04 August, 2020

रोमांचक कहानी - CONFESSION

"ऑर्डर...ऑर्डर, तमाम सबूतों व गवाहों के मद्देनज़र अदालत इस नतीज़े पर पहुंची है कि डॉ. आशीष अरोड़ा ने अपने स्टाफ़ पर इरादतन दबाव बनाया था। यह जानते हुए भी कि ऐसा करने से मरीज़ की मौत तय है। उनके आदेश पर ही डॉ. नील रंजन ने मरीज़ के मुंह से ऑक्सीजन हटा दिया था। इसलिए अदालत मुज़रिम डॉ अरोड़ा को घटना के लिए मुख्य दोषी मानते हुए उनका चिकित्सकीय लाइसेंस रद्द करती है। वहीं सात वर्षों के कारावास के साथ तीन लाख रुपए मुचलका भरने का हुक्म देती है। चूंकि मुज़रिम डॉ. रंजन ने अपना जुर्म कबूल कर लिया था। उन्होंने न्याय के लिए ख़ुद ही याचिका दायर कर अदालत का सहयोग किया। हालांकि इससे उनका अपराध पूरी तरह से माफ़ी के योग्य नहीं है। इसलिए उन्हें एक महीने कैद की सज़ा सुनाई जाती है।" जैसे ही निचली अदालत के जज ने यह फ़ैसला सुनाया। ढाई साल की बेटी को गोद में लिए बैठी मोहिनी देवी की आंखों से ख़ुशी के आंसू लुढ़क पड़े।

तारीख़ पर तारीख... गवाही पर गवाही। पूरे पांच वर्षों के बाद यह मौका आया, जब न्याय की जीत हुई थी। शुरु में तो थाना ही केस नहीं ले रहा था। उस पर जांच रिपोर्ट बेहद धीमी रही। बीच-बीच में उन्हें ना जाने कितनी बार धमकी मिली, केस उठाने के लिए। वकील मुकर गए। लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी। हालांकि उसके पति डॉ. नील रंजन के सहयोग के बिना यह केस जीत पाना नामुमकिन था।

उसके सिर से मां-बाप का साया उठ चुका था। अदालत का चक्कर लगाते-लगाते, कब उसे बीमार पिता की मौत के लिए जिम्मेवार आदमी से ही प्यार हो गया? कब उसने शादी भी कर ली। और डॉ. रंजन के रूप में एक अच्छा पति मिल गया, पता ही नहीं चला।

वह भावुक होकर आगे बढ़ी और उनके कंधे पर सिर टिका फ़फ़नाकर रो पड़ीं। उन्होंने उसकी पीठ पर थपकी देते हुए बस इतना ही कहा, "Control yourself... और वह मानो भूतकाल की यादों में खो सी गई। ज़ेहन में एक-एक दृश्य फ़िल्म की तरह घूमने लगे।

उस बड़े अस्पताल के पार्किंग जोन में काले रंग की ह्युंडई क्रेटा कार जैसे ही रुकी। दाहिने साइड से दरवाजा खोलकर एक युवती उसमें से उतरी। उसने चेहरे का मॉस्क ठीक करते हुए अस्पताल के लोगो पर गौर किया। Z CARE Multispeciality, यहीं नाम था।

अगले ही पल उसने कार की पिछली सीट पर बैठे बुजुर्ग पिता को सहारा देते हुए बाहर निकाला। उन्हें सहारा देते हुए साथ लेकर चल पड़ी। अस्पताल में वेटिंग हॉल की कुर्सी पर उन्हें बिठाकर, रिसेप्शन के पास गई।

उसने ध्यान दिया कि काउंटर पर बैठी गोरी-चिट्ठी बेहद सलीके से बात कर रही थी। उसकी आवाज़ मानो कानों में शहद घोल रही थी।

"Myself is mohini chauhan from saket. I want to enroll Dad as a corona patient.", उसके कहते ही रिसेप्शनिस्ट ने जवाब दिया, "Ya, Miss Mohini the patient has been tested ever?"

रिसेप्शन के सवाल पर उसने जांच रिपोर्ट देते हुए कहा, "जी एक सप्ताह पहले जांच की रिपोर्ट पॉजिटिव आई थी। डॉक्टर ने घर पर ही क्वारेंटाइन में रहने की नसीहत दी थी। पहले बुखार और खांसी की समस्या थी। लेकिन सुबह से उन्हें सांस लेने में परेशानी है।"

"It's ok, रिपोर्ट के मुताबिक आपके पापा की उम्र 65 वर्ष है। पहले से डायबिटीज और हाई ब्लड प्रेशर के मरीज़ भी हैं। इन्हें जल्द से जल्द आईसीयू में शिफ़्ट करना होगा। फ़िलहाल आप छह नम्बर काउंटर पर तीन लाख रुपए जमा करा दें।" उसका कहे के मुताबिक़ वह काउंटर पर गई और वहां बैठे युवक के पास एक लाख रुपए जमा कराए।

"बाकी के दो लाख रुपए खाते में ट्रांसफर कर देती हूं।" उसने एकाउंटेंट से कहा। इस पर उसने तपाक से बोला, "सॉरी मैडम, कोरोना के चलते अभी ऑनलाइन ट्रांजक्शन की सुविधा बंद है। पूरी रक़म आपको कैश में ही देने होंगे। और हां, यह सिक्योरिटी राशि है। इसके अलावे रोज़ाना के खर्च का बिल अलग से भरना होगा।"

मोहिनी उसकी बातों से चिढ़ सी गई। वह ख़ुद ही रिटायर्ड आय कर अधिकारी की इकलौती बेटी थी। फिनांस से एमबीए भी कर रही थी। इतनी समझ तो थी ही कि अस्पताल प्रबंधन नक़द राशि की मांग क्यों कर रहा है। लेकिन कर भी क्या सकती थी, कोई और दिन होता तो इनकम टैक्स विभाग के नियम-कानून का हवाला भी देती। उसने बहस का इरादा बदलते हुए कहा, "कैश के लिए तो बैंक जाना होगा। आप मरीज को भर्ती कर लीजिए। मैं कुछ देर में ड्यूज रुपए जमा कर देती हूं।"

यह सुन युवक ने मानो मौन सहमति जताई। उसने प्रिंटर से बिल निकाला। उसे पलटा और पिछले भाग पर कलम से बकाया राशि लिखकर थमा दिया। मरीज़ को 99 नम्बर बेड मिला था। उन्हें स्ट्रेचर के सहारे दूसरे तल्ले पर ले जाया गया। मोहनी आईसीयू कक्ष के ठीक सामने बाहर एक बेंच पर बैठ गई। करीब 20 मिनट बाद भीतर से एक डॉक्टर निकले। पीपीई किट से उनका पूरा शरीर ढका था। उसे वे बिल्कुल एलियन की तरह लगे। एप्रोन पर एक छोटा से नेम प्लेट दिखा, जिस पर लिखा था करण सैनी।

डॉक्टर ने उसकी तरफ़ देखते हुए कहा, 'आप मिस्टर अरुण चौहान..?'

"जी सर मैं उनकी बेटी हूं।' यह सुन वे बोले, "ऑक्सीमिटर में आपके डैड का ऑक्सीजन लेबल 88 बता रहा है। इसीलिए परेशानी बढ़ी है। लेकिन घबड़ाने की बात नहीं है हमने ऑक्सीजन लगा दिया है।"

"डॉक्टर साहब, पापा ठीक हो जाएंगे न?", यह कहते हुए वह भावुक हो गई। उसकी आंखें ढबढ़बा चली थीं।

उन्होंने भांप लिया कि वह कुछ-कुछ नर्वस हो चली थी। बोले, "अरे बिल्कुल ठीक हो जाएंगे, You are a bravo girl, take care yourself!"

उनके जाते ही वह बैंक के लिए निकली। चेक से रुपए निकाला और काउंटर पर जमा करा आई। वापस फिर से बेंच पर बैठ गई। दिल बहलाने के लिए मोबाइल चलाने लगी। जाने क्यों, उसे फेसबुक, व्हाट्सएप्प, इंस्टाग्राम सारे बोरिंग लग रहे थे। और अंजाने भय से दिल बैठा जा रहा था। तभी उसे आईसीयू में एक और स्ट्रेचर जाता दिखाया दिया। वार्ड बॉय उसे धक्का लगाते आईसीयू कक्ष की ओर मुड़ गए। उस पर एक नौजवान लेटा हुआ था।

आज उसे महसूस हो रहा था। अस्पताल में आकर क्यों समय थम सा जाता है। वह टहलते हुए टाइम पास करने लगी। हर दफ़े नजरें दीवार घड़ी पर चली जातीं। चार... छह फिर शाम के आठ बज गए थे। तभी अंदर से एक अन्य डॉक्टर के साथ डॉ. करण भी निकले।

वे उससे मुख़ातिब होते हुए बोले, "मोहिनी मेरा शिफ़्ट अब ख़त्म हो रहा है। ये डॉ. नील रंजन हैं। अभी से लेकर सुबह तक पेशेंट के केयर में यहीं रहेंगे। आप इनसे कांटेक्ट नम्बर ले लीजिए। रात में कभी भी पापा का हालचाल ले सकती हैं।"

उसने मोबाइल में नंबर सेव किया। याद आया, फ्लैट पर अकेली मां बेसब्री से इंतज़ार कर रही होगी। उन्हें भी हार्ट डिजीज की दवा देनी है। वह सीधे घर के लिए निकल पड़ी। घर पहुंचकर रात के साढ़े बारह बजे, उसने डॉक्टर के पास फ़ोन कर पापा की ख़ैरियत पूछी। संतोषजनक जवाब सुन राहत मिली, वह सो गई।

इधर 10 मिनट के बाद ही डॉक्टर का मोबाइल फिर बज उठा। देखा, अस्पताल के संचालक डॉ. आशीष अरोड़ा का फ़ोन था।

कॉल रिसीव करते ही आवाज़ आई, "हैलो, डॉ. रंजन!"

"हां सर बोलिए।"

"पेशेंट नम्बर 100 की क्या स्थिति है?"

"जी वह पहले से ही Mild अस्थमा का मरीज़ है। कोरोना को लेकर उसकी तकलीफ़ शारीरिक से ज़्यादा मानसिक है। उसने सांस लेने में थोड़ी परेशानी ज़ाहिर की थी। ऑक्सीजन लेबल चेक किया तो 90 बता रहा था। अभी उसे मैंने इनहेलर दिया तो 95 पर आ गया है।"

"ठीक है उसे ऑक्सीजन लगा दो।"

"लेकिन सर, अभी उसे वेंटिलेशन की जरूरत नहीं है। वैसे आपको सूचना तो मिली ही होगी। अस्पताल में गैस सिलिंडर ख़त्म है। एजेंसी वाले ने सुबह में डिलिवरी के लिए बोला है।"

"यार, बात समझा करो। वह केंद्रीय मंत्री के साले का लड़का है। कुछ देर पहले उसने फ़ोन कर घर वालों से समस्या सुनाई थी। मंत्री जी का भी दो बार फ़ोन आ गया। यदि कुछ ऐसा वैसा हो गया तो कई तरह की जांच बिठा देंगे। समझो, अस्पताल सील ही हो जाएगा। इससे पहले कि किसी रसूखदार की नाराज़गी झेलनी पड़े। हमें थोड़ा भी रिस्क नहीं उठाना है।"

"वो तो ठीक है सर। लेकिन एक्स्ट्रा सिलिंडर किधर से लाएं?"

"अच्छा, ये बताओ आईसीयू में भर्ती सबसे उम्रदराज मरीज़ कौन है?"

उन्होंने रजिस्टर की पड़ताल करते हुए बताया, "99 नम्बर बेड वाला मरीज़ 65 साल का है। अरुण चौहान नाम है। लेकिन सर उनकी स्थित गंभीर है। ऑक्सीजन का लेबल..." इससे आगे वे कुछ बोलते कि उधर से फ़रमान मिला, " No if and but, मुझे कुछ नहीं सुनना। वहीं सिलिंडर लगा दो। और यह बात किसी को भी पता नहीं चले, इसके लिए काम तुम्हें ख़ुद से करना होगा। मैं उस कमरे का सीसीटीवी कैमरा बंद करने के लिए बोल देता हूं।"

"सॉरी सर, लेकिन मुझसे यह नहीं हो सकेगा।"

उसका दो टूक जवाब सुनते ही उन्होंने धमकी भरे लहज़े में कहा, "रंजन तुम्हारे करियर की अभी शुरुआत है। जज़्बात में बहकर ना तो तुम्हारा ही भला हो सकेगा, न हमारा। मैंने तुम्हें जॉइन करने के पहले दिन ही शर्तें सुना दी थी। अस्पताल में काम से काम मतलब रखना होगा। प्रबंधन के आदेश का पालन हर हाल में करना होगा। अन्यथा दूसरा रास्ता सोच लो..." इसी के साथ फ़ोन कट गया।

बॉस की बात सुनकर उनका मूड ऑफ हो गया। करीब 15 मिनट तक वे माथापच्ची करते रहे। कुछ देर तक दिल और दिमाग की ज़ंग चली, जिसमें निश्चित तौर पर स्वार्थ की जीत हुई। उन्होंने दिल को मजबूत करते हुए इधर-उधर चोर नज़रों से देखा। वार्ड में 10 मरीज़ भर्ती थे। सभी बेड पर आराम की मुद्रा में थे। उन्होंने वृद्ध के मुंह से ऑक्सीजन निकाला। और सिलिंडर का कैप बदलकर युवक के मुंह में लगा दिया।

आधे घण्टे बाद उनका ध्यान गया कि मिस्टर चौहान मुंह से सांस खींचने का प्रयास कर रहे थे। वे कुछ बोलना भी चाह रहे थे। लेकिन उनकी हलक से आवाज़ नहीं निकल पा रही थी। ये सब देखते हुए भी डॉ रंजन को मानो काठ मार गया था। दो घण्टे तक छटपटाने के बाद मरीज़ की बॉडी शांत पड़ गई।

उन्होंने बेड के पास जाकर स्टेथोस्कोप से जांच की। बुदबुदाते हुए बोले, Oh god, patient is no more...!"

सुबह में फ़ोन पर सूचना मिलते ही मोहिनी अस्पताल में भागी आई। रिसेप्शन के पास उसे बताया गया कि काउंटर पर दो लाख रुपए जमा करा दें। फिर शव को अंतिम संस्कार के लिए ले जा सकती है। अब तक उसके सब्र का पैमाना टूट चुका था।

"जितने चाहो उतने रुपए दूंगी लेकिन क्या मेरे पापा को जिंदा कर सकते हो? बोलो, जो इंसान रात के साढ़े बारह बजे तक ठीक था। वह एकाएक कैसे डेथ कर गया?" वह गुस्से में कांपते हुए चिल्लाने लगी।

हॉल में मौजूद अन्य मरीज़ों के परिजनों का ध्यान उसकी तरफ़ चला गया। वह अपनी पूरी रौ में गला फाड़कर चीखे जा रही थी, "What the hell Yaar, तुम सब अपना ज़मीर बेंचकर मौत के सौदागर बन गए हो! जिसे पैसे के आगे किसी के जान की ज़रा भी परवाह नहीं! लेकिन याद रखना, एक दिन भगवान भी तुम्हारे साथ ऐसा ही बुरा करेंगे।"

तभी उसे डॉक्टर नील रंजन दिखे। उनकी ओर देखते हुए रुंधे गले से बोली, "डॉक्टर आप तो थे वहां। बताइए क्या हुआ। वरना मैं कह देती हूं, सबको अदालत में घसीटकर ले जाउंगी, देख लेना!" इतना कह वह बिलखकर रोने लगी।

वहीं डॉ. रंजन को अपनी करनी पर ग्लानि हो रही थी। लग रहा था कि धरती फटे और उसमें समा जाएं। देश के प्रतिष्ठित मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस फिर एमडी किए। उसके बाद उन पर सफ़लता का जुनून इस क़दर सवार हुआ कि सारे संस्कार ही भूल गए। बिहार के चम्पारण के जिस छोटे से गांव में पले बढ़े थे। वहां मानवीय मूल्यों की हिफ़ाजत करने की सीख दी जाती है। ये ख़्याल आते ही उनकी सोई मानवता जाग उठी।

वे मन ही मन प्रयाश्चित का प्रण लिए और उंची आवाज़ में बोले, "सच में यह अस्पताल लूटेरा है मोहिनी। तुम्हारी पापा की मौत का मैं भी कसूरवार हूं। इसके लिए जो चाहे जो सज़ा दो, मुझे मंजूर है। लेकिन इतना जान लो कि मुझे ऐसा करने के लिए मजबूर किया गया था।"

"किसने मजबूर किया था?", उसने सिसकते हुए पूछा।

"अस्पताल के संचालक डॉ. अरोड़ा साहब ने।"

"मैं थाने में इसकी शिकायत करूंगी। क्या आप गवाह बनोगे?"

"बिल्कुल, तुम रिपोर्ट दर्ज कराओ, मैं गवाही दूंगा। तुम्हारे पापा दोबारा जिंदा तो नहीं हो सकते। लेकिन शायद न्याय मिलने के बाद उनकी आत्मा को कुछ सुकून मिल सके।" इसके बाद दोनों के क़दम पुलिस स्टेशन की ओर थे।

"चलो सर, आपका समय पूरा हो गया है। कैदी वैन आपका इंतज़ार कर रही है।", यह कहते हुए कांस्टेबल ने डॉ. रंजन के हाथ में हथकड़ी डाल दी। उसकी आवाज़ सुन जैसे मोहिनी की तंद्रा टूटी। वह फिर से रोने लगी।

"ख़ुद को संभालो मोहिनी, बस 30 दिनों की तो बात है। यूं गया और यूं आया। हमारा सबसे अनमोल तोहफ़ा तो तुम्हारे पास ही है। इसका ख़्याल रखना।", यह कहते हुए उन्होंने कोरे में बच्ची को लेकर बड़े प्यार से उसका माथा चूमा और कांस्टेबल के साथ चल दिए।

©️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)


01 August, 2020

कहानी - अवसर

पिछले एक सप्ताह से मौसम खराब था, इस कदर कि खुलने का नाम ही नहीं ले रहा था। और आज तो हद हो गई थी, सुबह से मूसलाधार बारिश हो रही थी। कोसों तक सरेह में पहले से ही लबालब पानी भर गया था। इलाके में आए दिन किसी न किसी के डूबने की सूचना अखबारों में छपी रहतीं। लेकिन बच्चे मछली मारने या नहाने का मोह नहीं छोड़ पा रहे थे।

इधर नदी के मुख्य बांध टूटने की आशंका को सुनकर झबुआ पंचायत के निवासियों में दहशत भर गई थी। दो हजार की आबादी वाले इस गांव में किसानों और मजदूरों की बहुलता थी। हालांकि गांव के अमीर लोगों का सुबह से ही शहर में स्थित डेरे पर या रिश्तेदारों के यहां पलायन जारी था। ख़ासकर महिलाएं व बच्चे बाहर भेजे जा रहे थे। वहीं दो मंजिले घरवाले उपर में शरण लेने के लिए तैयारी कर लिए थे। राशन, पीने का पानी, गैस चूल्हा, बखारी के अनाज आदि सब स्टॉक कर लिए गए।

लेकिन जिनकी फुस की झोपड़ियां थीं, उनमें से अधिकांश में सामने दुविधा की स्थिति हो चली थी। क्या करें क्या न करें? जलावन, राशन, बकरियां, मवेशियां लेकर कैसे जाएं? ख़ुद तो कुछ भी खाकर जी लेंगे। लेकिन मवेशियों का चारा कहां से आएगा? किसी को बखारी के गेंहू और मक्का बेंचकर महाजन के कर्ज चुकाने थे। तो किसी को बेटी की शादी के लिए जोगाकर रखे गए पुराने धान को बचाने की चिंता खाए जा रही थी।

इसी उधेड़बन में अधेड़ रिखिया देवी मड़ई के नीचे प्लास्टिक बांधकर ओरियानी ठीक कर रही थी। कई वर्षों से छानी की मरम्मत नहीं होने के कारण खर-पतवार सड़ चुके थे। घर में इस समय कोई था भी नहीं। बेटी की शादी पिछले वर्ष ही कर चुकी थी। पति और दोनों बेटे केरल के ऑयल मिल में कमाने गए थे। इसी साल होली में आए थे तो तय हुआ था। हर हाल में बैशाख में घर की नींव पड़ जाएगी। लेकिन कोरोना के कारण लॉकडाउन में उधर ही फंस गए।

तभी पट्टीदारी की पोती ने आकर पूछा, "का आजी, इहवां से चले के नइखे। चारु ओर हाला बा राति के बान्ह टूट जाई।"

"ना रे बुचिया अब कहवां जाइल जाई। हर साल त इहे खेला बा। बिगु के पापा से फोनवा प बात भइल ह। कहले ह आजु भर देख लेवे के। तोहनी के का प्रोग्राम बा?"

"हमनी के त मामा किहां जात बानी स। गाड़ी आ गइल बा। पापा जी मालन के लेके बान्ह प चल जइहे। उहे सिरकी तनाई।"

"आछा! हमहु खाए पिए वाला सामान मचानी प रख देले बानी। ई ना कह$ तिनु बकरियां पहिलही बेंचके हटा देले बानी। आजु मचाने पर हमहु सुतेम।"

इधर बांध पर अचानक से एक जगह रिसाव होने लगा। ग्रामीणों के साथ ही प्रशासन के लोग तमाम इंतजाम में जुटे थे। सीमेंट के बोरे और पत्थर फेंके जाते लेकिन तेज़ धार में विलीन हो जाते। फ़फ़नाकर बहती नदी को देखकर सबके रोंगटे खड़े हो जाते। सारे उपाय व्यर्थ थे और कटाव बढ़ता जा रहा था। ठीक रात के डेढ़ बजे बांध टूट चला। जबर्दस्त शोरगुल मचा। सभी कोई आंखें मूंदे हाथ जोड़कर भगवान को गुहारने लगे। उनकी जुबान पर बस यहीं अरदास थी, "हे गंगा मईया हमनी प रहम करी।"

सुबह होते-होते बांध के उत्तर वाला क्षेत्र पांच किलोमीटर तक पूरा डूब चुका था। झोपड़ियों की बात कौन कहे एक तल्ला मकान तक डूब गए थे। कुछ ढह भी गए थे। जिधर नज़रें जातीं बस पानी ही पानी! इक्के-दुक्के गाय, भैंस और बकरियों के मृत शरीर भी उपलाते दिख रहे थे। इसे देख लोगों का कलेजा फटा जा रहा था। बाढ़ में महज़ घर, अनाज और पालतू मवेशी ही नहीं। जाने कितने लोगों के अरमान और सपनें बह गए थे। पूरी गृहस्थी बर्बाद हो चली थी। जिसे संवरने में अब शायद वर्षों लग जाएं।

नेताद्वय, मीडियाकर्मियों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का आना जारी था। सत्ता पक्ष के लोग इसके लिए नेपाल-चीन की मिलीभगत और भारी बारिश को जिम्मेवार ठहरा रहे थे। वहीं विपक्षी इसका पूरा ठीकरा सरकार पर फोड़ रहे थे। यह सवाल उठाते हुए कि क्षतिग्रस्त बांध की वर्षों से मरम्मत क्यों नहीं की गई? बांध की रखवाली के लिए चौकीदारों की बहाली क्यों नहीं की गई? यह जानते हुए भी कि हर वर्ष बाढ़ आना यहां की नियति है, प्रशासन ने समुचित तैयारी क्यों नहीं की? आरोप-प्रत्यारोप का दौर जारी था।

कुछ उत्साही युवक चुड़ा-मीठा बांटने में व्यस्त दिख रहे थे। हालांकि बाढ़ पीड़ितों की मदद में आए सभी किसी में एक बात सामान्य थी। कोई ठेहुने भर पानी में खड़े होकर  तो कोई नाव पर बैठे हुए मोबाइल से फ़ोटो जरूर खिंचाता। मानो फेसबुक, इंस्टाग्राम और व्हाट्सएप्प पर सेल्फी डालने का होड़ लगा हुआ था। वहीं प्रशासनिक अधिकारी और संवेदक पूरे मन से आपदा को अवसर के रूप में भुनाने का तिकड़म भिड़ा रहे थे।

गांव का शिव मंदिर सबसे ऊंची जगह पर था। उसी के अहाते में लंगर शुरू कर दिया गया। यहां सुबह और शाम पीड़ितों की जमकर भीड़ उमड़ती। पेट की भूख यह तय करने में असफल थी कि पनटिटोर दाल और पनछुहर सब्जी का स्वाद कैसा है? ना ही मोटे चावल से बने भात की अज़ीब सी बास नथुने में प्रवेश कर पाती थी। और दिन होता तो कितने को उबकाई आने लगती। लेकिन फ़िलहाल तो हर कोई निवाले को बस उदर में ठूंसे जा रहा था।

आख़िरकार आदमी के एक वोट की कीमत इससे ज़्यादा हो भी क्या सकती थी? सत्ताधारी भी तो अच्छी तरह से समझते हैं कि जनता की याददाश्त बेहद कमजोर होती है। जो थोड़े से राशन और कुछ हजार रुपए अनुदान की लालच में सबकुछ भूल जाती है। बांध टूटे दूसरा दिन हो चला था। डूबे हुए मवेशियों के शव और अनाज सड़कर बदबू उठाने लगे थे।

एनडीआरफ की टीम मोटर बोट से घूम-घूमकर बचाव अभियान में लगी थी। कहीं-कहीं पेड़ों या घर की छतों पर फंसे लोग मिल जाते। इसी दौरान टीम को दूर सरेह में कोई आकृति उतराती दिखी। वे बोट को क़रीब ले गए। वो एक महिला का शव था। जिसकी कमर में स्टील की छोटी सी पेटी बंधी थी। मालूम पड़ता था पेटी को कमर में बांधकर सोते हुए बाढ़ की चपेट में आ गई होगी। शव को उठाकर वोट पर लाद दिया गया। और बांध के किनारे वाली सड़क के पास लाकर उतारा गया।

एक वृद्ध ने उसकी पहचान की। अचरज़ से बोल पड़े, 'अरे ई त सुकई महतो के जनाना रिखिया हिय$! हे भगवान बहुते जिद्दी रहे। केतना समझावल गइल मने घरे से ना निकलल।"

कुछ देर में ही पेटी का ताला तोड़कर खोला गया। उसमें सिन्होरा, दो हजार रुपए, बेटे और पति का फ़ोटो रखा था। यह देख वहां उपस्थित महिलाओं और पुरुषों की आंखें नम हो गईं। क्योंकि मरकर भी वह सुहाग की अंतिम निशानी बचाने में सफल रही थी।

©️®️श्रीकांत सौरभ (नोट - यह कहानी, पूरी तरह काल्पनिक है। इसमें ज़िक्र किए गए जगहों और पात्रों के नाम की, किसी भी जीवित या मृत व्यक्ति से समानता संयोग मात्र कही जाएगी।)