंपारण (बेतिया) है. इसी कारण भोजपुरी मेरे रग-रग में रची बसी है. भोजपुरी से इस कदर लगाव है कि मैं किसी से तब तक हिंदी में बात नहीं करता. जब तक इस तथ्य से अच्छी तरह वाकिफ ना हो जाऊं. कि सामने वाला बंदा भोजपुरी नहीं समझ सकता. हालांकि अपनी इस आदत के कारण कई बार शर्मिन्दा भी हुआ हूं. क्योंकि यह जानते हुए कि अगला भोजपुरी जानते हुए भी मुझे हिंदी में जवाब दे रहा है. काफी ग्लानि महसूस होती. पर गुजरते वक्त और भोजपुरिया सुद्दिजनों की संगत में इतना परिपक्व जरूर हो गया हूं. कि अब किसी से भी पूरे आत्मविश्वास के साथ अपनी मातृभाषा में बात करता हूं. इस हद तक कि सामने वाला खुद मजबूर होकर भोजपुरी में बात करने लगे. सही भी है जब मारीशस, फिजी, त्रिनिदाद, गुयाना, संयुक्त अरब अमीरात, अमेरिका आदि जगहों पर कई वर्षों पहले जाकर बस गए लोग अपनी भाषा नहीं भूले. तो मैं क्यों ना इस पर गर्व करूं. 

कुछ चीजों को बताने के लिए गुजरे अतीत की जिक्र यहां अवश्य करना चाहुंगा. वर्ष 2002-10 तक अकादमिक पढ़ाई के लिए अपने पटना प्रवास के दौरान वर्ष 05 में पत्रकारिता से जुड़ा. वह भी हिंदुस्तान, पटना के फीचर डेस्क से एक फीचर लेखक के तौर पर. इस दौरान महेन्द्रू के बाजार समिति में रहते हुए छपरा, आरा, सासाराम, कैमूर, बक्सर, बलिया व बनारस आदि भोजपुरी क्षेत्रों के लड़कों से संगत हुई. फिर तो जब भी चंडाल चौकड़ी बैठती जमकर भोजपुरी में बहस चलती. साथ ही निर्गुण, दू गोला, सोहर, पूर्वी से लेकर लोकगीत तक गाए जाते. इन्हीं के शागिर्द में ठेठ भोजपुरी बोलना भी सीख गया. यह बात भी जेहन में अच्छी तरह समझ में आ गई कि गंगा के पार वाले उत्तरी इलाके सारण, चंपारण, दक्षिण में शाहाबाद और यूपी के पूर्वाचल वाली भोजपुरी में क्या विविधता है? 

तब हिंदुस्तान के फीचर संपादक व पत्रकारीय गुरु श्री अवधेश प्रीत से भोजपुरी में अभिवादन करते हुए 'गोड लागअ तानी' कहता तो वे ठठाकर हंसते. इसलिए की मुझे पता था वह भी गाजीपुर से हैं और भोजपुरी पर उनकी अच्छी पकड़ है. इसी दरम्यान पटना में रह रहे बलिया निवासी पत्रकार व रंगकर्मी हरिवंश तिवारी से मुलाकात हुई. उनका बोरिंग रोड में 'भिखारी ठाकुर स्कूल ऑफ़ ड्रामा' नामक संस्थान संचलित था. उनसे भी महेंद्र मिश्र व भिखारी ठाकुर की रचनाओं के बारे में बहुत-कुछ जानने को मिला. वर्ष 07 में भोजपुरी.कॉम वेबसाइट व इसके मॉडरेटर सुधीर कुमार से रू-ब-रू हुआ. निश्चय ही उन दिनों यह भोजपुरी का पहला समर्पित व चर्चित पोर्टल था. भोजपुरी गायक व अभिनेता मनोज तिवारी पर नीदरलैंड सरकार द्वारा जारी डाक टिकट के फर्जीवाड़े के खुलासे व ऑनलाइन छठ पूजा के प्रसाद वितरण के कारण यह वेबसाइट काफी सुर्ख़ियों में था. बाद के दिनों में इसी पोर्टल पर रविकांत दूबे के बारे में छपी कई तरह की नकारात्मक खबरों से वाकिफ हुआ. और धीरे-धीरे आम लोग भी उनके काले-कारनामे को जानने लगे. यहां तक की श्री दूबे के गृह शहर बक्सर में भी उनका विरोध हुआ. 
Chandrabhushan Rai
चंद्रभूषण राय

ये तो हुई रविकांत दूबे की बात. जहां तक वर्तमान अध्यक्ष चंद्रभूषण राय के बारे में मेरी जानकारी है. मैं उनसे पटना के राजेंद्र नगर स्थित विपिन पतंजलि के ‘नव जीवन योग’ केंद्र में अक्सर मिलते रहता था. पर यह मुलाकात औपचारिक ही होती थी. योग गुरू विपिन जी ने ही मुझसे उनका परिचय एक कर्मठ जदयू नेता व श्रीश्री रविशंकर के शिष्य के तौर पर करवाया था. लंबा कद, गोरे चेहरे पर बेमेल चिरकुटिया दाढ़ी पर रोबीला व्यक्तित्व और आरा के होने के कारण भोजपुरी भाषी, यहीं पहचान थी उनकी. शायद कुंवारे भी रहे होंगे. तब राय जी बगल के सैदपुर छात्रावास में रहते थे. एक हीरो हौंडा डबल एस बाइक भी रखे हुए थे घूमने के लिए. कुछ वर्ष पहले ही नितीश कुमार सत्ता में आए थे. हालांकि राय जी को कोई जिम्मेवार पद उस वक्त तक पार्टी ने नहीं दिया था. लेकिन पार्टी के सत्ता पक्ष में होने की बात ही और होती है. इसी कारण वे भी काफी व्यस्त हो गए. बाद के दिनों में विपिन जी दिल्ली चले गए. और मैं मोतिहारी चला आया.              

आज सुबह अपने परिचित व तहलका के पत्रकार निराला के फेसबुक वाल पार चंद्रभूषण राय के बारे में पढ़ा. कि उन्हें रविकांत दूबे के बाद भोजपुरी अकादमी का अध्यक्ष चुना गया है. मैंने फोन कर उन्हें बधाई दी. और पुराने दिनों के मुलाकात का हवाला दिया तो वे पहचान भी गए. खैर, अब मैं मूल मुद्दे पे आना चाहुंगा. श्री राय के अध्यक्ष पद पर चयन होते ही सोशल साइट्स पर उनके बारे में कई तरह की चर्चाएं शुरू हो गई है. एक जागरूक लोकतंत्र में ऐसी चर्चाओं का होना स्वाभाविक भी है. वैसे भी पूर्व अध्यक्ष श्री दूबे की ओछी हरकतों से खार खाए बुद्दिजीवियों में कई तरह की चिंताओं का होना भी जायज है. ऐसे में यह बड़ी चुनौती है चंद्रभूषण राय के लिए कि पद के गलैमर में ना उलझ ग्रास रूट पर भोजपुरी की उत्थान की दिशा में क्या कर पाते हैं? 

चाहे भोजपुरी को संविधान की अष्टम अनुसूची में जगह दिलाने की बात हो, भोजपुरी फिल्मों व गानों में में अश्लीलता पर रोक लगाने या बिहार में भोजपुरी फिल्म स्टूडियो खुलवाने की पहल हो. करने के लिए बहुत कुछ है अकादमी के पास. इसके लिए इस समाज के अनुभवी व योग्य व्यक्तियों से परामर्श लेना पड़े तो उन्हें गुरेज नहीं करना होगा. खुद को एक बेहतर प्रशासक साबित करने के लिए एक मिशन के तौर पर काम करना होगा उनको. वरना पावर की चकाचौंध में मदमस्त होकर पद के दोहन करने वाले का हश्र क्या होता है? यह हर कोई जानता है.

इंटरनेट ने लगाया 'छपास रोग' पर मरहम

'छपास' की बीमारी बेहद ख़राब होती है. जिस किसी को यह रोग एक बार लग जाए. ताउम्र पीछा नहीं छोड़ता. प्रायः यह पत्रकारों व लेखकों में पाया जाता है. एक जमाना था वह भी जब अपना लिखा छपवाने के लिए संपादक की कितनी चिरौरी व तेल मालिश करनी पड़ती थी. विभिन्न अख़बारों या पत्रिकाओं के दफ्तर का चक्कर लगाते-लगते जूते घिस जाते थे. क्योंकि बिना इन साहित्यिक मठाधीशों की चरण वंदना किए कुछ भी छपवा पाना नामुमकिन था. ये बात और है कि उसपर भी छपने की गारंटी नहीं रहती थी. लेखकों की सौ में 60 रचनाएं कूड़ेदान में फेंक दी जाती थीं.

इस छपने-छपवाने के चक्कर में जाने कितनी अबलाओं का चारित्रिक पतन हुआ होगा. कितने संपादक देवदास बन किसी पारो के फेरे में बदनाम हुए होंगे. और समझौता नहीं कर पाने के कारण कितनी नवोदिताएं लेखिका बनते-बनते रह गई होंगी. पुरूषों कि तो बात ही न पूछिए जनाब. एक दौर वह भी था जब किसी पुरूष का नामी अखबार या पत्रिका में छपने के लिए कम-से-कम संपादक का करीबी या प्रशासनिक अधिकारी होना अनिवार्य शर्त होती थी. जो लोग महज एक दशक पहले से इस क्षेत्र में हैं. इस तरह के खट्टे-मीट्ठे तमाम अनुभव से जरूर रू-ब-रू हुए होंगे. वो तो लाख-लाख शुक्र है सोशल साइट्स व इंटरनेट का, जिसके आने के बाद लेखकों व कवियों के सपनों को नई उड़ान मिली है.

अब किसी को भी अपना लिखा छपवाने के लिए किसी प्रतिष्ठित संपादक कि सहमति जरूरी नहीं रही. यह मिथक भी टूटा कि प्रतिभा दबाई जा सकती है. इसीलिए आज हर कोई लेखक है, पत्रकार है व कवि भी. खुद के ब्लॉग पर लिखिए, फेसबुक पर लिखिए या दूसरे के वेब पोर्टल पर. आपके कंटेंट में दम है तो कुछ ही घंटे में आपका लिखा सैकड़ों जगह छपा मिल जाएगा. तारीफ़ या आलोचना भी हाथोंहाथ मिल जाती है. दीगर कि बात यह है कि अखबार व पत्रिकाएं यहीं से रचना चुराने, यूं कहिए कि साभार लेकर छापने को मुहताज हैं.

14 September, 2013

मशहूर पत्रकार निराला उर्फ़ बिदेशिया जब मेरे गांव आए

Bidesia Rang
निराला
पत्रकारिता तो सभी करते हैं पर इसे जीता कोई-कोई ही है. एक ऐसे ही बिहारी पत्रकार हैं निराला जो कि पत्रिका तहलका,पटना से जुड़े हैं. इनकी खासियत यह है कि ये अच्छा कलमची व खबरची होने के साथ ही भोजपुरी एक्टिविस्ट भी हैं. साथ ही घुमक्कड़ स्वभाव के, अव्वल दर्जे के साहित्यिक पढ़ाकू व सरोकारी भी. किसी ज़माने में रंगमंच के माहिर खिलाड़ी रहे निराला फिलहाल फेसबुक पर Bidesia Rang के नाम से सक्रिय हैं. इनका पैतृक घर तो सासाराम है. लेकिन पले-बढ़े ननिहाल औरंगाबाद के एक गांव में. बीएचयू से पढ़ाई के बाद इन्होंने मिशन के तौर पर पत्रकारिता की शुरूआत की. 

पहले प्रभात खबर और अब तहलका, जहां गए इन्होंने प्रतिभा की छाप छोड़ी. ग्रास रूट पत्रकारिता के पक्ष में जितनी इनकी दीवानगी है. उतना ही भोजपुरी भाषा व संस्कृति के प्रति भी पैशनेट हैं. और... सबसे बड़ी बात यह कि एक बार जो निराला से मिल ले इनका फैन जरूर हो जाता है. एक खबर की तलाश में निराला पिछले वर्ष 12 में  मेरे गांव कनछेदवा भी आ चुके हैं. मेरे चाचा प्रभात समाजसेवी हैं और जेपी आंदोलन के साक्षी रहे हैं. उन्हीं के बुलावे पर वे आए थे. उन्हें यह जानकर हैरानी हुई कि इस छोटे से गांव में विनोबा भावे, कुलदीप नैयर से लेकर प्रख्यात फिल्म निर्माता-निर्देशक प्रकाश झा भी आ चुके हैं. जब मैंने उन्हें कहा कि महत्वपूर्ण आगंतुकों की इस सूची भी अब आप भी शामिल हो चुके हैं. तो वे मुस्कुराए बिना न रह सके. बस इतना ही कहा, भाई मैं इन महानुभावों की तुलना में अभी नौसिखुआ ही हूं 

हिंदी दिवस पर अमेरिका से मिश्रा जी का यह फोन

आज 14 सितम्बर है, बोले तो हिंदी दिवस. सुबह में ही अमेरिका के बोस्टन शहर में रहने वाले एनआरआई सुधाकर मिश्रा का फोन आया. बोले, मेरा नंबर उनको इंटरनेट से मिला. भोर के 2 बजे (अमेरिकी समय शाम 4.30 बजे) से ही प्रयास कर रह थे, बात करने के लिए. लेकिन फोन लगा सुबह 8.30 बजे (अमेरिकी समय रात 11 बजे). हिंदी के प्रति मेरे प्रेम ने उन्हें मुझसे बात करने को प्रेरित किया. 56 वर्षीय मिश्रा जी ने बताया कि वे मूल रूप से बनारस के निवासी हैं. दिल्ली में उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस समूह के अखबार में पत्रकारिता भी किया है. 

फिलहाल बोस्टन में अपनी बेटी के पास रहकर बतौर क्लिनिकल साइकोलोजिस्ट मानसिक रोगियों का इलाज करते हैं. अभी भी मातृभाषा हिंदी के प्रति मोह बरक़रार है. भले ही अमेरिकी लोगों से अंग्रेजी में मजबूरन बातें करते हैं. लेकिन उनका दिल हर घड़ी हिंदी के लिए धड़कता है. हिंदी के विकास को लेकर उनसे तक़रीबन 20 मिनट चर्चा हुई. भारतीय साहित्य का मठाधीसों के कारण बेड़ा गर्क होने से लेकर हिंदी उत्थान के लिए एक क्लब बनाने तक. उनकी बातों से परदेश प्रवास की पीड़ा भी झलक रही थी. कहा, यार कुछ वर्ष यूरोप भी रहा हूं, और अब अमेरिका में हूं. बेहद खोखले देश हैं ये सारे. भारत जैसी रूमानियत व बेफिक्री और कहां मिलेगी. 

फिर, आगे भी बात करते रहने व जनवरी में बनारस में मुलाकात होने का आश्वासन दे उन्होंने फोन रखा. मुझे भी उनसे बात कर काफी ख़ुशी मिली. यह सोचने को विवश भी हुआ कि एक हम लोग हैं जो हिंदी को ठुकरा अंग्रेजी के आगे नत मस्तक हुए जा रहे हैं. तो दूसरी तरफ मिश्रा जी जैसे हजारों प्रवासी भी हैं. जो लंदन, शिकागो, मेलबोर्न, बोस्टन, पेरिस आदि जगहों पर रहते हुए भी हिंदी का अस्तित्व बचाने के लिए उसे सहेज कर रखे हैं.