18 January, 2013

सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है

दो लफ्जों की है अपनी कहानी, या तो मोहब्बत या है जवानी. जवानी यानी जीवन का वह खूबसूरत दौर. जब हर युवा की चाहत होती है, किसी को अपना बना लेने की. या फिर किसी के दिल में बस जाने की. भले ही आज मेरी शादी के दो वर्ष गुजर गए. पर आज भी मुझे गर्व है कि एक वक्त मैंने भी किसी से प्या...किया था. ये अलग बात है कि कुछ समय बाद एक खुशनुमा मुकाम पे पहुँच, मैंने उससे ब्रेक अप कर लिया. इस गाने के तर्ज़ पर कि 'प्यार को प्यार ही रहने दो, इसे रिश्ते का इलज़ाम ना दो.' 

 ये तो रहा उस उम्र का एहसास जिसमें कुछ हकीकत है, कुछ फ़साना. एक कोरी कल्पना, मृगतृष्णा व अनबूझी बेचैनी सी जेहन में समाई रहती है. ख्यालों में जीना और हर घड़ी किसी का इंतजार. एक ऐसी तलाश जो कभी पूरी ही ना हुई. उम्र के एक खास मोड़ पे अधिकांश लोगों का पाला इससे कभी ना कभी पड़ता ही है. लेकिन आज एक विवाहित के तौर पर इतना तो आत्मविश्वास के साथ कह ही सकता हूँ. कि सच्चा प्यार केवल पत्नी ही कर सकती है. और समर्पण भी. 

जाने क्यों लोगों में यह धारणा आम है कि शादी का लड्डू जो खाए वो भी पछताए, जो ना खाए वो भी. क्योंकि शादी दो जोड़ों का मिलन भर नहीं है. ना ही दो प्राणियों का रिश्ते में बंध जाना. यह पूरी तरह से दर्शन, अध्यात्म, व संस्कार है. इसकी गहराई जीवन के अंतिम पड़ाव  में समझ में आती है. यानी नितांत अकेलेपन की वह बेला, जब सबसे ज्यादा किसी के साथ की जरूरत होती है. मैं तो कहूँगा कि बिना शादी हर स्त्री-पुरुष का जीवन अधुरा है. इस तथ्य से आपको असहमत होने का पूरा अधिकार है. बशर्ते आप शादी-शुदा हों.

17 January, 2013

रूकती सांसे सांसें... थमते नब्ज... और झूठा दिलासा

जिंदगी तो बेवफा है... एक दिन ठुकराएगी, मौत दिलरूबा है यारों संग लेके जाएगी...! मौत यानी जिंदगी का सबसे भयावह क्षण. खासकर अल्प आयु में किसी अपने के जाने की कल्पना से ही लोग सिहर जाते हैं. इसकी संवेदना व गहराई वही समझ सकता है, जिसके सामने उसका करीबी या परिजन गुजरा हो.

...और जिसने इस नाजुक पल को जिया हो. क्या...ह्रदय विदारक दृश्य होता है वह! जब जिंदगी से जद्दोजहद कर रहा कोई अपना घड़ी दर घड़ी मौत के आगोश में जाने को बेताब हो.

अधखुले मुंह... रूकती साँसे...थमते नब्ज...शून्य में पथराई आँखें. जिंदगी है कि साथ नहीं छोड़ना चाहती. और मौत साथ ले जाने को बेताब. समीप बैठे परिजनों का दिल भी अनहोनी की आशंका से बैठा जाता है. आशा-निराशा के जबरदस्त उधेड़बुन में फंसे सभी एक-दूसरे को देते कोरी संतावना.

इस बेबसी व लाचारी के बीच एक झूठा दिलासा भी कि...कुछ नहीं हुआ है. सब ठीक हो जाएगा. फिर इसी रस्साकशी में आत्मा शरीर का साथ छोड़ जाती है. मचती है ख़ामोशी को चीरती अपनों की चीख-पुकार. कुछ दिल से रोते हुए व कुछ समाज को दिखाने के लिए. कुछ न चाहते हुए भी गमगीन माहौल की वजह से आंसू ढलका ही देते है. क्योंकि यह सनातनी परम्परा है. 

16 January, 2013

धंधा चमकाने को लेबल बूरा नहीं है!

अखबार में बतौर स्टिंगर कुछ अच्छा लिख कर बाईलाइन खबर छपवाने की सनक. यानी कि ऐसी बीमारी जिसका इलाज बेहद महंगा है, जबकि तरीका उतना ही घटिया. खासकर कस्बाई क्षेत्र से रिपोर्टिंग कर रहे हो तब. भगवान ना करें किसी को छपास का रोग लगे. वरना शीशी में करुआ तेल लेके हर वक्त हथेलियों को मालिश के लिए तैयार रखना होगा. इस पर भी छपने की गारंटी नहीं रहती. क्योंकि 'हर शाख पर उल्लू...' वाली कहावत सुने हैं ना. 

और अख़बार के मुफसिल मॉडेम केन्द्रों की बात ही न पूछिए. यहाँ तो अच्छी से अच्छी खबरों को भी बेदर्दी से काट-छांट कर लगाने या एकदम से दबाने की ओछी परम्परा तो दशकों से चली आ रही है. हाँ कभी-कभी उदार प्रवृति के सरोकारी सोच वाले प्रभारी भी आते हैं. जो आपकी भावनाओं की कद्र करते हुए आपकी लेखनी को जगह देते हैं. लेकिन इनके जाते ही स्थिति जस की तस हो जाती है. 

वैसे धंधा चमकाने के लिहाज से खबरची का लेबल बूरा नहीं है. लेकिन टिकाऊ बने रहने के लिए रचनात्मकता को मारना ही पड़ता है. वरना ज्यादा लिखा-पढ़ी की, तो कई सारे साथी कलमची भी विकेट गिराने की हद तक दुश्मन बन जाते हैं. यह बात मैंने निजी अनुभव के आधार पर कही है. इससे आम सहमति अनिवार्य नहीं.